दंश / तेजेन्द्र शर्मा

Gadya Kosh से
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जीवन के कटु सत्यों को झेल पाना क्या आसान काम है? कई बार यूँ भी तो लगता है कि 'काश! मुझे मालूम ही न हो कि सत्य क्या है।' यह भी एक सत्य है कि मेरे पिता का शरीर दो महीनों से खाँसी करते-करते अब मात्र मांस का एक लोथड़ा बना पड़ा है। घर में बहुत-से संबंधी बैठे हैं। मेरे तीन भाई व उनकी पत्नियाँ, तीन बहनें व दो जीजा। छोटी सुधा तो अभी ह्लाुँवारी है और शह्लाुंँतला तो एक बार अपने प्रेमी के साथ भाग गयी तो फिर कभी मुँह नहीं दिखाया। इंदर, आनंद व राजे-तीनों जार-जार रो रहे हैं। संभवत: उन तीनों को ही अपने पिता से अधिक प्यार रहा होगा। इसीलिए तो अपनी पत्नियों की गोद में एक भोपाल जा बैठा, एक झाँसी तो एक दिल्ली में रहते हुए भी घर-जमाई बनकर ससुराल में रहता है। पर रिश्तेदारों के सामने तो रोना बहुत आवश्यक है। लोग क्या कहेंगे! लोग कह भी रहे थे-'निलकंठ तो एकदम चुप-सा हो गया है। उसकी ऑंखों में तो एक भी ऑंसू नहीं!' मैं तो उस दिन भी नहीं रो पाया था जब मेरी माँ की मृत्यु हुई थी। माँ! कितना अजीब-सा संबंध था हमारा! बस, घर के राशन का उत्तर-दायित्व ही मेरे हिस्से था। घर का किराया देना ही मेरा काम था और हर बहन की शादी पर उधार लेना मेरी नियति थी। इसके अतिरिक्त घर में क्या होता है, क्या करना है, उसमें मेरी आवश्यकता किसे कब महसूस होती है? मुझे अपने जीवन की यादें छठी कक्षा तक ले जाकर छोड़ देती हैं। उससे पहले मेरा जीवन कैसा था, कुछ याद नहीं। पिता रेलवे में क्ल थे। कहते हैं, हमारे दादा जमींदार थे-बड़ी-बड़ी जमीनों के मालिक। पर पिता हमारे क्ल ही थे। रेलवे में यात्रा करने के लिए हमें मुफ्त पास मिलते थे। विडंबना यह कि मैंने आज तक रेलगाड़ी में यात्रा नहीं की-जीवन के पैंतालीस पतझड़ देखने के बाद भी। पहले तो हमारे माता-पिता देश की जनसंख्या बढ़ाने में व्यस्त रहे। पाँच लड़के और पाँच लड़कियाँ। एक लड़की व एक लड़के में कुछ कमी रह गयी तो वह बचपन में ही हमें छोड़ एक नयी दुनिया में प्रवेश पा गये। आठ बच्चों के लालन-पालन और पढ़ाई में हम सबको दिल्ली से कभी बाहर जाने का अवसर नहीं मिला। मोरी गेट के इस मकान में ही अपना बचपन व जवानी बिता दिये। अब तो मेरे बालों में भी सफेदी आती जा रही है। हर महीने मकान-मालिक खाली करने को कहता है। पर वह तो पिछले तीस वर्ष से यही कहता आ रहा है। पिताजी सदा ही एक तानाशाह रहे। उस समय वातावरण ही कुछ ऐसा था। विश्व में हिटलर और मुसोलिनी का जोर था तो भारत के हर घर में एक हिटलर अपनी कमजोर पत्नी व बच्चों पर अपने जुल्म तोड़ता था। खाना कभी ठंडा रह गया था, उसमें मिर्च तेज हो गयी तो तश्तरियाँ उड़न-तश्तरियों की तरह घर में नाचने लगतीं। माँ का सहमा हुआ चेहरा, मार से सूजा हूआ बदन हमारे मस्तिष्क में छप-सा गया है। पिताजी का शांत स्वर तो हमने कभी सुना ही नहीं था-झल्लाहट के बिना वह बात नहीं कर पाते थे। मैंने अक्सर यह अनुभव किया था कि पिताजी का व्यवहार मेरे साथ कुछ विशेष ही कड़वा रहता था। कारण-मेरी ऑंखों में भरा विद्रोह था अथवा उनके मन का अपना अपराध-बोध-कह नहीं सकता। और यह दूरी दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी। किंतु मुझे कुछ न कर पाने की अपनी असमर्थता बहुत