थो-लिङ्‍ महाविहार / नागार्जुन

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एक सौ आठ गुन्-पा (विहार) और एक सौ आठ ढाबा (भिक्षु) और अगणित देव-देवियांμयही कहकर एक पहाड़ी ने मुझे थो-लिङ् का परिचय दिया था। टिहरी में उत्तर-काशी में किसी ब्राह्मण देवता ने जो बात बतायी थी वह तो और ही खोजपूर्ण थी। उन्होंने कहा था, ‘महाराज, थो-लिङ् में तो स्वयं बदरीविशाल विराजमान हैं और बदरीनारायण में जो हैं सो द्वयं (दूसरे) बदरीविशाल हैं। किंतु थो-लिङ् में जब लामा लोग गो-मांस का महाप्रसाद बनाकर भोग चढ़ाने लगे तब छत फाड़कर बदरीविशाल इधर भाग आये। फिर भी श्रद्धालुगण स्वयं बदरी के स्थान का दर्शन करने जाते हैं।’ थो-लिङ् तक पहुंचने की प्रबल इच्छा राहुल जी की भी थी, इसलिए साहित्य सम्मेलन के गत अधिवेशन (हरिद्वार) और अखिल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पहली कांग्रेस (बंबई) में वे सम्मिलित नहीं हो पाये। ने-लङ् तक हमारा साथ रहा। टिहरी गढ़वाल राज्य और तिब्बत के इस सीमांत पर ने-लङ् एक छोटा और पहाड़ी गांव है, 11,000 फुट की ऊंचाई पर। बागोरी-हरसिल में थो-लिङ् आने-जाने के लिए राहुल जी ने एक घोड़ी किराए पर ले ली थी, एक मार्ग-दर्शक भी साथ कर लिया था। वह हिंद-तिब्बत के गढ़वाली सीमांत की जाड जाति का था। उसके चोटी थी, फिर भी भाव-भाषा और आचार-विचार की दृष्टि से वह लामापंथी बौद्ध था। ने-लङ् में भोट गंगा का प्रवाह इतना प्रखर था कि घोड़ी डूबते-डूबते बचीμअड़तालीस घंटे की जल-समाधि के बाद ही उसका उद्धार हो सका था। आगे और भी कई जगह इसी प्रखर प्रवाह को पार करना था। उन स्थानों पर आदमियों के पार करने लायक अस्थायी पुल तो यों ही बनते-बिगड़ते रहते हैं; लेकिन अभी तक खच्चरों-घोड़ों के पार करने योग्य पुल तैयार नहीं हुए थे, क्योंकि हम बीस दिन पहले चल पड़े थे। निदान, राहुल जी घोड़ी और शिवदत्त (पथ-प्रदर्शक) के साथ ने-लङ् से लौट आये, और मुझे अपने पाथेय का अधिकांश तथा सवा सौ रुपए देकर थो-लिङ् जाने के लिए वहीं छोड़ दिया। उस उजाड़ बस्ती में दस दिन तक एकांत साधना करने पर मुझे थो-लिङ् के लिए तीन सहयात्राी मिले। वे तीनों नमक का सौदा करने जा रहे थे। सामान ढोने के लिए जो-वो (पहाड़ी बैल और चमरी गाय ्रसे उत्पन्न) साथ ले लिया गया था। टिहरी से हरसिल तिरासी मील था। हरसिल से ने-लङ् तेईस मील और वहां से थो-लिङ् पचहत्तर मील था। ने-लङ् ये थो-लिङ् तक पहुंचने में सात दिन लगे। रास्ता बहुत ही विकट था। कई जगह तो चतुष्पद बनकर चढ़ना-उतरना पड़ा। जे-लुखगा-जो (सङ्-चोक-ला) पर आधा मील तक बर्फ मिली। यह 17,500 फुट की ऊंचाई पर है। भोट की जो पहली बस्ती मिली उसका नाम था पुलिङ्। तेरह हज़ार फुट और ने-लङ् से पचास मील की दूरी पर। साथियों ने यहां भोट स्त्रिायों के उन्मुक्त