दलिताएं खुद लिखेगीं अपना इतिहास / अनिता भारती

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दलिताएं खुद लिखेगीं अपना इतिहास
समीक्षा लेखिका: अनिता भारती

आईए हम कल्पना करें भारत की आजादी के आन्दोलन की और हम उसमें गांधी का नाम भूल जाएं। चलिए हम दूसरी कल्पना करें, दक्षिण अफ्रीका में अश्वेत लोगों के मुक्ति संघर्ष की और उसमें हम नेल्सन मंडेला का नाम छोड़ दे। शायद आपको मेरी बात सुनकर गुस्सा आ सकता है, शायद आप यह भी कह सकते हैं कि ये क्या बेवकूफी भरी बात है? जब हम इन शोषित-पीड़ित और दमितों के आन्दोलन और इतिहास की कल्पना उनके नेताओं के बिना नहीं कर सकते तो हम भारतीय महिला आन्दोलन व इतिहास लेखन की कल्पना सावित्रीबाई फूले और डॉ० अम्बेडकर के बिना कैसे कर सकते हैं।

यह भारतीय महिला मुक्ति आन्दोलन की विडम्बना ही है कि भारतीय महिला आन्दोलन पर जो पुस्तकें लिखी जा रही हैं उन लेखिकाओं द्वारा दलित आदिवासी पिछड़े व अल्पसंख्यक वर्ग के आन्दोलन व उनके नेताओं के प्रति गहरी उपेक्षा बरती जा रही है। कुछ पुस्तकों में तो उनके नाम, उनके कार्यों तक का जिक्र नहीं है। हम इस लेख में भारतीय महिला आन्दोलन में दलित स्त्रियों के मुद्दों, सवालों और समस्याओं के प्रति बरती जा रही उपेक्षा की चर्चा करेंगे।भारतीय महिला इतिहास आन्दोलन के लेखन में अनेक समस्याएं हैं। आज जिस वर्ग, जाति और समाज की लेखिकाएं लेखन करती हैं। उनके लेखन में उनकी वर्गजातिगत व समाजगत प्रवृत्तियां व रुचियां झलकती हैं। ये लेखिकाएं समाज में प्रचलित व प्रसिद्ध व्यक्तियों, धाराओं तथा वादों में बंधी हैं। अतः इनका लेखन भी उन्हीं धाराओं, वादों और व्यक्तियों से प्रतिबद्धता दर्शाता है। एक ही तरह की स्रोत सामग्री इस्तेमाल करने से समाज के कई अनछुए, अनजान पहलू, व्यक्ति व आन्दोलन पर इनका ध्यान नहीं गया।

कारण कुछ भी हो परन्तु यह बात नकारी नहीं जा सकती कि सम्पूर्ण भारतीय महिला लेखन में दलित और अति दलित महिलाओं की भागीदारी या उपस्थिति कहीं दिखती ही नहीं है। हालांकि उनके उद्धरण, उनके नाम, उनके आन्दोलन दलित अल्पसंख्यकों द्वारा लिपिबद्ध किये जा चुके हैं और किये भी जा रहे हैं। आज जिस तरह से पुरुषों द्वारा रचित इतिहास लेखन में महिलाओं के आन्दोलन, उनके अनुभव, उनकी समस्याएं, उनके मुद्दों को नजरअंदाज कर दिया गया है उसी तर्ज पर महिला लेखन में भी दलित आदिवासी, पिछड़ी अल्पसंख्यक महिलाओं के आन्दोलन, समस्याओं मुद्दों विचार धारा और सवालों को उपेक्षित किया जा रहा है।

कुछ समय पहले हिन्दी में अनुवाद होकर आई राधा कुमार की पुस्तक स्त्री संघर्ष का इतिहास १८००-१९९० पढ़ने को मिली। हमारी दलित लेखिकाओं और दलित महिला आन्दोलन से जुड़ी कार्यकर्ताओं की शिकायत थी, कि राधा कुमार जी ने स्त्री आन्दोलन में दलित स्त्रियों के आन्दोलन के साथ न्याय नहीं किया है। मैं स्वयं दलित महिला आन्दोलन से कुछ वर्षों से जुड़ी रही हूं। इसी वजह से मैंने इस पुस्तक को ध्यानपूर्वक पढ़ना शुरु किया। मेरे आश्चर्य और दुःख की सीमा न रही जब मैंने राधा कुमार जी की पुस्तक में दलित महिला आन्दोलन की रीढ़ ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारतीय महिला आन्दोलन की जनक सावित्री बाई फूले का नाम पूरी तरह से उपेक्षित पाया।