कचोटती थी। घर की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया पर मेरी अपनी स्थिति ने कुछ पल्टा खाया। मैंने बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। पिताजी ने साीधे-सीधे कहा था-'अब पढ़ाई बंद समझो। कोई नौकरी-धंधा ढूँढ़ो। आवारागर्दी बहुत कर ली।' मन विद्रोह कर उठा। क्या पिताजी कोई भी बात ढंग से नहीं कर सकते? मैंने कुछ साहस जुटाया-'मैं वकालत पढूँगा।' "तुम्हारा दिमाग फिर गया है। पैसे क्या तुम्हारे नाना छोड़कर मरे हैं?' "मैं नहीं जानता, मैं तो वकालत करूँगा ही।' माँ ने पहली बार अपने जेवरों में से कुछ एक बेचे और मुझे पैसे देते हुए बोली-'बेटा, जाओ, अपनी पढ़ाई पूरी कर लो।' साइकल पर बैठा मोरी गेट से विश्वविद्यालय की ओर बढ़ा जा रहा था-मस्तिष्क में अपनी वकालत की पढ़ाई और उसके बाद के अपने स्वर्णिम भविष्य के सपने सँजोता हुआ। अभी पुलिस लाइंस तक ही पहुँच पाया था कि एक टैक्सी पीछे से आयी और एक धक्का मुझे भी लगा गयी। पाँच-सात कलाबाजियाँ खाता एक कोने में जा पड़ा था मैं और सिर से लहू भी बहने लगा था। कुछ देर वहीं वैसा ही पड़ा रहा। टैक्सी उसी रफ्तार से आगे चली गयी। अस्पताल में पिताजी आये थे। "अब या तो इलाज करवा लो, या अपनी फीस भर लो। हमारे पास कोई टक्साल नहीं खुली है।' एक टैक्सी मेरे जीवन की गाड़ी को सदा के लिए पटरी से उतार गयी। अस्पताल से वापस आकर मैं परकटे पक्षी-सा फड़फड़ाता रहा। मैंने सदा अपने-आपको एक वकील के रूप में ही देखा था। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में स्कूल-कॉलेज में प्रथम पुरस्कार जीतने वाले निलकंठ ने वकील बनने के स्वप्न को धीरे-धीरे दफन कर दिया। पिताजी की उपेक्षा-भरी निगाहों का सामना करने का साहस धीरे-धीरे चुकता गया। रेलवे स्टेशन और चाँदनी चौक की सड़कें नापने में आनंद आने लगा था। तभी मेरा ध्यान समाज शिक्षा केंद्र की ओर गया। निम्न स्तर का जीवन जीने वाले कुलियों और साँसियों को देखकर अपने दु:ख बहुत छोटे लगने लगे। दिन-भर कड़ी मेहनत के बाद संध्या समय वह समाज शिक्षा केंद्र में अपना मनोरंजन करने व शरीर को विश्राम देने के उट्ठेश्य से आते थे। उनका दु:ख-दर्द बाँटकर एक प्रकार की मानसिक शांति की अनुभूति होती थी। सब किसी-न-किसी काम में मगन दिखायी देते। दरिद्रता और अभावों से ग्रस्त जीवन जीकर भी वे एक मौज से भरपूर थे। कोई भी मेरी तरह भीतर से टूटा हुआ नहीं दीखता था। उनमें एक जिजीविषा थी जिसे मैं एकदम वंचित था। उन्हें देखकर मन में कई बार स्पर्धा होने लगती। एक दिन उसी समाज शिक्षा संस्थान में मुझे नौकरी मिल गयी थी। एक वकील एक समाजसेवी बन गया था। पिताजी को डेढ़ सौ रुपया महीना भाये थे। किंतु उनके बुर्जुआ व्यक्तित्व को मेरा कुलियों के साथ संप स्वीकार्य नहीं था। पर मुझे वे कुली-साँसी अपने पिता से कहीं अधिक रुचिकर लगते। मुझसे छोटी बहन मधु की शादी हो गयी। लड़का भी सरकारी नौकरी में था। पिताजी को सरकारी क्ल किसी बड़ी कंपनी के मैनेजर से कहीं अच्छा लगता है। सरकारें बदल सकती हैं, परंतु सरकारी नौकरी जिस किसी का दामन एक बार थाम लेती है, वह क्ल कभी नहीं गिर सकता। अब विवाह के लिए मुझे उकसाया जाने लगा। माँ ऑंसू बहाकर मुझे वास्ते देती कि शादी कर लो। पिताजी कायस्थ बिरादरी से ही एक मोटा आदमी ढूँढ़ निकाला