त्रिशा गुप्ता : काका मुताई और बूट पॉलिश / जयप्रकाश चौकसे

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त्रिशा गुप्ता : काका मुताई और बूट पॉलिश
प्रकाशन तिथि :18 जून 2015


त्रिशा गुप्ता अंग्रेजी में फिल्मों के बारे में लगातार अच्छा लिख रही हैं। कुछ दिन पूर्व वे इंदौर आई थीं परंतु उनके भाषण के बदले सवाल-जवाब के तौर-तरीके ने मंच को निष्प्राण कर दिया और इंदौर के फिल्म प्रेमी उन्हें सुन नहीं पाए। त्रिशा ने अपने कॉलम में लिखा कि तमिल में बनी बच्चों की फिल्म 'काका मुताई'(कौए का अंडा) कान फिल्म समारोह में सराही गई। इसी तरह साठ वर्ष पूर्व राज कपूर की 'बूट पॉलिश' में बेबी नाज को अभिनय के लिए प्रमाण-पत्र दिया गया था।

वह फिल्म भी 'काका मुताई' की तरह दो गरीब भाई-बहन पर केंद्रित थी। दोनों फिल्मों की कथा और प्रस्तुतिकरण में मात्र एक समानता है: करुणा के साथ हास्य का मिश्रण। दोनों के यथार्थवादी चित्रण में हास्य का स्पर्श पात्रों की वेदना से दर्शक की आंखें नम कर देता है। हास्य और करुणा के इस मिलाप को साहित्य व सिनेमा में अलसभोर कहते हैं, जिसमें हास्य व करूणा बहन-भाई से हो जाते हैं। 'काका मुताई' के भाई-बहन की महत्वाकांक्षा है पिज्जा खाने की, क्योंकि पिज्जा महिमा विज्ञापन शासित समाज में चहुं ओर गाई जा रही है परंतु मजेदार घटनाक्रम के बाद जब वे पिज्जा खाने में सफल होते हैं तब वह महिमा गान अर्थहीन लगता है। वे पिज्जा से निराश हैं और महसूस करते हैं कि पिज्जा की छवि और असल स्वाद में दिन-रात का अंतर है। आज का प्रचार तंत्र नोलन की फिल्म 'इन्सेप्शन' की तरह अवचेतन में भी पैठ सकता है गोयाकि सपने भी चुराये ही नहीं जा सकते वरन् अवचेतन में रोपित भी किए जा सकते हैं। अगर दो-चार सदी बाद इस कालखंड को जानने का एकमात्र स्रोत विज्ञापन रह जाएं, तो डिटर्जेंट के विज्ञापनों के कारण आकलन होगा कि भारत उन दिनों स्वच्छ देश था और कहीं गंदगी का नाम-ओ-निशान भी नहीं था।

बहरहाल, त्रिशा गुप्ता का कहना है कि चार्ल्स डिकेंस के प्रभाव में यथार्थवादी कथाओं का अंत परी-कथाओं की तरह सुखद होता है। "बूट पॉलिश' में राज कपूर अंत सोच नहीं पा रहे थे। उन्होंने राजिन्दर सिंह बेदी से पूछा तो उन्होंने कहा कि फिल्म का अंत पहले दिखाए एक दृश्य में छुपा है जब घनघोर बारिश में भाई-बहन के पेट में भूख का ज्वालामुखी धधक रहा है और सड़क पर पड़ी दुअन्नी ने उन्हें दुविधा में फंसा दिया है कि क्या भीख न मांगने का निर्णय और अनर्जित धन को न छूने की शपथ तोड़ दें तब कि तीसरा कोई सड़क पर पड़ी उस दुअन्नी को उठा लेता है। अंतिम दृश्य में जब बहन को गोद लेने वाले माता-पिता पहाड़ों पर ले जाने के लिए रेल्वे स्टेशन पर आए हैं, तब भाई के सारे वादे टूट जाते हैं। भूख उसे बर्दाश्त नहीं होती तो वह रंगीन फ्राक पहने एक अमीर लड़की से भीख मांगता है और लड़की के पलटने पर अपनी बहन को पहचान कर शर्मिंदगी के मारे भाग खड़ा होता है। एक सुखद अंत होता है। इस तरह के लाखों अनाथों के साथ एेसा नहीं होता परंतु वह नेहरू के समाजवाद और आशावाद का युग था।

राज कपूर भारत के सामूहिक अवचेतन को समझते थे। हमें नहीं भूलना चाहिए कि अनगिनत लोग सदियों से गरीब हैं और जीवन के असमान युद्ध में इन निहत्थे लोगों का एक मात्र सम्बल उनकी आस्था और आशावाद है। वे बेचारे तो यह भी नहीं जानते कि उनकी गरीबी विराट षड्यंत्र का हिस्सा है और यह उनके भाग्य का लिखा नहीं वरन् पूंजीपतियों की पटकथा है। उन्हें थोड़ी सी खुशी इस तरह का सिनेमाई आशावाद देता है। यह कहानी जबलपुर के एक लेखक भानु प्रताप की थी। राज कपूर के स्थायी लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास ने उनकी सभी फिल्मों में ठोस परामर्श दिए हैं। हर फिल्मकार की सृजन मिक्सी में अनेकों स्रोत होते हैं परन्तु मिक्सी से बाहर आए मसाले में उसकी अपनी महक होती है।बहरहाल, त्रिशा गुप्ता कहती हैं कि बूट पॉलिश के भोला के आत्म-सम्मान की भावना का असर लंबे समय तक रहा। गौर करें 'दीवार' में अमिताभ बच्चन का संवाद कि 'मैं फेंके हुए पैसे आज भी नहीं लेता'। यह भी गौरतलब है कि अहमदाबाद के एक भीख मांगने वाले बच्चे ने फिल्म देखकर "बूट पॉलिश' शुरू की और वर्षों 14 दिसंबर को वह राज कपूर से मिलने आता रहा।