दलित साहित्य आंदोलन के पक्ष में / मुकेश मानस

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वर्तमान साहित्य के जनवरी और फरवरी अंकों में ‘दलित विमर्श स्तम्भ के तहत भगवान दास मोरवाल और सूरजपाल चौहान के लेख ‘दलित विमर्श के अन्तर्विरोध’ और ‘दलित साहित्यकारों का मनुवाद’ क्रमश: प्रकाशित हुए हैं। इन दोनों महानुभावों ने दलित साहित्य आन्दोलन में अन्दरूनी तौर पर चल रहे आन्तरिक अन्तर्विरोध जातिवाद या जाटव साहित्यकारों के वर्चस्व की मानसिकता को बड़ी शिददत के साथ उभारा है। इन्होंने ब्राह्मणवाद के साथ दलित साहित्य आन्दोलन के मुख्य अन्तर्विरोध को इतना महत्वपूर्ण नहीं माना है जितना दलित साहित्य आन्दोलन के भीतरी अन्तर्विरोध को। इसका नतीजा यह हुआ कि दलित आन्दोलन की भीतरी समस्या इनके लिए प्रमुख समस्या बन गई है और बाकी समस्याएं गौण।

यह तो एक ना एक दिन होना ही था। दलित आन्दोलन में दलित एकता के प्रयासों की कमजोरियों और इन प्रयासों में होने वाली गड़बड़ियों के चलते अन्दरूनी जातीय वर्चस्ववादी मानसिकता सिर उठाने लगी है। दलित आन्दोलन की तथाकथित राजनीतिक पार्टियों में और जन-संगठनों में यह समस्या अब ऊपर दिखाई देने लगी है। बामसेफ का विभाजन तो हो ही चुका है। दलित साहित्य आंदोलन में भगवानदास मोरवाल और सूरजपाल चौहान जैसे लोगों के प्रयास भी इसी दिशा में दिखाई दे रहे हैं।

कुछ ईमानदार और व्यापक दृष्टिकोण वाले दलित चिंतक अभी दलित साहित्य आन्दोलन में पूरी शिददत से दलित एकता का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि उनके इस प्रयासों की अन्तर्निहित और वैयक्तिक दिक्कतों को भी आसानी से समझा जा सकता है। फिर भी वे लोग इस बात को ज्यादा तूल नहीं दे रहे हैं। सब लोग दलित एकता के प्रयासों में जुटे हुए हैं। इसके चलते दलित आन्दोलन में सामूहिक सोच और वैयक्तिक आकांक्षाओं वाले दलित साहित्यकारों में तीखा संघर्ष शुरू हो चुका है। दलित आन्दोलन का भीतरी अन्तर्द्वन्द तेज हो रहा है। इन विमर्शकारों को लगता है कि दलित आन्दोलन के भीतर पनप रहे इस ‘जातिवाद’ और जातीय वर्चस्ववादी मानसिकता का निदान इसी अन्तर्द्वन्द में निहित है। उनकी मूल चिन्ता दलित एकता को बनाए रखने की है।

यह शायद कोई नहीं चाहता। खुद सूरजपाल चौहान और मोरवाल भी यह नहीं चाहते कि ताजा-ताजा अस्तित्व में आ रहे दलित आन्दोलन की उष्मा ब्राह्मणवाद-मनुवाद के खिलाफ संघर्ष में बिखर जाए। हालांकि दलित राजनीति के बिखराव और अवसरवाद में फंस जाने का प्रभाव दलित साहित्य आन्दोलन पर व्यापक रूप से एक ना एक दिन पड़ेगा ही। फिर भी इन बिखराववादी हालातों में दलित साहित्य आन्दोलन की एकता को हर हाल में बनाए रखना एक लाजिमी मसला बन गया है। इस तरफ प्रत्येक दलित साहित्यकार को चाहे वह जाटव हो या वाल्मीकि, अपने व्यक्तिगत मतभेद भुलाकर एक होना चाहिए। लेकिन ये दोनों महानुभाव एकता प्रयासों में अपनी भूमिका अदा करने के बजाए दलित साहित्य आन्दोलन में बिखराववादी मानसिकता को बढ़ाने की दिशा में दिख रहे हैं।

