दलित-विमर्श, दलित-उत्कर्ष और दलित-संघर्ष / शुकदेव सिंह

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दलित-विमर्श, दलित-उत्कर्ष और दलित-संघर्ष

प्रो० शुकदेव सिंह

भाग्यफल, नियति, पुनर्जन्म, वर्ण एवं जाति, धर्म, धम्म और पंथ के जटिल संकुल पर प्रश्नवाचक लगाते हुए 'सभी मनुष्य, मनुष्य ही हैं', यह तर्क उचित हुआ। नया तर्क इस शताब्दी के दूसरे प्रहर अर्थात् सन् १९४५-१९४६ के बाद सुगबुगाता है। उसके पहले प्रश्न, जिज्ञासा या आलोचना के रूप में दलित-विमर्श की तलाश अणुव्रत इत्यादि लोकायतों, आजीवकों, सिद्धों, नाथों और संतों के आन्दोलन में की जा सकती है। इस अन्वेषण का कोई विशेष अर्थ नहीं है। दया, करुणा, प्रेम और न्याय के कारण निरन्तर इस तरह के विचार उदित होते हैं। वे अलंकारी होते हैं। भाषा की शोभा होते हैं। इसलिए ब्याध, रैक्व, वाल्मीकि, व्यास, शबरी से लेकर संत कबीर, रैदास, घासीदास, सतनामी तक दलित चेतना की जो पंक्ति बनती है, वह वाग्योग है। विद्या के संसार में अन्वेषणों और गवेषणाओं से, दलित चेतना का पक्ष ऐतिहासिक गरिमा प्राप्त करता है। उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है। अगर ऐसा होता तो अणुव्रत इत्यादि लोकायत आजीवक गोशाल, अजित केशकम्बली, कात्यायन, कश्यप, संयज और निगण्ठ-पुत्त ने संसार के भारतीय हिस्से को बदल दिया होता। घृणा के आधार पर गठित समाज-तंत्र ध्वस्त हो गया होता। इन सारे प्रश्नों से हमारे अतीत का मंथन होता है। केवल यह पता चलता है कि जिस तरह आज हम जागृत हैं उसी तरह कभी पहले भी थे। आज के दलित जागरण से उसे जोड़ना बंद कर देना होगा। इतिहास और संस्कृति के मसले बड़े जटिल होते हैं। हर बर्तन में छेद किया जा सकता है और खोजा भी जा सकता है। इसलिए भारत के वर्तमान दलित जागरण के दो मुख-मुखौटों से बात शुरू होनी चाहिए।

१.महात्मा गांधी का दया विह्नल हरिजन आन्दोलन।

२.डॉ० अम्बेडकर का युयुत्सु शब्द-विविधता के सारे कौशल से सम्पन्न विद्यापटु आह्नान।

महात्मा गांधी दलित-कर्म के साहस तक उतरकर यह बताना चाहते हैं कि छोटा-बड़ा कोई नहीं। अगर ओछे कसाब चमड़ा उतारना, चमड़ा राँधना, रंगना, मल साफ करना नीच कर्म है तो सबको इसे कर्तव्य मान लेना चाहिए। कर्म के साथ जुड़े हुए ऊँच-नीच को, उस कर्म को अपना कर्म मान लेने से घृणा खत्म हो जायेगी। मैला उठाओ, मुर्दा फूँको, सबके साथ उठो, बैठो, खाओ भी तो जन-समस्या हल हो जायेगी। गांधी जी के सद्भाव में कोई कमी नहीं है लेकिन उनका सद्भाव बड़ा ही सज्जन, गाँव की भाषा में कपड़े का अश्लील रूप है। डॉ० अम्बेडकर शास्त्र और मिथकों के उस बल को निर्बल करना चाहते थे, जो छोटे-बड़े की धारणा को पारम्परिक शक्ति देते हैं। डॉ० अम्बेडकर के पास एक ओर इतनी विद्या है कि वे अपने ढंग से शास्त्रा और मिथकों की डि कोडिंग कर लेते हैं। मनोनुकूल अर्थ और प्रतिवादी गवेषणा के द्वारा वे शिक्षित दुनिया को चुप करते हैं और अशिक्षितों को संगठित भी करते हैं। सुन्दर रूप और वेष के साथ वे दुनिया में अकेले चिंतक हैं, जो असुन्दर, कुरूप और मलिन के बीच अपने आदमी के रूप में खड़े हैं। वे अवतार और ईश्वर या देवता के रूप में नहीं खड़े होते। वे नायक या 'नेता' के रूप में खड़े होते हैं।

