था, थे, थी / हेमन्त शेष

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चूंकि जीवन में तब किसी भी चीज़ की जल्दी नहीं हुआ करती थी और भूगोल ज्यादा आक्रामक नहीं था पैदा होते ही पैदल चलने लगना और जीवन भर इसी क्रिया का उपयोग बड़े काम की चीज़ थी। आसपास के पेड़ भी इस बात को समझते थे तभी मीलों तक हरा भरा सा सुनसान उन दिनों छाया होता था। यातायात के एकमात्र साधन तांगों पर आवागमन से लगातार ठन्डी हवा मार्ग में मिलती थी। हर मौके पर बडे. बुजर्गों की राय ली और मानी भी जाती थी। ज्यादातर लोग आसपास को अपने नाम ही की तरह जानते थे। ‘दूर’ का केवल नाम सुना जाता था। हर चीज़ हर जगह 'पास' थी। वार-त्योहार बहुत जल्दी-जल्दी और बारम्बार आते थे। कोई भी विदेश में बसने की नहीं सोचता था। खीर घरों में गाहे-ब-गाहे बनती रहती थी। बच्चे चाय नहीं पी सकते थे। जब तक वह खानदानी रईस या इसी किस्म की किसी ‘तोप’ का न हो किसी के भी घर चूड़ीबाजा होने की कल्पना नहीं हो सकती थी । केवल एक ही मायना था तार आने का :'अपसगुनी' कोई खबर : जिसका ताल्लुक़ सिर्फ किसी के मरने से ही हो सकता था। इतनी बेरहमी से कपड़े न तो खरीदे जाते न पहने, इसीलिये वे निस्संदेह कम ही होते थे। साइकिल जैसी तब अत्यधिक महंगी और सम्मानजनक सवारी के प्रति इतनी घनघोर उपेक्षा की सपने में भी कल्पना नहीं हो सकती थी। जिस घर में बेटी ब्याही हो, वहां का पानी भी पीना पाप था। इस बेशर्मी से बहा दिए जाने के विपरीत साबुन बड़े काम की चीज़ था। घर में किसी न किसी का कन्ठ सुरीला ही होता था जिससे अक्सर जागरणों आदि आयोजनों की कामयाबी और लोकप्रियता में सहायता मिलती थी। अक्सर होने वाले ‘जागरणों’ में थकान और उदारता दोनों कारणों से कम सुरीलों को भी बर्दाश्त किया जाता था। शादियां पिताजी या ताऊजी ही तय करते थे। घर के अहाते में सांप आदि निकलते रहते थे। पिता अपने बच्चों को प्रेमपूर्वक यों गोदी में खिला नहीं सकते थे इसलिए कि अगर वे ऐसा करते देखे जाते तो तत्क्षण बड़े बुजुर्गों की ‘घृणा’ के पात्र हो जाते थे। शराब पीना बदनाम होना था, पर भांग या गांजा या चरस आदि दुर्व्यसन खासे लोकप्रिय थे। हालांकि सजातीय व्यभिचार और परस्त्रीगमन की खबरें आती रहती थीं परन्तु अन्तर्जातीय प्रेम-विवाह किए जाने पर सख्त सामाजिक पाबंदी थी। रस ले ले कर लोग अक्सर दिनों नहीं, बरसों तक ऐसी बातों को याद रख सकते थे। अखबार पढ़ने के लिये सार्वजनिक पुस्तकालय ही जाया जाता था, क्यों कि वह किसी के भी घर पर नहीं आता था। रसोई में खजूर के चित्र वाले ‘डालडा’ का इस्तेमाल सामाजिक तौहीन माना जाता था। विवाहेतर-सम्बन्ध रखना रईसी का सूचक था। घर में रेडियो आना सारे मुहल्ले की और मोटर का आना तो सारे शहर भर की खबर बनती थी। बदरीनाथ-केदारनाथ हो कर आना तो खैर असाधारण बात ही. थी, गंगाजी नहा कर