क्या कारण है कि नारीवादी इतिहासकार सावित्री बाई फूले के योगदान को भारतीय महिला आन्दोलन में शामिल न करते हुए दलित महिलाओं के आन्दोलन व योगदान के सबसे महत्त्वपूर्ण आधारस्तम्भ को स्वीकार करने से नकारती हैं। सावित्री बाई फूले दलित महिला आन्दोलन की रीढ़ ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतीय महिला आन्दोलन की भी आदर्श है। सावित्रीबाई ने उस समय घर से बाहर निकल दलित/गैर दलित बालिकाओं को पढ़ाना शुरु किया जब औरत का घर से बाहर निकलना अपराध माना जाता था। जब वे घर से बाहर लड़कियों को पढ़ाने निकलती थीं तो उन पर गोबर-पत्थर फेंके जाते थे। उन्हें रास्ते में रोककर उच्च जाति के गुण्डों द्वारा भद्दी-भद्दी गाली दी जाती थी तथा उन्हें जान से मारने की लगातार धमकियां दी जातीं थीं।

ऐसी ही विपरीत और कठोर परिस्थितियों में सावित्रीबाई फूले ने समाज सेवा का प्रण लिया। वो बिना रुके, बिना थके 'स्त्री मुक्ति' के पथ पर आगे बढ़ती रहीं। सावित्रीबाई फूले भारत में स्त्री-शिक्षा की जननी के साथ-साथ सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता, समाज सुधारक तथा दलित/गैर दलित स्त्रियों की मुक्ति के संघर्ष की प्रतीक, प्रतिनिधि और अमिट योद्धा हैं।सावित्रीबाई फूले ने लड़कियों के लिए १८४८ में बुधवार पेठ (पूना) में पहला स्कूल खोलकर भारतीय स्त्रियों के जीवन में शिक्षा द्वारा आमूल-चूल परिवर्तन लाने का प्रयास किया तथा स्त्री शिक्षा के द्वार खोल दिये। यह कदम एक दलित स्त्री द्वारा दलित व गैर दलित स्त्रिायों के लिए शिक्षा के क्षेत्रा में उठाया गया अभूतपूर्व कदम था। सावित्रीबाई फूले ने १८४९ में पूना में ही उस्मान शेख के यहाँ मुस्लिम स्त्री-बच्चों के लिए प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र खोला। १८४९ में ही पूना, सतारा व अहमद नगर जिले में पाठशाला खोली। स्त्रिायों की दशा सुधारने के लिए १८५२ में सावित्रीबाई फूले ने 'महिला मंडल' का गठन किया। इस महिला मंडल ने बाल विवाह, विधवा होने के कारण स्त्रियों पर किए जा रहे जुल्मों के खिलाफ स्त्रियों को तथा अन्य समाज को मोर्चाबन्द कर सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष किया।हिन्दू स्त्री के विधवा होने पर उसका सिर मूंड दिया जाता था। विधवाओं के सर मुंडने जैसी कुरीतियों के खिलाफ लड़ने के लिए सावित्रीबाई फूले नाइयों से विधवाओं के 'बाल न काटने' का अनुरोध करते हुए आन्दोलन चलाया जिसमें काफी संख्या में नाइयों ने भाग लिया तथा विधवा स्त्रियों के बाल न काटने की प्रतिज्ञा ली। भारत क्या पूरे विश्व में ऐसा सशक्त आन्दोलन नहीं मिलता जिसमें औरतों के ऊपर होने वाले शारीरिक और मानसिक अत्याचार के खिलाफ स्त्रियों के साथ पुरुष जाति प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हो, नाइयों के कई संगठन सावित्रीबाई फूले द्वारा गठित महिला मण्डल के साथ जुड़े। सावित्रीबाई फूले और 'महिला मंडल' के साथियों ने ऐसे ही अनेक आन्दोलन वर्षों तक चलाये उनमें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की।