वे दलित कहे जाने वाले जिस जाति-समूह के प्रवक्ता और प्रतिनिधि हैं, उस समाज की इतनी भी परवाह नहीं करते कि सारी घृणा का केन्द्र प्रबल ब्राह्मण जाति का एक सदस्य उनके घर में क्यों हैं? वे ब्राह्मणी के पति हैं। उनमें एक ऐसी निष्ठा है जिसके कारण कोई यह विचार नहीं कर सकता था कि उनके कपड़े कैसे हैं? चिथड़ा पहनने वाले भूखे, नंगे लोगों में वे कैसे इतने लोकप्रिय हो सकते हैं। वास्तव में वे जनाधार की चिंता ही नहीं करते। वे जानते थे कि गरीब, दलित, गाँव से बाहर एक निजी बस्ती में रहने वाला समाज उन्हें अपना मानेगा ही। इसलिए उनकी सारी ताकत शास्त्रों को खोलने, भारतीय नेताओं से मुठभेड़ की स्थिति बनाये रखने और अंग्रेज सत्ता का अघोषित समर्थन प्राप्त करने में लगी रहती थी। उनके पास धर्म-परिवर्तन करा लेने वाला एक प्रभावशाली ध्वज भी था। उस समय के अनेक नेताओं को यह डर था कि यदि डॉ० अम्बेडकर चाहेंगे तो बड़ी संख्या में दलित जातियों के लोग दूसरे धर्म इस्लाम या क्रिश्चियन पट्टी में चले जायेंगे। हिन्दू बहुलता खण्डित हो जायेगी। इसीलिए डॉ० अम्बेडकर को ऊपर से राष्ट्रीय और भीतर से कांग्रेसी या लीगी नेताओं पर अपनी पकड़ बनानी पड़ी और उन्हें, उन्होंने राजनीतिक कला और विद्वता के साथ भयभीत बनाकर रखा। वे युगपुरुष थे। महान विभूति थे। उस समय के स्वतंत्रता आन्दोलन की कई महत्त्वपूर्ण चाभियाँ उनके पास थीं। वे खास तरह की सामंती अकड़ के आदमी थे। अंग्रेजी पढ़े-लिखे गुजरात, महाराष्ट्र दक्षिण भारत और बंगाल के नेता भारतीय विश्वसनीयता के लिए अपने कपड़े और रहन-सहन को भी बदल रहे थे। कुर्ता-टोपी, चप्पल, खान-पान सबकी एक यूनीफार्म बनती जा रही थी। डॉ० अम्बेडकर ने नेता वेश नहीं बनाया।

डॉ० अम्बेडकर का यह भी महत्त्व है कि उन्होंने 'विक्टोरियन-गार्व' और 'खान पान' तथा रहन-सहन में कोई परिवर्तन नहीं किया। उनका पाखण्ड में विश्वास नहीं था। यही कारण है कि भारतीय राजनीति में जनता के आदमी के रूप में तेजस्वी और प्रतिभाशील नेता बाबू जगजीवन राम का उदय हुआ, जिन्होंने तथाकथित दलित संसार को वे सारी सुविधाएँ दिलाईं, जिनके लिए डॉ० अम्बेडकर सपना देखते थे। शायद भीतर-भीतर बाबू जगजीवन राम को धोती, कुर्ता, टोपी के साथ गाँधी जी के अधिक विश्वसनीय दलित नेता के रूप में सामने लाया गया। वैसे बाबू जी निन्यानबे प्रतिशत निजी प्रतिभा, त्याग और वाग्मिता के कारण ही आरक्षण को सुरक्षित कर पाये। वे राष्ट्रीय नेता थे। दलित समाज के साथ सम्पूर्ण भारतीयता पर उनके अनेक ऋण हैं। हरित क्रान्ति, बांग्ला देश विजय के साथ ही उनकी प्रतिभा ने देश को बहुत कुछ दिया है। अब यह कहने से कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि डॉ० अम्बेडकर की राजनीति की तुलना में बाबू जगजीवन राम को भारतीयजन नेताओं का अधिक समर्थन प्राप्त था। जिस तरह वैदिक काल से लेकर संत कबीर, रैदास और घासीदास के समय तक का सम्पूर्ण आन्दोलन दलित अस्मिता का इतिहास है और सुन्दर प्रतिपक्षी धारणा का गौरव है। उसी तरह आधुनिक दलित-विमर्श की दृष्टि से डॉ० अम्बेडकर और बाबू जगजीवन राम का स्मरण सुन्दर पुण्य-स्मृति है। इतिहास में डॉ० अम्बेडकर और बाबू जगजीवन राम की स्मृति अलंकारी हो चुकी है।आधुनिक दलित-विमर्श तीसरे तरह का जागरण है।