भगवानदास मोरवाल दलित साहित्य आंदोलन के एक सशक्त और व्यापक दृष्टि वाले चर्चित युवा उपन्यासकार हैं। उन्होंने दलित साहित्य आन्दोलन की अन्दरूनी समस्या पर उंगली रखकर बड़े साहस का काम किया है। किन्तु दूसरों की वर्चस्ववादी और संकीर्ण मानसिकता पर उंगली धरने वाले मोरवाल जी कहीं न कहीं अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों और चक्रदार अन्तर्विरोधों से ग्रसित हैं। यह बात उनके लेख में साफ देखी जा सकती है। उन्होंने यह भी उचित नहीं समझा कि एक जागरूक दलित साहित्यकार होने के नाते पहले वे इस समस्या को दलित साहित्य आंदोलन के भीतर उठाते। वहां बहस और संघर्ष छेड़ते और वहां असफल होने पर ही इसे बाहर ले आते मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। अब उनके साहस को क्या माना जाए?

भगवानदास मोरवाल ने भीतरी अन्तर्विरोध को जाटवों और वाल्मीकियों के बीच जातिवाद के रूप में देखा है। सूरजपाल चौहान ने इस जातिवाद को व्यक्तिगत कडुवे-अनुभवों, दुर्भावनाओं और आरोपों से दलित साहित्यकारों के मनुवाद में बदल डाला है। उनके लेख में उनकी व्यक्तिगत खीजों और पूर्वाग्रहों को आसानी से देखा जा सकता है। वे दलित विमर्श की अन्तर्निहित समस्याओं को वैयक्तिक कुंठाओं और आरोपों के दायरे में खींच लाए हैं। वैयक्तिक आरोप-प्रत्यारोप की कहानी का कोई अन्त नहीं होता सूरजपाल जी। इससे लोग सिर्फ उपहास और उपेक्षा का पात्र बनते हैं।

बहरहाल, दलित साहित्य आंदोलन के विकास और उसकी निरन्तरता के लिए इन चीजों पर विचार-विमर्श करना एक जागरूक दलित साहित्य के विद्यार्थी के लिए बहुत जरूरी है। लेकिन इन पूर्वाग्रहों, संकीर्णताओं और वैयक्तिव्य कुंठाओं पर कुछ और विस्तार से कहने से पहले मैं ‘वर्तमान साहित्य’ के पाठकों से वो जरूरी बातें साझा करना चाहता हूं जो मुझे इस बारे में बहुत अहम लगती हैं। मैं खुद को जाटव या वाल्मीकि समुदाय में विभाजित नहीं देखता। हालांकि सरकार द्वारा जारी मेरे जाति प्रमाण पत्र पर मेरी भी उपजाति अंकित है फिर भी। मेरी दिलचस्पी जाटव या वाल्मीकि समुदाय में नहीं है बल्कि पूरे दलित समाज में है। सो, न तो मैं जाटव दलित साहित्यकारों का समर्थक हूं और न वाल्मीकि दलित साहित्यकारों का। मैं केवल और केवल दलित साहित्य आन्दोलन का समर्थक हूं। मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि दलित साहित्य आन्दोलन की एकता बनी रहे। इसीलिए मेरे इस लेख का वास्तविक मन्तव्य भी यही है, ना कि किसी व्यक्ति विशेष की आलोचना करना या उसे नीचा दिखाना नहीं। हालांकि यह गुंजाइश तो बनी ही रहेगी कि वैयक्तिक आरोपों का जवाब भी उसी स्तर पर उतर आए।