भारतीय समाज में स्त्री के विधवा होने पर उसके परिवार के पुरुष जैसे देवर, जेठ, ससुर व अन्य सम्बन्धियों द्वारा उसका दैहिक शोषण किया जाता था। जिसके कारण वह कई बार माँ बन जाती थी। बदनामी से बचने के लिए विधवा या तो आत्महत्या कर लेती थी, या फिर अपने अवैद्य बच्चे को मार डालती थी। अपने अवैध बच्चे के कारण वह खुद आत्महत्या न करें तथा अपने अजन्मे बच्चे को भी ना मारें, इस उद्देश्य से सावित्रीबाई फूले ने भारत का पहला 'बाल हत्या प्रतिबंधक गृह' खोला तथा निराश्रित असहाय महिलाओं के लिए अनाथाश्रम खोला। स्वयं सावित्रीबाई फूले ने आदर्श सामाजिक कार्यकर्ता का जीवन अपनाते हुए एक विधवा स्त्री के बच्चे को गोद लिया तथा उसे पढ़ा-लिखा कर योग्य डॉक्टर भी बनाया। ऐसे क्रांतिकारी कार्य करने वाली तथा समाज की धारा के विपरीत जाकर काम करने वाली सावित्रीबाई फूले का नाम इतिहास से गायब करने में सरासर षड्यन्त्रा की बू नजर आती है।सावित्रीबाई फूले जीवन पर्यन्त अन्तर्जातीय विवाह आयोजित व सम्पन्न कर जाति व वर्ग विहिन समाज की स्थापना के लिए प्रयासरत रहीं।


सावित्री बाई फूले ने लगभग ४८ वर्षों तक दलित, शोषित, पीड़ित स्त्रियों को इज्जत से रहने के लिए प्रेरित किया उनमें शिक्षा का दीप जलाया। अपने जैसे अनेक कार्यकर्ता तैयार किये जिनमें तारा बाई शिन्दे, सगुणाबाई, फातिमा शेख, सावित्रीबाई रोडे, मुक्ता आदि जिनका नाम आज भी भारतीय महिला आन्दोलन में अमर है। अपना पूरा जीवन अर्पण करने वाली सावित्रीबाई फूले के योगदान को नकारना क्या भारतीय नारी मुक्ति आन्दोलन का अपमान नहीं है?राधा कुमार ने ऐसी शख्सियत को नारी इतिहास के पन्नों में जगह न देकर सावित्रीबाई फूले के साथ-साथ दलित महिला आन्दोलन का भी घोर अपमान किया है। जब हम भारतीय स्त्री आन्दोलन या संघर्ष की बात करते हैं तो उसमें सभी जाति, वर्ग, धर्म, भाषा की स्त्रियों के योगदान की चर्चा होनी चाहिए। उसमें उन्हें उपयुक्त जगह मिलनी चाहिए। लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं है। दलित महिलाओं ने हमेशा संघर्ष किया है, विरोध प्रकट किया है और करती रहेगी। चाहे उसने ये विद्रोह या संघर्ष स्वतन्त्र रूप से किया हो या किसी के नेतृत्व में। ये संघर्षशील दलित नायिकाएं जिनमें वीरांगना झलकारी बाई, रानी शिरोमणि, रानी दुर्गावती हो या उदादेवी पासी, झानो और फूलो या सावित्रीबाई फूले ये सब महिला आन्दोलन में संघर्ष, त्याग और बलिदान की प्रतीक हैं। डॉ० अम्बेडकर के नेतृत्व में चले दलित महिला आन्दोलन में भी अनेक अनाम, मूक, मुखर संघर्षशील दलित औरतें शामिल हुईं जिन्होंने अपनी अस्मिता, अपनी पहचान या फिर अपनी स्वतन्त्रता बनाए व बचाए रखने के लिए जुझारू होकर जातीय दंभ से पूर्ण ब्राह्मणवादी पुरुष सत्तात्मक समाज को कड़ी टक्कर दी है।