आत्मकथाएँ, उपन्यास, कविता और जनान्दोलन के द्वारा यह बात सामने लायी गई कि इस देश में मनुष्य, मनुष्य को किस सीमा तक हीन समझता है। यह एक वैचारिक आन्दोलन है। इसमें पुरानी परम्पराओं का उल्लेख, संतों का स्मरण या डॉ० अम्बेडकर का पूजन केवल माध्यम हैं। इसमें आजादी के बाद तक के दलित चिंतन का आधुनिक विमर्श से सीधा वास्ता नहीं है। यह दलित-विमर्श मुख्य रूप से उन पढ़े-लिखे लोगों का कमाया हुआ सच है, जिन्हें डॉ० अम्बेडकर और बाबू जगजीवन राम के कारण आरक्षण मिला, शिक्षा तथा नौकरी मिली और बराबरी वाले समाज में बराबर उठने, बैठने की महिमा मिली। मैं जहाँ तक जानता हूं बाबू जगजीवन राम ने शिक्षा से अधिक प्रतिष्ठा के पदों पर आरक्षित लोगों को बिठाने का आरक्षण तय किया। बड़े सरकारी पद, विधान सभा से लेकर राज्य सभा तक प्रवेश का कोटा, राज्यपाल का पद, विदेशी शिक्षा आदि सब कुछ बाबू जगजीवन राम ने ही सोचा था। रविदास, दलित साहित्य अकादमी और आक्रामक दलित-विमर्श जैसे सारे मुहावरे बाबू जगजीवन राम की भाषा के अर्थोत्तर उपाय हैं। इन उपायों का एक बिन्दु बाबू जगजीवन राम की उपेक्षा और डॉ० अम्बेडकर के पूजन से भी सम्बद्ध है। मैं रैदास सम्बन्धी चेतना से भी पच्चीस साल से सम्बन्धित हूँ और 'अम्बेडकर एवार्डी' के रूप में डॉ० अम्बेडकर से जुड़े वाद, सिद्धान्त का दर्शन की गम्भीरता से भी हल्का, फुलका वास्ता रखता हूँ। इसलिए दलित-विमर्श खास तरह से हिन्दी भाषा में दलित-विमर्श के विषय में कुछ बातें कहना चाहता हूँ।

(क) हिन्दी का दलित-विमर्श, मराठी दलित विमर्श की प्रेरणा का ऋणी है।


(ख) हिन्दी दलित-विमर्श का साहित्य और चिंतन शिक्षित आरक्षण भोगी प्रायः सुविधा सम्पन्न दलित समाज का ही है।(ग) हिन्दी जनपद में व्यापक रूप से प्राप्त रामावतारी रामधारी संस्कृति और दलित लोक-ऊर्जा का खड़ी बोली के दलित-विमर्श से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है।

(घ) दलित विमर्श के समर्थक सवर्ण और शिक्षित अधिकांश कम्युनिस्ट हैं जिनके लिए दलित-विमर्श अपनी पार्टी को मजबूत करने का एक सहारा या बैसाखी है। दुर्भाग्य यह है कि अधिकांश दलित-प्रज्ञा के दलित लेखकों को यह पता नहीं है।

