दलित औरत का गुमनाम संघर्ष / संतोष श्रीवास्तव

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दिसम्बर माह... विदा होता साल और नए साल के स्वागत की तैयारियों में डूबा मुंबई महानगर। तभी अचानक हुआ यूं कि दलित वर्ग उठ खड़ा हुआ... उसने क्रोध की ज्वाला में सुलगते हुए ट्रेनें फूंक डालीं। चक्के जाम कर दिए, बसों के नाजुक शीशों पर जोर आजमाइस किया और न केवल मुंबई बल्कि पूरे महाराष्ट्र की धड़कन को रोक दिया... वजह... कानपुर में बाबा साहब अंबेडकर की मूर्ति को जूतों की माला पहनाकर उनका अपमान किया गया। दलितों के नेता अंबेडकर ने क्या कभी कल्पना कि होगी कि मूर्ति का अपमान करने पर जो दलित समाज भड़क उठता है वह समाज अपने घर की औरतों के साथ कैसा व्यवहार करता है। इन औरतों की दीन-हीन दशा किसी से छिपी नहीं है।

दलित स्त्रियाँ सदियों से ब्राह्मणवाद का शिकार हैं और उच्च वर्ग के लोगों के द्वारा शोषित होती रही हैं। यह एक आम धारणा है पर वे अपने ही परिवारजनों की प्रताड़ना का शिकार अधिक होती हैं इस पर किसी ने सोचा है? पितृसत्तात्मक समाज से वे भी जूझ रही हैं। उनके शोषण में यह सत्ता विशेष रोल अदा करती है। वह तिहरे शोषण का शिकार है। पहला औरत होने की पीड़ा, दूसरा गरीबी और तीसरा परिवार और समाज के द्वारा। वह श्रम करती है, खटती है पर उसकी कमाई का होता क्या है... उसकी कमाई पर पूरा अधिकार जताता पुरुष शराब, नशा और जुए का लुत्फ उठाता है। औरत के जरा-सा मुंह खोलते ही मारपीट कर उसे घर से निकाल देता है। घर से निकाली गई औरत अन्य पुरुषों के लिए सहज सुलभ हो जाती है, तब उसके मन में हीन गांठ पनपने लगती है कि उसके साथ ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वह औरत है। औरत तो अपने आंचल की गांठ में सब्र की हल्दी बाँधकर ही पैदा हुई है। उसे मर्द की डांट, फटकार, झल्लाहट, कुंठा सब कुछ चुपचाप बर्दाश्त कर लेना चाहिए। दलित समाज में औरत मात्र परिवार बढ़ाने, कमाई में हाथ बंटाने और कामपिपासा शांत करने का एक जरिया भर है। उसका अपना कोई वजूद नहीं, उसकी अपनी कोई आवाज नहीं। कई जगहों से तो घर आए मेहमान को भोजन के साथ घर की औरत भी परोसी जाती है और इसे वे मेहमाननवाजी का हिस्सा मानते हैं। कई घर के मर्द ही अपनी बहन, बेटी या पत्नी से वेश्यावृत्ति तक कराते हैं।

यह सब समाज में सदियों से होता आ रहा है। इसका विरोध करने का साहस औरत में नहीं पैदा हुआ, इसकी सबसे बड़ी वजह शिक्षा कि कमी है। पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ कम साक्षर हैं। उन्हें उनके अधिकारों का ज्ञान नहीं... अपने आसपास के परिवेश को समझ लें वही बड़ी बात है। अन्य भारतीय समाज की तरह दलित समाज में भी औरत-मर्द का सम्बंध शासक और शासित का सम्बंध है। चूंकि वे ईंट के भट्टों, निर्माणाधीन इमारतों आदि में मजदूरी करती हैं तो अपनी आजादी का इस्तेमाल भी कर सकती हैं पर फिर भी वे मर्दों की पराधीन हैं। श्रम करते हुए अक्सर वे ठेकेदारों की हवस का शिकार होती हैं। बदले में थोड़ी बहुत आमदनी परिवार के मर्दों का मुंह बंद किए रहती हैं। न तो वे संगठित होकर अपनी मुक्ति का आंदोलन छेड़ती हैं न इसके खिलाफ एकजुट होती है। ब्राह्मणवाद की जकड़ से त्रस्त दलित समाज अपना रोष, अपनी कुंठा औरतों पर उतारता है। पुरुष सत्ता का इतना दबाव है कि कोई भी मर्द अपने खिलाफ औरत के उठे कदम को रौंद डालने में तत्पर दिखाई देता है। औरत कभी भी मर्द के खिलाफ नहीं होती, वह उस व्यवस्था के खिलाफ है जिसने उससे जीने का हक छीना है।