आये या गंगोत्री से गंगाजल ले कर आए आदमी तक के पांव छुए जाते थे। घर में पालतू दुधारू गाय होने के बावजूद चाय दिन भर में बमुश्किल सिर्फ एक दफा सवेरे ही पी जाती थी। सिनेमा देख पाना इतना आसान काम नहीं था। अक्सर अस्पताल जाने का आदि का बहाना बना कर ही वहां जाया जा सकता था। जाति से बाहर की लड़की या लड़के से शादी कर लेने पर ऐसा करने वालों को तुरन्त ही जाति से बाहर कर दिया जाता था।

इस तरह के लोग जाति के ‘भीतर’ आने के लिये तड़पते और तरसते रहते थे। स्त्रियों की बीमारी का इस कदर ‘बढ़ावना’ तो कभी नहीं सुना जाता था। दवाखाने ले जाते भी वे कम ही देखीं जातीं थी। हां, उन्हें पानी से भरी बाल्टी आदि उठा लेने के कारण ‘धरण’ खिसक जाने के रोग से बहुधा कष्ट सहना पड़ता था। तब काली कलूटी कोई दाई बुलवाई जाती थी जो उलटी-सीधी शारीरिक तजवीजों से खिसकी हुई ‘धरण’ बिठा देने का इनाम पाने योग्य काम करती थी। घर में अलग अलग अहमियतों के न जाने कितनी किस्म के अटपटे चटपटे लोग आया करते थे। पर अगर पूछता तो इस बात को पूछना मूर्खता ही समझी जाती कि उन के नाम के आगे ‘जी’ क्यों लगता था क्यों कि उन दिनों आप की उम्र से बड़े हरेक के नाम के आगे 'जी’ ही लगाना पड़ता था। मसलन- नल सुधारने वाले लाल-लाल और मोटी-मोटी आंखों वाले लंगड़े मिस्त्री भौंरीलालजी। गन्धपूर्ण, परन्तु साफ-कमीज और पायजामे में टिन के चौकोर डिब्बे में भरी हींग बेचने वाले सिन्धी आसूदासजी। पुरानी पीठ पर लादे थान के थान कपड़ा बेचने वाले खरखराती आवाज़ वाले ठिगने से सेठजी। दूसरे हरे फाटक पर खड़े मेरे नाना के सन्ताप और खेदमिश्रित विशेषण में ‘ मलिनकर्मा मनोजी’। हर पूर्णिमा को भोजनार्थ आते दादू-सम्प्रदाय के सिर घुटे शिष्य शंकरदास बाबाजी। बहुत जरूरी होने पर ही याद किए जाते चमड़े का प्रभावशाली भूरा बड़ा बैग लिये उतने ही साफ-सुथरे और सुन्दर डाक्टर श्रीनिवासजी। आटा मांगने के लिये बिना नागा किये निश्चित तिथि को आने वाले कावड़िया ‘टनटन बाबाजी’। पान खातीं लगातीं अक्सर सरौंते से सुपारी कतरती ही नज़र आतीं ‘गुटकी भुआजी ’। मिट्टी के जानदार शानदार खिलौने बनाने वाले वनस्थली विद्यापीठ में काम कर चुके कार्टून जैसी नाक के कान्तिप्रसाद जी। सत्यनारायण की कथा बांचने आते बीड़ीप्रेमी ब्रृजभाषा कवित्तकार ‘जुगलभट्ट कविराय’ जुगल जी। असाधारण धीमी रफ्तार से साइकिल चलाने वाले हमेशा से वैसे कृषकाय ‘छोटूजी’। श्राद्धपक्ष में आसानी से उपलब्द्ध ‘लच्छा नानीजी’ के सगे भाई ‘बसई वाले घनश्याम जी’। शीतला-अष्टमी के पूजन पर पर ठेठ मारवाड़ी लोकगीत गाने में सब से आगे मूलतः होते हुए भी बिल्कुल मराठी न लगने वाली ‘बैदानीजी’। कल्याणजी आनन्दजी की तर्ज़ पर बार बार सुने देखे जाते ‘बावनजी-देवकीनन्दनजी’। हमेशा खसखसी दाढ़ी में ही दिखे ऊंची धोती में ‘औंकार बाबाजी’। ‘अम्बाजी’ के