(ड़) दलित-विमर्श में मनुवाद, शूद्र धारणा, प्रत्याख्यान की भाषा, यह सारा कर्म समुच्चय उन लोगों के अज्ञान से सम्बन्धित हैं जो नहीं जानते कि मनु का शूद्र, कबीर का शूद्र, रैदास का शूद्र, तुलसीदास का वर्णाधम एक ही और अनवरत नहीं है। मनु से लेकर तुलसीदास तक शूद्र की धारणा में निरन्तर परिवर्तन हुआ है। चतुर्थ वर्ण की अनेक जातियाँ चौथे नम्बर से दूसरे-तीसरे नम्बर तक पहुंच गयी हैं।

(च) अंग्रेजों ने खास तरह से ब्रिग्स और सरकारी तंत्र ने अछूत, शूद्र, जरायम-पेशा, आदिवासी और घुमन्तू जातियों की जो सूची तैयार की है, उस सूची में बहुत फेरबदल की आवश्यकता है। इनमें कई जातियाँ इस्लाम से बचने के लिए ही घुमन्तू, भगोड़ा या जरायम-पेशा बनीं, लेकिन वे अब कुछ अंशों में धर्म से मुसलमान हो चुकी हैं। अब दलित-विमर्श की सूची में सी. (चमार) और नानसी (नान चमार) दुसाध-महार, दो खेमें बन चुके हैं। बाकी दलित जातियाँ न ठीक से गिनी गई हैं और न उन्हें दलित-विमर्श के भीतर पहचानने का प्रयत्न हुआ है।

(छ) जी०डब्ल्यू० ब्रिग्स ने १९०६ ई० में 'दि चमार्स' नामक किताब में बहुत गहन अध्ययन किया। अनजाने उन्होंने संकेत किया कि चमार, दुसाध अनेक दलित जातियों के अपने नायक हैं।मरे हुए जानवर का माँस खाने, प्रकारान्तर में गोमाँस सेवन के कारण ईसाई मिशनरी के लोगों ने एक चमार उपजाति को ईसाई समझ लिया। अगर सर्वेक्षण किया जाय तो पता चलेगा कि इसी उपजाति के लोग अधिक से अधिक संख्या में ईसाई बनें। सूअर पाल कर मुसलमानों से तो बच गये, लेकिन ईसाई बनना उनकी नियति हो गयी।

(ज) मनुवाद और डॉ० अम्बेडकर से जुड़े हुए श्रद्धा आंदोलनों में एक सशक्त दलित चेतना सामने आई है। इसी चेतना की एक इकाई धर्म-परिवर्तन के नाम पर बौद्ध शिविरों में प्रवेश कर गई है।

जब हिन्दू रहते हुए आरक्षण की सभी सुविधाएं प्राप्त हैं तो 'नव बौद्ध' होने का मतलब क्या है? इसके पीछे कौन सी ताकतें हैं? प्रसिद्ध लेखक मोहनदास नैमिशराय के साथ सारनाथ जाकर मैंने नेपाल, श्रीलंका और तिब्बत के बौद्ध युवकों से 'नव बौद्धों' के बारे में पूछा - लड़के-लड़कियों ने बड़ी दबी आवाज में यह कहा कि 'बौद्ध' हमारे देश के समाज में सबसे ऊँचा है, जैसे यहाँ के समाज में ब्राह्मण को माना जाता था। हमें आश्चर्य है कि यहाँ 'नव बौद्ध' के नाम पर वे लोग आते हैं जो पूरे भारतीय समाज में सबसे नीचे होते थे। यहाँ दलित और पिछड़ा समाज के लोग ही ज्यादा 'नव बौद्ध' होते हैं। हमें उनके साथ उठने-बैठने में दिक्कत होती है। मेरा ख्याल है कि इस सच्चाई से 'नव बौद्ध' आंदोलन परिचित है। फिर भी 'नव बौद्ध' एक ऐसा छत्र है जिसके नीचे कई जातियाँ एकत्र हो खड़ी हो सकती हैं। खटिक, आखेटक, सोनकर को व्याध की, चमार, कोरी अनेक जातियों को रैदास या घासीदास की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। दुसाध को गोगापीर की आवश्यकता नहीं होगी। इसी तरह अन्य को अपने पूर्व-पुरुषों की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। तब शबरी, माण्डव ऋषि, रैक्व बाद में सुहेलदेव, झलकारी बाई की अलग से जाति-नायक के रूप में आवश्यकता नहीं होगी। 'बुद्ध' से काम चल जायेगा।दलित-विमर्श के ये छोटे से प्रश्नवाचक हैं।