था। मैं-सारे शहर के जवान लड़कों को सिखाने वाला कि दहेज बुरी बला है-और जब मेरे अपने विवाह की बात आयी तो माँ-बाप के सामने भीगी बिल्ली बना खड़ा रह गया। एक लाख रुपया मेरे ससुर ने मेरी पत्नी गीता के नाम बैंक में जमा करवा दिया था। वह मुझे घर-जमाई बनाना चाहते थे। इस चक्कर में न तो घर रहा और न ही जमाई। गीता के तेज स्वभाव और अभिजात पिता की संतान होने का गर्व-दोनों ने हम दोनों के बीच किसी कोमल तंतु के जुड़ने से पहले ही गहरी खाई पैदा कर दी थी। "तुम अपने-आपको समझते क्या हो? दो सौ रुपल्ली तनख्वाह और मुकाबला मुझसे! मैं तुम्हारे इस घर में नहीं जी सकती। इस भीड़ में मेरा दम घुटता है।' पहली बार मेरा हाथ किसी लड़की पर उठा था। और गीता मुझे छोड़कर चली गयी-सदा के लिए। और मैं इस लुटेरों के गिरोह में घिरकर रह गया था। आज बीस वर्ष हो गये, गीता ने न तो तलाक ही माँगा था और न ही कभी मुलाकात की। पिताजी ने मुझे ही दोषी माना था। माँ को भी लगा कि मेरी अक्खड़ बतीयत, रात को देर से घर आना, भंगी, चमार व कुलियों के साथ उठने-बैठने से ही उनकी बहू घर छोड़ गयी है। किसी ने मेरे दिल में झाँककर नहीं देखा कि वहाँ क्या घाव लगे हैं। धीरे-धीरे इंदर व आनंद की भी शादी हो गयी। शादी के दो-दो महीने बाद ही वह घर से अलग अपने-अपने संसार में खो गये थे। माता-पिता और बहनों की मजबूरियों के बीच अकेला रह गया था मैं-नीलकंठ। पिताजी रिटायर हो गये। उनके कार्यालय के बहुत-से साथी उन्हें हार पहनाकर और कंधों पर उठाकर घर लाये। मेरे लिए उस उत्सव का एक ही अर्थ था-मेरे खर्चे और बढ़ गये थे। पिताजी की आय बंद और मेरा खर्चा शुरू। और फिर शह्लाुंँतला घर से भाग गयी। उसका पत्र मिला कि पिताजी अजय को स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि वह कायस्थ नहीं है। "हमारे लिए शह्लाुंँतला मर गयी है। अब अगर उसने कभी इस घर में कदम रखा तो मैं उसकी खाल खींच लूँगा। और अगर तुममें से कोई उसे मिला तो वह इस घर में नहीं रहेगा।' माँ इस सदमे को नहीं सह सकी और कुछ ही दिनों में पिताजी की झिड़कियों से बहुत दूर निकल गयी। पहली बार पिताजी की ऑंखें गीली देखी थीं। माँ की चिता को बस देखे जा रहे थे। मेरी घृणा दया में परिवर्तित होती जा रही थी। माँ की लाश अभी घर में ही पड़ी थी, जब इंदर बोला था-'हाँ, तो भाई साहब, क्या फैसला किया है?' "किस चीज का फैसला? क्रिया-कर्म तो तीन बजे तय है।' "नहीं, आप समझे नहीं। हर बात का फैसला तो करना ही होगा।' तभी पिताजी गरजे थे-'अभी मैं जिंदा हूँ। मेरे होते यदि तुम लोग किसी बँटवारे की सोच रहे हो, तो भूल कर रहे हो।' इंदर और आनंद खिसियानी-सी सूरत बनाकर माँ की लाश पर कपड़ा चढ़ाने लगे थे। माँ की मृत्यु ने घर में एक बड़ा-सा शून्य पैदा कर दिया था। मेरी अंतर्मुखी वृत्ति ने मेरे आसपास जो एक चक्रव्यूह बना दिया था, उसे लाँघने का साहस कोई नहीं करता था। राजे, कमला व सुधा तो मुझसे औपचारिक बात ही कर पाते थे। तीन वर्षों में हमारे घर में तीन विवाह हुए। कमला और सुधा अपनी-अपनी ससुराल पहुँच गयीं। राजे को रूढ़िवादी रीति-रिवाज बिल्कुल पसंद नहीं। इसलिए वह बहू को घर लाने के स्थान पर स्वयं अपनी ससुराल जाकर रहने लगा। समय का फेर है। नीलकंठ माथुर एक लाख रुपया देखकर भी अपनी पत्नी व ससुर के पाँव नहीं चाट पाया। उसी का छोटा भाई राजनाथ माथुर राज के लालच में ससुराल का कुत्ता बनना स्वीकार कर गया। इन सबने एक नयी चाल चली। 