दरार / अवधेश श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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स्टेशन से दीदी का घर बहुत दूर नहीं है, फिर भी मैंने रिक्शा कर लिया है, क्योंकि मुझे दीदी के घरवालों का डर था-कहीं वे यह न सोचें कि मैं पैदल आया हूं और मेरे एक रुपये के लोभ से दीदी की बेइज्जती हो जाए।

रिक्शा धीमी गति से चौड़ी-फैली सड़क पर खिसकने लगा। मेरी आखों के सामने दीदी के घर का रास्ता घूमने लगा। इसी सड़क की सीध में आगे एक चौराहा पड़ेगा। उस चौराहे से दाएं घूमकर करीब आधे फर्लांग के बाद विक्टोरिया पार्क पड़ेगा। पार्क के सामने वाली कोठी जगमगा रही होगी। वही कोठी दीदी का घर है, जहां दीदी को कैद हुए पांच वर्ष व्यतीत हो चुके हैं।

सच कहूं तो दीदी के परिवारवालों से मुझे नफरत हो गई है। उनके रईसी ठाठ-बाट से मेरे मन में क्रोध उबलता है। इस क्रोध के बीच दीदी भी आ जाती है, हालांकि दीदी का कोई कसूर नहीं होता है।

मांती अकसर दीदी के ससुराल की तारीफ पड़ोसियों से करने बैठ जाती हैं। जैसे ही उन्होंने तारीफ हांकना शुरू करतीं, मैं उनसे बहस करने लग जाता हूं। बहस में जीत न पाने के कारण मांती बाद में घंटों लंबा लेक्चर दे डालतीं- ‘तुझ जैसे निकृष्ट कोई नहीं होगा दुनिया-भर में कोई। कोई बहन के फलने-फूलने पर भी जलता है! हर मां-बाप चाहते हैं कि उनकी बेटियां बड़े घराने में जाएं, तू मेरी बेटी के पीछे क्यों पड़ा रहता है? तेरे बाबूजी ने इतना व्यवहार कर लिया है, तेरे दरवाजे पर तो कोई धूकने भी नहीं आएगा...अभी तो कुछ है नहीं, तब इतना घमंड, तुम्हारी औलादें होगी तब देखूंगी...’

मांती लेक्चर के अंत में अपनी कोख को ही कोसतीं, जिसने मुझ जैसा लड़का पैदा किया!

दीदी की शादी के बाद मैं उनसे सिर्फ दो बार मिला हूं-पहली बार रिंकू के जन्म पर और दूसरी बार पीएससी की परीक्षा के समय। वहां जाने पर हर बार बड़ा अजनबीपन-सा महसूस होने लगता है, इसलिए मैंने इस बार बहुत आनाकानी की थी। मांती को बहुत समझाने की कोशिश की थी- ‘क्या होगा मां, जाकर? वे लोग बड़े आदमी हैं। रिश्तेदारी बराबरवालों से मेल खाती है।’

उनका कार्ड आया है। कार्ड की मान-मर्यादा रखनी होगी।’ मांती अपने हठ पर डटी थीं- ‘हमने अपनी बेटी दी है, हमें तो झुककर ही चलना होगा।’

‘वहां जाने में मेरा दम-सा घुटता है। आखिर अपनी भी तो कुछ इज्जत है।’ मुझे गुस्सा आ गया था- ‘अगर तुम्हें जाना पड़े तो कुछ पता चले!’

बड़े आए इज्जतवाले! वहां तुम्हें लोग मारने लग जाएंगे? तुम जवान होकर घर में बैठे रहो और हम ब्याह-बारातों में जाएं?’