दलित-चेतना के भीतर अघोषित रूप से कई दरारें पड़ी हुई हैं। दलित-चेतना के राजनीतिकरण और हस्तिआसन मिलने के बाद अनेक सवर्ण भी इसमें उतर रहे हैं। ऐसी स्थिति में दलित-विमर्श का जो संगठित, उग्र एवं प्रभावशाली रूप है, वह रामनामी ओढ़कर माला जपता हुआ दिखाई पड़ सकता है।जाहिर है कि जब दलित बहुजन के बहुरंगीपन को एकाकार करना था तो कृष्ण-भक्ति के छत्र का प्रयोग किया गया था। आज बहुरंगीपन पर 'नव बौद्ध' का छत्र तान दिया गया है। मैं मानता हूँ कि कृष्ण छाते के नीचे केवल कुछ मठों, क्षेत्रों, आश्रमों में जाति-संकीर्णता एवं मनुष्य घृणा कम हुई थी। यह व्यापक नहीं थीं। भगवदभक्त छत्र भर थी। मैं पुराण को स्मरण करते हुए कालिक एवं सामयिक मानूँ तो इस पर विचार करना चाहिए और बहस होनी चाहिए। प्रश्न उठना चाहिए कि क्या नव बौद्ध हिन्दू हैं? या नहीं हैं? क्या दलित हैं? क्या सचमुच आपस में एक या अद्वितीय हैं?

दलित-विमर्श की लिखित और वाचिक परम्पराओं का बड़ी तेजी से विकास हो रहा है। इसी तरह स्त्री-विमर्श भी समकालीन होने की पहचान बन चुका है। हिन्दी में स्त्री-विमर्श की बात पहले मैंने ही उठायी थी और प्रसिद्ध लेखक मृदुला गर्ग ने लेखन को स्त्री-पुरुष में बाँटने का विरोध किया था। उनके 'मस्जिद मोठ' वाले घर में अपनी छात्रा राक्सन के साथ हम तीनों ने गंभीर बातचीत की। बाद में एक प्रचार-प्रवीण उड़नशील पत्रिका में मृदुला जी ने स्त्री-विमर्श को महत्त्व दिया। उस बातचीत का स्मरण भी किया फिर प्रभा खेतान सहित सैकड़ों लेखिकाओं ने विमर्श के ताल में अपनी कागज की नैया बहायी। झिझिरी खेली। स्त्री-विमर्श रोग-हंसध्वनि में गूँजने लगा। 'दलित-विमर्श' के सन्दर्भ में भी एक बड़े दलित नेता ने मुझसे आपत्ति करते हुए कहा था कि फिर वही हर गाँव की बस्ती में एक दलित बस्ती, छूत-अछूत को अलग करने वाली डीह, ददनी वाली प्रेत-रेखा? हम तो सार्वजनिक बस्ती में प्रवेश कर रहे हैं। आप फिर नई चमटोल बनाना चाह रहे हैं। मैं चुप हुआ। अब तो चीखने पर भी कोई सुनने वाला नहीं है। नक्कारखाने में 'तिलक कामोद' का तराना छिड़ चुका है और बाबा तिलकधारी यादव दलित-विमर्श की बैसाखी पर बड़ी तेजी से चल रहे हैं। सोचना होगा कि 'दलित विमर्श' साहित्यिक आन्दोलन है, कला-चेतना है, धर्म है या धम्म है। क्या है? इस पक्ष की पहली टिप्पणी है कि प्रेमचन्द दलित विरोधी हैं। उन्होंने 'सद्गति', 'कफन' अपनी कई कहानियों में दलितों को विनोद, उपहास और मजाक का विषय बनाया है। क्या दलित इतना नीच हो सकता है कि घर में लड़की चीख-चिल्ला रही हो, मर रही हो और उसके पति और श्वसुर, पिता और पुत्र, घीसू और माधव एक साथ पकते हुए आलू के लिए ललचा रहे हों, घर में लड़की मर रही हो, एक साथ दायें-बायें पावों की तरह चलते हुए 'कफन' के लिए माल इकट्ठा कर रहे हों, घर में मुर्दा पड़ा हो, उसे छोड़कर एक साथ कफन खरीदने जा रहे हों? कफन न खरीद कर एक साथ शराब पी रहे हों, पूड़ी, मिठाई खा रहे हों, नाच रहे हों, निर्गुण गा रहे हों। क्रूरता की किसी भी सीमा पर अपने देश में पत्नी और पुत्रवधू के मुर्दे के साथ ऐसी नागवार क्रूरता असम्भव है।