प्राचीन भारत की नट जाति जो वर्णव्यवस्था के अंतर्गत शूद्रों में गिनी जाती है अपनी औरतों से पेट भरने के लिए नाच गाना कराती है। ये औरतें बेड़नियाँ कहलाती हैं। जब देश परतंत्र था। सामंतों, जमींदोरों, ठाकुरों और डकैतों का बोलबाला था। ये बेड़नियाँ उनके घरों में होने वाले उत्सवों, दावतों, शादी-ब्याह के दौरान नाच-गाने के लिए ले जाती थीं। बदले में इन्हें ले जाने वाला दलाल रात भर के लिए उनकी देह से अपना कमीशन वसूलते थे। जोर-जबरदस्ती बलात्कार की ये बेड़नियाँ भी शिकार होती थीं। बीहड़ों में डकैतों के अड्डों पर जब इन्हें नचाने ले जाया जाता तो गुंडे-बदमाश, दबंग पुरुषों का सामना करते-करते बेड़नी का तन तो टूटता ही, मन भी टूट-टूट जाता।

अक्सर ये जमींदारों, ठाकुरों, सामंतों की रखैल कहलातीं। नाच गाने की आड़ में रूप यौवन के लोभी मर्द इन्हें तरह-तरह के प्रलोभन देकर अपनी हवस का शिकार बनाते। इनसे पैदा हुए बच्चों को कोई कानूनी मान्यता नहीं मिलती। जवानी ढल जाने पर इन्हें ठोकर मारकर निकाल दिया जाता। तब इनके पास न मकान होता, न जमीन-जायदाद... समाज दुतकारता सो अलग... ऐसी विडंबना, विभीषिका को न जाने कितनी बेड़नियों ने सहा होगा। ऐसी ही एक बेड़नी है मेहंदिया जो बांदा में कई अमीरों की हवस का शिकार हुई। नाच-गाने से थके पांवों को गाँव के ठाकुर ने अपनी रखैल बनाकर आराम तो दिया पर पांच बच्चे पैदा कर और अठारह साल तक मेहंदिया कि जवानी का भोग कर ठाकुर का मन उससे विरक्त हो गया। अब वह दूसरों के लिए उससे नाच-गाने कराता और उशकी कमाई पर ऐश करता। तंग आकर मेहंदिया अपने बच्चों को लेकर वहाँ से भाग निकली। बांदा में नौटंकी कला केंद्र में उसने अपनी समस्या रखी। संस्था ने उसे वार्षिक महोत्सव में अपना नाच पेश करने का मौका दिया। इस नाच ने उसकी दिशा बदल दी। उसकी कला कि सराहना कि गई जिसने न केवल उसका मनोबल बढ़ाया बल्कि मान, सम्मान और धन भी दिलवाया। उसके साहस ने उसे बांदा कि बदनाम गलियों से छुटकारा दिला कर सम्मानित जीवन जीने का अवसर दिया। आज वह नौटंकी कला केंद्र परिसर की सचिव है और उसका ध्येय है अपनी जाति की बेबस औरतों की ज़िन्दगी में सुधार और बदलाव लाना।

बिहार के चंपारण जिले में भिरखिया टोले की 59 वर्षीया दलित महिला गिरिजा ने औरतों पर होने वाले जुल्मों को चुपचाप सहने की बजाय इसके खिलाफ आवाज उठाने का फैसला किया। गौरतलब है कि गिरिजा कि उम्र 59 वर्ष की है। बचपन से अब तक न जाने क्या-क्या देखा सहा होगा। धीरे-धीरे उसके मन में चिंगारी सुलगी होगी... अपनी अशक्तता पर विजय पाने में उसे उम्र के कितने लंबे दौर से गुजरना पड़ा... बरस पर बरस लगते, एक मुक्ता रूप पकते। हालात की आंधियाँ उसे और ज़्यादा ठोस धरातल देती चली गई... औरत होना ही अपने में अभिशाप है... इस वाक्य को नकारती गिरिजा ने ऐलान किया कि औरत शक्तिहीन नहीं है... वह क्या नहीं कर सकती? पर उसके संस्कार, उसकी शालीनता ही उसके आड़े आती है। गिरिजा ने न संस्कार छोड़े, न शालीनता। उसने अन्य तमाम पीड़ित औरतों को इकट्ठा कर उन्हें समझाया कि हम कमजोर नहीं हैं। हमें भी जीने का अधिकार है। वह जमाना गया जब औरत कुढ़-कुढ़कर मर्दों के अत्याचार सहती, घर-परिवार के लिए खटती स्वाहा हो जाती थी। उसने एकजूट होकर आगे बढ़ने और आवाज उठाने का फैसला किया।

