दलित समस्या और भगत सिंह/ मुकेश मानस

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शहीदे-आजम भगतसिंह भारतीय इतिहास में कभी न भुलाया जा सकने वाला नाम है। वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अनेक अविस्मरणीय योद्धाओं में से एक हैं। देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न होने के कारण मात्रा तेईस साल की उम्र में भगतसिंह अपने साथियों राजगुरु और सुखदेव के साथ ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के हाथों फांसी पर चढ़ा दिये गए।

स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे समय में जब कम्युनिस्ट पार्टी नई-नई अस्तित्व में आई थी और भारतीय समाज में अपनी जगह बनाने के लिए जूझ रही थी, ऐसे समय में जब कांग्रेस पार्टी और उसके नेता आजादी के लिए चंद समझौतावादी गतिविधियों से आगे नहीं बढ़ पा रहे थे तब भगतसिंह आगे बढ़ कर भारतीय मुक्ति संग्राम का कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे थे। अपने विचारों की गर्मी और दूरगामी दृष्टि के कारण वे भारतीय नौजवानों और मेहनतकश जनता के अविस्मरणीय प्रेरणा स्रोत बने। अपने क्रांतिकारी तेवर और विचारों के कारण ही भगत सिंह अपने समकालीन नेताओं से ज्यादा लोकप्रिय थे। उनके क्रांतिकारी विचार ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के लिए खतरा बन गए थे। उनकी और उनके विचारों की बढ़ती लोकप्रियता से घबरा कर अंग्रेजों ने उन्हें तय समय से एक दिन पहले ही फांसी पर चढ़ा दिया। अपनी बलिदानी भावना और क्रांतिकारी विचारों के कारण ही आज भी वह भारतीय नौजवानों के दिलों पर राज करते हैं।

भगतसिंह और उनके साथियों के सामने आजाद भारत कैसा होगा, इसका नक्शा एकदम साफ था। वह बार-बार स्वतंत्रता संग्राम के दो महत्वपूर्ण लक्ष्यों पर जोर देते रहे। उनके मुताबिक स्वतंत्रता संग्राम का एक लक्ष्य था दमनकारी साम्राज्यवादी ब्रिटिशों को भारत से भगाना। और दूसरा लक्ष्य था भारतीय महाजनों, सामंतों, जमींदानों से भारतीय जनता की मुक्ति। यह था भगतसिंह का भारत की मुकम्मिल आजादी का सपना। इसके पीछे भगतसिंह की एक स्पष्ट सोच थी जिसके आधार पर वे मानते थे कि- "अगर लार्ड रीडिंग की जगह भारतीय सरकार का प्रतिनिधि सर पुरुषोत्तम दास ठाकुर हो तो इससे जनता को क्या फर्क पड़ता है।"

भगतसिंह के सामने यह एकदम साफ था। कांग्रेस जमींदारों, महाजनों, व्यापारियों और उभरते पूंजीपतियों की प्रतिनिधित्वकारी शक्तियों की पार्टी है। उसमें और इसकी नीतियों में इन्हीं लोगों का वर्चस्व है। इसलिए अगर गोरे अंग्रेजों की जगह इन काले अंग्रेजों का राज आ भी जाये तो इससे जनता का कोई भला नहीं होगा। रामकुमार कृषक ने लिखा है- "कांग्रेस के सामंती-पूंजीवादी वर्ग चरित्र और उसके आदर्शवादी ढोंग को भगतसंह ने बार-बार उघाड़ा है। ताकि भारतीय जनता समय रहते यह जान सके कि गांधीवादी राजनीतिक आंदोलन अंतत: उसे एक नकली आजादी की ओर ले जायेगा।" अपने इस राजनीतिक विश्लेषण और निष्कर्षों को लेकर आज भी भगतसिंह उतने ही सटीक हैं जितने अपने समय में थे।