मांती ने मेरी एक न चलने दी थी। सामने वाली गुप्ताइन चाची से रुपये उधार लेकर दो चालीस-चालीस रुपये वाली धोतियां खरीद लाई थीं। मुझे पच्चीस रुपये टिका दिए थे।

लेकिन न जाने के सौ बहाने’ के हिसाब से में अकड़ गया था- ‘पच्चीस रुपये में इलाहाबाद तक का सफर मुझसे न होगा।’

हालांकि मेरे पास पचास रुपये अलग से थे, जो मुझे एक नई ट्घ्यूशन की पेशगी मिले थे। मेरी अकड़ पर बाबूजी की आँखें मुझे घूरने लगी थीं। उन्होंने खाट पर लेटे-लेटे अपनी मारकीन की बनियान की जेब से दस का एक तुड़ा-मुड़ा नोट फेंका था। मुझे मजबूरी में तैयारी करनी पड़ी। रास्ते के पूरे सफर में मैं दीदी की सास के तमतमाए गिलौरी-भरे चेहरे से आतंकित रहा हूं।

मैं पिछली बार बहुत बच-बचकर रहा था, फिर भी मेरी दीदी की सास से एक इंटरव्यूनुमा मुलाकात हो ही गई थी। मेज पर रखी चाय को उन्होंने हाथ के इशारे से पीने को कहा था। मैंने चाय पीना शुरू किया था और उन्होंने लेक्चर देना- ‘जाने कितने अच्छे-अच्छे रिश्तों को मना करना पड़ा-संजय बेटे की तकदीर ही खराब थी जो इतनी थर्ड-कलास शादी हुई...मास्टर साहब ने हमारी बेइज्जती कर दी...लेने-देने की बात तो छोड़िए, हमारे मेहमानों को सब्जी भी ढंग की न खिला सके...तुम्हारी बहन की सुंदरता ने हमारे बेटे को फांस लिया...तुम लोग कायस्थ हो भी या नहीं...तुम्हारा रहन-सहन तो कायस्थों जैसा नहीं है...’

अपमान-भरे न जाने कितने वाक्य चाय के साथ मेरे गले से उतरकर मेरे जिस्म में फैल गए थे। दीदी की शादी बड़े घराने में होना एक आकस्मिक संयोग था। बाबूजी उन दिनों इलाहाबाद के जीआईसी में लेक्चरर थे। जीजाजी को ट्घ्यूशन पड़ाने उनके घर जाते थे। कभी-कभी वे किसी-न-किसी श्प्रॉब्लम’ को लेकर घर भी पूछने आ जाते थे। न जाने कब उन्होंने दीदी को देख लिया और अपने मां-बाप से फरमाइश कर दी कि मैं मास्टर साहब की लड़की से शादी करना चाहता हूं। शादी के लिए जीजाजी के अलावा कोई भी तैयार नहीं था। इनके मां-बाप को यह रिश्ता श्राजा भोज और गंगू तेली’ का-सा लग रहा था। बात बड़े घराने की थी, इसलिए मांती और बाबूजी भी डर रहे थे। दीदी की अवस्था भी संदिग्ध थी, क्योंकि यह सब श्वन साइड अफेयर’ जैसा था, लेकिन लड़की होने की वजह से वे कुछ कहने की स्थिति में न थीं।

उसी बीच बाबूजी रिटायर हो गए थे। हम लोग दादाजी द्वारा बनवाए गए मकान में कानपुर आ गए थे। जीजाजी के पिताजी का शादी के लिए ’हाँ’’ वाला खत कानपुर ही पहुंचा था।

बाबूजी ने प्रॉविडेंट फंड और कुछ उधार का पैसा मिलाकर अच्छी तैयारी की थी, लेकिन इज्जत धूल में मिल ही गई थी। शराब के नशे में धुत्त जीजाजी के पिताजी ने सब्जी की कटोरियों को फेंकना शुरू कर दिया था। बाबू उनके पैर पकड़े घंटों माफी मांगते रहे थे, लेकिन उन्होंने तहसीलदार होने का पूरा रौब बाबूजी पर उतार दिया था।

बाबूजी फिर भी खुश थे-उनके सिर से दीदी का बोझ उतर गया था! मैं मूक बना सामाजिक रीति-रिवाजों के माध्यम से दीदी की सुंदरता का अपहरण देखता रहा।

ससुरालवालों का सारा गुस्सा दीदी पर उतरा। शादी के बाद वे कभी मांती, बाबूजी और छोटे भाई-बहन का मुंह नहीं देख पाईं। बेजान खतों से ही अपने प्यार को जिंदा रखने की कोशिश की...