प्रेमचन्द की यह कहानी कसाई-झूठ है। इसमें क्रूर उपहास और सवर्ण मानसिकता का धतूरा-पुष्प हैं जिसमें रूप के बावजूद बदबू आती है। 'सद्गति' में पण्डित वर्षा में जिस तरह मुर्दे को घसीट रहा है उस तरह घसीटने वाले को गाँव के आदमी पत्थर से मार-मार कर थूक चटा देते और गाँव के देशी कुत्ते भोंककर, काटकर उसी बरसात में भर्ता बना देते। कोई गाय-बैल-सूअर को भी मुर्दा रस्सी में बाँधकर, घसीट कर नहीं चलता। यह कहानी भी प्रेमचन्द की ही दुर्गति करा देती है। दलित लेखक इसे घृणा का प्रचार करने वाली कहानी कहते हैं। शायद दिल्ली वाले भारद्वाज के पूर्वज बाबू श्रीनाथ सिंह ने भी इसे घृणा-प्रचारक कहा था। मोहनदास नैमिशराय ने अपनी एक कहानी में एक सवर्ण का मुर्दा उठाने के लिए दलित जमात का आह्नान करने वाले एक युवक को सामने किया है, जो कहता है कि सवर्णों का मुर्दा हमें ही उठाना पड़ेगा। संकेत है कि दलितों के मुर्दे कलम की नोंक पर घसीटे नहीं जायेंगे। 'अपने-अपने पिंजरे' में बंद उड़ने के लिए छटपटाते हुए मोहनदास नैमिशराय दलित लेखकों में ज्यादा संयत एवं प्रबुद्ध हैं। उनका भी मानना है कि दलितों की समस्या का सृजन दलित ही कर सकते हैं। क्या यह आकस्मिक है कि दलित-लेखन के नाम पर अधिकांश आत्मकथाएं लिखी गई हैं, क्या यह संयोग ही है कि इन 'आत्मकथाओं' में 'शेखर : एक जीवनी' और 'नदी के द्वीप' की रंगीनी नहीं है? दलित-लेखकों के लेखकीय विश्वास के आगे कई प्रश्न हैं। क्या वे लिखते समय दलित हैं? दलित यंत्राणा में हैं? उनका सम्बोधन, पाठक समुदाय केवल दलितों का ही है?

