थके पैरों का सफ़र / सुभाष नीरव

Gadya Kosh से
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शिवप्रसाद एकाएक बम की तरह फूट पड़े। क्रोध से उनका दुबला-पतला शरीर काँपने लगा। सामने, नीचे फर्श पर दीवार से पीठ टिकाये उनकी बेटी सुषमा जिसे वह प्यार से बिट्टी कहकर बुलाते थे, बैठी थी और उनके आगे किताबें-कापियाँ बिखरी पड़ी थीं। पापा का तमतमाया चेहरा और गुस्सा देख वह काँप गयी। दफ्तर से लौटे अभी उन्हें कुछ ही देर हुई थी। एकाएक उन्हें क्या हो गया, बिट्टी समझ नहीं पायी। पर, अधिक देर भी न लगी उसे, पापा के गुस्से का कारण जानने में। अब, वह अपना सिर घुटनों में छिपाकर रो रही थी।

पति के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ जब पत्नी के कानों में पड़ी तब वह रसोई में थी और उनके लिए चाय का पानी चढ़ा रही थी। दौड़ कर बैठक में आयी तो देखा, पति बेटी पर बुरी तरह गरज-बरस रहे थे।

“तो ये गुल खिलाये जा रहे हैं... पढ़ाई-लिखाई के बहाने इश्कबाजी हो रही है... प्रेम पत्र लिखे जा रहे हैं... क्यों, बोलती क्यों नहीं ?...” उनका जी हो रहा था, बढ़कर लगाएं दो-चार हाथ... लगा दें अक्ल ठिकाने... पर हाँफते हुए वह दूर खड़े-खड़े ही चिल्लाते रहे, “यही सब रह गया था देखने को !... बुढ़ापे में बाप की इज्ज़त को बट्टा लगाने जा रही है साहिबजादी...”

अब उन्होंने अपनी नज़रें बेटी पर से हटाकर पत्नी पर गड़ा दीं, “तुम्हें भी कुछ खबर है ?... क्या हो रहा है इस घर में !... क्या करती रहती हो सारा दिन ?”

पत्नी हक्का-बक्का थी। इससे पहले कभी उसने पति को इस प्रकार गुस्से में नहीं देखा था।

“बाहर के लोग जब थू-थू करने लगेंगे, तभी तुम्हें पता चलेगा। देखो... देखो, तुम्हारी लाडली बिटिया क्या गुल खिला रही है।” और उन्होंने कागज का एक पुर्जा पत्नी की ओर बढ़ा दिया।

स्कूल की कॉपी के लाइनदार पन्ने पर लिखा यह एक प्रेम-पत्र था जो शिवप्रसाद को उस वक्त हाथ लगा, जब वे बिटिया की एक किताब उठाकर, उसे यूँ ही उलटने-पलटने लगे थे। पत्र पढ़कर भीतर एक भभूका-सा उठा था आग का। गुस्सा काबू से बाहर हो गया था और वह बिट्टी पर बरस पड़े थे।

पत्र पढ़कर पत्नी भी आगबबूला हो गई। हे भगवान ! इज्ज़त मिट्टी में मिलने को तैयार है और वे बेख़बर है !... वह लड़की की ओर शेरनी की तरह झपटी। उसका दायां हाथ लड़की के खुले हुए बालों की ओर तेजी से बढ़ा। बालों के खिंचते ही लड़की की जारों से चीख निकल गई।

“सुबह-शाम श्रृंगार-पट्टी करने का राज अब समझ में आया। तभी कहूं, हर समय आईने के आगे से महारानी का मुँह हटता क्यों नहीं था।”

हाथ में लड़की के बालों का गुच्छा अभी भी था और लड़की अपने बालों को माँ के मजबूत हाथ से छुड़ाने का भरसक प्रयत्न कर ही थी।

“कमबख्त को ज्यादा ही जवानी चढ़ी है। इश्क का फितूर जागा है... जाने कब से चल रहा है यह नाटक !...” काफी देर तक पति-पत्नी दोनों बारी-बारी से लड़की पर बरसते रहे। शिवप्रसाद बन्द होते तो पत्नी शुरू हो जाती। कभी दोनों अपनी किस्मत को कोसने लगते। बड़ी लड़की की परेशानी अभी खत्म नहीं हुई, दूसरी एक और आफत खड़ी कर रही है– माँ बाप के सिर पर !


