त्रिपुरी और उसके बाद / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
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सन 1939 ई. के मार्च में त्रिपुरी (महाकोशल) में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। उसके सभापति श्री सुभाषचंद्र बोस चुने गए थे। यद्यपि कांग्रेस की वर्किंग कमिटी या बड़े नेताओं ने लगातार ही दूसरी बार उनका सभापतित्व नापसंद किया और डॉ. पट्टाभि को उनकेविरोधमें खड़ा करके उन्हीं का समर्थन किया। फिर भी सुभाष बाबू जीत गए! यह देश के बड़े नेताओं का ज्वलंत अपमान था। इसे वे बर्दाश्त न कर सके और अंत में सुभाष बाबू इस्तीफा देने के लिए मजबूर किए गए। इसका घृणितम नाटक त्रिपुरी के पहले ही खेला जाना कैसे शुरू हुआ, त्रिपुरी में उसके कौन-कौन से बीभत्स कांड हुए और उसके बादकलकत्तेकी आल इंडिया कांग्रेस कमिटी में तथा पहले क्या-क्या षडयंत्र किए गए यह मैं निकट से देख चुका हूँ। राजनीतिक गंदगी में बड़े-से-बड़े नेता तक इतना नीचे उतर सकते हैं जब किगाँधी जी ने उस पर सत्य और अहिंसा की मुहर लगा दी है ऐसा माना जाता है, यह मैंने प्रत्यक्ष देखा। सो भीगाँधी जी का नाम ले कर ही ऐसा होते देखा!

जिस प्रकार हरिपुरा में कांग्रेसी मंत्रियों को बोलने का मुँह न रहा था; क्योंकि उनके कामों से सर्वत्र किसानों में तथा औरों में असंतोष की अग्नि लहक रही थी,इसीलिए राजनीतिक बंदियों की रिहाई का सवाल उठाकर सबों का ध्यान उसी ओर आकृष्ट किया गया और बिहार तथा युक्त प्रांत के मंत्रियों से इस्तीफे हरिपुरा के ठीक पूर्व दिलाकर गुत्थी सुलझाई गई। ठीक उसी प्रकार त्रिपुरी के पूर्व गाँधी जी के राजकोटवाले उपवास की रचना करवा के, या यों कहिए कि उसकी शरण ले के सुभाष बाबू को गिराने की कुचेष्टा की गई! गाँधी जी पर कांग्रेस का विश्वास हो, भला इस बात से कौन इनकार करे? और गाँधी जी तो वहाँ थे नहीं कि पूछा जाता कि आप सुभाष को चाहते हैं या नहीं? उसी बहाने से द्रविड़ प्राणायाम के रूप में सुभाष को फाँसी पर लटकाने का श्रीगणेश त्रिपुरी की मायापुरी में किया गया, जब कि वह शख्स 105 डिग्री के ज्वर से आक्रांत मरणासन्न वहीं पड़ा था! मेरे लिए यह असह्य दृश्य था। इसीलिए बंबई के बाद वही पहली कांग्रेस थी जिसमें मैं बिलकुल ही मौन रहा! कुछ साथियों ने भी मेरी यह मनोवेदना समझी थी।

बात यह है कि त्रिपुरी से पूर्व सुभाष बाबू से मेरी न तो बातचीत कभी थी और न परिचय। केवल हरिपुरा के भाषण ने मुझे उनकी ओर आकृष्ट जरूर किया था। जब देखा कि गाँधी जी और श्री बल्लभ भाई के गढ़ में उन्होंने किसान-सभा का अत्यंत स्पष्ट समर्थन किया और प्रगतिशील विचारों का भी। उनकी पूर्व प्रकाशित'इंडियन स्ट्रगल' (Indian Struggle) को पढ़कर कोई भी ताज्जुब कर सकता है कि गाँधीवाद औरगाँधी जी के विचारों और कामों का शुरू से ही कट्टर विरोधी होकर भी उनके गढ़ में वह शख्स कैसे राष्ट्रपति बन सका। विरोधियों ने जरूर ही उसका लोहा माना होगा।

लेकिन जब दूसरी बार उनके राष्ट्रपति होने की बात उठी तो मैं नहीं पसंद करता था। क्योंकि डरता था कि लगातार दो बार होने पर अवश्य गाँधी जी का जादू उन पर लगेगा। फलत: उनके पुराने विचार बदलेंगे, जैसा कि औरों के बारे में मैंने अनुभव किया है। मगर जब चुनाव के दो-चार ही दिन पूर्व किसान-सभा के ही काम से कलकत्ते गया और कुछ समाजवादी साथियों ने समझाया कि सुभाष के समर्थन में हार या जीत हर दशा में लाभ है, तो मैं मान गया। वहीं से लौटकर हमने और समाजवादियों ने वक्तव्य द्वारा केवल एक दिन पहले उनका समर्थन किया। उसके बाद जब वे जीते तो वही समाजवादी लोग नाचते रहे, सारी रात चैन नहीं लिया और न हमें लेने दिया। मगर फिर पीछे वही उनके सख्त विरोधी बन गए! पर, मुझे तो विरोध का कारण आज तक न मिल सका।