भगतसिंह के लिए भारतीय जनता की सम्पूर्ण आजादी का मतलब था ब्रिटिश साम्राज्यवाद और भारतीय सामंतवाद व उभरते पूंजीवाद से मुक्ति। इस सम्पूर्ण मुक्ति के लिए वह इंकलाब की जरूरत और उसके स्वरूप को रेखांकित करते हैं। उनके लिए इंकलाब का अर्थ था “ऐसा इंकलाब जो ऐसी आजादी लायेगा जिसमें मनुष्य के हाथों मनुष्य का शोषण असंभव होगा।" उनका इंकलाब व्यापक था जिस पर विचार करते हुए वे लिखते हैं "इस सदी में क्रांति का केवल एक ही अर्थ हो सकता हैµजनता के द्वारा जनता के लिए राजनैतिक सत्ता हासिल करना।" इस इंकलाब को सरंजाम देने के लिए वे शोषितों के विभिन्न तबकों को संगठित करने और उनके वैचारिक विकास पर जोर देते हैं। उनका मानना था कि "बम और पिस्तौल इन्कलाब नहीं लाते बल्कि इंकलाब की धार विचारों की सान पर तेज होती है।" भगतसिंह ने पहली बार भारतीय जनता को क्रांति, इंकलाब, मेहनतकशों का राज, बराबरी की विचारधारा पर टिके समाजवादी समाज के निर्माण के कार्यक्रम से वाक़िफ़ कराया।

हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ और नौजवान भारत सभा में अपने क्रांतिकारी साथियों में भगतसिंह ही एकमात्र ऐसे थे जो न केवल भारतीय जनता के स्वतंत्रता संग्राम के स्वरूप और उसकी दिशा के बारे में लगातार बहुत गहराई से सोच रहे थे बल्कि वह भारतीय समाज में निहित समस्याओं के विभिन्न पहलुओं, उनके कारणों और उनके निदानों के बारे में अपने मौलिक विचार प्रस्तुत कर रहे थे। धर्म, साम्प्रदायिकता, अछूत समस्या आदि पर उन्होंने जो विचार प्रस्तुत किए हैं, वे आज भी अपने आप में एक कीर्तिमान हैं। सामाजिक समस्याओं पर उनके विश्लेषणों को उनकी उपरोक्त सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा की रौशनी में ही ही देखा जाना चाहिए।

अछूत समस्या पर ‘अछूत सवाल’ शीर्षक से जून १९२८ में ‘कीर्ति’ पत्रिका में लिखा गया उनका लेख एक महत्वपूर्ण लेख है। इस लेख को लिखते वक्त उनकी उम्र सिर्फ २० साल रही होगी। उन्हें स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन की राजनीति में आए थोड़ा अर्सा ही हुआ था। मगर इस लेख से उनके पैने वैचारिक चिंतन का पता चलता है। इस लेख में वे जहां एक तरफ भारत में दलितों की ऐतिहासिक, सामाजिक रूप से दयनीय स्थिति का पता लगाते हैं और दलितों की इस कारुणिक स्थिति के कारणों की गहराई से जांच-पड़ताल करते हैं। वहीं दूसरी तरफ वे अछूत समस्या के समाधानों का क्रांतिकारी खाका भी पेश करते हैं। यह ताज्जुब की बात नहीं है कि जब स्वतंत्रता संग्राम और कांग्रेस के दिग्गज नेताओं के लिए दलित सवाल कोई अहमियत नहीं रखता था। और यह सवाल उनके एजेंडे पर ही नहीं था तब भगतसिंह अछूत सवाल को एक अहम सवाल मान रहे थे। अछूत समस्या और उसके निदान की उन्होंने जरूरी माना। उनके तईं देश की सच्ची आजादी के लिए दलित समस्या का निदान करना बहुत आवश्यक था।

इस लेख की शुरूआत में ही वे लिखते हैं "एक अहम सवाल अछूत समस्या है। समस्या यह है कि ३० करोड़ की जनसंख्या वाले देश में जो ६ करोड़ लोग अछूत कहलाते हैं। उनके स्पर्श मात्रा से धर्म भ्रष्ट हो जायेगा। कुएं से उनके द्वारा पानी निकालने से कुआं अपवित्र हो जायेगा। ये सवाल बीसवीं सदी में किए जा रहे हैं जिन्हें कि सुनते ही शर्म आ जाती है।" लब्बो-लुवाब ये कि दलितों की ऐसी स्थिति कोई दो-चार सालों में नहीं बनी है। अपने गहरे अध्ययन और तार्किक दृष्टिकोण की वजह से ही भगतसिंह दलितों की इस दयनीय और करुणाजनक स्थिति का इतिहास अपने आपको सर्वोत्तम कहने वाले हिंदू धर्म में सैकड़ों सालों से न्याय और व्यवस्था के नाम पर पोषित मनु द्वारा बनाई गई वर्णवादी व्यवस्था के भीतर खोजते हैं जो तथाकथित हिंदू धर्म के उच्च वर्ण के लोगों के दिलों-दिमाग में घर कर गई है। वह यह जान जाते हैं कि हिंदू धर्म वर्णवादी व्यवस्था के आधार पर खड़ा है और इसकी संचालक है उच्चवर्णीय ब्राह्मणवादी राजनीति और संस्कृति जिसका सहारा लेकर दलितों का सामाजिक और आर्थिक शोषण किया जाता रहा है।"