मुसहर नामक एक निम्न जाति में पैदा हुई गिरिजा ने अकेले दम पर अपने गाँव और आसपास के इलाकों में औरतों पर अत्याचार के खिलाफ मोर्चा निकाला। खासकर शराब पीकर औरतों पर अमानुष अत्याचार करने वाले पुरुषों के खिलाफ आंदोलन खड़ा कर दिया। स्त्रियों के उत्थान के लिए कमर कसने वाली गिरिजा को उसके इस प्रयास के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा एक खास निमंत्रण दिया गया। दलित समाज और वह भी लड़की को जन्म... पर गिरिजा तमाम पारिवारिक विरोधों का सामना करती हुई पढ़-लिखकर आज एक शिक्षित महिला है। वह संयुक्त राष्ट्र के महिला अधिकारों और विकास से जुड़े संगठन के पचासवें सत्र को सम्बोधित भी कर चुकी है। यह तमाम अनपढ़ और पढ़े लिखे लोगों के बीच हैरानी पैदा करने की खबर है। लेकिन गिरिजा के संघर्ष की गाथा संभवत: इससे भी कई गुना हैरानी भरी है। गिरिजा मुसहर टोले में पैदा हुई और भिरखिया टोले में ब्याही गई। उसे शराबी पति का सामना करना पड़ा। पति की शराब की लत के कारण वह उसके ही दोस्तों के द्वारा यौन शोषण का शिकार हुई। पति अपने दोस्तों की टोली के साथ बैठकर देर रात तक शराब पीता और उसे दोस्तों का बिस्तर गर्म करने का आदेश देता। मना करने पर हड्डियाँ तोड़ देने की हद तक पिटाई करता।

कब तक बर्दाश्त करती गिरिजा... एक दिन उसके खून में उबाल आया और उसने इस अत्याचार के खिलाफ मुहिम छेड़ दी। धीरे-दीरे टोले की अन्य औरतें भी उसके साथ जुटती गईं। जागरूकता फैली और औरतों के अधिकारों से जुड़े कई दूसरे मुद्दे भी उठे। करीब छह साल पहले गिरिजा ने मुसहर मंच की स्थापना कि ताकि जिला प्रशासन पर वह अपना दबाव बना सके। वह सामाजिक शोध एवं विकास केंद्र नामक संगठन से भी जुड़ी जो गैर-सरकारी संगठन एक्शन एंड के साथ मिलकर कई सामाजिक मुद्दों पर काम करता रहा है। न्यूयार्क जाने का निमंत्रण मिलने के बाद से गिरिजा चर्चा का विषय बनी पर यह तो वह खुद ही जानती होगी कि उसके संघर्ष का नाम ही गुमनाम होकर काम करना है।

अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन (एमनेस्टी इंटरनेशनल) ने पिछले दिनों विभिन्न गांवों में बसे दलितों की स्थिति का सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण में जो तथ्य सामने आए... हालांकि ये उसी तरह से अत्याचार थे जो सदियों से औरत पर होते रहे हैं पर थे रोंगटे खड़े कर देने वाले। ये तथ्य परिवार द्वारा ढाए जुल्मों के साथ-साथ उच्च वर्ग के लोगों की भी बखिया उधेड़ते हैं। यह सच है कि मध्य वर्ग की औरतों की तुलना में दलित महिलाएँ ज़्यादा गतिशील और आर्थिक रूप से ज़्यादा आत्मनिर्भर होती हैं। पर यह भी सही है कि घरेलू हिंसा कि शिकार भी वे ही ज़्यादा होती हैं। कई बार तो अपने ही समुदाय के लोगों द्वारा उनके साथ बलात्कार किया जाता है। गरीब परिवारों की कई औरतें स्वतंत्रता या अपनी स्वेच्छा से नहीं बल्कि आर्थिक मजबूरियों के कारण घर की आमदनी में हाथ बंटाती है लेकिन पिता या पति की संपत्ति में उनका कोई हक नहीं होता। यदि किसी कारणवश उनकी शादी टूट जाती है तो परित्वक्ता औरत भाग्य के सहारे छोड़ दी जाती है।