रात को काफी देर तक शिवप्रसाद सो नहीं पाए। बस, करवटें बदलते रहे। दिमाग में ढेरों बातों का जमघट मचा था। एक बात आती थी, एक जाती थी। कितना प्यार करते रहे हैं वह अपने बच्चों से ! बिट्टी से तो कुछ अधिक ही लगाव रहा है उनका! पर, उनके अधिक लाड़-प्यार का ही नतीजा है यह।

पास ही की चारपाई पर पत्नी भी रह-रहकर करवटें बदल रही थी। शायद, उसे भी नींद नहीं आ रही थी। शिवप्रसाद पत्नी की ओर करवट बदलकर धीरे से बोले, “जाग रही हो क्या ?”

“हूँ...।” पत्नी ने हुंकारा भरा।

“कौन है यह लड़का ?” शिवप्रसाद बेकल-से थे जानने को।

“अरे वही, दो नम्बर गली की लक्ष्मी का बेटा, जिसका पति पिछले साल एक्सीडेंट में मरा था।”

पत्नी का उत्तर सुनते ही शिवप्रसाद लेटे-लेटे जैसे एकदम से उछल पड़े– ‘ठाकुर की लड़की का नीच जात के लड़के से प्रेम !... हे भगवान... यही सब दिखाना था !’

फिर काफी देर तक न पत्नी बोली, न वे। एक सन्नाटा-सा तना रहा, दोनों के बीच। सन्नाटें की इस दीवार को तोड़ा पत्नी ने, बहुत देर बाद।

“मैं तो कहूं, जल्दी से कोई लड़का-वड़का ढूंढो इसके लिए। छुड़ाओ पढ़ाई-लिखाई और करो इसका भी ब्याह। कुछ न होने का इस बी.ए. फी.ए. से... लड़की हाथ से निकलती दीखती है।”

शिवप्रसाद कुछ नहीं बोले। सिर्फ़ सुनते रहे। उन्हें लगा, पत्नी ठीक कह रही है। लड़की का ब्याह कर देना ही उचित है। ज्यादा ढील बरती तो इज्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी। कहीं मुँह दिखाने लायक भी नहीं रहेंगे। आजकल लड़कियाँ क्या कुछ न करा दें...


अगले दिन ही, साल में कभी-कभार दो-चार रोज की छुट्टी लेने वाले शिवप्रसाद ने अपने दफ्तर में इकट्ठी पन्द्रह दिन की छुट्टी ले ली। लड़की के लिए लड़का ढूंढ़ना है तो घर से बाहर निकलना ही होगा। जात-बिरादरी में लड़का तलाशना कोई आसान काम है आजकल! बड़ी लड़की के लिए कहाँ-कहाँ मारे-मारे नहीं भटके थे। कभी उत्तर तो कभी दक्खिन... कभी पूरब तो कभी पश्चिम... जहाँ कहीं से कोई खबर मिलती, दौड़कर पहुँच जाते थे वहाँ। किन-किन रिश्तेदारों-संबंधियों के पास नहीं गए थे वह। अब फिर वैसी ही दौड़-धूप करनी ही होगी न !


