थैंक्यू नंदू, थैंक्यू आंटी / प्रकाश मनु

Gadya Kosh से
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आइए, पहले इस कहानी के नायक से मिलते हैं। हमारी इस कहानी का नायक है—नंदू। एक बड़ा ही नटखट, चपल-चंचल, गोल-मुटल्ला नंदू। थोड़ा भोला, थोड़ा-थोड़ा शरारती भी। और हाँ, मम्मी का लाड़ला तो है ही वह! उसे देखकर वे रीझ-रीझ उठती हैं। कभी-कभी हँसते हुए गाल पर एक मीठी चपत लगाकर कहती हैं, ‘ओहो जी, ओहो! यह रहा मेरा प्यारा गोलू-मोलू खरगोश!’ वैसे इतवार को सुबह-सुबह क्रिकेट खेलने के बाद वह खेल के मैदान से तेजी से भागता हुआ घर आ रहा हो, तो आप धोखा खा जाएँ। लगेगा, यह नंदू नहीं, आकाश से उतरा बाल सूर्य है। चमकती आँखों और सुर्ख टमाटर जैसे लाल-लाल गालों वाला! बच्चे तो बहुत होते हैं और सभी प्यारे-प्यारे होते हैं, पर नंदू तो भई, नंदू ही है। इसलिए कि वह हमारी कहानी का नटखट, चपल-चंचल, गोल-मुटल्ला नंदू है, जिसकी आँखों में हर वक्त उत्साह की चमक दिखाई देती है। तभी तो उसके गाल हर वक्त ललछौहें-से लगते हैं। मगर भई, कहानी का नायक वह नन्ही-सी जान...यानी वह जरा-सा, शरीर और ऊधमी चिड़िया का बच्चा भी तो हो सकता है, जो अपने नन्हे-नन्हे रोएँदार भाई-बहनों से झगड़ते हुए एकाएक घोंसले से निकलकर बाहर आ गिरा था और...और उसने एक नन्ही-सी कहानी को जन्म दिया था! फर्श पर इधर उधर बिखरे तिनकों के साथ, एक बेहद मासूम, रोएँदार नन्ही शख्सियत महसूस की जा सकती थी। और वह नन्ही कहानी भी, जो मैं सुनाने जा रहा हूँ!... खैर, आप नहीं मानते, तो उस नन्ही-सी जान यानी चिड़िया के उस नन्हे शरीर बच्चे को ही कहानी का नायक मान लेते हैं! पर अब मेहरबानी करके थोड़ा पीछे चलें। अतीत के उस छोर पर, जब चिड़िया का बच्चा अभी अस्तित्व में नहीं आया था। चिड़िया ने घोंसला बनाया है नंदू के छोटे से घर में...और नंदू खुश है। इतना खुश, इतना खुश, मानो उसके पंख उग आए हों और वह जब चाहे आसमान की सैर कर सकता है। बेशक जब से उस चिड़िया और चिड़े ने उसके घर के आँगन में, एकदम सामने वाली दीवार की खोखल में अपना नन्हा सा घोंसला बनाया है, तभी से—बस, तभी से उसकी यह हालत है। जब देखो, वह उड़ा-उड़ा-सा दिखाई देता है! उड़ा-उड़ा। उड़ती पतंग-सा। जैसे पूरा का पूरा आकाश उसका हो! जी हाँ, पूरा का पूरा आकाश। भला नंदू जैसे बच्चे को इससे कम कोई चीज कैसे तसल्ली दे सकती है? और यकीन मानिए, बस अभी चंद दिनों में ही उसने यह बिना पंखों के उड़ना सीखा है। साथ ही ऐसी-ऐसी बातें कि आप हैरान रह जाएँ।