राजस्थान में दलितों में नाथा प्रथा है। नाथा प्रथा में एक ही महिला कि कई बार शादी करवाई जाती है... वजह दहेज भी हो सकती है जिससे समाज आज भी पीड़ित है।

बलात्कार या हिंसा कि शिकार बनी महिलाओं के प्रति उनके टोले या पुलिस की बेरुखी प्रशासन को सवालों के कठघरे में खड़ा करती है। उन्नाव जिले के मुन्नी खेरा गाँव में चमार जाति की महिला को उसकी जमीन से बेदखल करने के लिए उच्च जाति के पांच लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया। जब महिला थाने में प्राथमिकी दर्ज कराने गई तो पुलिस ने प्राथमिकी लिखने से इंकार कर दिया। मजबूरन उसे जमीन क्या गाँव से ही निकाल दिया गया। जब वह दूसरे गाँव गई तो उसके टोले के लोगों ने उसे उकसाया कि जमीन छोड़ी क्यों... जमीन छोड़ी तो छोड़ी गाँव क्यों छोड़ा? वहीं रहकर अपने हक की लड़ाई लड़ती। लिहाजा जब वह मुन्नी खेरा गाँव लौटी तो सवर्णों की गाज फिर उस पर गिरी। उसे मारा-पीटा गया और इस बार पांच नहीं बल्कि पंद्रह लोगों ने उस पर बलात्कार किया। बेहोशी की हालत में जब चमार टोले के लोग उसे अस्पताल ले गए तो डॉक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया। क्या गुनाह था इस महिला का? अपनी जमीन होना क्या गुनाह है? पुलिस के द्वारा प्रथामिकी दर्ज न किए जाने का कारण? यही न कि सवर्ण उनकी सुरसा-सी जेब भरते हैं... पैसों के बल पर बिके कानून के रक्षक कौन-सी श्रेणी में गिने जाएंगे?

दलित जाति का होने के कारण औरत के साथ हिंसा होने की संभावना अधिक बढ़ जाती है। उनके घर के पुरुष रोजी-रोटी की तलाश में शहर चले जाते हैं इसीलिए घर में अकेली पड़ी औरत सेठ-साहूकारों की हवस का शिकार बनती है। एक घटना तो रोंगटे खड़े कर देने वाली है। एक महीने पहले शिशु को जन्म देने वाली जवान माता अभी प्रसूति की अवस्था से उबरी भी नहीं थी कि उसी के टोले का मुखिया उसके घर मेहमान बनकर गया और रात उसी के साथ गुजारी। सुबह उसकी हथेलियाँ शिशु के हिस्से के दूध से सनी थीं।

इन पंक्तियों को लिखते हुए मुझे पुराण में लिखी ऋषि सुदर्शन की कथा याद आ रही है। यात्रा पर जाने से पहले ऋषि सुदर्शन ने अपनी पत्नी ओघवती को आदेश दिया था कि अतिथि सत्कार में कमी न हो। यदि आवश्यकता पड़े तो मेहमान की कामपिपासा भी शांत करना। अतिथि थे धर्मराज। जब ऋषि सुदर्शन लौटे तो धर्मराज ओघवती के साथ अपनी कामपिपासा शांत कर रहे थे। पूर्ण संतुष्ट हो जब धर्मराज आसन पर बिराजे तो उन्होंने ऋषि सुदर्शन को मृत्यु पश्चात स्वर्गारोहण का वरदान दिया। अपनी आत्मा को बेचकर ओघवती को क्या मिला? महज आत्मग्लानि? या यह कि आत्मा उसमें है ही नहीं, वह पुरुष की संपत्ति मात्र है कि जैसे पांच पांडवों के बीच एक द्रौपदी बांट ली गई थी... पिछले दिनों जीना इसी का नाम है टीवी सीरियल में फारुख शेख ने कॉलेज के अपरिपक्व किशोरों के अभिनेत्री ऐश्वर्या राय के बारे में विचार बताए थे कि... वी वॉन्ट टू शेयर यू एस द पीसेज आॅफ केक और इस पर ऐश्वर्या शुद्ध विज्ञापनी मुद्रा में खिलखिलाई थीं। तभी तो हर वर्ग, हर जाति की महिलाओं की स्थिति का सर्वेक्षण कर एमनेस्टी ने चिंता व्यक्त की है कि आखिर स्थिति सुधरे कैसे? न केवल दलित और आदिवासियों की महिलाओं के साथ अत्याचार होते हैं बल्कि धनाढ्य वर्ग भी इससे अछूता नहीं है। घर में होने वाली हिंसक घटनाएँ मार-पीट, अनचाहा सेक्स, बलात्कार, दहेज न मिलने पर प्रताड़ना तमाम कानूनी बंदिशे आज भी जारी है बल्कि इन घटनाओं में साल दर साल बढ़ोत्तरी ही हो रही है।