आतिथ्य से अपनी थकान दूर की। जो-वो को वहीं छोड़कर थो-लिङ् तक के लिए चार याक् ले लिये गये। मैं पहली बार याक् पर चढ़ा था। शुरू में कुछ कठिनाई हुई। बाद में मैंने याक् 178 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 से ऐसी मित्राता कर ली कि इशारों से ही वह चलता था या खड़ा होता। वृक्ष-वनस्पतियों की हरियाली तो ने-लङ् से ही अदृश्य हो चली थी। जून का मध्य था, तथापि जौ के सद्यः अंकुरित खेत पुलिङ् के आस-पास हरित-गौर सुषमा की छटा फैला रहे थे। वह हरियाली ऐसी तृप्तिकर थी कि आंखें मुश्किल से ही वहां से हटने को तैयार हुईं। सतलज की तटवर्ती अधित्यकाओं पर से जब चल रहा था तब शतदु्र (शतधा दौड़नेवाली) का नाम सार्थक प्रतीत हुआ, क्योंकि छोटे-बड़े शाखा-स्रोतों की दौड़ान में शतधा क्या सहस्रधा विभक्त होकर उसकी तटभित्तियां दूर से मृतिका और पाषाण द्वार निर्मित प्राचीन दुर्गों की भांति दिखायी पड़ती थीं। थो-लिङ् के विहारों की शिखर-चूड़ाएं दूर से ही चमक रही थीं। पश्चिमोत्तर-कोण में गर्तोक् की पहाड़ियां बर्फ से ढकी और उत्तुú होने के कारण ऐसी लग रही थीं, मानो नील-निरभ्र आकाश को चुनौती दे रही हों। जब हम ऐसी बस्ती के निकट पहुंचे तब साथियों ने याक् से उतर जाने का संकेत किया। सतलज का पाट वहां चौड़ा था, घास काफ़ी थी। याकों को चरने के लिए वहीं छोड़ दिया गया। हमारे दो साथी सामान की निगरानी के लिए वहीं रह गये और एक को साथ लेकर मैं बढ़ा। दिन के दस बज रहे थे, किंतु सतलज के कछार में धूप काफ़ी कड़ी लग रही थी। उत्तर-काशी में जैसी गर्मी थी, वैसी यहां भी मालूम पड़ी। ग़रीब खेत-मज़दूर जौ के खेतों में पानी डाल रहे थे। अंदर गेरुआ धोती और ऊपर पीली अलफीμ‘अचारा’ कहकर एक भोटिया लड़के ने मेरी ओर उंगली उठायी। हिंदू साधु को इधर के तिब्बती में ‘अचारा’ कहते हैं। मैंने जबाव दिया, ‘अचारा मे ङ रङ् पा इन्। युल् ग्यि गे लोङ्’ (हिंदू साधु नहीं, मैं बौद्ध हूं। नेपाल का ब्रह्मचारी)। आगे बस्ती में घुसते ही पता लगा कि खेमू बो (बड़ा लामा) कल टशी गङ् गर्तोक् के पास एक ठंडी जगह जा रहे हैं। अष्टोत्तरशत स्तूपों की कई कतारों के बीच से जाते हुए हम महाविहार के प्रांगण में प्रविष्ट हुए। ख्यन-पो (खेम् बो-उपाध्याय) की कुटी प्रांगण के उत्तर में मिट्टी की चहारदीवारी से घिरी, लाल और पीली मिट्टी से पुती, दूर से ही दीख पड़ी। छत पर शृúी और नगाड़े दिखायी दे रहे थे। चारों कोनों पर मोरपंखमय चीनांशुक-वेष्टित ध्वजाग्र विराजमान थे। बड़े लामा का काला कुत्ता हमें देखते ही मानो आग-बबूला हो उठा। अविरत तार स्वर में भौंकने लगा और लोहे की मज़बूत जं़जीर से बंधा होने पर भी उसने उछलना-कूदना आरंभ कर दिया। उसकी पतली कमर तथा विशाल मुंह के देखने से वह पंचानन (पंच-आनन, विस्तृत वदन सिंह) जैसा प्रतीत