नंदू की मम्मी यानी मिसेज आनंद हैरान हैं, आँगन की दीवार में एक ईंट की जगह न जाने कैसे खाली रह गई थी। बस, चिड़िया को घोंसला बनाने के लिए वह जँच गई। और अब तो दिन में पचासों चक्कर उसके लगते हैं।...कभी तिनके ला रही है, कभी घास, कभी सुतली, कभी फूस, कभी कुछ और। नंदू को मानो दिन भर का काम मिल गया। दिन में बीसियों दफा मेज पर चढ़कर, उचक-उचककर देखता है, चिड़िया के घोंसले में कितनी ‘प्रोगेस’ हुई?...क्या-क्या नई चीजें आ रही हैं। और उन्हें कहा-कहाँ जँचाया जा रहा है! ओहो, ये तिनका... ओहो, ये पत्ती...थोड़ी घास नरम-नरम सी... ओहो, ये फूल...वो एक पतला सा धागा भी, शायद चारपाई की मूँज का... बाप रे, कितनी सारी चीजें! और यह सब देखकर वह दौड़ा-दौड़ा मम्मी के पास जाता है तथा सारा हाल और घोंसले के बारे में ‘ताजा समाचार’ मम्मी को बताता है। फिर खोद-खोदकर मम्मी से सवाल पूछता है कि मम्मी, चिड़िया यह क्यों करती है? वह क्यों करती है? और चिड़िया के घोसले में अंडे कब आएँगे? कब आएँगे चिड़िया के बच्चे? मिसेज आनंद फुर्सत में होती हैं, तो थोड़ा-बहुत बता देती हैं। मगर कभी काम में लगी हों, तो गाल पर हलकी-सी चपत लगाकर कहती हैं, “जा भाग, तुझे और कोई काम नहीं है? दुष्ट कहीं का!” मगर क्या करे नंदू? उसका ध्यान तो चिड़िया के घोंसले से हटता ही नहीं। और उसे लगता है कि उसे तो इतना बड़ा खजाना मिल गया है, इतना बड़ा कि कुछ न पूछो। तभी तो हर वक्त उसके दिमाग में धड़-धड़-धड़ करती विचारों की एक रेल सी चलती है। कभी आगे, कभी पीछे। कभी पीछे, कभी आगे।...मगर रुकना तो यह जानती ही नहीं। स्कूल में ड्राइंग के पीरियड में उसने चित्र बनाना सीखा था। खूब सारे बढ़िया-बढ़िया चित्र बनाता, जिनमें उसे कभी ‘गुड’, कभी ‘वेरी गुड’, कभी ‘फेयर’ मिलता। फिर मिट्टी से गमला, मिट्टी से कप-प्लेट और गुलदस्ता बनाने की कला में तो वह उस्ताद था। गत्ते की छोटी सी साफ-सुथरी झोंपड़ी बनाना भी उसे आ गया था। उसके आगे वह जरूर फूलों की एक सुंदर सी क्यारी भी बनाता। खूब रंग-बिरंगी। उसके ड्राइंग के सर कृष्ण मुंदा जी हमेशा तारीफ करते हैं इस बात की। मगर चिड़िया...? भला किसने सिखाया होगा चिड़िया को इतना सुंदर-सुंदर, बढ़िया सा घोंसला बनाना? अपनी छोटी सी चोंच से तिनके कैसे एक के ऊपर एक जमाकर रखती है। और लो जी, बन गया घोंसला इतना खूबसूरत और प्यारा कि क्या कहने! मगर कैसे? किसने सिखाई चिड़िया को यह नायाब कला? क्या वह भी ड्राइंग के सर कृष्ण मुंदा जी के घर ड्राइंग सीखने के लिए जाती है?...