परमभक्त चन्द्रशेखर 'बैज्जी', जो कभी-कभी च्यवनप्राश निर्मित कर भेंट करते थे। संसार की सर्वाधिक रहस्यमय और अज्ञात-विधि से महज सप्लाई बाबू से डिप्टी कलैक्टर बने भुवनेश्वरजी, (जो मां की ‘केसरी मौसीजी’ के पुत्र होने के कारण मेरे ‘मामा’ होते थे) हिन्डौन की तरफ की खजाने वालों के रास्ते के तांत्रिक ‘ब्रह्मचारी जी म्हाराज’ की वयोवृद्ध चेली ‘महात्मारामजी’। लेमनचूस की गोलियां बेचती ‘पीसी बाई ‘, पड़ौस के घर में रहने वाला सत्या उर्फ सत्यनारायण बाहेती, जिस के गाल पर पुराने किसी विकट फोड़े का निशान था, मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ ईसागढ़ से बहुत दूर जयपुर में ब्याही आदिवासी ढंग का नथफूल पहनने वाली ‘दुरगी बाई‘, हर बार हर जगह निर्माणाधीन खीर की विशाल कढ़ाई के सामने दिखती बड़ी सी लाल बिन्दी में ‘लल्ली-मौसी’ , गणगौरी बाजार स्थित उन के बहुत पुराने से घर जाने पर खूब पान खाने वाली स्वागतोद्यत ‘ख्यालवाली मौसी’ , संस्कृत शिक्षा विभाग में अकेले स्वनामधन्य घनश्याम गोस्वामी की कारीगरी से नियुक्त आधे से ज्यादा ग्राम पोस्ट महापुरा के ही विविध विलक्षण चरित्र, रेडियो घर में न होने की वजह से कभी कभार अपनी ही झलकी या नाटक सुनने आते कवि ललित गोस्वामी, भुवनेश्वरजी का चहेता चपरासी सिपाहीलाल, विधानसभा के ऐन पड़ौस में रहना चाहतीं कमली भुआजी– ये सब लोग नहीं, चरित्र थे। रसोईघर में ही फर्श पर बैठ कर भोजन करने का रिवाज था। स्त्रियों का नम्बर सब से आखिर में आता था। रात को भूत-प्रेतों की बात चलने के तुरन्त बाद, अंधेरे में अकेले तीसरी मंजिल की छत पर जा कर लौटने की शर्त लगती थी। नानी की नाक रोटी बनाते समय पता नहीं किस बात पर रोते जाने से लाल हो जाती थी। गर्मियों के दिनों में पानी का छिड़काव कर छतों पर सोया जाना जरूरी था। मौतें इफरात में हुआ करतीं थी। लोग श्मशान जाते रहते थे। वैसा करना सहज-अभ्यास में शुमार था।

घर में मुसलमानों के लिये चाय के कप अलग रखे जाते थे। शादी ब्याह के मौके पर महीनों पहले पापड़-मंगोड़ी-तिलबड़ी आदि बनने शुरू हो जाते थे। ‘जनेऊ’ हरेक का होता था। यज्ञोपवीत के बाद बस एक सप्ताह तक ‘संध्या’ करने में मजा आता था, बाद में सब बंद कर देते थे। फर्स्ट क्लास के डिब्बे को भीतर जा कर देखने की इच्छा होती थी- पर वहां जा पाना असम्भव था। नया सामान लाए जाने पर सब उत्सुक घर वाले उस के आसपास जिज्ञासा से इकट्ठा हो जाते थे। बच्चों की पिटाई का कोई बुरा नहीं मानता था। वे अस्पताल में पैदा नहीं होते थे। औरतों का जापा घर पर ही होता था। रात को कोई भी बहुत देर से घर नहीं आता था। सिर पर साफा या पगड़ी पहनना जरूरी था। घर जाने पर अक्सर लोग-बाग घर पर मिल ही जाया करते थे। विधवाओं का मंगल-अवसरों पर एकदम शुरू में मिल जाना या देखा जाना ‘अपशकुन’ कहा जाता था। हालांकि कुछ सक्षम लोगों के उन से गुपचुप नाजायज़ ताल्लुक भी हो जाते थे जो औरत के व्यापक-हित में उतने बुरे नहीं समझे जाते थे। घरों में बच्चों की तादाद बढ़ाने पर कोई पाबन्दी नहीं थी। यात्रा पर जाना टेढ़ी खीर था। सफर करने की आफत आने पर अक्सर लोगों को दस्त लग जाया करते थे। दामादों की बहुत आवभगत की जाती थी। कई लोग नल छोड़ कर इसीलिए कुएं का पानी पीते थे क्यों कि नालों में चमड़े का वाशर लगा होता था। रेलों में रिज़र्वेशन का रिवाज़ नहीं था, कुली सामान उठाने के लिये नहीं बर्थ ‘रोकने’ के लिये किये जाते थे। जगह सिर्फ एक अदद रूमाल बिछा कर भी रोकी जा सकती थी। हर एक के लिये मेला देखने जाना लगभग जरूरी होता था। वहां से खरीदी गई चवन्नी की सारंगी घर आते ही नहीं बजती थी। बसों में बीड़ी पीने वालों की वजह से कुछ खानदानी किस्म की औरतों का सफर अक्सर दूभर हो जाता था। कंडक्टर चिल्ला-चिल्ला कर सवारी बुलाते थे पर सवारी को यात्रा की उतावली नहीं होती थी। रेलगाड़ियाँ कभी भी वक्त पर रवाना नहीं हो पातीं थी। नल ठीक करना किसी को भी नहीं आता था। फ्यूज़ उड़ जाने पर बहुत समस्या होती थी क्यों कि ठीक करते वक्त करैन्ट आने का डर लगा रहता था। खड़ाऊं पहन कर ही मीटर-बाक्स तक चढ़ते थे । बाजारों में गोलगप्पे सिर्फ सिन्धी औरतें ही खाया करतीं थीं। घर के ही भीतर शौचालय हो सकना असंभव-कल्पना थी लिहाजा सब लोग खेतों में ही शौच जाते थे। रिश्तेदार कभी भी खाली हाथ मिलने नहीं आते थे। शाम का खाना आठ बजे तक निपट जाया करता था। अकेली औरत के पार्क में जाने की मनाही थी। शादियों में जाने के लिये नई बनियान-चड्डी का होना या खरीदा जाना जरूरी था। पैरों में अकसर औरतें महावर रचातीं थीं। कलकत्ते की सब से बढ़िया मानते थे। ट्रेन में चोरी और उठाईगिरी आम बात हुआ करती थी इसलिए सामान छोड़ कर पेशाब करने तक नहीं जाया जा सकता था। सैक्स की चर्चा कोई किसी से कभी नहीं कर सकता था। चोरी हो जाने के भय से नए जूते-चप्पल पहन कर कोई भी मन्दिर नहीं जाता था। बन्दर और भालू नचाने वाले मदारियों और ढोलकी मढ़ने वालों से छोटे-बच्चे अक्सर डरते थे। सिगरेट पीने वालों को घर वालों या समाज से बेहद सावधानी रखनी होती थी। ब्राह्मण का खुले-आम लहसुन या प्याज खरीदना असम्भव था। गांधीनगर के सारे ‘ऐफ़ टाइप’ के सरकारी-क्वार्टर बिल्कुल एक जैसे थे इसलिये एक दफा ‘मींडूजी’ दफ्तर से आते ही कमीज़ बनियान खोलते हुए पड़ौसी की रसोई को अपनी ही समझते अधिकारपूर्वक घुस गए थे। 'सुनो जनमेजय' या '‘किसी भी एक फूल का नाम लो' किसी नाटक के नाम नहीं हो सकते थे। कभी-कभार अचानक दिख जाने वाले छोटे-बड़े बिच्छुओं के बावजूद तहखाना गर्मियों की लम्बी दुपहरियों में नींद के लिये मुफीद जगह साबित होता था। वहां की चीज़ों में अक्सर एक ठन्डा सुनसान लिपटा होता था। मैंने एक दफा. वहां बरसों से स्थिर सामान की सूची यों बनाई थी:

1. लकड़ी के दो चमकदार मुदगर 2. पुराने पांच अनुपयोगी ताले जिन की चाबियों का अता पता नहीं था 3. लकड़ी का बहुत बडा. हरा एक सन्दूक, जिस में रहते थे- घर भर के गरम कपडे. 4. गन्ने का रस निकालने की एक नाकारा मशीन 5. बेहद शोर करने वाला ‘सिन्नी’ का काला पंखा जिस से हाथ-पांव कटने का भय लगा रहता था 6. मोरपंखों का गट्ठर जो शायद झाडा देने के लिये रखा गया हो 7. जंग खाई एक प्राचीन तलवार, जो शायद सन् सैंतालीस के दंगों का उपहार हो 8. मच्छरदानी के बारह टेढ़े फालतू बांस 9. ‘जयपुरवैभवम्’ ग्रंथ की अनबिकी दो सौ तिरासी प्रतियां 10. सतरह प्राचीन बासी पत्रिकाएं 11. चार अलग-अलग तरह के ताशों की अपूर्ण जोड़ियां 12. गेंहू रखने का ढक्कनदार ड्रम 13. नल में न लगाये जा सकने योग्य सोलह वाशर 14. कुएं में गिरी और डूबी चीजों. को निकालने की जंग खाई ‘बिलाई’ 15. कब की हो चुकी शादियों के सैंतालीस कार्ड 16. बिजली के जले हुए तीन स्विच बोर्ड 17. लोहे का एक अदद फोल्डिंग पलंग 18. पुरानी बारिशों में भीग चुकी निवार 19. बारहसिंघे का बहुत ही भारी एक सींग 20. सांप मारने के काम आ सकने योग्य चार भारी छड़ें 21. एच एम वी चूड़ीबाज़े का सिर्फ पुराना हरा भोंपू 22. तब सचमुच मुश्किल रही होगी बदरीनाथ-यात्रा की याद दिलाती पांच काली अजीब लकड़ियां- जिन के जिस्म पर हर जगह कुदरती और कंटीले उभार थे। ‘पत्थर की राजकुमारी’. ‘तिरियाचरित्र’. ‘तिलिस्मी गलीचा’. ‘पानी की दीवाल’. ‘खूनी घाटी’. ‘पिशाचिनी चन्द्र्हास’. ‘चांदी की नागिन’. ‘किस्सा चार यार’. ‘सुन्दरी का बदला’. ‘जादुई मैना’ वगैरह घटिया किताबों की तो बात ही क्या ‘वयस्क’ प्रकृति का होने और लगातार छिपा कर रखने से ‘किस्सा तोता मैना’ जैसी किताबें पढ़ना तक अत्यधिक कठिन था। सिलबट्टा, रामायण, पानदान, घासलेट का तेल, अलीगढ़ के ताले, कलमदान, स्त्री-सुबोधनी, हाथपंखे, खुरपी, देशी घी, पंचांग, तम्बाकू, छतरी, तुलसी का पौधा, डोलची, धूप- अगरबत्ती, पानी-बिजली के पुराने से पुराने बिल, हिमामदस्ता, हरड़, गंगाजल, बड़ी-दरी, छुआरा, दियासलाई, अचार, उस्तरा, सरौंता, संदूक़, लंबी-रस्सी, आसन, झूला, संदूक़, जन्मपत्रियां, छींका, भैंस, लक्ष्मीजी का फोटो, सिल्क का कुरता, बोरी, निवार, मक्खन निकालने की रई, कोयले की इस्तरी, “सात फोटो नसवार”, थर्मामीटर, लालटेन, और चन्दन आदि हर घर में सहज रूप से पाए जाते थे।

इस व्यथा-कथा का कोई आदि कोई अन्त नहीं। न वह हमारे कहे से शुरू हुई थी, और न कहना बन्द करने से खत्म होगी। जैसे दुनियाएं निःशब्द बिल्कुल बदल जाया करती हैं- वैसे ही वे पुराने दिन भी किसी अनन्त में कभी न लौटने के लिए विसर्जित हो चुके।

उस तरह के दिनों की एक बीत गयी कविता को इस बेतरतीब सी कहानी के रूप में लौटा लाने के सिवाय अब हमारे पास भला बचा भी क्या है?