हो रहा था। एक किशोर लामा ने आकर उस अभिजातवंशीय कुत्ते को चुमकार-पुचकार कर शांत कर दिया। इस प्रकार हमारे अंतःप्रदेशाधिकार की प्रामाणिकता पर उस स्वामी-भक्त द्वारपाल को विश्वास कराया गया। हमारा साथी चंद्रसिंह कई बार थो-लिङ् आया-गया हुआ जाड जाति का ही एक तरुण था। वह मुझे पहले सांधिक भोजनालय में ले गया। दो सौ बरस की पुरानी पाकशाला धुंऐ से काली-कलूटी, कोलतार से गाढ़ी लिपी-पुती प्रतीत हो रही थी। तीन बड़ी-बड़ी भट्ठियां जल रही थीं। तीन-तीन मुंहोंवाली उन भट्ठियों पर लोहे के बड़े-बड़े डेगचे चढ़े हुए थे। पाचक के हाथ में प्रकांड-कलछी को देखकर मैं समझ गया कि महाविहार के सभी संतों और परिचारकों का चाय-पानी और खाना-पकाना अवश्य यहीं होता होगा। पांच-छः तरुण लामा चाय पी रहे थे। मुस्कुराकर उन्होंने मेरा स्वागत किया। वे सभी ल्हासा के थे और ख्यन्-पो तथा लब्रङ् (छोटा महंथ) के अंगरक्षक के रूप में रह रहे थे। संघ-भोजनशाला में पान-भोजन के लिए जो बड़ा-सा आसन बिछा था, वह भी जटायु था। उसकी आकृति समद्विबाहु थी। आगे प्यालियां नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 179 और कटोरे रखने के लिए जो लंबा-सा पीढ़ा पड़ा था वह भी समद्विबाहु। तिब्बती लोग लामा भी दिन-भर अपने लंबे बूट, जो घुटने तक के हुआ करते हैं, पहने रहते हैं। शौकीन और कलाप्रिय व्यक्ति रंग-बिरंगे सूत के बने कीमती सूती बूट पहने रहते हैं। आसन पर बूट समेत ही आकर बैठ जाना, सो भी दिन-रात मिलाकर बीसों बारμऔर सैकड़ों वर्ष से चले आते इस क्रम की गवाही दे रहे थे उस विराट संघ-आसन के ऊनी गलीचे। एकाएक उस पर बैठते हुए मेरा मन विद्रोह कर उठा, किंतु लामा लोग बैठ जाने का इशारा स्मित वदन होकर कर रहे थे। फिर भी अपनी काली लोई बिछाकर ही बैठ सका। काली लोई का मैला होना उतना असह्य नहीं मालूम पड़ा जितना कि पीली अलफी का। प्याली अपनी-अपनी सबकी ज़्ाुदा होती है। राहुल जी ने ने-लङ् में ही मेरे लिए एक छोटी-सी सुंदर प्याली लकड़ी की खरीदी थी, डेढ़ रुपए में। क़ीमत निश्चय ही अधिक लगी थी, लेकिन ने-लङ् में और प्याली अप्राप्य होने से झख मारकर हमें नमक के उस भोटिया सौदागर से यह प्याली लेनी पड़ी। अपनी इस सहचरी को जब मैंने पीढ़े पर, सामने रखा तो लामा लोग चमत्कृत हुए, ‘चल दिक-ने सोङ् के’ (यह चीज़ कहां से पायी?) चंद्रसिंह ने कहाμने-लङ् से। महापाचक ने परिचारक को संकेत दिया और उसने भर दी मेरी प्याली। पर्याप्त मक्खन डालकर मथी हुई वह नमकीन चाय मेरे लिए अपूर्व थी। चंद्रसिंह अलग बैठा था। उसने भी अपनी प्याली निकालकर सामने रख ली थी। उसकी प्याली अंदर से रजत-पत्रा-वेष्टित और कलामय थी और मेरी सादी। इस प्रकार पांच-पांच, सात-सात प्याली वह स्वादिष्ट पेय मुंह में उड़ेलकर जब हम कुछ सुस्ता चुके तब एक तरुण लामा ने आकर कहा, ‘अभी कुशो रिम् बो छे का दर्शन कर लो, मैदान खाली है।’ महापाचक ने सलाह दी, ‘नहीं, पहले राजा (लबरङ्) का कर लें।’ देहरादूनी बासमती, चीनी, छुहारे, किसमिस, सूखा सेब, एक-एक टिकिया हमाम साबुन काμउपायन की ये वस्तुएं हरसिल में ही बागोरी के जाड सौदागर से ले ली थीं। चंद्रसिंह ने नैवेद्य (निवेदनीय पदार्थ) को दो तश्तरियों में विभक्त कर दिया। तश्तरियां संघ भंडार से मिलीं। लबरङ् के सामने जब मैं ले जाया गया तब वे अपने छोटे-से कुत्ते को गोद में लिये हुए प्यार कर रहे थे। कपिश रंग का वह पिल्ला लामा का मुंह, नाक, कान, गला और माथा चाटकर प्रेम का प्रतिदान दे दिया करता और मालिक पुलकित हो उठते। मुलायम ऊन के गलीचे और चीनी कालीन से ढका और कुटी की भीत से लगा चबूतरा था, तल से बीता-भर ऊंचा। उस पर एक बड़ा आसन, चौकोर घुलमे की शकल का और वैसी ही उठी हुई रोमावलीवाला, बिछा था। दाहिने-बायें दो-दो छोटे-छोटे आसन और थे। थोड़ी-सी लाली लिये हुए बैंगनी रंगवाला भोटिया चीवर और अंतवसिकμसोने की घुंडी मुंडीवाली पीली अंगरखी, लाल और सफ़ेद सूतोंवाला कङ्वा (भोटिया जूता), यही थे लबरङ् के परिधान में। चीवर और अंतवसिक ऊनी थे और अंगरखी थी आसामी अंडी की। सिर सद्यः मुंडित और नग्न, भास्वर था। दाढ़ी थोड़ी-सी ठुड्डी पर ठीक बकरे की दाढ़ी जैसी! चंचल आंखें, रह-रहकर तन जानेवाली भौंहें, कनखी और बाल-सुलभ ठहाका मारनाμकुल मिलाकर लबरङ् राजा मुझे बिहार के किसी उन्मद ज़मींदार का फोटो मालूम हुए। एक और तरुण लामा उनके पास बैठा था। चंद्रसिंह था दुभाषिया। तिब्बती बोलने का अभ्यास मेरा नहीं के बराबर था, फिर भी ने-लङ् के जाडों का सहवास व्यर्थ नहीं गया। उत्तर-काशी में बीस दिन राहुल जी से कुछ तिब्बती सीखी थी, वह भी काम आयी। लामा ने पूछा, तब अपनी टूटी-फूटी तिब्बती में मैंने उन्हें जवाब दिया। इससे उनका काफ़ी मनोविनोद हुआ। वहां अपने को नेपाल निवासी और सिंहल में दीक्षा प्राप्त बौद्ध भिक्षु बतलाना पड़ा। नेपाली इसलिए बना कि इधर तिब्बती अधिकारी 180 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 प्रायः प्रत्येक भारतीय को गन्-दी (गांधी) का आदमी और फि-लिङ् (अंग्रेज़) का शत्राु मानते हैं। ऐसी स्थिति में मैं नहीं चाहता था कि पश्चिमी तिब्बत के सर्वप्रधान धार्मिक केंद्र में प्रवासी बनकर रहते समय वहां अनवरत आते-जाते रहनेवाले ल्हासा के राजपुरुषों के लिए ज़रा-सा भी संदेह-बिंदु हो जाऊं। और अभी-अभी दो गौरांगों (संभवतः इटालियन) कैदियों ने उत्तर-काशी तथा ने-लङ् के रास्ते भागकर इधर से निकलने की कोशिश की थी कि चवरङ् के जोङ् पान् को पता लगा और उसने पकड़वाकर उन्हें दर्रा-ए-सिपकी के रास्ते शिमला भेज दिया था। पुलिङ् ने नंबरदार से इसीलिए अभी-अभी भारी रकम ज़्ाुर् ाना में वसूल की थी कि उसने उक्त कैदियों को आने-जाने दिया। पुलिङ् के एक भोटिया कसान को मेरे संबंध में भ शक हुआ कि यह साधु का भेष बनाकर उन्हीं भगोड़ों की जांच करने आया होगा। इसी कारण मैं अपन को भारतीय नहीं कहना चाहता था। लबरङ् ने मुझसे पूछा, ‘हाथ देखना जानते हो?’ और अपने दोन ें हाथ आगे बढ़ा दिये। ‘जी, नहीं।’ मैंने कहा, ‘ज्योतिष का यह अंग मैं नहीं सीख सका।’ ‘तब का न-सा अंग जानते हो?’ ‘कपाल की लिपि पढ़ना सीखा है।’ ‘तब आओ। मेरा ललाट देखो।’ लबरङ् र जा ने मुझे अत्यधिक निकट बुला लिया और मेरी ओर कौतुहल से देखने लगे। चंद्रसिंह से कुछ कहा। उसने मुझसे बताय , ‘लबरङ् कहता है कि ऐसा अद्भुत आदमी तो आज तक नहीं देखा जो ललाट का लेख पढ़ना जानत हो, क्योंकि विधाता का लिखा विधाता ही पढ़ सकता है।’ अपने मनसाराम क े भीतर ही भीतर हंसी आयी। बाहर से मैं खूब गंभीर बना रहा। बोला, ‘जू कु शो! (श्रीमान् आपकी ललाट लिपि घोर म नसिक चिंता प्रकट कर रही ै। रात्रि को अच्छी तरह नींद न आती होगी श्रीमान् को! ह न!’ लामा थोड़ी देर तक चुप रहे। मैंने समझ लिया कि ‘मौनम् स्वीकार लक्षणम्’। चंद्रसिंह अ छा दुभाषिया नहीं था, फिर भी काम तो हमारा वह चला ही रहा था। ने-लङ् में ही सुन लिया था कि इ साल ा म - ो और लबरङ् के कार्यकाल की अवधि समाप्त होनेवाली है। नये खेम्-बो और लबरङ् आनेवाले है । लबरङ् को चार्ज देना है। पांच साल का हिसाब-किताब साफ़ करना है। चिंतित रहता है। फिर दूसरा प्रश्न ह आ, ‘तंत्रा-मंत्रा जानते हैं?’ ‘जानता ह ं, किंतु थोड़ा-थोड़ा। कभी प्रयोग नहीं किया है।’ ‘तिब्बती-लिपि सीखी है?’ ‘जू कु शो, सीखी है!’ ‘भोट भाषा पढ़ने का क्या प्रयोजन है? जो कुछ ग्य-गर् गद् (भारतीय भाषा) मे है, वही हमारी योद् गद् (भोट भाषा) में भी है।’ अब उन्हें समझा देना पड़ा कि प्राचीन आचार्यों क कई ग्रंथ आज भारतीय भाषा में अप्राप्य तथा अलभ्य हैं। परंतु उनका प्रामाणिक अनुवाद तिब्बत भाषा में अभी भी सुरक्षित है। भारतीय (संस्कृत) और भोटीय दोना ं भाषाओं में अभिज्ञता प्राप्त कर लेने से फिर उन लुप्त ग्रंथों का उद्धार संभव होगा। इसी प्रसंग में उन्हें ‘प्रमाणवार्तिका’ (राहुलजी द्वारा संपादित) तथा ‘न्यायबिंदु’ (चेरवास्की के द्वारा संपादित) दिखलाये और इनका तिब्बती नाम आदि बतलाया। लबरङ् ने दोनों पुस्तकें मुझसे ले लीं और शिर से लगाकर नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 181 उन्हें प्रणाम किया। मैं तो कभी-कभी इन पुस्तकों को बांधकर शिरोपधानी (तकिया) का काम निकाला करता था। किशोर लामा को उन्होंने संकेत दिया कि गेलोङ् (ब्रह्मचारी) को ऊपर कुशोरिम-बो छे (श्रीमंत महारत्नμधर्माचार्य के लिए प्रयुक्त होता है) के पास ले जाय। चंद्रसिंह चढ़ावा के लिए दूसरी थाली सजा लाया। उसमें चावल, चीनी, मेवे आदि के लिए