दलितों के मसीहा महात्मा ज्योतिबा फुले ने उस जमाने में दलितों के उद्धार के लिए शिक्षा का सहारा लिया था जब ब्राह्मणवाद के शिकंजे में जकड़ा समाज दलितों को न तो मंदिरों में प्रवेश करने देता था, न उनका छुआ खाता था, न उन्हें शिक्षा कि इजाजत थी बल्कि उनकी छाया तक को दूषित समझा जाता था। बहुत कम देश ऐसे होंगे जहाँ किसी जाति विशेष की स्त्रियों को पढ़ने का अधिकार न हो, गले में मिट्टी की हंड़ियाँ बाँधनी पड़ती हो ताकि वह उसी में थूके और कमर में झाड़ू बंधी हों ताकि वह अपने पैरों के निशान मिटाती जाए। महात्मा फुले ऐसे दृश्य से दहल उठे थे। उन्हें स्त्रियों की शिक्षा कि आवश्यकता महसूस हुई थी। शिक्षा से ही वे अपनी स्थिति सुधार सकती हैं। सबसे पहले उन्होंने यह शुरुआत अपनी पत्नी से ही की। उसे पढ़ाकर शिक्षिका बनाया। महिलाओं का अलग स्कूल खोला। उनकी पत्नी तीन साड़ी लेकर घर से निकलती थीं क्योंकि रास्ते में उन पर पखाना, मूत्र फेंका जाता था। स्कूल पहुँचकर वे कपड़े बदल लेतीं। वापिसी में फिर वही बदसलूकी। लेकिन पति-पत्नी दोनों में गजब का धैर्य और सहनशीलता थी। महात्मा फुले और मार्क्स में काफी समानता है। दोनों मानते हैं कि सर्वहारा कि मुक्ति स्वयं सर्वहारा के हाथों संपन्न होनी चाहिए। सर्वहारा ही सर्वहारा का क्रांतिकारी वर्ग बनेगा तो इन दोनों विचारों को उन्होंने अपने जीवन में भी उतारा। फुले दंपत्ति ने न केवल दलित महिलाओं अपितु अन्य वर्गों की महिलाओं को भी मानवीय सम्मान और गरिमा दिलाने की जंग लड़ी।

महात्मा फुले से पहले मुझे गौतम बुद्ध को याद करना चाहिए था। सच पूछा जाए तो दलित चेतना का आरंभ बुद्ध काल से ही हुआ। स्त्री मुक्ति की चिंगारी भड़कनी आरंभ हो चुकी थी, यह उस काल में रचा साहित्य दर्शाता है। पूर्णिमा और सुमंगला नाम की थेरियाँ थीं जिन्होंने अपनी कविताओं के जरिए दलित औरतों की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति का खाका खींचा है। साथ ही साथ शोषण के खिलाफ लड़ने, स्त्री मुक्ति का अर्थ, अधिकार व इस दिशा में किए गए प्रयासों का भी जिक्र है। इन थेरियों ने दलित स्त्री मुक्ति आंदोलन को राह दिखाने में मशाल का काम किया और बुद्ध की वाणी सच साबित की कि अपना दीपक खुद बनो। थेरी सुमंगला कि एक कविता है-मुक्त हूँ मैं, मुक्त / धनकुटे से पिंड छूटा / देगची से भी / मैं कितनी प्रसन्नचित्त हूं / अपने पति से मुझे घृणा हो गई है / उसकी छत्रछाया को अब / मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती / इसलिए मैं कड़कड़ाकर नष्ट करती हूं / लालच और नफरत को / और मैं वही स्त्री हूँ। जो एक पेड़ तले बैठती है / और अफने आपसे कहती है / आह, यह है सुख / और करती है चिंतन-मनन सुखपूर्वक...