भारतीय समाज की वर्ण आधारित संरचना ही कुछ ऐसी है कि उसमें प्रत्येक जाति के भीतर अनेक उपजातियां हैं और उन उपजातियों में ऊंच-नीच की मानसिकता भी बनी हुई है। इसे बहुत पहले डा. अम्बेडकर अपने लेखों में बता चुके हैं। जातीय वर्चस्ववादी मानसिकता केवल दलितों में ही नहीं व्याप्त है बल्कि दलितों के परम शत्रु ब्राह्मणों में भी व्याप्त है। ब्राह्मणों में भी एक विशेष ब्राह्मण उप-जाति का ब्राह्मण को अपने से छोटा मानता है। मोहनदास नैमिशराय की कहानी ‘महाशूद्र’ इसी सन्दर्भ की कहानी है। इसके अलावा क्षेत्रीय आधार पर भी ब्राह्मणों में ऊंच-नीच होती है। एक विशेष क्षेत्र का ब्राह्मण दूसरे विशेष क्षेत्र के ब्राह्मण से खुद को शुद्ध मानता है। ब्राह्मणों की अनेक उप-जातियों में शादी-विवाह नहीं होते थे। इस भेद नीति के पीछे काफी सारे ऐतिहासिक-सामाजिक और धार्मिक कारण हैं। लेकिन ताज्जुब की बात ये है कि अपने अन्दरूनी मतभेदों के बावजूद सारा ब्राह्मण समाज दलितों के शोषण के मामले में एक-सा ही व्यवहार करता है।

भगवानदास मोरवाल और सूरजपाल चौहान ने अपने लेखों में जिस ‘जातिवाद’ को दलित साहित्य आन्दोलन की केन्द्रीय समस्या के रूप में चिन्हित किया है वह दलित समाज और दलित साहित्य आन्दोलन की मौलिक अन्दरूनी समस्या है। मगर यह समस्या न तो आज प्रकट हो गई है और न एक तथाकथित विशेष जाति के दलितों ने इसे पैदा किया है। यह भारतीय समाज के जातीय ढांचे की अन्तर्निहित समस्या है जो दलित समाज में भी काफी पीछे से चली आ रही है। दलित साहित्य आन्दोलन के सामने यह समस्या एक चुनौती की तरह खड़ी है और दलित साहित्य आन्दोलन के लिए काफी बड़ा खतरा भी है। इस खतरे से आंखें मूंदकर या इसे बढ़ावा देने से दलित साहित्य आन्दोलन को भारी क्षति उठानी पड़ सकती है। भगवान मोरवाल की नजर में इस खतरे का मूल कारण केवल जाटवों की वर्चस्ववादी जातिवादी मानसिकता ही दिखती है। भगवानदास मोरवाल ने लिखा है कि जिस तरह पिछड़े होने का अर्थ केवल यादव है उसी तरह दलित होने का अर्थ केवल जाटव है। यह भगवानदास मोरवाल का खुद का निष्कर्ष है और कहना न होगा कि यह एक एकांगी निष्कर्ष है।

इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि दलितों में एक नहीं, दो नहीं अनेकों दलित उप-जातियां हैं और उनमें एक-दूसरे के प्रति छुआ-छूत की भावना व्याप्त है। परन्तु यह भी एक सच्चाई है कि दलितों में कुछ विशेष जातियां विकास के रास्ते पर काफी आगे आ चुकी हैं और कुछ जातियां अभी काफी पीछे हैं। क्या आगे आने वाले सिर्फ इसलिए दोषी ठहराए जाएंगे कि वे आगे आ चुके हैं। आजाद भारत में आरक्षण व्यवस्था के चलते दलितों को मिले तमाम मौके और विकास के अवसर कहीं न कहीं से तो आरम्भ होने ही थे। माना अपनी वस्तुगत परिस्थितियों के चलते दलितों में जाटव लोग आज हर क्षेत्र में काफी तरक्की कर चुके हैं और वे तमाम सामाजिक-राजनीतिक संस्थानों में शिरकत कर रहे हैं। क्या केवल इस बात से यह निष्कर्ष निकाल लिया जाए कि दलितों का अर्थ केवल जाटव हैं। भगवानदास मोरवाल को इस निष्कर्ष पर आने से पहले कम से कम यह तो बताना चाहिए था कि दलितों में शेष उपजातियों के लोग आज किस मुकाम पर हैं? क्या उनमें से बहुत-सी उपजातियों के लोग वाल्मीकि समाज से भी निचले पायदान पर नहीं खड़े हैं। क्या कल को वो भी वाल्मीकियों की वर्चस्वता पर सवाल नहीं उठाएंगे? फिर मोरवाल जी उन्हें क्या जवाब देंगे।