भगतसिंह यह स्पष्ट करते हैं कि कैसे ब्राह्मणों और उच्चवर्णी अभिजनों ने धर्म के नाम पर निम्न कोटि के कामों में देश की गरीब और लाचार जनता को लगाया और उन्हें अस्पृश्य करार कर दिया। भगतसिंह लिखते है "हमारे पूर्वज आर्यों ने इनके साथ ऐसा अन्यायपूर्ण व्यवहार किया और उन्हें नीच कह कर दुत्कार दिया एवं उनसे निम्न कोटि के काम करवाने लगे। साथ ही यह भी चिन्ता हुई कि कहीं ये विद्रोह न कर दें। तब पुनर्जन्म के दर्शन का प्रचार कर दिया कि यह तुम्हारे पूर्वजन्म के पापों का फल है। अब क्या हो सकता है? चुपचाप दिन गुजारो। इस तरह उन्हें धैर्य का उपदेश देकर वे लोग उन्हें लम्बे समय तक के लिए शान्त करा गये। लेकिन उन्होंने बड़ा पाप किया है। मानव के भीतर की मानवीयता को समाप्त कर दिया। आत्मविश्वास एवं स्वावलंबन की भावनाओं को समाप्त कर दिया। बहुत दमन और अन्याय किया।"

गौरतलब है कि भगत सिंह के कई साथी क्रांतिकारी हिन्दू धर्म के अनुयायी थे। उस समय हिंदू धर्म में गहरा विश्वास रखने वाले कांग्रेस के दिग्गज नेता तक इतनी हिम्मत नहीं कर सकते थे कि दलितों की अमानवीय स्थिति के लिए हिन्दू धर्म को जिम्मेदार ठहरा पाते। ऐसे समय में भगत सिंह ही अकेले ऐसे थे जिन्होंने ऐसी हिम्मत दिखाई और हिंदू धर्म को, उसके ठेकेदारों को दलितों की अमानवीय स्थिति के लिए स्पष्ट तौर पर जिम्मेदार ठहराया। यह बहुत साहस का काम था। ऐसा ही काम बाद में महाराष्ट्र में और भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में अम्बेडकर ने किया। आगे चल कर भगतसिंह हिन्दू धर्म के पाखण्ड, ढोंग, अंधविश्वास और अमानवीयता वाले चरित्र का उदघाटन करते हैं। मानवता की दुहाई देने वाला हिंदू धर्म इतना नाजुक है कि वह किसी इंसान के छू लेने भर से भ्रष्ट हो जाता है। उसमें पशुओं की पूजा उपासना को तो महत्व दिया जाता है। उनके आगे धूपबत्ती जलाई जाती है। फूल-फल चढ़ाया जाते हैं। मगर एक इंसान को इंसान होने का दर्जा तक नहीं दिया जाता है। उसे मानवीय गरिमा और अधिकारों तक से वंचित कर दिया जाता है। वे लिखते हैं "कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है। हमारी रसोई में नि:संग फिरता है लेकिन एक इंसान का स्पर्श हो जाये तो धर्म भ्रष्ट हो जाता है .....जो निष्काम कार्य करके हमारे लिए सुविधाओं को उपलब्ध कराते हैं, उन्हें ही हम दुरदुराते हैं। पशुओं की हम पूजा सकते हैं लेकिन इंसान को पास नहीं बिठा सकते हैं।"

स्वतंत्रता संग्राम में उभार आने से पहले कई धार्मिक व सुधारवादी आंदोलन पूरे देश में कई समाज सुधारकों द्वारा चलाये जा रहे थे। उन्होंने दलितों की स्थिति में बदलाव लाने के लिए सुधारवादी रास्तों को अपनाया था। यह सच है कि उन्होंने अपनी विभिन्न गतिविधियों के जरिए उच्च वर्ण वालों और हिंदू धर्म के अनुयायियों की आत्मा को झकझोरा था। ऐसे समाज सुधारकों में स्वामी दयानन्द का नाम महत्वपूर्ण है। उनके द्वारा चलाये गये आर्य समाज आंदोलन का पूरे जनमानस पर व्यापक प्रभाव पड़ा था। दलितों को उन्होंने आर्य समाज आंदोलन का पूरे जनमानस पर व्यापक प्रभाव पड़ा था। दलितों को उन्होंने आर्य समाज में शामिल किया और उन्हें ‘जनेऊ’ पहनाकर हिंदू धर्म में सम्मान दिलाने का प्रयास किया लेकिन आर्य समाज भी अंतत: हिंदू धर्म की ही एक हिस्सा बन कर रह गया। वह वर्ण व्यवस्था की अभेद्य दीवार को ढाह पाने में नाकामयाब ही रहा।