और, पूरे पन्द्रह दिन उन्होंने दौड़-धूप की। यहाँ गए, वहाँ गए। इधर गए, उधर गए। सब तरफ दौड़े-भागे, जहाँ-जहाँ जा सकते थे, गए। लेकिन, इतनी दौड़-धूप के बाद भी तो कहीं बात बनती नज़र नहीं आ रही थी। कितने ही लड़के देखे। कभी घरबार ठीक नहीं, तो कभी लड़का नहीं जमा। जल्दबाजी में लड़की कुएं में तो नहीं धकेलनी है ! बड़ी लड़की की बारी कितना ठोक-बजाकर नाते-रिश्तेदारों से पूछताछ कर रिश्ता तय किया था। उस वक्त, वे लोग वैसे नहीं लगे थे। पचास हजार से बात चलकर पैंतीस हजार पर तय हो गई थी। पत्नी के पास जो थोड़े-बहुत गहने थे, सब तुड़वाकर बेटी के लिए नये बनवा दिए थे। उन्होंने अपने फंड से ‘फाइनल विदड्रॉ’ के रूप में पच्चीस हजार रुपया निकाला था। बाकी का चार रुपया सैकड़ा पर पकड़ा था जो अभी तक उतर नहीं पाया है।

शादी के दो-तीन माह बाद ही से लड़केवाले अपनी औकात पर आ गए थे। हर फेरे में लड़की से उम्मीद की जाती कि लौटते वक्त वह मायके से कुछ न कुछ साथ लाएगी। और फिर शुरू हो गया, कुछ न लाने की एवज में यातनाओं-प्रताड़नाओं का दौर... पिछले दो सालों में किस-किस तरह नहीं नोंचा गया उनकी बेटी को। पिछले कुछ महीनों से बेटी के लगातार दर्द-भरे पत्र आ रहे हैं उनके पास। आँसू भीगे बेटी के पत्र पढ़कर वे तिलमिला जाते हैं। भीतर-ही-भीतर जैसे कुछ टूटता चला जाता है, बेआवाज़। गुस्से में गालियाँ बकने लगते हैं वे– साले भेडि़ये ! पर वह खुद को बहुत असहाय पाते हैं। क्या कर सकते हैं ? कई बार जाकर खुद बात की। हाथ-पैर जोड़े... पर वे तो चिकने घड़े हैं, असर ही नहीं होता। उल्टा उनकी बेटी को और यातनाएं देनी प्रारंभ कर देते हैं। कमीने ! भुक्खड़ ! ये चाहिए, वो चाहिए... रुपयों का पेड़ लगा है हमारे घर में जैसे ! जब चाहा, चादर भर ली। हो जाती एकाध उनके भी बेटी तो पता चलता, पराई लड़की को नोंचने का...

कभी-कभी तो बहुत घबरा उठते हैं वे। कुछ पता नहीं, कल क्या हो जाए। अखबार पढ़ते हैं तो दहेज के लालच में बहू को जिन्दा जला दिए जाने की खबर उन्हें बुरी तरह कंपा जाती है। कहीं उनकी बेटी भी....

शादी-ब्याह के नाम पर खुलेआम व्यापार हो रहा है। लडकों के मनचाहे दाम लगा रहे हैं... पचास हजार... साठ हजार...सार हजार... सुनते ही शिवप्रसाद को पसीने छूटने लगते हैं। कहाँ से करेंगे वह इंतजाम इतने रुपयों का। रिटायर होने में पाँच-छह वर्ष हैं। कुछ सालों में तीसरी लड़की भी विवाह योग्य हो जाएगी। कौन देना इतना कर्ज। हे ईश्वर... गरीब को इस जमाने में लड़की न दे।


इस बीच, बिट्टी माँ को चकमा देकर दो बार अपने प्रेमी से मिल चुकी है। इस पर कमरा बन्द करके उसकी हड्डियाँ सेंकी हैं– डंडे से। लेकिन, लड़की अब ढीठ होती जा रही है। मार का उस पर जैसे कोई असर ही नहीं हो रहा है। कालेज जाना बन्द कर दिया गया है उसका। शिवप्रसाद के कहने पर पत्नी सारा दिन लड़की पर नज़र रखती है। वह क्या कर रही है, कहाँ देख रही है, क्या पढ़ रही है, पत्नी यह सब बड़े चौकस होकर देखती है। लड़की को भी माँ को तंग करने में मजा आ रहा था। अब वह जानबूझकर कभी इस कमरे में जाती तो कभी उस कमरे में। बाथरूम में घुसती तो घंटा-घंटा लगाकर बाहर निकलती। कभी घर से बाहर निकलकर खड़ी हो जाती और बेवजह ही मुस्कराने लगती। माँ भीतर ही भीतर तिलमिलाती रहती। बेटी की हरकतों से परेशान होती रहती और कलपती रहती। शिवप्रसाद दफ्तर जाने से पहले पत्नी को हिदायत देकर जाते और लौटकर दिनभर के किस्से पत्नी के मुँह से सुनकर परेशान और दुखी होते। इन दिनों उनका रक्तचाप भी बढ़ने लगा है। कल रात सोये-सोय उनकी आँखें खुलीं तो उन्होंने देखा, लड़की अपने बिस्तर पर नहीं है। वह उठे और पत्नी को जगाया। दोनों कमरे देखे, बाथरूम वैगरह देखा। लड़की कहीं नहीं थी। दोनों घबरा गए बुरी तरह। उन्हें अपनी इज्ज़त तार-तार होती नज़र आई। थोड़ी ही देर में लड़की पिछवाड़े से घर के अन्दर घुसी और चुपचाप अपने बिस्तर पर जाकर लेट गई। पति-पत्नी दोनों गुस्से में दांत पीसते रहे। लड़की को कुछ नहीं कहा उन्होंने। रात के समय शोर-शराबा करना उचित नहीं था। इसके बाद दोनों रात भर सो नहीं पाए। पूरी रात जागकर पहरा देते रहे।

शिवप्रसाद की परेशानी बढ़ती ही जा रही थी। हर समय वह खोये-खोये और परेशान से रहने लगे। दफ्तर में काम में मन न लगता। नतीजतन गलतियाँ होतीं और साहब से डांट-फटकार सुनते। घर लौटकर बात-बात पर पत्नी पर झुंझला पड़ते। कुछ भी खाने-पीने को जी न करता। भूख जाने कहाँ गायब होती जा रही थी उनकी। अव्वल तो उन्हें नींद ही नहीं आती, अगर आती भी तो बुरे-बुरे सपने आने लगते। सपने में कभी उन्हें दिखाई देता, उनकी बड़ी लड़की आग की लपटों से घिरी है और ‘बचाओ... बचाओ...’ चिल्ला रही है। वह सामने खड़े हैं और बेटी को बचा नहीं पा रहे हैं। कभी उन्हें दिखाई देता, वह जबरन बिट्टी की शादी कहीं और कर रहे हैं, बारात आने को है। सभी तैयारियाँ पूरी हो चुकी हैं... कि अचानक हाहाकार मच जाता है। उनकी बेटी पंखे से लटककर आत्महत्या कर लेती है। इस प्रकार के सपने देख वह घबराकर उठ जाते। उनका पूरा शरीर पसीने-पसीने हो जाता। फिर पूरी रात उन्हें नींद न आती। सांस तेज-तेज चलती रहती और वह उठ-उठकर पानी पीते रहते।


आज भी उनकी नींद आँखों से कोसों दूर है। उनकी सोच का पहिया तेज गति से घूम रहा है। क्या करें, क्या न करें की उधेड़बुन चल रही है उनके भीतर। वह देख रहे हैं कि लड़की बेशर्म होती जा रही है, दिन-ब-दिन। मोहल्ले में कानाफूसी शुरू हो गई है, उनकी बेटी को लेकर। जात-बिरादरी में लड़की की शादी करने की उनकी तमाम कोशिशें रेत की दीवारें साबित हो रही हैं। उनके बूते से बाहर है बिरादरी में शादी करना। अगर कर्जा पकड़कर कर भी दी तो क्या गारण्टी है कि बेटी सुखी रहेगी। तो क्या जात-बिरादरी से बाहर लड़की की शादी कर दें ?... उस नीच, गैर जात के लड़के से । लोग क्या कहेंगे ? नाक कट जाएगी बिरादरी में...सब थू–थू करेंगे। पर जात-बिरादरी में करने से भी तो क्या फायदा ?... बिरादरी में ही तो की थी बड़ी लड़की की शादी। इतना खर्च करके भी क्या मिला ?... सिवाय दुख और परेशानी के !