‘‘साहब, आगे बारात जा रही है। कहिए तो गलियों से निकाल ले चलूं?’’ अचानक रिक्शेवाले ने चौंकाया।

सोचने की शृंखला टूट गई थी। अतीत की स्मृतियों ने वर्तमान में लाकर पटक दिया। मुझे मन-ही-मन शादियों के लिए मौसम बनाने वालों पर झल्लाहट हुई।

‘‘चाहे जिधर से ले चलो, यार!’’

मैं यह कह तो गया, लेकिन मन-ही-मन डरा भी कि रिक्शेवाला बारात का बहाना करके कहीं और न ले जाए।

गलियों में खड़े पुराने मकान देखकर मुझे अपना मकान याद आ गया, जो अब गिरने की स्थिति में आ गया है। जिस स्थिति में दादाजी ने मकान सौंपा था बाबूजी उस स्थिति को भी बरकरार न रख सके। पुताई के अभाव में दीवारें धुंधली हो गईं, छतों में दरारें पड़ गईं। किसी जगह की ईंट उखड़ गई या प्लास्टर हट गया, तो उसे दोबारा बनवाने की नौबत नहीं आई। आर्थिक स्थिति ढुलमुल होने की वजह से सिर्फ इतना ही नहीं हुआ, बल्कि सोफे और कुर्सियों की बुराइयाँ उधड़ गईं, जिन्हें कबाड़ में शामिल कर दिया गया। पलंग से पलंगपोश के चिथड़े बनकर हट गए। परिवार निम्न-मध्यमवर्गीय सीढ़ी से उतरकर निम्न वर्ग में आ गया। रोटी, कपड़ा और भाई-बहन की पढ़ाई-लिखाई आदि का खर्च बमुश्किल मेरी और बाबूजी की ट्घ्यूशन से निकलता...

मैंने दूर से ही देखा, दीदी का हवेलीनुमा घर जगमगा रहा है। मेरे मन में तसल्ली-सी आई कि रिक्शेवाले ने मुझे सही जगह पहुंचा दिया। मुझे अब साफ दिखाई देने लगे हैं अंग्रेजी में बल्बों से जगमगाते शब्द- ‘बीना वेड्घ्स सुदेश।’ रिक्शेवाले को मैं वहां तक घसीट ले गया, जहां तक भीड़ व्यवधान न बनी। उतरकर मैंने रिक्शेवाले को पैसे दिए। एयर-बैग को कंधे पर टांग मैं भीड़ को काटता हुआ अंदर चला गया। बिजली की सजावट से ऐसा लग रहा है जैसे यह शादी के लिए नहीं, बल्कि बिजली की नुमाइश दिखाने के लिए लगाई गई हो। एक तरफ आर्केस्ट्रा पर फिल्मी धुन चालू है तो दूसरी तरफ लाउडस्पीकर पर फिल्मी गीत सुनाई दे रहा है। लाइन से पड़े सोफों पर बच्चे शोर मचा रहे हैं। कॉफी-मशीन से कॉफी का मग भर-भरकर लोग लुत्फ उठा रहे हैं। वातावरण में चहल-पहल, खुशी और उल्लास भरा हुआ है।

लेकिन मैं इस सबसे कटता हुआ किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करने लगा जो परिचित हो। एकाएक मेरी नजर दीदी के ससुर पर पड़ी, जो तख्त पर बैठे किसी से बात करने में व्यस्त थे। जैसे ही वे खाली हुए, मैंने तुरंत उनके पैर छुए। मुझे देखते ही उनके चेहरे पर आश्चर्य-सा पुत गया। लेकिन उन्होंने आश्चर्य को मुस्कराहट में जबरदस्ती बदल लिया- ‘‘अमित आ गए और मास्टर साहब...?’ ‘‘ श्बाबूजी की तबीयत ठीक नहीं है।’’ मैंने बहुत ही सहज होकर उन्हें बताया।

‘‘अरे नन्दू, इधर ता आ।’’ उन्होंने एक व्यक्ति को पुकारा।

‘‘हां, बाबूजी!’’ वह व्यक्ति यंत्रचालित-सा आकर खड़ा हो गया।

‘‘इन्हें संजय बाबू के कमरे में पहुंचवा दो।’’

मैं उस व्यक्ति के पीछे-पीछे चलने लगा। खुले गन में आकर उस व्यक्ति ने स्वर तेज किया, ‘‘मालकिन! मालकिन!!’’