दलित विद्वानों में डॉ० धर्मवीर की काफी चर्चा हुई है। उन्होंने कबीर साहित्य के अध्येताओं को अध्येता नहीं, आलोचक माना और निंदक समझकर पण्डित हजारी प्रसाद द्विवेदी सहित कई प्रसिद्ध विद्वानों का विरोध किया। यहाँ भी प्रश्न है कि डॉ० धर्मवीर ने कबीर या रैदास को कितना पढ़ा। वे कबीर या रैदास को समझाना चाहते हैं या कबीर अथवा रैदास की पढ़ाई पर नाकेबंदी करना चाहते हैं। (मेरी किताब 'भये कबीर, कबीर-डॉ० धर्मवीर आई०ए०एस० को समर्पित है। भूमिकायें सविनय प्रश्न हैं। अन्त में एक पुस्तक सूची। इनमें कितनी पुस्तकें कलक्टर-कमिश्नर साहब ने देखी पढ़ीं। ईमानदारी से बताएँ।) यह स्पष्ट कर देना होगा कि उन्होंने कबीर या रैदास को बहुत कम पढ़ा है। उनके लेखन का महत्त्व उनके आरक्षित महत्त्व की तरह ही होगा। उनके पद और प्रोन्नति की तरह ही उनका लेखन ऊँचा है। सवाल यह है कि वे किसके लिए लिख रहे हैं? कबीर को पढ़ने वाली कोई जमात उनके पास है क्या? कबीर पर लिखने वालों से कोई उनका आमना-सामना है क्या? उनका सम्बोधन सवर्ण समाज के लिए है अथवा उनके विरोधियों का समाज है? उनके लेखकीय झुण्ड में गाँव-गाँव में, बस्ती-बस्ती में, भाई-बहन, माता-पिता, चाचा-चाची, मामा-मामी, बुआ, भौजी जैसी पारिवारिक शब्दावली के हिंसक 'कॉमरेड' तो नहीं हैं? जिनके लिए परिवार, जाति, धर्म, देश सबका पर्याय केवल एक शब्द है 'कॉमरेड'। दलित लेखकों और विद्वानों, पाठकों और समर्थकों को अपनी निजी जमात पर नजर रखनी होगी और अपना कुरुक्षेत्र भारतीय हिन्दू भूगोल के भीतर ही बनाना होगा क्योंकि दलित-सत्ता और दलित अस्मिता हिन्दू जाति की नकारात्मक किन्तु निश्चित सीमा-रेखा के भीतर ही तय होगी, वर्ण के बाहर जाते ही दलित प्रश्न वर्ग के धुएँ में खो जायेगा। कोई समर्थक नहीं मिलेगा। गरीबों को गरीब मिल जायेंगे। साहबों को साहब नहीं मिलेंगे।

दलित समस्या पर बड़ी निष्ठा के साथ गाँव-गाँव, शहर-शहर, किताब-किताब, पन्ना-पन्ना समझ के भीतर से मेरा यह कहना है कि दूसरों का बोलना बंद करने से पहले बोलना सीखना पड़ेगा। यह रैदास से सीखिए। आरती का पद लिख रहे हैं। कह रहे हैं, गाय के दूध को बछड़े ने जूठा कर दिया, गंगा के जल को मछलियों ने मैला किया, फूलों को भौंरों ने अपवित्र किया। तुम्हारी पूजा कैसे करूँ?'मन ही पूजा, मन ही धूप।'रामहि पूजा कहाँ चढ़ाऊँ। फल अरु फूल न अनुपम पाऊँ।दूध त बछरयो थनहुं जुठारयो। पुहुये भँवर जलमीन बिगारयो।मलयागिरि बाँधियों भुवंगा। विष अमृत बसइ इक संगा।मन ही पूजा, मन ही धूप। मन ही से सेऊँ सहज सरुप।पूजा अरचा न जानूँ तोरी। कह 'रैदास' कवन गति मोरी।यह पाखण्ड का सतर्क विरोध है। आरती की लय में स्वसंवेद्य प्रज्ञा का विस्तार। इसी तरह कबीर अपनी महिमा से ही विकल हैं। वे चाहते हैं कि कबीर, कबीर रह जाएं। वे पूरी दलित-जमात को सम्बोधित करते हुए कहते हैं -

मैं बिगड़ा, तुम न बिगड़ना।

हरा-भरा पेड़ था, चंदन के संग चंदन होकर बिगड़ गया।

निर्मल जल था, गंगा के संग गंगा होकर बिगड़ गया।

लोहा था, पारस के संग सोना होकर बिगड़ा।

कबीर था, ताना-बाना वाला जुलाहा।

राम के संग राम होकर बिगड़ा।

कबीर बिगरा राम दुहाई।

तुम जनि बिगरयो मेरे भाई।

चंदन के ढिक विरख, जु भैला।

बिगरि-बिगरि सो चंदन ह्नैला।

पारस को जो लोह छुवेगा।

बिगरि-बिगरि सो कंचन ह्नैला।

गंगा में जे नीर मिलेगा।

बिगरि-बिगरि गंगोदक ह्नैला।

कहे कबीर जो राम कहैला।

बिगरि-बिगरि सो रामहि ह्नैला।

कहना है कि कबीर अपनी सारी आध्यात्मिक उपलब्धियों के बावजूद अपनी बस्ती में रहना चाहते हैं -