कहाँ चले जाते हैं सभी रिश्ते-नातेदार, जब लड़की को दहेज के लालच में तरह-तरह से परेशान किया जाता है, उसकी हत्या कर दी जाती है। या फिर आत्महत्या करने को विवश कर दिया जाता है। तब कहाँ होते हैं बिरादरी के लोग ? कौन साथ देता है तब आगे बढ़कर ? कौन लड़की के माँ-बाप के दुख को अपना दुख समझकर आवाज़ उठाता है ऐसे जुल्म के खिलाफ ? कोई नहीं समझाता भूखे भेडि़यों का जाकर... कोई नहीं करता उन्हें जात-बिरादरी से बाहर... कोई नहीं करता उन पर थू-थू... जाने कितनी ही देर तक उनके जेहन में सवालों के बवंडर उठते रहे।

उन्होंने उठकर समय देखा, रात्रि के बारह पच्चीस हो रहे थे। यानी दूसरा दिन शुरू हो गया था। उन्होंने उठकर पानी पिया और फिर बिस्तर पर आ गए। पत्नी भी जाग रही थी।

सहसा, शिवप्रसाद ने पूछा, “तुमने देखा है लक्ष्मी का लड़का ?...कैसा दीखता है वह ?”

पत्नी इस प्रश्न पर उनके चेहरे की ओर देखने लगी। वह हतप्रभ थी उनके प्रश्न पर।

“दिखने में अच्छा है,” पत्नी ने धीमी अवाज़ में कहा, “पर...”

“पर क्या ?”

“गैर जात...।”

“गैर जात का है तो क्या... लड़का अच्छा हो तो...” शिवप्रसाद को लगा, एकाएक उनका स्वर ऊँचा हो गया है, अनायास ही।

“गली-मोहल्ले वाले क्या कहेंगे ? नाक न कटेगी ?”

“और अगर लड़की लड़के के साथ भाग गई तो क्या बची रहेगी नाक ?”

“देख लो, बिरादरी में बड़ी थू-थू होगी।”

“होने दो। बिरादरीवाले थू-थू करते हैं तो करने दो। अब कौन-सा साथ दे रहे हैं। दहेज न जुटा पाऊँगा तो क्या बेटी कुंवारी बैठी रहेगी ? जात-बिरादरी में बड़ी लड़की की शादी करके नहीं देखा तुमने ?...” शिवप्रसाद बोले जा रहे थे।

पत्नी चुप रही। कुछ न बोली। पति कुछ गलत तो नहीं कह रहा। उसकी आँखों के आगे बड़ी लड़की का पीला-ज़र्द चेहरा घूम गया। भेडि़यों के हाथ ब्याह दी लड़की... अब कोई नाते-रिश्तेदार सामने नहीं आता। कोई नहीं समझाता उन्हें... जात-बिरादरी के लोगों को सांप सूंघ गया है जैसे... हे भगवान, मेरी लड़की की रक्षा करना। वह मन ही मन प्रार्थना करने लगी।

शिवप्रसाद पत्नी की चुप्पी को मौन-स्वीकृति समझ बोल उठे, “तो ठीक... कल चलेंगे दोनों, लक्ष्मी के घर... अब सो जा।” और उन्होंने उठकर बत्ती बुझाई और बिस्तर पर लेट सोने का उपक्रम करने लगे।