दलित महिलाओं की प्रतिभा उनकी क्षमता उनके योगदान की उपेक्षा हमेशा से ही सवर्ण मानसिकता से ग्रसित समाज में होती आई है। परन्तु नारीवादी आन्दोलन से जुड़ी लेखिकाएं व कार्यकर्ता भी ऐसा पक्षपात पूर्ण इतिहास लेखन करेंगी तो दलित महिला आन्दोलन को सोचना पड़ेगा कि आज वे स्त्रीवादी आन्दोलन में जुड़ें अथवा अलग रहें। समाज में हमेशा कुछ वर्ग जातियाँ ऐसी रहती हैं जो मुख्यधारा की न होकर भी उसका नेतृत्व करती हैं। असल सच तो यह कि दलित आदिवासी पिछड़ी शोषित दमित जातियां ही मुख्यधारा होती हैं। अगर आज ऐलिट तथा उच्च जाति जो अपने मन में मुख्यधारा होने का भ्रम पाले हुए है, अगर वे इस भ्रम को नहीं तोड़ते तो आज मजदूरों, किसानों, दलितों, शोषितों, जो कि वास्तविक मुख्यधारा हैं, वो मुख्यधारा आज नहीं तो कल ऐसे लोगों को ठोकर की नोक पर उड़ा देगी। इस भ्रमित धारा को दलित आदिवासियों के साथ उनकी शर्त पर ही जुड़ना पड़ेगा।

आज जिस तरह महिला आन्दोलन व महिला लेखन में दलित महिलाओं के मुद्दों व उनकी समस्याओं को उपेक्षित कर उच्चवर्गीय महिलाओं के (स्त्री देह) छद्म मुद्दों को महत्त्व दिया जा रहा है वह अपने आप में महिला मुक्ति के औचित्य पर प्रश्नचिह्र है। सावित्रीबाई फूले का नाम इतिहास से गायब है या गायब कर दिया गया, कारण जो भी हो पर उसकी पड़ताल होना आवश्यक है। महिला आन्दोलन इतिहास लेखन में सवर्ण कुमारी देवी से लेकर सरला देवी घोषाल, मैडम भीकाजी रूस्तमकामा, ऐनी बेसेंट, कमला देवी चट्टोपाध्याय, सरोजिनी नायडू, अरुणा आसफ अली आदि अनेक उच्च वर्गीय सभ्रांत समाजिक कार्यकर्ताओं की पूरी कहानी व उनके कार्यों का ब्यौरा होता है, पर दलित महिलाओं के नाम व योगदान पर गहरी चुप्पी साध ली जाती है। सावित्रीबाई फूले से लेकर झलकारीबाई, फूलों और झानों, फातिमा बेग, उदा देवी पासी जैसी प्रसिद्ध दलित स्त्रियों तक के नाम को भुला दिया जाता है।राधा कुमार अपनी इतिहास पुस्तक में पंडिता रमाबाई और ज्योतिबा फूले का भी उदाहरण दो-तीन जगह देती है पर तब भी वे सावित्रीबाई फूले के योगदान को याद नहीं करती। आखिर इस घोर उपेक्षा का कारण क्या है? क्या सावित्रीबाई का नाम इतिहास इसलिए हटा दिया गया कि वो शूद्र जाति की थीं और दलित/शूद्र स्त्रियों की उन्नति के लिए कार्य कर रही थीं जिनका उच्च वर्ग की सभ्रांत लेखिकाओं और नारीवादियों की दृष्टि में कोई मूल्य नहीं है। हमारे कुछ नारीवादी महिला नेता या लेखिकाएं दलित महिलाओं के प्रति अन्य सवर्ण महिलाओं द्वारा किये गये भेदभाव, उत्पीड़न व उनके द्वारा बरती जा रही उपेक्षा पर शायद इसलिए चुप रह जाती हैं कि कहीं महिला आन्दोलन दो हिस्सों में न बंट जाये? वे दलित महिलाओं द्वारा लड़े गये अस्मिता संघर्ष को अलग से जगह देने को तैयार नहीं है या फिर दलित महिलाओं के नेतृत्व में आने से उनका नेतृत्व खतरे में पड़ जायेगा। क्या यही वे कारण है या अन्य कोई कारण है कि वे सावित्री के योगदान को महत्त्व नहीं देती। अन्य कारणों में एक कारण यह भी हो सकता है कि उनके पति ने उन्हें पढ़ाया और समाज के लिए शिक्षित किया। अगर लेखिका ऐसा मानती है तो यह तो और नाइंसाफी की बात है। अक्सर हमारा समाज महिलाओं की योग्यता, क्षमता को पुरुषवादी चश्मे से देखता है, अगर सावित्रीबाई फूले ज्योतिबा फूले की मद्द से पढ़ पाईं तो क्या उनका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं था? क्या किसी को, जब तक की उसमें खुद लगन, जज्बा व जागृति न हो तब तक उसे किसी भी कार्य करने को बाध्य किया जा सकता? अगर सावित्रीबाई फूले अपने पति की मद्द से पढ़ पाईं और उनकी मद्द से सामाजिक क्षेत्रा में जुड़ीं तो इसी तर्ज पर हम यह भी कह सकते हैं कि भारत की आजादी के आन्दोलन में जो भी सभ्रांत व उच्च जाति की शिक्षित वर्ग की महिलायें जुड़ी उनमें से अधिकांश अपने पतियों, भाइयों व पिताओं के प्रयास से आयीं थीं। फिर भी ऐसी महिलाओं का नाम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता है और सावित्रीबाई फूले का नाम नगण्य हो जाता है। यह एक गंभीर बात है कि शूद्र जाति की सावित्रीबाई फूले सामाजिक कार्य करते हुए इस भेदभाव सकीर्णता से पूर्ण समाज से चौतरफा वार सह रहीं थी फिर भी अपना कार्य लगन और धैर्य से कर रहीं थीं और बिना डरे लगातार कर रही थीं। ऐसी सशक्त क्रांतिकारी, स्त्री शक्ति की प्रतीक महिला के योगदान को अनदेखा करना इतिहासकारों व आन्दोलनकारियों की नीयत पर शक पैदा करता है। जब दलित महिला आन्दोलन का इतिहास लिखा जायेगा तब ऐसे भेदभावपूर्ण लेखन व उनकी भेदभाव लेखनी को कदापि बक्शा नहीं जायेगा।सावित्रीबाई फूले की तरह ही भारतीय महिला आन्दोलन के दूसरे आधार स्तम्भ हैं डॉ० भीमराव अम्बेडकर जिन्हें भारतीय स्त्रिायों के मुक्तिदाता के रूप में जाना जाता है। राधा कुमार की पुस्तक 'स्त्री संघर्ष का इतिहास' तथा दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा द्वारा लिखित पुस्तक भारतीय महिला आन्दोलन कल, आज और कल' में डॉ० अम्बेडकर और उनके नेतृत्व में चला दलित महिला आन्दोलन के विषय में एक भी शब्द नहीं है। 'हिन्दूकोड बिल' जिसका मुख्य आधार ही भारतीय नारी को कानूनी न्याय दिलाते हुए उन्हें उनके कानूनी अधिकार दिलाना था। उसका भी वर्णन राधा कुमार ने अपनी पुस्तक में मात्र-चार-पांच पंक्तियों में किया गया है। इस पुस्तक की विडम्बना यह कि लेखिका ने केवल एक तरह के आन्दोलन का ही वर्णन किया है और एक खास विचारधारा की स्रोत सामग्री का इस्तेमाल किया है, अगर वो समाज की मुख्यधारा के संघर्ष को शामिल करती तो यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी हो सकती थी।