सच्चाई यही है कि बाकी दलित उप-जातियां भी अपनी वस्तुगत-परिस्थितियों में जागरूक होकर, तमाम बाधाओं से जूझते हुए और विकास के अवसरों का लाभ उठाकर धीरे-धीरे आगे आ रही हैं ठीक वैसे ही जैसे जाटव उपजाति के लोग आज इस मुकाम पर पहुंचे हैं और तमाम संस्थानों में उनकी हिस्सेदारी मोरवाल जी और सूरजपाल जी को उनका वर्चस्व नजर आ रहा है। विकास के पायदान पर सभी एक साथ नहीं आ सकते। शायद समाजवाद में ही ऐसा संभव हो मगर समाजवाद अभी दूर का सपना है और उसे लाने के लिए अथक संघर्ष की जरूरत है और ऐसा संघर्ष अभी भी जारी है। किन्तु हमारे सामने अभी यथार्थ यही है कि विकास के सफर में कुछ आगे हैं और कुछ पीछे। अब सवाल ये है कि विकास के रास्ते पर काफी आ चुके तथाकथित जाटव दलित उपजाति के लोग क्या कर रहे हैं। क्या सभी जाटव केवल अपने व्यक्तिगत स्वाथो± की पूर्ति में लगे हैं? या कुछ ऐसे हैं ;कुछ तो होंगे ही मोरवालजी जो बाकी दलित समाज को जागरूक बनाने और उसके उत्थान में लगे हैं। जाटव समुदाय के सारे लोग न तो संकीर्ण हैं न वर्चस्ववादी मानसिकता के। रहा सवाल संकीर्णता और जातिवादी दुर्भावना का तो यह दलितों की अन्तर्निहित समस्या है और इसके खिलाफ लगातार नित नए मोर्चे खोलने और संघर्ष करते जाने की जरूरत है। केवल एक एकीकृत और प्रतिबद्ध दलित आन्दोलन ही इस तरह की मानसिकता से मुक्ति दिला सकता है। अगर यह एकीकृत और प्रतिबद्ध दलित आन्दोलन मोरवाल जी और सूरजपाल के ध्यान में होता तो शायद वे खुद ऐसी संकीर्णता और पूर्वाग्रहों से ग्रस्त मानसिकता से काम नहीं लेते।

भगवानदास मोरवाल ने लिखा है कि दलितों का यह भीतरी अन्तर्विरोध मुख्य अन्तर्विरोध क्यों नहीं हो सकता? सवाल मुख्य और गौण अन्तर्विरोध का नहीं है मोरवालजी। सवाल दलितों के उत्थान और ब्राह्मणवाद को शिकस्त देने का है। दूसरी बात ये है कि इतिहास में भी यह देखा जा सकता है कि किसी सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन के भीतर एक नहीं सैकड़ों अन्तर्विरोध होते हैं। कुछ खत्म होते हैं तो नए पनपते रहते हैं। बाहर की लड़ाई में अक्सर भीतर की विभिन्न विचारधारात्मक शक्तियां एक हो जाती हैं। जिस तरह ब्राह्मणवाद के खिलाफ बाहरी संघर्ष एक दिन में खत्म नहीं हो जाना, उसी तरह भीतरी संघर्ष भी एक दिन में खत्म नहीं हो जाएंगे। ये तो रहेंगे। लेकिन बाहरी शत्रु के खिलाफ अन्दर की एकता जरूरी होती है। वामपंथी आंदोलन अपने भीतरी बिखराव और अन्तरर्विरोधों से ही ज्यादा टूटा है और कमजोर हुआ है, मगर ये भी एक सच्चाई है कि जिस तरह वह बाहरी अन्तरर्विरोधों से जूझ रहा है, उसी तरह आन्तरिक अन्तरविरोधों से भी। दलित आन्दोलन भी ऐसे ही हालातों से गुजर रहा है। किन्तु दलितों का अपना हितार्थ इसी में है कि वह ब्राह्मणवाद को शिकस्त देने के लिए एकजुट रहें और साथ ही साथ आन्तरिक समस्या से भी निबटें।

