त्रिभुज के कोण / सुकेश साहनी

Gadya Kosh से
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मिक्की बहुत उदास थी। उसकी आँखों के आगे से टॉफियों से भरेे पारदर्शक जार घूम रहे थे...उसने मम्मी से एक टॉफी ही तो माँगी थी...टॉफी देना तो दूर मम्मी ने एक तमाचा उसके गाल पर जड़ दिया था। मिक्की की डबडबाई आँखों से आँसू छलक पड़े। बालकनी से नीचे व्यस्त सड़क पर आते-जाते लोगों को हसरत भरी नजरों से देखते हुए उसने सोचा-कितने खुश हैं ये लोग! काश, वह भी इन 'बड़े लोगों' की तरह स्वतंत्र होता! ...तब वह ढेर सारी टॉफियाँ खाता...

श्यामलाल का दिमाग भन्नाया हुआ था। उसने दरवाजे पर अपने जूते की जोरदार ठोकर मारी। भिड़ा हुआ दरवाजा 'भड़ाक' की आवाज के साथ खुल गया। भीतर पहुँचकर उसने अपना बैग एक कोने में उछाल दिया और पलंग पर ढेर हो गया। उसके दिमाग की नसें तिड़तिड़ा रही थीं-सुबह से शाम तक इन भ्रष्ट-चरित्रहीन अफसरों के आगे दुम हिलाते रहो, उनके इशारे पर कुर्सी पर उठक-बैठक लगाते रहो, फाइलों में कलम घिसते-घिसते मर जाओ...फिर भी, इन सालों के नखरे नहीं उठाए जाते। ओफ...ये रोज-रोज की डाँट! काश, वह अफसर होता!

रसोई में सीमा बेहद डरी हुई थी। उसने धड़कते दिल से खौलते पानी में चाय की पत्ती डाली और सोचने लगी-आज भी 'मूड ऑफ' लगता है। दफ्तर का गुस्सा भी घर में पत्नी पर ही तो निकलता है। घर में एक चुटकी आटा तक नहीं है...कैसे कहूँ? कहीं चाय का कप ही उठाकर फेंक दिया तो? क्या करे? यह भी कोई ज़िन्दगी है! ...दिन-रात खटते रहो, रोटियाँ थापते रहो और सबसे डरते रहोे-सास से, ससुर से, पति से, देवर से और यहाँ तक कि नन्हें मिक्की से भी। काश, उसने पुरूष के रूप में जन्म लिया होता!

मिक्की की समझ में नहीं आया कि मम्मी रसोेई में खड़ी रो क्यों रही है। क्या उसके टॉफी माँगने से? वह अब कभी टॉफी नहीं माँगेगा।

"मम्मी, अच्छे बच्चे टॉफी नहीं खाते, है न? ...मुझे रोटी दे दो..." सीमा ने झुककर मिक्की को गले से लगा लिया। इस नन्हीं जान को कैसे बताए कि घर में आटा नहीं है।

"मिक्की बेटा!" तभी श्यामलाल की आवाज से सीमा और मिक्की दोनों चौंक पड़े-"मैं आटा लेने बाज़ार जा रहा हूँ...चलोगे?"

"हाँ पापा! पर...मैं टॉफी नहीं खाऊँगा।"

"हम तो अपने बेटे को टॉफी ज़रूर लेके देंगे।"

"टॉफी! ...ले देंगे!" मिक्की खिलखिलाकर हँस पड़ा। श्यामलाल और सीमा की नजरें मिलीं और वे दोनों भी हँस पड़े।