सुनिये सबकी, करिये मन की, रहिये अपने गाँवा जी।

मैं कहना चाहता हूँ कि दलित-लेखकों को सारी प्रतिभा के बावजूद अपनी इयत्ता पर विश्वास करना होगा। अपने रहन और सहन में दलित-विश्वसनीयता प्राप्त करनी होगी। कुरीतियों और आसनों से उतर कर उस शब्द-विवेक के लिए जूझना पड़ेगा, जो कामगर, दस्तकार शब्दावली को, कर्घा को, राँपी को, ताना बाना को और कुल मिलाकर अपनी जूतों से भरी कठवत को अध्यात्म के शिखर तक उठाना होगा। 'मन चंगा तो कठौती में गंगा'। शास्त्र, विद्या और ज्ञान से सँवारे शब्दों को छोड़कर मेहनत-मजदूरी-दस्तकारी के शब्दों का विश्वास करना होगा। दलित-दुःख लिखने के लिए दलित शब्दावली का अन्वेषण करना होगा।महिमा का तिरस्कार, काम करते हुए आदमी से पारिवारिक सम्बन्ध, शब्द और अर्थ तथा कामगार आत्मीयता को लेकर ही दलितों का लेखक बना जा सकता है, वरना सब कुछ चमक-दमक से छपा हुआ सवर्णों का लिपिक कर्म हो जायेगा। यह देखना हो तो दलितों के समारोह में आइये, जहाँ रैदास-चालीसा और कबीर-चालीसा, शिव-चालीसा और हनुमान-चालीसा से ज्यादा बिकते हैं। यहाँ रैदास और कबीर की पुस्तकों, तस्वीरों को लक्ष्मीविष्णु से ज्यादा खरीदा और आदर दिया जाता है। जहाँ भूख-प्यास की परवाह के बिना 'बाबा साहब अम्बेडकर की जय' बोलते हैं। जहाँ मैले-कुचैले, अस्त-व्यस्त कपड़ों में बनिहारिन औरतें बाबा साहब को चमक-दमक के बावजूद अपना आदमी मान लेती हैं और बाबा साहब में अपना रिश्ता न देखते हुए भी 'जय भीम' के नारे लगाती हैं। ऐसी मैली भीड़ के बीच से जो शब्द और अक्षर पैदा हो रहे हैं उन्हें 'कम्पोज' करने के लिए कुर्सीपरस्त अफसरों की उंगलियां नहीं, दस्तकारों की उंगलियों की जरूरत है।

कोई विद्याधर दलित शब्दों के कारण नहीं, अपने संकल्प के कारण दलितों का सिपाही बन सकता है। यह कला-कर्म नहीं, मनुष्यमुक्ति और कलंक से हाथापाई का मोर्चाबन्द अभियान है।मैं मानता हूँ कि पिछले दस बारह वर्षों से लिखा हुआ दलित साहित्य, जागरूक, रचना के लिए समर्पित लोगों का साहित्य है, लेकिन इसे जनता का दुःख बाँटने के बजाय, विदेश एवं दिल्ली में लिखे हुए प्रो-दलित साहित्य पढ़कर लिखा गया है। उनके सारे प्रशंसक अपने घरों में दलितों के कवच स्लैंग शब्दों का प्रयोग करते हुए अपने क्रोध का मुहावरा तैयार करते हैं। ऐसे क्रोधी समर्थकों की भीड़ पर दलित कलम को अपनी नोंक घुसानी होगी और सारी स्याही छद्म समर्थकों के मुँह पर पोत देनी होगी।प्रज्ञा-चतुर नागरिक को दलित की पंक्ति में बैठकर पहले गाली सुनने का अभ्यास करना चाहिए यह नया पाठक दलित लेखकों को दलित रचनाकार बना सकता है। लेखन और सम्बोधन की ठीक-ठीक पहचान न होने के कारण अधिकांश दलित-साहित्य बदले और गुस्से का सत्तापोषित साहित्य बनकर रह जायेगा। जैसे पूँजीपति कंजूसों के क्षेत्रों में बँटने वाला भोजन भूख नहीं मिटाता, भूख को ही गालियाँ देता है।

(फैज़ाबाद में जन्मी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हिन्दी -प्रवक्ता पद पर कार्यरत शगुफ्ता नियाज़ के सौजन्य से)