उसके स्वर को सुनकर थोड़ी देर बाद ही भीड़ से छटकर दीदी की सास बाहर आ गईं।

मैंने न चाहकर भी तीव्र गति से उनके पैर छुए। मुझे देखते ही उनके चेहरे पर भी आश्चर्य-सा पुत गया। गिलौरी-भरे मुंह को उन्होंने चलाया, ‘‘क्या अकेले आए हो?’’

‘‘जी!’’ मैंने सक्षिप्त-सा उत्तर दिया।

दीदी की सास कुछ और पूछतीं, तभी वह व्यक्ति बोला- ‘‘मालकिन, बाबूजी ने कहा कि इनको संजय बाबू के कमरे में पहुंचा दो।’’

‘‘अच्छा, अच्छा! तुम बाहर जाओ।’’ दीदी की सास ने उस व्यक्ति को उपेक्षा की दृष्टि से देखा।

दीदी की सास कुछ देर गुमसुम-सी खड़ी रहीं। फिर उन्होंने आगन के कोने में बैठी औरतों में से एक को बुलाया। औरत के पास आते ही उन्होंने रौबीला स्वर फेंका- ‘‘ये बहूके भाईजी हैं, इन्हें बहू के कमरे तक पहुंचा जाओ।’’

‘‘बहू के भाईजी!’’ उस औरत ने भी मुझे आश्चर्य से देखा।

मन की अजीब स्थिति में मैं उस औरत के पीछे-पीछे हो लिया। दो जीने का सफर तय करने के बाद उस औरत ने एक कमरे का दरवाजा खटखटाया- ‘‘बली, दरवाजा खोलो, तुम्हारे भाईजी आए हैं।’’

कुछ क्षणों बाद दरवाजा खुला तो देखा, दीदी खड़ी हैं। मैंने उनके पैर भी छुए।

‘‘अमित, तुम? आओ! आओ!!’’ उन्होंने एक सोफे पर बैठने के लिए इशारा किया। मुझे चमकीले कालीन पर चलने में संकोच हुआ, लेकिन दीदी के कहने पर बैठ गया। दीदी भी मेरे पास आकर बैठ गईं। मैं देखता हूं-दीदी की आखों में ढेर सारा प्यार उमड़ आया है।

‘‘अमित, खत का जवाब क्यों नहीं देते हो?’’ दीदी बनारसी साड़ी में बहुत अच्छी लग रही हैं।

‘‘इधर कुछ ज्यादा ट्घ्यूशनें रहीं इसलिए बिजी रहा हूं।’’ मैंने बहाना बनाने की कोशिश की।

‘‘मांती कैसी हैं?’’ उन्होंने एक और प्रश्न किया।

‘‘मांती, बाबूजी, राजेश और रजनी सभी ठीक हैं।’’ मैंने दीवार पर लगी मॉडर्न आर्ट की पेंटिंग को समझने की कोशिश की।

‘‘रजनी ने लिखा था कि मां को दिखता कम है...’’