'पिताली, नीलकंठ भैया से कहिए कि विवाह कर लें। अभी तो उम्र है। सारा जीवन अकेले कैसे जियेंगे?' आनंद ने सहानुभूति जतायी। मेरा स्वभाव जीवन के कटु अनुभवों से कुछ कड़वा-सा हो गया है। संभवत: इसीलिए उस दिन भी आनंद से कुछ कड़वा कह दिया होगा। उसकी पत्नी ने एकदम सामान बाँध लिया और झाँसी चलने को तैयार हो गयी। मैं स्वयं को धिक्कार रहा था-'नीलकंठ, तुम पागल हो। तुम कभी नहीं सुधरोगे। इस घर में तुम्हारा केवल कर्तव्य है, अधिकार कुछ नहीं। तुम्हारा भाई अब अपनी पत्नी का पति मात्र है, तुम्हारा भाई नहीं। और किसी भी पति को कुछ कहने का अधिकार तुम्हें कैसे मिल गया?' शून्य बड़ा होता जा रहा था। और उस शून्य में दो आकृतियाँ ही दिखायी देती थीं-पिताजी और मैं। दोनों एक-दूसरे को यूँ देखते जैसे कि दो पहलवान जूझने से पहले एक-दूसरे को तौल रहे हों। मेरी दिनचर्या भी कुछ अजीब-सी हो गयी थी। सुबह आठ बजे घर से निकलता और साँसियों की गंदी बस्तियों में घूम-घूमकर उन्हें कच्ची शराब बनाने से रोकने की चेष्टा करता। उनके बच्चों को अपने समाज शिक्षा केंद्र में बुलाता और जीवन की आवश्यक बातें सिखाने में व्यस्त रहता। रात को नौ बजे घर पहुँचता तो पिताजी खाना बनाकर, मेरी राह देख रहे होते। मेरे घर में घुसते में एक अजीब-सा तनाव भर जाता। पिताजी की ऑंखें जैसे कह रही हों-'नीलू बेटा, जल्दी आ जाया करो। तुम्हारे बिना बहुत अकेला-सा लगता है।' परंतु प्रकट में वह गुस्से की रेखाओं को अपने चेहरे पर चढ़ाये रखते। खाना मेरे साथ ही खाते थे। पिता-पुत्र में कभी कोई बातचीत नहीं होती थी। कमला के यहाँ से प्रस्ताव आया: 'भैया, मेरे बेटे को गोद ले लो। बुढ़ापे का सहारा बन जायेगा।' लुटेरों की एक और चाल। मेरी बची-खुची भविष्य-निधि पर भी निगाहें लगाये बैठे हैं। मुझे नहीं चाहिए किसी का बेटा। सारे कुली और कच्ची शराब बनाने वाले साँसी मेरे बेटे हैं। मैं अपनी भविष्य-निधि उनके ही नाम कर जाऊँगा। पिताजी को पहली खून की उल्टी हुई। डॉक्टर ने अस्पताल में जाने को कहा, कैंसर की अंतिम स्टेज। हितचिंतकों को पत्र लिखे गये। और एक-एक करके सबका सामान घर के सामने उतरने लगा। सबके चेहरों पर एक ही प्रश्न तैर रहा था-किसको क्या मिलेगा? पिताजी ने मरने से पहले मुझे अपने कमरे में अलग से बुलाया। वह मुझे देखे जा रहे थे। हम दोनों में बातचीत का सिलसिला काफी अर्से से टूट चुका था। उन्हें शायद उस दूरी को लाँघ पाना कठिन-सा लग रहा था। मैं भी इसी असमंजस में थोड़ी देर खड़ा रह गया। ऑंखें जैसे कुछ कहने को व्याकुल थीं, पर होंठ साथ नहीं दे रहे थे। उनकी ऑंखों में एक विवशता थी। वह उठने को हुए और बिना कुछ बोले मेरी बाँहों में सदा के लिए सो गये। दोनों अपने स्थान पर अड़े रहे और मँह से कुछ न बोल सके। सदा की तरह ऑंखें आपस में अपनी सारी कथा कह गयीं। एक अजीब-सा शोर सुनायी पड़ रहा है। इंदर, आनंद, राजे, बहनें, जीजा-सबकी आवाजें कमरे में फैलती जा रही हैं; जैसे वे आवाजें नहीं, हजारों साँप हैं जो मेरे आस-पास एकसाथ उग आये हैं। और उनका दंश मेरी नसों में घुसता जा रहा है। घबराकर मैं कमरे से बाहर आ गया हूँ और मेरे कदम स्वयमेव साँसियों की बस्ती की ओर बढ़ने लगे हैं।