युद्धकाल की भड़की चिंगारी अब धीरे-धीरे सपटें फेंकने लगी है। दलित स्त्री के आगे पसरा लाचारी, बेबसी का अँधेरा छंटने लगा है। अपनी समस्याओं के खिलाफ उसमें जागरुकता तो आई है कम से कम... वह अपने अधिकारों को समझने लगी है। सभी समस्याओं के खिलाफ एकजुट होकर कदम उठाने की ताकत भी उसने जुटा ली है। डॉ. अंबेडकर दलित महिलाओं को बढ़ावा देते रहे। महाड़ आंदोलन से लेकर कालाराम मंदिर प्रवेश के आंदोलन में हजारों औरतें शामिल हुईं। शामिल होकर उन्होंने दलित स्त्री चेतना का इतिहास रचा। कामगार स्त्रियों के न्यूनतम वेतन से लेकर सामाजिक सुरक्षा, मेटरनिटी लीव और पेंशन तक की लड़ाई लड़ी उन्होंने। 1942 में अखिल भारतीय दलित महिला परिषद में 25 हजार औरतों ने भाग लिया जिसमें उन्होंने अपने पारिवारिक और सामाजिक शोषण के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने हिंदू धर्म की कड़ी आलोचना कि जिसके कारण सारी विडम्बनाएँ, पीड़ाएँ, सीमाएँ, बंधन मात्र स्त्री को भोगने पड़ते हैं। हिंदू धर्म में स्त्री के लिए एक गुलाम संस्कृति का निर्माण किया है और यही वजह है कि पुरुष उच्छृंखल है। उसे हर तरह की धार्मिक आजादी है।

वक्त का स्वभाव है गुजरते चले जाने का। समाज इतनी तेजी से बदलता है कि इंसान को गुजरे वक्त की अच्छाइयों बुराइयों से सबक लेने, जांचने-परखने का मौका नहीं मिलता। समाज से छुआछूत तो दूर हुआ, हरिजन... हरिजन नहीं रहे। ऊंचे-ऊंचे पदों पर आसीन होने लगे। सरकारी सीटों के आरक्षण पर इन्हीं का बोलबाला होने लगा पर औरत जस की तस। पंचायत के दरवाजे उनके लिए भी खुले पर वहाँ भी उनका जिस तरह से शोषण हुआ वह उनकी मुट्ठीभर सैनिकों की लड़ाई को ही रेखांकित करता है। पंचायती राज के नए ढांचे में महिलाओं की हिस्सेदारी की बहुत तारीफ की गई। आमतौर पर शिकायत रहती है तो बस यही कि पंच की गद्दी पर वे कठपुतली बनाकर बिठा दी जाती है और उनकी लगाम रहती है उनके पिता, पति, भाई या अन्य रिश्तेदारों के हाथों में और जो इसका विरोध करती है उसकी दुर्गति किसी से छिपी नहीं।

पंच के तौर पर चुनी गई उर्मिला किन प्रताड़नाओं से गुजरी इसका कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता। ओबीसी के बहुमत वाले जिला बैतूल मध्य प्रदेश के इस गाँव में एक दलित परिवार में जन्मी उर्मिला के संघर्ष का सिलसिला तभी शुरू हुआ था जब पंच के तौर पर चुने जाने के बाद उसने गाँव के विकास के लिए आवंटित धन में हो रहे भ्रष्टाचार पर उंगली रखी थी। इसकी सजा उसे मिली... सामूहिक बलात्कार का शिकार होना पड़ा उसे। जब वह थाने में प्राथमिकी दर्ज कराने गई तो उसे लताड़ा फटकारा गया, हंसी उड़ाई गई और उसे बैरंग वापिस भेज दिया गया पर उसने हार नहीं मानी। भ्रष्ट सिस्टम की निगहबानी में पल रही गुंडागर्दी का वह बार-बार सामना करती रही। सियासी बेरुखी और पुलिस की ढिटाई का आलम यह था कि दलित संरक्षण कानून की बात तो दूर सीआरपी के तहत भी एफआईआर दर्ज नहीं हुई। आखिरकार छह साल के लम्बे संघर्ष के बाद एफआईआर तो दर्ज हुई पर किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया। थक चुकी थी उर्मिला। उसने कलेक्टर के दफ्तर में अपना विरोध प्रगट करने से पहले जहर खाकर आत्महत्या कर ली और उसकी मौत एक आंकड़े में तब्दील होकर गुम हो गई।