डॉ० अम्बेडकर जो कि स्त्रियों की स्वतन्त्रता के बहुत बड़े हिमायती थे जिनके नेतृत्व में असंख्य दलित औरतें अन्याय के खिलाफ लड़ने सड़कों पर उतर आईं थीं। महाड़ के सार्वजनिक चावदार तालाब के पानी की लड़ाई में हजारों की संख्या में दलित महिलाएं शामिल हुईं। २५ दिसम्बर को अम्बेडकर द्वारा 'मनुस्मृति दहन' भारतीय महिला इतिहास की तारीख में भी अपूर्व व अनोखा दिन है। इससे पहले किसी ने भी महिलाओं के हक में धार्मिक कानूनों की सीधी-सीधी धज्जियां उड़ाते हुए मनुस्मृति को नष्ट करने का प्रयास तो क्या कभी सपने में भी नहीं सोचा था। इस घटना ने भारतीय स्त्रिायों के हक में क्रांतिकारी भूमिका अपनाई। इस मनुस्मृति दहन तथा चावदार तालाब आन्दोलन में २५०० दलित महिलाओं ने भाग लिया। डॉ० अम्बेडकर के साथ दलित महिला आन्दोलन में वेणुबाई भटकर और रंगबाई शुभरकर ने कई वर्षों तक काम किया। प्रत्येक जाति व वर्ग को मन्दिर प्रवेश का अधिकार है। दलितों को भी मन्दिर प्रवेश का अधिकार चाहिए, इस विषय पर पार्वती मन्दिर व कालाराम मन्दिर पर दलित स्त्रियों ने हजारों धरने दिए, प्रदर्शन किए तथा घायल भी हुई। दलित स्त्रियों के इस अस्मितावादी आन्दोलन में भी हजारों दलित स्त्रियां जुड़ी। इन महिलाओं में सीताबाई, गीताबाई, रमाबाई, नानबाई कावंलो ने सक्रिय भूमिका निभाई। इस पूरे दलित महिला आन्दोलन को या फिर अम्बेडकर कालीन इतिहास १९२७ से ३० तक (अभी हम केवल ३ वर्ष की बात कर रहे हैं जबकि अम्बेडकर कालीन दलित महिला इतिहास १९२४ से लेकर ५६ तक है।) आंकड़े जुटाने का तात्पर्य यही है कि यह सब आंकड़े आसानी से उपलब्ध हैं और अब स्वयं दलित सामाजिक कार्यकर्ता जगह-जगह घूमकर अपने इतिहास को खोजकर, प्रकाशित करवा रहे हैं।सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि आज तक दलित महिलाएं जिन मुश्किलों से रात-दिन जूझती हैं। पानी व आवास, शिक्षा व गरीबी, सामाजिक व जातीय हिंसा आदि समस्याएं तथाकथित नारीवादी आन्दोलन का हिस्सा भी नहीं है। भारतीय नारीवादी आन्दोलन ने हमेशा मध्यम वर्गीय व उच्चवर्गीय, उच्चजाति की औरतों के मुद्दों को ही प्राथमिकता दी है क्योंकि आन्दोलन का नेतृत्व हमेशा इन्हीं महिलाओं के हाथ में रहा है।दीप्ति प्रिया महरोत्रा अपनी पुस्तक 'भारतीय महिला आन्दोलन' में जहाँ पर्यावरण से मुद्दों तथा उनके नेता सुंदर लाल बहुगुणा से लेकर नर्मदा बचाओ जैसे जन आन्दोलन तक को अपने नारीवादी आन्दोलन में जोड़ लेती हैं, वहीं दलित महिलाओं द्वारा पानी और मन्दिर प्रवेश के लिए दो दशक तक चले प्रतीकात्मक विद्रोही आन्दोलन की इन पुस्तकों में गहरी कमी या सरासर उपेक्षा मन को व्यथित कर देती है। इन पुस्तकों में दलिताओं के ऐसे सक्रिय और जुझारू आन्दोलनों का जिक्र तक नहीं किया गया है। पानी जो कि जीवन और सम्मान का आधार है। मन्दिर जिसमें प्रवेश करने का हरेक को बराबर अधिकार है। दलित महिलाओं द्वारा वर्षों तक चलाये गये पानी और मंदिर प्रवेश का अधिकार इन सभ्रांत परिवारों की उच्च शिक्षित, विदुषी महिलाओं द्वारा नारीवादी आन्दोलन व इतिहास में शामिल न करने का एक ही अर्थ निकलता है कि उन्हें दलित महिलाओं के मुद्दों की समझ नहीं है तथा वे स्वयं उच्च जाति की हैं। इसीलिये उन्हें यह अधिकार जन्मजात ही मिल गये। यही कारण है कि दलित महिलाओं द्वारा लड़ी गयी अपने सम्मान और अधिकार की लड़ाई इन इतिहास लेखिकाओं की दृष्टि में शून्य है।