तब तो उसे रोज ‘गुड’, ‘वेरी गुड’ देते होंगे मुंदा सर। लेकिन फीस...? बेचारी चिड़िया के पास भला फीस के पैसे कहाँ से आते होंगे? वह बहुत सोचता है, बहुत। पर ठीक-ठीक उत्तर नहीं मिलता अपने सवालों का। स्कूल में अपने दोस्तों को भी यह सब बताता है तो वे हैरानी से ताकते रह जाते हैं। कभी-कभी कोई बोल भी पड़ता है, “यार नंदू, तेरे दिमाग में ऐसी-ऐसी चीजें कहाँ से आती हैं? अपने भेजे में तो कभी आती ही नहीं...!” और सत्ते ने तो बोल ही दिया था कि “नंदू लगता है, एक दिन तेरे घर में आकर देखना ही होगा चिड़िया का वह घोंसला, जिसने तेरे ऊपर बिल्कुल जादू ही कर दिया है!” इस पर सारे बच्चे खूब ‘ठी...हा-हा-हा’ करके हँसे थे। नंदू एक पल के लिए तो नर्वस हुआ, फिर तुर्की-ब-तुर्की बोला, “ठीक है बच्चू, आना।...कभी आना संडे के दिन। हमारे घर वाला चिड़िया का घोंसला देखोगे तो देखते ही रह जाओगे। फिर तुम्हारे दिमाग में भी जरूर मेरी तरह के ही आइडिया आया करेंगे।” इस पर क्लास के बच्चे तो एकदम कट के रह गए। किसी को सूझा ही नहीं कि क्या जवाब दें। मगर नंदू की बातें सुन-सुनकर आस-पड़ोस के बच्चे तो सच्ची-मुच्ची घर तक चले आते हैं। खूब चमकती आँखों से कहते हैं, “दिखा तो नंदू, कहाँ है चिड़िया का घोंसला?” तब नंदू एकदम राजाओं वाली शान और अकड़ से वह चिड़िया का घोंसला दिखाता है और उसके बारे में एक-एक छोटी से छोटी बात बताना नहीं भूलता। “एक दिन ऐसा हुआ...ऐसा कि चिड़िया हमारे घर आई। साथ में अपने चिड़े को भी लाई। उसने यहाँ देखा, वहाँ देखा...इधर उड़ी, उधर उड़ी और फिर वह जो कमरे में पंखा है ना, उसकी टोपी के ऊपर वाले हिस्से में घोंसला बनाने लगी। तो मैंने उसे टोका कि नईं-नईं पग्गल, अभी करेंट लग जाएगा!...फिर तो जी, दरवाजे के ऊपर वाला वो रोशनदान दिखाई दे रहा है न, हाँ-हाँ, वही। वहाँ पर उसने रखने शुरू किए तिनके।... “मगर शाम तक सारा फर्श गंदा हो गया, तो मम्मी ने रोका।...बड़ी मुश्किल से हटाया वहाँ से! फिर चिड़िया को भा गई यह जगह। देख रहे हो ना, दीवार के बीच छूटी यह छोटी-सी जगह। बस जी, बस्स! अब तो चिड़िया और श्रीमान चिड़ा महाशय सारा दिन तिनके ला रहे हैं, धर रहे है, घोंसला बना रहे हैं।...वो मार-तूफान इन्होंने मचाया कि क्या कहने। मगर भई, फिर घोंसला बना, बनकर रहा। और अब तो अंडे भी आएँगे, फिर चिड़िया के बच्चे...!” नंदू की कहानी हमेशा यहीं से शुरू होती और फैलते-फैलते इतनी फैल जाती कि खुद नंदू को कुछ सुध-बुध न रहती। हाँ, चिड़िया के बच्चों की बात आते ही नंदू की आँखें चमकने लगतीं। जैसे यही कहानी का वह झरोखा हो, जहाँ से उम्मीद की रोशनी आती हो। नंदू के दोस्त हैरान होते है—आजकल यह नंदू को क्या हो गया है? बात कहीं की हो, उड़ते-उड़ते कहाँ से कहाँ जा पहुँचता है! अब यही लो। बात तो रही थी चिड़िया के घोंसले की, मगर यह तो ऐसा लगता है, जैसे गुन-गुन, गुन-गुन करता महादेवी वर्मा की कविता सुना रहा हो!... कमाल है जी, कमाल...! नंदू जो न करे सो कम है।