दलितों को हिंदू धर्म के सामाजिक उत्पीड़न से मुक्ति पाने का एक रास्ता दूसरे थोड़े ज्यादा मानवतावादी दिखने वाले धर्मों में धर्मांतरण करके शामिल हो जाना दिखता था। इसलिए वे बड़ी तादाद में, बुद्ध धर्म, इस्लाम धर्म, सिख धर्म और आर्य समाज में गए भी। लेकिन इन धर्मोंको भी अंतत: हिंदूत्ववादी सामाजिक सांस्कृतिक विषमताओं और धार्मिक मान्यताओं कर्म-कांडों ने ग्रस लिया और वहां भी छुआ-छूत, जात-पात पैदा हो गया, भले ही परोक्ष रूप में वे भी दलितों को हिन्दू धर्म की वर्णवादिता से छुटकारा दिलाने में नाकामयाब रहे। भगतसिंह लिखते हैं "लोग यह भी कहते हैं कि इन बुराईयों का समाधान किया जाये। बहुत खूब! छूत-अछूत को स्वामी दयानन्द ने जो मिटाया तो वे भी चार वर्णो से आगे नहीं जा पाये।"

भगतसिंह अपनी परिपक्व क्रांतिकारी समझ और भारतीय समाज के गहरे अध्ययन के बल पर जान गये थे कि अछूत समस्या का समाधान धर्म परिवर्तन या किसी अन्य सुधारवादी रास्ते को अपनाने में नहीं है। सुधारवादी तरीकों से भारतीय समाज में गहरे जड़ जमाये वर्णवादी व्यवस्था को ढहा्या नहीं जा सकता क्योंकि अंतत: यह सुधारवादी गतिविधियां हिन्दू धर्म के अन्दर ही की जायेंगी और उसी में घुल-मिल कर रह जायेंगी, दलित लोग विभिन्न धर्मों में बंट कर रह जायेंगे। आज हम देखते हैं कि विभिन्न धर्मों को अपना कर भी दलितों को भारतीय समाज में व्याप्त जात-पात और मानवीय असमानता से छुटकारा नहीं मिला है बल्कि वे इन धर्मों के आडम्बरों, कर्मकांडों और अंधविश्वासों के शिकार होकर विभाजित रहने को अभिशप्त हैं। इसी कारण ऐसे धर्मों में, जिनमें भी मनुष्यों के बीच विषमतापूर्ण रिश्ते हैं, ऊंच-नीच है, छुआ-छूत है, उनमें दलितों की स्थिति में सुधार नहीं हो सकता है। यही वजह है कि भगतसिंह धर्मोंके विरोध तक चले जाते हैं। वे लिखते हैं "बीसवीं सदी में पंडित, मौलवी जैसे लोग भंगी के लड़के के हार पहनाने पर कपड़ों सहित स्नान करते हैं और अछूतों को जनेऊ तक देने से इन्कारी है। यदि इस धर्म के विरूद्ध कुछ न कहने की कसम ले लें तो चुपचाप घर बैठ जाना चाहिए, नहीं तो धर्म का विरोध करना होगा।"

भगत सिंह कांग्रेस पार्टी और उस समय उसमें शामिल नेताओं का सामंतवादी-ब्राह्मणवादी और पूंजीवादी चेहरा ठीक ठीक पहचानते थे और वे जानते थे कांग्रेसी नेताओं में से अधिकतर सामंतवादी और ब्राह्मणवादी मूल्यों के पोषक और पक्षधर हैं। उनकी कथनी और करनी में फर्क को भगतसिंह बार-बार रेखांकित करते हैं। वे जानते थे कि सार्वजनिक तौर पर वे दलितों के पक्षधर बनते हैं मगर वास्तव में वे कट्टर हिंदूवादी और मनुवादी वर्ण-व्यवस्था के पक्षधर हैं। ऐसे लोगों को पहचान कर उन्होंने लिखा है-"इस समय मालवीयजी जैसे बड़े समाज-सुधारक, अछूतों के प्रेमी और न जाने क्या-क्या, पहले एक मेहतर के हाथों गले में हार डलवा लेते हैं, लेकिन कपड़ों सहित स्नान किये बिना स्वयं को अशुद्ध समझते हैं। क्या खूब चाल है?"