चावदार तालाब जो कि सर्वसाधारण के लिए खोल दिया गया था। उसके बावजूद उसमें कुत्ते बिल्ली से लेकर पशु-पक्षी तक पानी पी सकते थे पर दलित नहीं अर्थात् दलितों को पशुओं से भी कम अधिकार थे और दलित समाज में महिलाओं को और कम। वे निरीह, गरीब, दलित, शोषित औरतें दिन भर पानी के लिए इधर-उधर भटकतीं, ऊँची जात की कृपा पर निर्भर रहतीं। गिड़गिड़ाती, रोती पर पानी एक बूंद न पातीं। आखिर में थककर जब उन्होंने इस अन्याय के खिलाफ विद्रोह किया तो, बदले में लाठी, डण्डे खाए। पर वे हिम्मत न हारकर संघर्ष करती रहीं।

घर बार छोड़कर बच्चों को कंधे पर लादे असंख्य दलिताएं चावदार तालाब से पानी पीने के लिए कटिबद्ध रहीं। ऐसा जुझारू और मूल्यवान आन्दोलन जो कि नारीवादी इतिहासकारों की दृष्टि से छूट गया या छोड़ दिया गया। ऐसे आन्दोलन की बागडोर दलित महिलाओं के हाथ में थी।डॉ० अम्बेडकर भारतीय स्त्री खासकर, हिन्दू स्त्री जिसमें सवर्ण तथा दलित दोनों की सामाजिक आर्थिक और धार्मिक दुर्दशा को देखकर हमेशा पीड़ित रहते थे। उनकी दशा सुधारने के लिए वो एक ऐसा कानून बनाना चाहते थे जो विशुद्ध रूप से उनकी सामाजिक, कानूनी स्थिति सुधारने में संजीवनी बूटी की तरह काम करें। इसलिए उन्होंने सौ फीसदी औरतों के हक में हिन्दू कोड बिल बनाया। इस हिन्दू कोड बिल को और डॉ० अम्बेडकर, दोनों को कट्टरपंथियों का भयंकर विरोध सहना पड़ा। हिन्दू कोड बिल के विरोध में डॉ० अम्बेडकर को कई बार व्यक्तिगत अपमान झेलना पड़ा। उनके घर पर भी पत्थर बरसाये गये और संसद में भी उनका बहिष्कार किया गया। हिन्दू कोड बिल पास कराने के लिए डॉ० अम्बेडकर के साथ-साथ अनेक दलित गैर दलित महिलाओं ने भारतीय महिलाओं की सामाजिक व आर्थिक लड़ाई लड़ी है। किन्तु अफसोस की बात है कि हिन्दू कोड बिल पर चलाया जाने वाला आन्दोलन भी तथाकथित नारीवादियों के द्वारा उपेक्षित कर दिया गया। हिन्दू कोड बिल पर दुर्गाबाई देशमुख और उनके महिला जत्थे ने डॉ० अम्बेडकर के साथ गांव-गांव, नगर-नगर घूमकर सभा और जनसभाओं में भारतीय महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक दुर्दशा के चित्र खिंचे।हिन्दू कोड बिल के समर्थन में दुर्गाबाई देशमुख ने तो साक्षात् दुर्गा या चन्डी का रूप धारण कर लिया था। एक महिला जो पुरानी रूढ़िवाद की पोषक थी, उन्होंने कहा कि हमारा आदर्श सीता, सावित्री और द्रौपदी है। हम सवर्ण नारियों को तलाक जैसी निन्दनीय पद्धति पर चलता नहीं देखना चाहते। हिन्दू नारी कोई आम सड़क नहीं है, जिस पर प्रत्येक व्यक्ति मनमाने ढंग से खुलेआम चल सके। दुर्गाबाई ने उनकी खूब खबर ली और कहा कि द्रौपदी के एक समय में ही पाँच पति थे। क्या हम हिन्दू नारियों का भी यही आदर्श होना चाहिए? दुर्गाबाई देशमुख का मानना था कि भारत की स्वाधीनता केवल पुरुषों के लिए ही प्राप्त नहीं की गई है, बल्कि