फिर कुछ रोज बाद चिड़िया ने अंडे दिए। और अब तीन-चार दिनों से, जब से चिड़िया के बच्चों की आवाजें सुनाई देने लगी हैं, नंदू की उत्सुकता का कोई पार ही नहीं है। वह उछलकर मेज पर चढ़ता है, बड़े गौर से चिड़िया को अपने बच्चों के मुँह में दाना डालते देखता है और कूदकर फिर नीचे। पढ़ते-पढ़ते थोड़ी देर बाद फिर उसका ध्यान उचटता है ओर वह झट मेज पर खड़ा होकर चिड़िया के बच्चों को देखने लगता है। सुबह उठते ही उसका पहला काम यही होता है। मेज पर खड़ा होकर चिड़िया के बच्चों की ‘चीं-चीं’ करते देखता है और फिर खुश होकर अपने काम में लग जाता है। स्कूल जाने से पहले चिड़िया के बच्चों को ‘टा-टा’ कहना भी नहीं भूलता। शाम को स्कूल से आते ही बस्ता फेंककर सीधा मेज पर आ खड़ा होता है और चिड़िया के घोंसले के आगे ऐसे खड़ा हो जाता है, मानो अभी-अभी दुनिया का सबसे नया, नायाब तमाशा यहाँ होने जा रहा हो। रोज स्कूल से आकर वह मम्मी से यह पूछना भी नहीं भूलता, “मम्मी, चिड़िया आई थी अपने बच्चों के लिए दाना लेकर? कहीं भूल तो नहीं गई?...वे कहीं भूखे तो नहीं होंगे। हैं मम्मी!” सुनकर घर और दफ्तर के ख्यालों के बीच उलझी मिसेज आनंद खिलखिलाकर हँस देती हैं। एक हलकी चपत नंदू के गाल पर लगाकर कहती हैं, “तू क्यों चिंता करता है रे नंदू? चिड़िया खुद अपने बच्चों की चिंता कर लेगी।” या कभी-कभी उसे टालते हुए वे कहती हैं, “यह सब बाद में...! पहले तू अपना खाना तो खत्म कर।” मगर नंदू जब तक बीसियों बातें चिड़िया के बारे में नहीं पूछ लेगा और जब तक बीसियों दफा मेज पर चढ़कर खुद अपनी आँखों से चिड़िया के बच्चों का हाल-चाल नहीं पता कर लेगा, तब तक उसे चैन नहीं। कई बार मिसेज आनंद खीज भी जाती हैं। कुछ बरस पहले उनके पति मि. आनंद का तबादला बंगलुरु हो गया था। लिहाजा घर और बाहर की दोहरी जिम्मेदारियों से लदी-फदी मिसेज आनंद जब गुस्से को जज्ब नहीं कर पातीं, तो डपटकर कहती हैं, “तू तो बड़ा उतावला है रे नंदू! देखना, किसी दिन तू चिड़िया के बच्चों को हाथ लगाएगा और फिर चिड़िया इन्हें यहीं छोड़ जाएगी। ये भूखे कलपते रहेंगे, याद रखना।” तब से डर के मारे नंदू ने चिड़िया के बच्चों को हाथ तो नहीं लगाया, लेकिन उन्हें बार-बार देखने की खुदर-बुदर तो मन में मची ही रहती है। उसे लगता है, दुनिया का सबसे बड़ा खजाना उसके हाथ में है। हीरे और रत्नों से भी बड़ा। फिर भला वह उसे देखने से अपने आपको कैसे रोके? कैसे! आखिर कोई तो समझाए उसे यह बात। कोई तो...!