कई बार किसी ढांचे में कुछ मूल्य संस्थाबद्ध और रूढ़िवादी हो जाते हैं तब संघर्ष की नई शक्तियां वहां अन्दर संघर्ष चलाती हैं। सही होने पर भी अगर बार-बार उनको दबाया जाता है और उनकी आवाज को जगह नहीं मिलती तो ये शक्तियां पुराने ढांचे को तोड़कर नया ढांचा बनाती हैं। किन्तु यह सब भीतर संघर्ष किए बिना नहीं होता है। अगर ऐसा नहीं होता तो इसे अवसरवाद कहा जाता है। मैं भगवानदास मोरवाल से ही यह पूछना चाहूंगा कि जिस तथाकथित ‘वर्चस्ववादी मानसिकता’ की ओर उन्होंने उंगली उठाई है, उनके खिलाफ दलित साहित्य आन्दोलन के भीतर संघर्ष चलाने में उन्होंने कितना योगदान दिया है? क्या वे इस बात की डिटेल दे सकते हैं कि उन्होंने दलित आन्दोलन के भीतर कितने मंचों से, किस-किस रूप में इस ‘वर्चस्ववादी मानसिकता’ के खिलाफ संघर्ष का झंडा उठाया है? दलितों की एकता के उन्होंने आन्दोलन के भीतर कितने प्रयास किए हैं? जो आदमी न सिर्फ दलित आन्दोलन के बाहर खड़ा है और दलित आन्दोलन के भीतर इस मानसिकता के खिलाफ संघर्ष में शामिल नहीं, वह आन्दोलन से बाहर खड़ा होकर उसमें व्याप्त ‘जातिवाद’ का रोना रोए, बात कुछ गले नहीं उतरती।

उनकी अपनी तंगनजरी और पूर्वाग्रहों से ग्रसित मानसिकता के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। फिलहाल एक नमूना उनके अपने लेख से ही उठाते हैं। रजतरानी मीनू द्वारा तैयार दलित लेखकों की सूची को उन्होंने मनमर्जी और मौकापरस्ती का उदाहरण बताया है। उनके सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि इसमें राजेन्द्र यादव, रामकुमार कृषक, लीलाधर मंडलोई, गोविन्द प्रसाद, प्रेमकुमार मणि जैसे लेखकों का कोई उल्लेख नहीं है। ......पिछड़ों के नाम पर दलित लेखकों के रूप में सिर्फ एक जाति के लेखकों का उल्लेख करना दलित साहित्य में अपनी मनमर्जी और मौकापरस्ती का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है?

एक शोधार्थी की अपनी बहुत सी समस्याएं हो सकती हैं। कई बार सूचनाओं की और कोर्डीनेशन की कमी भी होती है। देखा गया है कि शोधार्थी बाद में भी नई-नई सूचनाओं की रोशनी में अपने शोधों में परिवर्तन करते चलते हैं। लेकिन दु:खद बात ये है कि रजतरानी मीनू ने दलित साहित्यकारों की जो सूची तैयार की है उसे मोरवाल जी एकदम अन्तिम सूची मानते हैं। यह सूची जैसे किसी वेद का कोई मंत्र हो जिसमें न एक शब्द जोड़ा जा सकता हो न घटाया। इस बात की मौकापरस्ती और मनमर्जीपन की मिसाल बनाने से ज्यादा बेहतर होता कि मोरवाल जी दलित आंदोलन के सगे हितैषी के रूप में रजतरानी मीनू को उन नामों की सूची देते जिनके नाम वह अपनी सूची में शामिल करना भूल गई हैं। इसके अलावा एक और नई सूची बनाई जा सकती थी और उसमें वे नाम जोड़े जा सकते थे। यह एक छोटी-सी गड़बड़ी थी जिसे रजतरानी मीनू से बातचीत करके मोरवाल जी ठीक करा सकते थे मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया बल्कि उन्हें इस गड़बड़ी को एक विशेष अर्थ में प्रयोग कर लिया। इस सूची में जो अन्य लोग शामिल नहीं हैं (जिनके नाम मोरवाल जी ने गिनाए हैं) उनमें से कुछ लोग दलित साहित्य से सहानुभूति रखने वाले साहित्यकारों के रूप में जाने जाते हैं, दलित साहित्यकारों के रूप में नहीं। आज तक इनमें से किसी ने खुलकर यह घोषणा नहीं की है कि वे दलित वर्ग से सम्बन्धित हैं या नहीं और उसके द्वारा चलाए जा रहे संघर्ष के प्रति उनका क्या नजरिया है?