अलग-अलग छोटी-छोटी तश्तरियां थीं। ऊपर से रेशम का एक पीला टुकड़ा, जो राहुल जी ने इसी मतलब से साथ कर दिया था, रख दिया। फिर हम चले बड़े लामा के दर्शन करने। बड़े लामा उसी मकान के ऊपरी चौबारे पर एक कुटी में एकाकी विराजमान थे। रंग स्वर्णिम गौर, कद लंबा, दुहरे बदन का। मुखाकृति शांत और सौम्य। सिर इनका भी सद्यः मुंडित था, किंतु दाढ़ी नहीं थी। दो-तीन महीने की उम्र का एक पिल्ला, भूरे रंग का, गोद में सो रहा था। कुटी की सजावट सादी थी। एक ओर रेशमी कपड़ों की वेष्टनीवाली दस-बारह पुस्तकें रखी हुई थीं। बिल्कुल पास में एक छोटी-सी चौकी पर चांदी की नसदानी और चांदी का ही जपचक्र पड़ा था। दोनों ही बहुत कलामय प्रतीत हुए। मैंने स्थिविरवादी मुद्रा में खेम्-बो को प्रणाम किया। उन्होंने दाहिना हाथ उठाकर अभयमुद्रा में आशीर्वाद किया। फिर चंद्रसिंह से मेरे संबंध में पूछने लगे। प्रश्नोत्तर के क्रम से मैं समझ गया, कुशो-रिम बो छे तर्क और प्रमाणशास्त्रा के नहीं, केवल विनय, धर्म और महायान तथा वज्रयान के श्रद्धापक्षीय ग्रंथों के ही ज्ञाता हैं। उन्होंने कहा, ‘इस ज़रा-सी बात के लिए तुमने इतना परिश्रम क्यों उठाया? श्रद्धावान् के लिए भगवान् शास्ता सर्वज्ञ (बुद्ध) का एक बोल पर्याप्त होना चाहिए और जिसने बुद्ध-गया तथा काशी में बहुत दिनों तक अध्ययन किया हो उसके लिए तो गुरु मंजुघोष की कृपा प्राप्त करना आसान है। जो बात दोर्जे दन् (बुद्धगया) में तुम को नहीं मिली वह तुम संसार में कहीं भी नहीं सीख सकते। आगे तुम्हारी इच्छा।’ इस प्रकार की गंभीर आस्थावाले पंडित अथवा संत से जब कभी पाला पड़ता है, तब उन्हें समझाना मेरे लिए एक विकट समस्या हो जाती है। कुशो-रिम् बो छे को अपनी बात समझाये बिना उनसे थो-लिङ् में रहकर अध्ययन करने की आज्ञा प्राप्त करना असंभव था। मैं निराश नहीं हुआ। अनुनय के स्वर में अंजलिबद्ध होकर बोला, ‘‘शास्ता सर्वज्ञ की अपनी मातृभूमि में सर्वसाधारण लोग उनका नाम तक भूल गये हैं। मैं बहुत दिनों तक बुद्धगया के उस पीपल के नीचे बैठ चुका हूं। वहां निशीथ रात्रि में अंदर और बाहर मुझे यही सुनायी पड़ता था कि जाओ भोट देश में, वहां के लामाओं के पास जाकर श्रद्धा-भक्ति सीखो। उनके पास अभी भी बहुत कुछ अवशिष्ट है, वे उदार हृदय के होते हैं। बुद्धवचन और परवर्ती आचार्यों के शास्त्रावचन उन्हीं लामाओं से सीख सकते हो। बार-बार ऐसा सुनने पर भोट आने का निश्चय किया। एक दिन दुपहर को जब गंगोत्राी के पास भैरव घाटी में देवदार की छाया में थकावट के मारे सो रहा था, तब देखा लो बोन् छोग् लङ् (आचार्य दिङ्नाग) रोष भरे स्वर में कह रहे हैं कि तुम्हारा जीवन व्यर्थ है, यदि तुमने मेरे छ मा कुन् तुडि (प्रमाणसमुच्चय) का उद्धार नहीं किया।’’ अब खेम्-बो ने कहा कि तुम्हें ल्हासा जाकर पढ़ना चाहिए। यहां उतनी पढ़ाई नहीं है। अक्षरारंभ, स्तोत्रापाठ, पूजा-पद्धति आदि ही यहां सिखाते हैं और तुम्हें बनना है महापंडित! यहां कौन पढ़ायेगा? आचार्य दिङ्नाग और आचार्य धर्मकीर्ति का मैंने भी नाम मात्रा ही सुना है। उनका मत, उनकी तर्क-शैली से मैं सर्वथा अनभिज्ञ हूं। यहां सारे ङ् री कोर् सुम् (पश्चिमी तिब्बत) में ऐसा कोई नहीं है जो तुम्हें ये 182 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 बातें बतला सके। अब मैंने आग्रहपूर्वक निवेदन किया कि अक्षरारंभ भी मैं यहां आपके पास ही रहकर करना चाहता हूं। अत्यंत श्रद्धा से ही इस पवित्रा स्थान में आया हूं। यहां हमारे आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान (अतिशा) तीन साल रहे थे। रिन् छेङ् जङ् पो (रत्नभद्र) जैसे महान धर्माचार्य की लीला-भूमि मध्यमंडल और कश्मीर के अनेक दार्शनिकों का प्रवास क्षेत्रा रहा है यह थो-लिङ्। मैं यहां आया हूं तब कुछ सीखकर ही जाऊंगा। आपकी अनुमति मिले। ‘अच्छी बात है, रहो।’ मेरे अंतिम कथन से प्रभावित खेम्-बो बोले, ‘किंतु हम तो केवल ढाई मास यहां हैं। उसके बाद ल्हासा चले जायेंगे। दूसरे खेम्-बो और लबरङ् आयेंगे... अच्छा, मैं उनसे तुम्हारे लिए कह जाऊंगा। और हां, मैं कल टशी गङ् जा रहा हूं। एक मास वहीं रहूंगा। तुम आज आ गये, अच्छा हुआ। हमारी भेंट हो गयी। तुम्हारे लिए एक लामा को नियुक्त कर देता हूं। वह तुम्हें प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा समय देकर पढ़ायेगा। चतुर और पंडित है। अपना ही अंतेवासी।... और हां, खाने-पीने का सारा प्रबंध तुम्हारे लिए महाविहार की ही ओर से हो जायेगा। उसकी चिंता नहीं करना।’ अब मैं हल्का हो गया। चिंता का बोझ हृदय पर से उतर चुका था। लबरङ् की कड़ाई और लापरवाही रास्ते-भर सुनता आ रहा था। संदेह था कि थो-लिङ् में वह मुझे रहने देगा भी कि नहीं। बात यह है कि सारे तिब्बत में सुदूर सीमांतों की ओर जो अनेक ऐतिहासिक महाविहार आज भी बच रहे हैं, उनकी देखभाल के लिए अधिकारी बनाकर ल्हासा से ही लामा भेजे जाते हैं। जो कड़े स्वभाव के होते हैं, उन्हें लबरङ् बनाया जाता है, ताकि वे कड़ाई से महंतों के कर्त्तव्य का पालन करें। खेम्-बो (ख्यन् पो) महामहंत होता है सही, पर वह लबरङ् की अपेक्षा अधिक शिष्ट तथा संभ्रांत हुआ करता है। नेपाल के तीन सरकार और पांच सरकार की तरह हम लबरङ् तथा खेम्-बो का तारतम्य समझ सकते हैं। परंतु अब पांच सरकार की आज्ञा मिल चुकने पर तीन सरकार का डर मेरे मन से मिट गया। चंद्रसिंह ने भी पूछा, ‘आपने कौन-सा मंत्रा मारा जो इतनी जल्दी बड़ा लामा मान गया?’ मैंने कहा, ‘यह उस पीपल के पत्ते का चमत्कार है जो मैं बुद्धगया से लाया हूं। तुम्हारे पहाड़ी देवताओं में इतना सामर्थ्य कहां से आया।’ (सरस्वती, फरवरी, 1944)