भगतसिंह को काउंसिलों और असेम्बलियों पर भी भरोसा नहीं था जिनमें अंग्रेजों के पिटठू और कट्टर हिन्दूवादी तत्व भरे पड़े थे। लेकिन सिर्फ इतने भर से वे इनके खिलाफ नहीं थे। वे अच्छी तरह से यह समझते थे कि ये काउंसिलें और असेम्बलियां अंतत: उसी सामंतवादी-पूंजीवादी व्यवस्था के सहयोगी तत्व है जिसमें दलितों की स्थिति को बद से बदतर बना दिया गया है। इस विषय में वे लिखते है "काउंसिलों और असेम्बलियों का कर्तव्य है कि वे स्कूल, कॉलेज, कुंएं तथा सड़क के उपयोग की पूरी स्वतंत्रता उन्हें दिलायें। जबानी तौर पर ही नहीं, वरन साथ ले जाकर उन्हें कुंओं पर चढ़ायें। उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिलायें। लेकिन जिस लेजिस्लेटिव में बाल विवाह के विरूद्ध पेश किये बिल और मजहब के बहाने हाय-तौबा मचायी जाती है, वहां वे अछूतों को अपने साथ शामिल करने का साहस कैसे कर सकते हैं?" इस प्रकार भगत सिंह भारत में दलितों की अमानवीय स्थिति और छुआ-छूत की समस्या के निदान की हर संभव संभावना पर विचार करते हैं, और सबको उनके कट्टरवादिता, वर्ण व्यवस्था की पोषक ब्राह्मणवादिता, सामंतवादी-पूंजीवादी चेहरे को पहचान कर खारिज करते जाते हैं। वे आत्मशुद्धि, धर्मांतरण के जरिए दलित समस्या का समाधान असंभव मानते हैं क्योंकि यह अंतत: एक धर्म की संकीर्णता से निकल कर दूसरे धर्म के जबड़े में अपनी गर्दन फंसाने जैसा है। काउंसिलों और असेम्बलियों के प्रयासों से भी इसे कम भले ही किया जा सकता है मिटाया नहीं जा सकता।

अब उनके सामने सवाल यह उठता है कि भारतीय समाज में व्याप्त इस अछूत समस्या का समाधान क्या हो? अछूत समस्या के निदान के लिए भगतसिंह दो रास्तों की बात करते हैं। एक रास्ता छुआ-छूत, जात-पात और ऊंच-नीच के सामाजिक व्यवहार को मिटाने के लिए सामाजिक क्रांतिकारी नौजवानों का संगठन था। उसने इस दिशा में कुछ पहलकदमियों की थीं जिसके बारे में वे लिखते हैं "नौजवान भारत सभा तथा नौजवान कांग्रेस ने जो ढंग अपनाया है, वह काफी अच्छा है। जिन्हें आज तक अछूत कहा जाता रहा उनसे अपने इन पापों के लिए क्षमा याचना करनी चाहिए तथा उन्हें अपने जैसा इंसान समझना, बिना अमृत छकाये, बिना कलमा पढ़ाये या शुद्धि किए उन्हें अपने में शामिल करके उनके हाथ से पानी पीना, यही उचित ढंग है और आपस में खींच-तान करना और व्यवहार में उन्हें कोई हक न देना, ठीक बात नहीं है।"

सामाजिक रूप से दलितों को सम्मान देना, उन्हें अपने बराबर का इंसान समझना, आदि बातें दलित समस्या के निदान के गांधीवादी माडल से मेल खाती-सी लगती हैं। किन्तु यह निश्चित रूप से गांधीवादी तरीका नहीं है। यह उससे आगे की बात है। वे दलित समस्या को निबटाने के लिए हिन्दू धर्म की आत्मशुद्धि की बात नहीं करते। उनकी नजर में दलित समस्या का समाधान धर्मातरण नहीं है और न ही किसी धर्म की सीमाओं के भीतर ही, जिसमें वर्णव्यवस्था के अलावा सैकड़ों अन्य कुरीतियों की अभेद्य दीवारें हैं। ऐसे में भगतसिंह दलितों को धर्मों की सीमाओं से बाहर आकर संगठनबद्ध होकर सामाजिक क्रांति को सरंजाम देने की बात करते हैं।