यों ही एक-एक कर दिन बीतते जाते थे। मानो पंख लगाकर परियों की दुनिया की ओर उड़े जा रहे हों। और नंदू की प्रसन्नता का कोई अंत नहीं था। लेकिन आज तो कुछ ऐसी अजीब-सी हालत हो गई कि उसकी समझ में नहीं आ रहा था—वह क्या करे, क्या नहीं। यहाँ तक कि उसे तो इतना भी समझ में नहीं आ रहा था कि इस घटना से उसे खुश होना चाहिए या दुखी? असल में आज नंदू की छुट्टी थी। मम्मी दफ्तर गई हुई थीं। नंदू ने सोचा, “चलकर पीछे वाले आँगन में खेला जाए। चिड़िया के बच्चों का क्या हाल है, यह भी देखना चाहिए।” उसने मेज पर चढ़कर देखा तो जी धक से रह गया। चिड़िया के चार बच्चों में से तीन ही थे। चौथा कहाँ गया? कहीं चील तो झपट्टा मारकर नहीं ले गई, या फिर बिल्ली...? इतनी देर में ही नंदू की हालत खराब हो गई। उसने घबराकर इधर-उधर देखा और उदास होकर मेज से नीचे उतर आया। मगर मेज से नीचे आते ही वह चौंका। आँगन के एक कोने में वही चिड़िया का बच्चा था—एकदम वही! डर के मारे एकदम सिकुड़ा हुआ-सा बैठा था। देखते ही नंदू की सारी उदासी गायब हो गई। एकबारगी तो उसे इतनी खुशी हुई कि वह मारे खुशी के चीख पड़ने को हुआ। फिर अचानक उसका ध्यान इस बात की ओर गया कि चिड़िया का बच्चा डरा हुआ है। इतनी देर से भूखा-प्यास भी होगा।...कहीं इसे पानी की जरूरत तो नहीं है? वह एक कटोरी में पानी भर लाया और उसे चिड़िया के बच्चे के पास ला रखा। मगर वह छुटका-सा चिड़िया का बच्चा पानी पिए कैसे? नंदू उलझन में है। मगर ठीक समय पर उसे गुपलू की याद आई।...नंदू को यकीन था, गुपलू से ज्यादा इस दुनिया में चिड़िया और चिड़िया के बच्चे के बारे में कोई और नहीं जानता। इसीलिए क्लास के ज्यादातर बच्चे चाहे उसके शेखीखोर होने से चिढ़ते थे, पर नंदू उसे बर्दाश्त करता था। यहाँ तक कि प्यार भी करता था। ‘गुपलू कह रहा था—अगर रुई भिगोकर चिड़िया के मुँह में पानी डालो, तो वह पी लेगा।’ नंदू को याद आया तो उसकी निराशा थोड़ी कम हुई। वह झट रुई लेने के लिए अंदर गया। अभी वह रुई लेकर बाहर आया ही था कि आँगन में अमरूद के पेड़ पर से चीं-चीं-चीं की इतनी आवाजें आईं कि वह चौंक गया। “अरे, यह कौआ...मुटल्ला, काला!...उफ!!” उसके माथे पर मारे भय के पसीना छलछला आया। इसमें शक नहीं कि वह दुष्ट खलनायक कौआ नीचे आकर चिड़िया के बच्चे को हड़पना चाहता था। अमरूद के पेड़ पर बैठीं चिड़ियाँ इसीलिए चेतावनी भरे स्वर में जोर से चीं-चींचीं कर रही थीं। “हे राम, चिड़िया को तूने इतना भोला, इतना मासूम क्यों बनाया? क्यों मेरे राम? क्यों!” नंदू चिंता में। नंदू पसीने-पसीने। नंदू इस समय—जरा गौर कीजिए—दुनिया का सबसे बड़ा दार्शनिक है।


नंदू परेशान हो गया। वह क्या करे, क्या नहीं! उसने रुई से दो बूँद पानी चिड़िया के बच्चे के मुँह में डाला था। मगर घबराहट के मारे वह भी उसने पिया नहीं। इधर यह दुष्ट कौआ न जाने कहाँ से चला आया! नंदू की सारी खुशी काफूर हो चुकी थी। और वह डर-सा गया था—कहीं चिड़िया के इस बच्चे का अनिष्ट न हो जाए। कहीं कौआ सचमुच चिड़िया के इस नन्हे, मासूम बच्चे को खा गया तो? सोचकर उसे कँपकँपी सी हो आई। सारा शरीर पसीने-पसीने। “जब तक मम्मी नहीं आतीं, तब तक मैं यहीं रहूँगा।” सोचकर वह दीवार से टेक लगाकर बैठ गया। और प्यार से चिड़िया के बच्चे को पुचकारने लगा। कुछ देर बाद उसे भूख लगी, लेकिन कहीं वह पाजी कौआ फिर न आ जाए! सोचकर वह वहाँ से नहीं हिला। समय बीत रहा था, मगर नंदू के लिए वह कहीं रुक गया था। वह अपनी जगह से नहीं हिला। नहीं हिला। आखिर इतने नन्हे से, मासूम चिड़िया के बच्चे की जिंदगी का सवाल था न!