राजस्थान के गंगानगर की ग्राम पंचायत जानकी दासवाला कि दलित सरपंच सुमित्रा देवी की दास्तान पिछले दिनों अखबारों की सुर्खियाँ बनी थीं। चुनावी रंजिश के चलते पूर्व सरपंच के परिवारवालों ने उसे पेड़ से बाँधकर पीटा था। इन्हीं दिनों दौसा जिले के बिवाई गाँव की महिला सरपंच की खबर आई थी जिसे 15 अगस्त को राष्ट्रीय ध्वज फहराने नहीं दिया गया। मध्य प्रदेश में भी एक दलित सरपंच को राष्ट्रीय ध्वज छूने नहीं दिया गया था। कुछ समय पहले राजस्थान की सामाजिक संस्थाओं ने पहल कर जन सुनवाई का आयोजन किया था, जिसके बाद दलित महिला सरपंचों की कहानी उनकी जुबानी नाम से रिपोर्ट भी प्रकाशित की गई थी, जिसमें उन्होंने इस बात को साफ तौर पर नोट किया था कि दलित महिला नुमाइंदों को तिहरा दमन झेलना पड़ता है-एक तो औरत होने की पीड़ा, उस पर दलित होने का दर्द और सबसे ज़्यादा गरीबी की मार। रिपोर्ट में कहा गया था कि रिजर्वेशन की मजबूरी के चलते भले ही दलित महिलाओं को पंचायतों में अनेक पद मिले हों लेकिन अनुभव यही बताता है कि सत्ता के विकेंद्रीकरण तथा कमजोर तबकों के सशक्तिकरण का लक्ष्य अधूरा ही रह गया है।

अजमेर के रसूलपुरा पंचायत की छग्गीबाई पर मनमाने तरीके से बेबुनियाद आरोप लगाकर उसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पास करा दिया गया। आरोप था कि छग्गीबाई की विकास कार्यों में दिलचस्पी नहीं है जबकि वह बा सबूत बता सकती है कि उसने जी-तोड़ मेहनत कर विकास कार्यों को अंजाम दिया। इस मामले में प्रशासन की खामोशी सवाल खड़े करती है।

शेरगढ़ पंचायत की केसनबाई जब चुनाव जीतने के बाद पंचाय भवन पहुँची तो उच्च वर्ग के लोगों ने उसे पहले तो अंदर ही जाने नहीं दिया। जब वह किसी तरह अंदर पहुँची तब उसे सरपंच की कुर्सी पर बैठने नहीं दिया। कई बार उसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। पर सौभाग्य से पंचायत में दलित प्रतिनिधियों की तादाद ज़्यादा होने के कारण वह पास नहीं हो सका। कोटा के कनवास पंचायत की पांचीबाई को चक्रव्यूह में फंसाकर अपमानित करके इतना पीटा गया कि वह बेहोश हो गई। थाने में एफआईआर दर्ज हुई, लेकिन आरोपी कुछ ही घंटों में जमानत पर रिहा हो गए।

इन कुछ उदाहरणों से दलित महिलाओं की स्थिति का जायजा लिया जा सकता है। इनमें कई उदाहरण अपवाद भी हो सकते हैं। दरअसल महिला पंचों को जब-जब मौका मिला है, उन्होंने जी-तोड़ मेहनत की है और अपने जोश से नई राह बनाई है। महाराष्ट्र में सार्वजनिक स्थानों पर महिला शौचालयों का निर्माण महिला जनप्रतिनिधियों के बिना मुमकीन नहीं था। आधी आबादी की इस कुदरती ज़रूरत की ओर किसी पुरुष नेता ने ध्यान तक नहीं दिया था। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले की एक महिला प्रधान मनसा देवी गरीब परिवार से है लेकिन सरकार से मिलने वाली पांच सौ रुपये का मानदेय खुद न लेकर गाँव के कल्याण में खर्च कर देती है।

उत्तर प्रदेश के दस्यु प्रभावित जनपद बुंदेलखंड में तमाम विसंगतियों के बावजूद दलित और आदिवासी वर्ग की अल्पशिक्षित स्त्रियाँ अदम्य साहस का परिचय देते हुए लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को मजबूती से थामे हुए हैं। बुंदेलखंड के सर्वाधिक पिछड़े चित्रकूट जिले में ये महिलाएँ खबर लहरिया नाम के एक पाक्षिक समाचार पत्र का प्रकाशन कर रही हैं। दलित और आदिवासी वर्ग की ये महिला पत्रकार इस समाचार पत्र में महिलाओं से जुड़े मुद्दों को खुलकर लिख रही हैं। गौर करने वाली बात ये है कि ये महिला पत्रकार प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से इस क्षेत्र में आई हैं। जाहिर है इस काम के लिए उन्हें संघर्ष और विरोध सहना पड़ा है। दिन भर घर परिवार, खेतीबाड़ी के काम निपटाती ये महिलाएँ रात्रि में कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर समाचार जुटाती हैं। खबर लहरिया को मीडिया फाउंडेशन वर्ष 2003-04 के लिए चमेली देवी जैन सम्मान से नवाजा गया है। वर्ष 2003 में दलित फाउंडेशन दिल्ली ने भी इन महिलाओं का सम्मान किया है।