‘‘मांती की आखों में मोतियाबिंद उतर आया है। डॉक्टर का कहना है कि आपरेशन करना होगा। पूरे दो सौ रुपये का खर्च है।’’ मैंने पेटिंग की ओर से नजर हटा ली।

‘‘तुम्हारी सर्विस कहीं नहीं लगी?’’ उनके चेहरे पर निराशा की परतें उभर आईं।

‘‘कई रिटन टेस्ट और इंटरव्यू दे चुका हूं शायद कहीं नाम आ जाए।’’ मैंने उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश की।

‘‘एमएस-सी किए पूरे तीन साल हो गए हैं। लेकिन अभी तक...’’ उन्होंने नजरें मेरे चेहरे पर गड़ा दीं।

‘‘पीएचडी में रुकावट न आती तो अभी तक डॉक्टरेट मिल गई होती। उससे लेक्चररशिप मिलने के चांस बेटर हो जाते।’’ मैंने यह बेतुकी बात कहकर मन-ही-मन अपनी गरीबी पर अपने-आपको कोस लिया।

वातावरण में खामोशी तैरने लगी।

मेज पर रखी पत्रिकाओं में से एक को उलटना-पलटना शुरू कर दिया। दीवार पर लगी घड़ी आठ बार टन-टन कर चुप हो गई।

‘‘रजनी के लिए कहीं बात चल रही है?’’ पांच मिनट के बाद दीदी ने वातावरण की खामोशी तोड़ी।

‘‘हां, बात तो कई जगह चल रही है। अकसर पैसों पर आकर रुक जाती है।’’ मैंने फीकी हँसी बिखेरी- ‘‘आजकल क्लर्कों ने भी अपने रेट हाई कर दिए हैं

‘‘सच कह रहे हो, अमित!’’ उन्होंने मेरी बात को समर्थन देते हुए कहा,। श्बीना की शादी जिस लड़के से हो रही है, वह भी रिजर्व बैंक में सिर्फ क्लर्क ही है। और बात जाकर बीस हजार और स्कूटर पर तय हुई!’’

‘‘बीस हजार और स्कूटर! मेरे मन में तो कभी-कभी आशंका उठती है कि कहीं रजनी अनब्याही न रह जाए!’’

‘‘तुम्हारे जीजाजी ने बहुत झगड़ा मचाया। उनका कहना था कि इतने में तो आईएएस और पीसीएस लड़के भी तय किए जा सकते हैं...’’

‘‘लेकिन जीजाजी की बात क्यों नहीं मानी गई?’’ मैंने उन्हें बीच में ही टोका।

‘‘अच्छा कायस्थ घराना है। काफी जमीन-जायदाद है। पुराने रईस हैं। इन्हीं सब बातों को देखकर पिताजी ने किसी की चलने न दी। एक बात तो माननी पड़ेगी-बीना दीदी का भाग्य बहुत अच्छा है। इधर उनकी शादी तय हुई, उधर पिताजी को डिप्टी-कलेक्टर के लिए प्रमोशन ऑर्डर मिल गया। पिताजी को शादी बिकुल नहीं खली...’’

‘‘बली, नीचे चलिए! मालकिन बुला रही हैं। जयमाला का वक्त हो रहा है। बिटिया को तैयार कर दो।’’ अचानक उसी औरत ने प्रवेश किया, जो मुझे ऊपर तक छोडूने आई थी।

‘‘अच्छा, अच्छा! तुम चलो, मैं आती हूं।’’

कुछ देर की खामोशी के बाद उन्होंने कहा- ‘‘अमित, तुम भी ड्रेस चेंज कर लो! अब बारात आने वाली ही होगी।’’

‘‘ड्रेस चेंज कर लूं?’’ मैंने मजाक में लेने की कोशिश की-’’ऐसा ही ठीक हूं। लड़की की शादी में क्या शो दिखाऊं।’’

‘‘नहीं, ड्रेस चेंज कर लो।’’ उनकी आवाज सख्त हो गई।

अचानक मेरे सिर पर बिजली-सी टूट पड़ी। शब्दों का अंबार मेरे गले में अटक गया। मैंने दीदी की ओर नजर घुमाई तो वहां मुझे संशय की परत-दर-परत साफ सुलगती दिखाई दी।

‘‘मेरे पास और कोई ड्रेस नहीं है।’’ मैंने स्पष्ट हो जाना ही बेहतर समझा। उनके चेहरे का रंग उड़ गया। मुझे लगा, मेरी तंगदस्ती ने उन्हें परेशान कर दिया। वे महाशून्य में खोई हुई किसी बहुत बड़ी समस्या का समाधान खोजने लगीं।