अछूत समस्या के निदान के दूसरे रास्ते के रूप में भगतसिंह दलितों को समतामूलक समाज के निर्माण की दिशा में संगठित होकर व अन्यायपूर्ण पूंजीवादी समाज तंत्रा के खिलाफ विद्रोह करने का रास्ता सुझाते हैं। भगतसिंह अपनी दूरगामी दृष्टि और व्यापक चिंतन के आधार पर ही जानते हैं कि केवल सामाजिक सम्मान मिल जाने से ही दलितों की समस्या का समाधान होने वाला नहीं है। सामाजिक सम्मान का कोई महत्व नहीं है यदि दलितों के बीच व्याप्त गरीबी, बेरोजगारी जैसी अन्य आर्थिक समस्याओं का समाधान नहीं होगा। इसलिए भगतसिंह सामाजिक सम्मान के साथ-साथ आर्थिक समता की बात उठाते हैं। वह लिखते हैं "अक्सर कहा जाता है कि वह साफ नहीं रहते। इसका उत्तर साफ है वे गरीब हैं। उनकी गरीबी का इलाज करो।" दलितों की यह गरीबी और उनका अछूत होना दोनों परस्पर घुली-मिली बातें हैं। हिन्दू धर्म की वर्णवादी व्यवस्था ने उन्हें दास और गुलाम बनाया। उन्हें संपत्ति रखने और शिक्षित होने से वंचित किया। नतीजतन, वे विकास की यात्रा में पिछड़ते चले गए। आज वे गरीब हैं क्योंकि वे दलित हैं आज वे दलित हैं क्योंकि वे सदा से गरीब और संसाधनहीन रहे हैं।

आजाद भारत में शासकों ने देश को विकास के जिस रास्ते पर धकेला उस पर लोगों के बीच आर्थिक असमानताओं की खाई बहुत बढ़ी है। आज इस देश की बहुसंख्यक आबादी ऐसी है जिसके पास संसाधन नहीं है। या हैं तो इतने कम हैं कि उनसे वे केवल खा सकते हैं सम्मान पूर्वक जिंदगी नहीं जी सकते। गांवों और शहरों में भूमिहीन मजदूरों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इन मजदूरों का अधिकांश हिस्सा निचली जातियों से आता है। इसीलिए भगतसिंह ने दलितों को ही असली सर्वहारा बताया था। वे लिखते हैं, "तुम ही असली सर्वहारा हो, संगठनबद्ध हो जाओ तुम्हारी कुछ भी हानि होगी। बस गुलामी की जंजीरें कट जायेंगी।"

भगतसिंह की इन बातों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वह सामंतवादी ब्राãणवाद को तो दलितों का दुश्मन मानते ही हैं साथ ही साथ पूंजीवादी शोषण तंत्र को भी। भगतसिंह यह जानते थे कि सामंतवादी ब्राह्मणवाद छुआ-छूत के अलावा गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा आदि दलितों की असल समस्याएं हैं जो आर्थिक विषमताओं वाली पूंजीवादी व्यवस्था की वजह से पैदा हो रही हैं। यह समस्याएं दलितों को समाज के दूसरे उपेक्षित ओर शोषित तबकों के साथ जोड़ती हैं। इसीलिए भगतसिंह दलितों को सर्वहारा मानते हैं और उनका अपनी मुक्ति के साथ-साथ समूचे उत्पीड़ित तबको की मुक्ति के लिए संघर्ष करने का आह्वान करते हैं। वह लिखते है "उठो, और वर्तमान व्यवस्था के विरूद्ध बगावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होने होने वाले सुधारों से कुछ भी नहीं बन सकेगा। सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो। तुम ही देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो। सोये हुए शेरो उठो, और बगावत खड़ी कर दो।"

अंतत: भगत सिंह कहते हैं कि दलितों की सम्पूर्ण मुक्ति का रास्ता उनके द्वारा वर्तमान सामंतवादी-पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संगठित विद्रोह कर उसे नेस्तनाबूद कर देने में और इस शोषणकारी व्यवस्था की जगह समतामूलक समाज की स्थापना की जगह समतामूलक समाज की स्थापना में ही है और यह समूह मुक्ति समाज के अन्य शोषित तबकों के साथ संघर्ष करके ही प्राप्त की जा सकती है।

अनभै सांचा में प्रकाशित

नोट:सभी संदर्भों के लिये भगत सिंह के दो लेख अछूत का सवाल और साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज देखें।