इसमें नारी जाति के कल्याण का महान उद्देश्य और उनके कल्याण का ध्येय भी शामिल है। दुर्गाबाई देशमुख मीटिंग में ऐसे अकाट्य तर्क रखतीं जिससे कट्टरवादियों के मुंह बंद हो जाते थे तथा सारी गोष्ठी पर उनकी धाक छा जाती थी। अक्सर डॉ० अम्बेडकर और महिला साथियों द्वारा आयोजित हिन्दू कोड बिल चर्चा सभाओं में कट्टर पंथियों द्वारा सीधा हमला कर दिया जाता था और चर्चा सभाओं को जबरदस्ती बंद करा दिया जाता था। उस समय के अखबार भी हिन्दू कोड बिल के खिलाफ अनेक भड़काउ लेख छाप रहे थे उस समय देश का माहौल डॉ० अम्बेडकर और उनकी महिला साथियों के खिलाफ विषाक्त हो गया था। परन्तु ये सब डटे रहे।

आखिर में जब हिन्दू कोड बिल संसद में पास न हो सका तब डॉ० अम्बेडकर ने विरोध स्वरूप संसद से त्यागपत्र दे दिया।हिन्दू कोड बिल पर डॉ० अम्बेडकर का मानना था कि वे हिन्दू कोड बिल पास कराकर भारत की समस्त नारी जाति का कल्याण करना चाहते थे। उन्होंने हिन्दू कोड बिल पर विचार होने वाले दिनों में अनेक सवर्ण जाति से सम्बन्ध रखने वाली क्रूर अत्याचारी, शराबी, कबाबी, एैबी पतियों द्वारा परित्यक्ता अनेक युवतियों और प्रौढ़ महिलाओं को देखा था, जिन्हें उनके पतियों ने त्यागकर उनके जीवन-निर्वाह के लिए नाममात्रा का चार-पाँच रुपया मासिक गुजारा-भत्ता बांधा हुआ था। अक्सर तो पति इतना भत्ता नहीं देते थे। ये परित्यक्ता औरतें गुलामी और दरिद्रता भरा जीवन जीने को मजबूर थीं। इन औरतों की ऐसी दयनीय दशा को देखकर इनके माता-पिता, भाई-बन्धु भी दुःखी रहते थे। क्योंकि इन परित्यक्ता औरतों के दुःख को खत्म करने वाला, कोई कानून नहीं था। हिन्दू कोड बिल ही वह कानून हो सकता था जो ऐसी दीनहीन, दुःखी-सताई औरतों के पक्ष में खड़ा हो सकता था। कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दू कोड बिल भारतीय स्त्रियों की सोचनीय दशा में आमूल-चूल परिवर्तन लाने वाला कानून था। जिसमें समाज में किसी भी रूप व परिस्थिति में सताई गई औरतों के हक में दोषियों के लिए दण्ड का प्रावधान था। इस बिल के द्वारा डॉ० अम्बेडकर और उनकी महिला साथी महिलाओं की स्थिति में कानूनी सुधार व हक के लिए प्रयास कर रहे थे।यह आन्दोलन लगभग ५ सालों तक चला जिसमें अनेकों-अनेक दलित व गैर दलित महिलाएं जुड़ीं। इस आन्दोलन का मकसद ही सामाजिक न्याय दिलाना था जिसका वर्षों से हनन होता आ रहा था। ऐसे क्रांतिकारी मूल्यपरक आन्दोलन पर चुपी साध लेना या मात्र सतही जानकारी देना न तो दलित महिला आन्दोलन के साथ न्यायपरक और न ही भारतीय महिला आन्दोलन के लिए लाभदायक। सच्चा इतिहास वही है जो तटस्थ हो परन्तु मुख्यधारा के प्रति अति संवदेनशील हो अगर ऐसा नहीं होता है तो वह समय दूर नहीं जब मुख्यधारा के लोग ऐसे एकांगी पक्षपाती दुर्भावना से प्रेरित होकर लिखे गये इतिहास को फाड़कर फेंकने से नहीं हिचकेंगे।

(फैज़ाबाद में जन्मी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हिन्दी -प्रवक्ता पद पर कार्यरत शगुफ्ता नियाज़ के सौजन्य से)