‘‘मैं अभी आई।’’

वे नीचे चली गईं।

कमरे की खामोशी ने मुझे दबोच लिया। मैंने दीवार पर लगी घड़ी के द्वारा कल सुबह जाने वाले आसाम मेल के बीच के घंटों की गणना की। मुझे मन-ही-मन मांती पर गुस्सा आया, जिन्होंने इस स्थिति में फंसने को मजबूर किया। लेकिन सच तो यह भी है कि मेरे मन में भी दीदी के प्रति कहीं थोड़ा-सा प्यार अटका हुआ था। पर इस प्यार से हासिल क्या होना था! एक खालीपन के अलावा क्या मिला? और अभी क्या पता, सुबह तक की लंबी कैद में क्या-क्या जुल्म और सहने पड़े!

‘‘अमित, नाश्ता कर लो।’’ अचानक दीदी ने कमरे में प्रवेश किया।

उन्होंने मेज पर पड़ी पत्रिकाओं को नीचेवाले खाने में रखकर ट्रे रख दिया। एक मग कॉफी का मुझे पकड़ा दिया। मैंने कनखियों से उनका चेहरा देखा, जिस पर परेशानी की स्पष्ट झलकें दिखाई दीं।

"तुम ट्घ्यूशन के पैसों का क्या करते हो?’’ उन्होंने तले हुए काजू की प्लेट मेरी ओर खिसकाई।

एक-एक शब्द जहरीले तीर की तरह दिल को भेद गया। एक टीचर के बच्चे बिना पढ़े-लिखे न रह जाएं, इसलिए ट्यूशन के पैसों से मैंने उनकी पढ़ाई-लिखाई का खर्च ओढ़ रखा है। मैंने यह बात कहनी चाही, पर खामोश रह गया। अपने-आपको नंगा कर देने से क्या फायदा?

‘‘तुम्हारे पास कपड़े नहीं थे, तो आए क्यों? एमओ कर दिया होता। यहां तो फॉरमैलिटी पूरी की गई थी। एक तुम हो कि...’’ आगे के शब्द उन्होंने गले में अटका लिए।

काजू का नमकीन स्वाद कडुवाहट में बदल गया।

कॉफी और नाश्ते का दौर समाप्त हो गया। दूसरी प्लेटों का नाश्ता वैसा ही रखा रहा।

‘‘तुम अपने जीजाजी से मिले हो?’’

‘‘अभी नहीं!’’ मैंने उनके सवाल पर अपनी खामोशी तोड़ी।

‘‘वे पीछे के लॉन में खाने का अरेंजमेंट करा रहे हैं। तुम भी जाकर उनकी हेल्प करो। उन्होंने मेरा एयर-बैग लेकर अलमारी में बंद कर दिया।

वे आगे-आगे और मैं उनके पीछे-पीछे हो लिया। एक जीने के बाद आकर वे खुद खड़ी हो गईं। मैं तीन-चार सीढ़ियां ही उतरा था कि उनकी आवाज सुनाई दी- ‘‘अमित, मैं बिस्तर लगवा दूंगी। तुम मेरे कमरे में आकर सो जाना। शायद मुझे रात-भर नीचे रह जाना पड़े।’’

मैंने उनकी बात बगैर मुड़े सुन ली।

लॉन में फैली भीड़ में मेरी आँखें जीजाजी को खोजने लगीं। सूट-बूटधारी लोगों के बीच मैंने उन्हें देख लिया। मैं तेज कदमों से उनकी ओर बढ़ा। पास पहुंचते ही मैं उनके पैरों की ओर झुका तो उन्होंने फुर्ती से कंधों को पकड़कर उठा लिया, ‘‘अमित! कब आए?’’

‘‘अभी, अभी।’’

‘‘अपनी दीदी से मिले?’’