‘ट्रिन्न...ट्रिन्न्-न...!’ दोपहर को कॉलबैल की आवाज सुनाई दी तो नंदू समझ गया, जरूर मम्मी आई हैं। अरे, मम्मी के आने का आज पता ही नहीं चला। वह दिन भर के अपने भीषण कुरुक्षेत्र युद्ध के मैदान से निकलकर दरवाजा खोलने गया। मगर दरवाजा खोलते ही फिर दौड़कर आँगन की ओर भागा। “क्या है नंदू? आज तो तुमने मुझसे बात ही नहीं की!” मम्मी ने लाड़ से कहा। “मम्मी, चिड़िया का बच्चा!...” नंदू के मुँह से बस इतना ही निकला। वह रुआँसा हो चुका था। “क्या हुआ चिड़िया के बच्चे को?” मम्मी तब तक आँगन में आ चुकी थी। आँगन के कोने में डरे, सिकुड़े चिड़िया के बच्चे और नंदू को देखा तो मिसेज आनंद का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। आज ऑफिस में बॉस ने कुछ ऐसा कह दिया था कि वे अंदर ही अंदर तिलमिला गई थीं, पर चाहते हुए भी जवाब नहीं दे पाई थीं। असल में कभी-कभी नंदू की वजह से उन्हें दफ्तर से वक्त से कुछ पहले उठना पड़ता था। पर वे रोज का सारा काम रोज निबटाती थीं नियम से, कुछ भी पैंडिंग नहीं छोड़ती थीं। लिहाजा बॉस को भी कोई परेशानी न थी। पर आज पड़ोस के भेंगी आँखों वाले मिस्टर अरोड़ा ने कुछ ऐसा कह दिया...ऐसा कि बॉस के अंदर हवा भर गई। भरती गई और फिर उन्होंने कह ही दिया, “देखिए मिसेज आनंद, यह रोज-रोज की बात!...ऐसे तो चलेगा नहीं।” ‘तू...तू...तेरा परिवार नहीं है! तू नहीं जानता किस तरह मैं अपने बच्चे को पाल रही हूँ, जबकि मेरे हसबैंड, तू अच्छी तरह जानता है कि यहाँ नहीं...! तुझ पर भी कभी कुछ बीते तो पता चले! हे राम, कैसे-कैसे हैवान...!’ कहना तो चाहती थीं, पर कहतीं कैसे! यह नौकरी जरूरी थी उनके लिए, वरना तो...? लेकिन रास्ते भर हवा में उँगलियाँ हिला-हिलाकर मानो वे बॉस को यही सब सुनाती आई थीं। उनका ब्लड प्रेशर बढ़ गया था और सिर चक्कर खाने लगा था। वे घर आते ही लेटना चाहती थीं। और...और अब घर पर लाड़ले ने यह दृश्य क्रिएट कर दिया। बुरी तरह चिल्लाकर बोलीं, “मुझे मालूम था, तू ये शरारत करेगा...मुझे मालूम था!” “नहीं मम्मी, मैंने कुछ नहीं किया, मैं तो...!” नंदू कुछ कहना चाहता था, पर मम्मी को सख्त नजरों से अपनी ओर देखते देखा, तो चुप हो गया। “मम्मी, मैं तो इसे कौए से बचा रहा था।” कुछ देर बाद नंदू ने फिर धीरे से कहा। “मगर...