त्रिपुरी में उनकी भयंकर बीमारी के समय दो-एक बार उनसे बातें करने का जरा सा समय पहले पहल मिला था। मगर वह तो कुछ न था। इसलिए वहाँ जो मेरी मनोवृत्ति थी वह स्वाभाविक थी न कि उनकी घनिष्ठता के फलस्वरूप। सच बात यह है कि समाजवादी साथियों ने अंत में वहाँ जो रुख लिया और गाँधी जी पर विश्वासवाले प्रस्ताव का विषय समिति में विरोध कर के भी पीछे ऐसा न किया, वह चीज भी मैं आज तक समझ न सका। यह बात मुझे बुरी भी लगी। मगर मैंने अपना विचार वहाँ दबा रखा। प्रस्ताव के विरोध में वोट जरूर दिया। लोग जानते भी थे कि मैं उसका विरोधी हूँ। मगर किसी से भी विरोध में वोट देने को न कहा। इससे समाजवादी पार्टी में फूट होती और मैंने उसे उस समय बचाना चाहा। प्राय: दो-चार को छोड़ उस पार्टीवाले भी सभी के सभी बड़े ही क्रुध्द थे। मगर पीछे न जानें क्या समझ कर चुप रह गए। यह तो प्रकट सत्य है। अखबारों में सभी बातें छपी थीं भी।

त्रिपुरी में ही मैंने पहली बार कोशिश की कि सभी प्रगतिशील विचारवाले एक स्थान पर बैठकर कोई सम्मिलित कार्यक्रम बनाएँ। मगर वहाँ असफल रहा।फिर भी पहली बार यह प्रत्यक्ष देखा कि वामपक्षीय दल के लोग एक पार्टी के सदस्यदूसरीपार्टीवालों पर कितना अविश्वास करते हैं। वहीं यह भी देखा कि बड़े-से-बड़े नेता भीकिस प्रकार प्रतिनिधियों के कैंप में जाकर कनवांसिग करते थे! बुरी तरह बेचैन थे!

त्रिपुरी के अवसर पर कई दिन पहले ही मैं जबलपुर जा पहुँचा और कटनी, मंडला आदि में घूमा तथा सभाएँ कीं। मेरे साथी श्री इंदुलाल जी तो थे ही। वह तो पहले ही से वहाँ जा बैठे थे। वही तो किसानों की पैदल यात्रा और प्रदर्शन का प्रबंध कर रहे थे। सचमुच एक दिन तो जबलपुर के पास से त्रिपुरी तक हमें भी उसी दल के साथ पैदल जाना पड़ा। वह प्रदर्शन तो खूब ही रहा। पैदल दूर-दूर से किसान आए और जुलूस एवं प्रदर्शन शानदार रहा। झंडा चौक में सभा हुई। कांग्रेस के वालंटियरों ने हमारा साथ पूरा-पूरा दिया! कोई बाधा न रही। यह देख हमें खुशी हुई। न जानें क्यों ऐसा हुआ? शायद बाधा देने पर वे लोग न मानते। इसी से स्वागत समिति ने बुध्दिमानी की।

वहाँ के किसान कैंप में हमारी कई सभाएँ हुईं और हमने किसानों को पूरा-पूरा तैयार तथा अपने साथ पाया। महाकोशल में किसान-सभा की जड़ त्रिपुरी में ही पड़ी।

त्रिपुरी के बाद कलकत्ते में आल इंडिया कांग्रेस कमिटी का तमाशा देखा। वहीं अन्याय की चरम सीमा देखी। सुभाष बाबू ने राष्ट्रपति के पद से इस्तीफा दिया। यह बात हम पहले नहीं चाहते थे। मगर पीछे तो हमें भी उचित जँची। वामपक्षियों के सम्मेलन की एक कोशिश फिर वहाँ भी हुई। हमें लोग मिले भी। मगर फल कुछ संतोषप्रद न हुआ समाजवादी और कम्युनिस्ट दोनों ही संयुक्त वामपक्ष के विरोधी थे। यह बात हम समझ न सके।

त्रिपुरी के बाद रामगढ़ में इस साल कांग्रेस हुई। बिहार को छोड़कर छोटानागपुर में उसे करने का अर्थ हमारी समझ में नहीं आया! हम तो यही मानते हैं, जैसा कि अखबारों ने लिखा भी कि किसान-सभा के डर से ही वहाँ की गई। पटना, गया, सोनपुर आदि में तो कई लाख किसान जमा हो जाते और नेताओं की एक न चलती। हम जो कहते किसान वही करते। मगर छोटानागपुर के घोर जंगल में यह असंभव था। वहाँ के किसान अभी पूरे जगे नहीं हैं और दो-तीन सौ मील से लाखों का जाना आसान न था। फिर भी किसानों का प्रदर्शन तो रामगढ़ में भी अच्छा हुआ। हालाँकि बिहार के लिहाज से अच्छा नहीं कहा जा सकता। ऐसा क्यों हुआ यह कहनेको यहाँ मैं तैयार नहीं,हालाँकि जानता हूँ। बेशक हमारा जुलूस कांग्रेस के राष्ट्रपति के जुलूस से कहीं शानदार और लंबा था। कांग्रेस तो मेघ के कोप से असल में हुई ही नहीं और जो कुछ हुआ वह तो निरा तमाशा था। इसे सभी मानते हैं। इधर यह पहली ही कांग्रेस थी जिसके अंदर या कांग्रेस नगर में मैंने पाँवतक नहीं दिया।