‘‘हां, उन्होंने ही मुझे यहां भेजा है।’’

‘‘खन्ना साहब, मेरे ब्रदर-इन-ली से मिलिए।’’ जीजाजी ने सामने खड़े सज्जन से परिचय कराया, ‘‘एमएस-सी भू आउट फर्स्ट करने के बाद पी-एचडी कर रहे हैं।’’

‘‘मुझे अमितकुमार कहते हैं।’’ मैंने उन सज्जन से हाथ मिलाया।

जीजाजी ने मुझे एकदम से बहुत सारे झूठ के नीचे दबा दिया, जहां से उभरकर मैं कह न सका कि एमएस-सी फाइनल में प्रैक्टिस में केवल पासिंग मार्क्स होने की वजह से कुछ मार्क्स कम हो गए, फर्स्टक्लास नहीं पा सका, इस कारण यू आउट फर्स्टक्लास कहने का हक मुझे नहीं है। गरीबी के कारण पी-एचडी के सपने ने तो अब बदबू देना भी छोड़ दिया है।

‘‘दीदी ने आपकी हेल्प के लिए भेजा है। बताइए मैं क्या करूं?’’ मैंने जीजाजी से पूछा।

‘‘यहां तो अरेंजमेंट हो गया। तुम अपने हालचाल सुनाओ।’’

अब हम दोनों पंक्तिबद्ध मेजों के बीच आ गए। एक मेज के पास रुककर उन्होंने आवाज लगाई, ‘‘यहां एक क्वार्टर प्लेट और रखना।‘‘

एक व्यक्ति ने आकर उस कमी को पूरा कर दिया।

‘‘घर पर सब लोग कैसे हैं?’’ उन्होंने पुलाव की खुली प्लेट को ढकते हुए छा।

‘‘सब ठीक हैं।’’ मैंने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।

अचानक उन्होंने एक बच्चे को पुकारा, ‘‘रिक इधर आओ। अपने अमित मामाजी से मिलो।’’

रिंकू मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। आखों में सहमा-सहमापन भरकर उसने अपने हाथ जोड़ दिए।

‘‘किस क्लास में पढ़ते हो?’’ मैंने उसे गोद में ले लिया।

‘‘अभी तो केजी में ही हूं।’’ उसने अपने जुड़े हाथों में से सीधे हाथ को अपनी टाई की गांठ पर पहुंचा दिया।

एक व्यक्ति ने बारात आने की खबर दी। सभी लोग फुर्ती में आ गए। जीजाजी ने हर एक मेज पर सर्व करने के लिए आदमी खड़ा कर दिया। पान-सिगरेटवाले को आगे की तरफ पहुंचा दिया। इतना सब कराकर खुद बाहर की ओर चले गए।

रिंकू ने गोद से उतरने की इच्छा जाहिर की। मैंने उसकी मूक इच्छा पर तुरंत निर्णय लेकर उसे गोद से उतार दिया। अब मैं इस माहौल में अकेला, अजनबी-सा खड़ा रह गया। मैं जीने से चढ़कर दीदी के कमरे में वापस आ गया। कमरे में इसी बीच तीसरे बेड का इंतजाम कर दिया गया था। कमरे में फैली ट्घ्यूबलाइट की रोशनी एकाकीपन को और उजागर कर रही थी। मैंने खिड़की में पड़े परदे को हटाकर बाहर की ओर झांका। भीड़ के बीच में शराब के नशे में धुत्त कुछ जवान लड़के श्ले जाएंगे! ले जाएंगे! दिल वाले दुल्हनियां ले जाएँगे गीत को हिजड़ा-रूटाइल में गा रहे थे। मैं वापस आकर पलंग पर बैठ गया। कुछ देर तो मैं यों ही गुमसुम-सा बैठा रहा, फिर जूते-मोजे उतारकर पलंग पर लेट गया।

मेरे मन-मस्तिष्क में उस समय सबसे अहम सवाल यह था कि मैं दोनों चालीस रुपये वाली धोतियां दूं या न दूंरू. .दोनों ही स्थितियों में दीदी की बेइज्जती हो सकती है!