यह नीचे आया कैसे, गिरा कैसे?” मिसेज आनंद ने गुस्से से बिफरकर पूछा। “मुझे नहीं पता मम्मी। मैंने तो इसे आँगन में गिरा हुआ देखा था। फिर मैं रुई लाया, इसे पानी पिलाने के लिए।...कौआ इसे खाना चाहता था, इसलिए मैं सुबह से यहीं बैठा हूँ। नाश्ता भी नहीं किया।” सुनते ही एक क्षण में मिसेज आनंद का गुस्सा काफूर हो गया। उन्हें नंदू पर बहुत लाड़ आया। बोलीं, “अरे नंदू, तू तो बहुत अच्छा है रे! मैं तो यों ही तुझ पर बिगड़ रही थी। सॉरी बेटा, मम्मी को माफ कर दे। गुस्सा किसी और पर था और...” “मम्मी...मम्मी, यह चिड़िया का बच्चा...? इसका अब क्या करेंगे?” नंदू अब भी उसी कशमकश में। मिसेज आनंद हँसीं, “अरे, करना क्या है? मैं इसे फिर से घोंसले में रख देती हूँ।” उन्होंने बहुत प्यार से पुचकारकर चिड़िया के बच्चे को हथेली पर लिया और आहिस्ता, बहुत आहिस्ता से घोंसले में रख दिया। लेकिन अचरज।... अचरज पर अचरज! उस नन्हे से नरम रोएँदार चिड़िया के बच्चे को प्यार-दुलार से घोंसले में रखते समय उन्हें लगा, मानो ‘खुल जा सिम-सिम’ करते हुए बचपन के जादुई करिश्मों से भरे अजायबघर का दरवाजा खुल गया है। और भीतर इतनी ललचाने वाले दृश्य, और चीजें और खेल हैं कि...अगर उन्होंने खुद को नहीं रोका, तो अभी बच्ची बनकर नंदू के साथ खेलने और बतियाने लगेंगी। नंदू ने भी देखा और सोचा—आज मम्मी कितनी अच्छी लग रही हैं, सचमुच कितनी अच्छी, प्यारी मम्मी! उधर चिड़िया और चिड़ा भी यह देख रहे थे। उनकी एक साथ चीं-चीं की आवाज सुनाई दी। मानो दोनों मिलकर नंदू और उसकी मम्मी को धन्यवाद दे रहे हों, ‘थैंक्यू नंदू, थैंक्यू आंटी...!’ ‘थैंक्यू...!’ ‘थैंक्यू...!!’


कहानीकार का ध्यान अभी चिड़िया, चिड़े और चिड़िया के बच्चे की सम्मिलित चीं-चीं-चीं की ओर था कि अचानक उसने देखा, नंदू और उसकी मम्मी भी चिड़िया और चिड़िया के बच्चे में बदल गए हैं। शाम के डूबते सूरज की मद्धिम रोशनी में उनके खूब बड़े, रोंएदार सुनहले पंख चमक रहे हैं—ठीक चिड़िया की तरह। और फिर चिड़िया, चिड़ा, चिड़िया के बच्चे और नंदू और नंदू की मम्मी सभी एक सुनहले आसमान की ओर उड़ने लगते हैं।... वे उड़ रहे हैं—उड़ते जा रहे हैं...यहाँ तक कि उड़ते-उड़ते नजरों से ओझल हो जाते हैं।