मराठी दलित साहित्य में तो काफी संख्या में लेखिकाओं ने अपना वर्चस्व कायम किया है पर हिन्दी साहित्य में यह उपस्थिति नहीं के बराबर है। पुरुषों द्वारा लिखे साहित्य में दलित स्त्रियों का जमकर व खुलकर वर्णन किया जा रहा है। उन्हें यौन स्वच्छंदा कहकर एक अजीबोगरीब रूप में पेश किया जा रहा है। जो पाठक दलित वर्ग से अपरिचित हैं उनके सामने ऐसी तस्वीर पेश हो तो वे क्या समझेंगे? यही वजह है कि आज दलित स्त्री की समस्याएँ, उनके सपने, उनके लक्ष्य लोगों के सामने नहीं आ पा रहे हैं। दलित स्त्रियाँ, दलितों में भी दलित का दु: ख भोग रही हैं। मराठी लेखिका बेबी कांबले की आत्मकथात्मक रचना जीवन हमारा दलित स्त्रियों की पुरुषों की गुलामी में बसर करने की मार्मिक रचना है। महाश्वेता देवी का पूरा कथा संसार ही आदिवासी और दलित समाज के संघर्ष का दस्तावेज है। वे दलितों के जाति भेद, उनकी आर्थिक दुरावस्था, उनका राजनीतिक-सामाजिक शोषण और उनके संघर्ष को पूरी शिद्दत के साथ सामने लाती हैं। साथ ही दलितों को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने वाली योजनाओं पर भी प्रश्नचिह्न लगाती हैं। सरकार द्वारा दलितों को सस्ते अनाज का आबंटन जब बिचौलियों द्वारा बीच में हड़प लिया जाता है और जब वे दलितों के बीच सवाल उठाती हैं कि तुम लोग भात किससे सान कर खाती हो तो एक दलित महिला का जवाब दिल दहला देता है... हम भात को अपनी भूख के साथ सानकर खा लेते हैं।

रमणिका गुप्ता दक्षिण बिहार के छोटा नागपुर क्षेत्र में दलितों, आदिवासियों के हक की लड़ाई में शामिल हैं और अपने अनुभवों को लेखनी बद्ध करती हैं। उन्होंने दलित महिलाओं के जीवन के अनेक अद्भुत पक्षों को उजागर किया है। अरुंधती राय, मेधा पाटकर, वंदना शिवा ने भी इस विषय पर कलम चलाई है पर यह भोगा हुआ यथार्थ नहीं है। इसके लिए दलित महिलाओं को ही कलम उठानी होगी और बेबाक लिखना होगा। स्त्री के पिछड़ेपन की जड़ें उखाड़नी होंगी और खुद के इंसान होने का हक वसूलना होगा।

यह लड़ाई उनकी है जो वे सरहदों पर गए बगैर अपने घर, परिवार और समाज के लिए ताउम्र लड़ती शहीद हुई हैं। उसे अब अपनी लड़ाई बनानी होगी... अब अपने नाम खुद शहादतनामा लिखना होगा। कोई मसीहा नहीं आएगा उन्हें इस स्थिति से उबारने... उन्हें अपनी सूली खुद ढोनी होगी। जब तक ऐसा नहीं होगा प्रियंका जैसी प्रतिभाषाली दलित लड़की की उच्च जाति के ग्रामीणों द्वारा बर्बर हत्या जारी रहेगी। उन्हें प्रियंका कि वह तस्वीर देखनी होगी। जिसमें उसके जननांगों से डंडे और छड़ें निकलती दिख रही हैं और यह दंड उसे इस बात का नहीं मिला था कि उसने आरक्षण का विरोध सहा था कि वह ऐसी प्रतिभाषाली लड़की थी जो कठोर संघर्ष से हाई स्कूल तक अव्वल अंकों से पास कर चुकी थी बल्कि उसका दंड था दलित समुदाय की एक लड़की होना। दलित विरोधी नफरत का इससे वीभत्स कोई उदाहरण मिल सकता है? यह सवर्ण आतंकवाद है जिसके लिए न उन्हें हथियारों की ज़रूरत है न बम की... बस लड़की चाहिए।