हंस के फरवरी अंक में अनेक साहित्यकारों की टिप्पणियां छपी हैं। उनमें मोहनदास नैमिशराय, श्योराज सिंह बेचैन और भगवानदास मोरवाल की भी टिप्पणियां हैं। मोरवाल जी के नाम के नीचे अंकित है चर्चित युवा कथाकार-उपन्यासकार चर्चित दलित युवा कथाकार-उपन्यासकार चर्चित दलित युवा कथाकार-उपन्यासकार नहीं जबकि नैमिशराय और बेचैन की टिप्पणियों के नीचे दलित विचारक एवं लेखक अंकित है। इसके अलावा दलित साहित्य 2000 की तैयारियों की एक बैठक में उनसे लगातार रचना मांगी गई। परन्तु वे टालते गए और अंतत: उन्होंने रचना नहीं ही दी। यह क्या है भगवान दास जी? आपकी अपनी संकीर्णता या जातीय हीनता या दलितों में शामिल हो जाने पर प्रगतिशील न हो पाने का डर? मोरवाल जी केवल नाम के आगे दलित लग जाने से कोई दलित संकीर्ण या प्रगतिशील विरोधी नहीं हो जाता। एक दलित भी प्रगतिशील और व्यापक दृष्टिकोण वाला हो सकता है। जरूरत जातीय हीनता और कुंठा से बाहर आने की है। डा. अम्बेडकर ने अपनी जाति कभी नहीं छुपाई। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि दलित वर्ग से सम्बन्धित और खुलकर खुद को दलित बताने वाले डा. अम्बेडकर की ही देख-रेख में जनतांत्रिक मूल्यों वाले संविधान का किसी हद तक निर्माण हो सका।

संकीर्ण मानसिकतावादी केवल दलित साहित्य आंदोलन में नहीं है वे प्रत्येक आंदोलन में देखे जा सकते हैं। लेकिन आंदोलन के तीव्र और व्यापक होते जाने पर या तो संकीर्णतावादियों को अपनी संकीर्णताओं का त्याग कर देना पड़ता है या फिर आंदोलन उन्हें पीछे छोड़ देता है। दलित आंदोलन में अनेक लेखक संकीर्णतावादी-रूढ़िवादी मानसिकता से ग्रस्त हैं। साथ ही यह भी एक सच्चाई है कि उनके विरुद्ध संघर्ष भी चल रहा है। कुछ दलित साहित्यकार आंदोलन की रोशनी और सामूहिक चेतना के दबाव में अपनी संकीर्णताओं का त्याग कर रहे हैं और व्यापक जनवादी रवैया अपना रहे हैं। इतिहास गवाह है कि जनता के किसी भी आंदोलन में संकीर्ण मानसिकतावादियों का वर्चस्व हमेशा नहीं रहता है। वह आंदोलन के विकास के साथ-साथ विघटित होता रहता है।

दलित आंदोलन का वैचारिक-व्यावहारिक आधार अभी विकास की प्रक्रिया में ही है। उसमें पुरानी रूढ़ियां टूट रही हैं और नई बातें जुड़ रही हैं। मैं शर्त लगाकर कह सकता हूं कि दलित आंदोलन का जो स्वरूप आज है दस साल बाद वह वैसा नहीं रहेगा। दलित आंदोलन एक परिवर्तनशील प्रक्रिया है कोई जड़ प्रक्रिया नहीं। उसमें नए-नए दृष्टिकोण समाहित होंगे। पुरानी धारणाएं टूटेंगी और नई बनेंगी। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘शवयात्रा’ के बारे में भी यह सच है। इस कहानी के बारे में आरम्भ में कुछ दलित विमर्शकारों में जो राय बनी थी वह अब बदल रही है और उसे व्यापक फलक पर देखा जा रहा है। खासतौर से युवा दलित हितैषी इस कहानी में निहित चुनौती को समझ रहे हैं और इस दिशा में दलित एकता के लिए अग्रसर हैं।

समस्या मोरवाल जी की अपनी है। वे इस कहानी के बारे में कुछ विशिष्ट समीक्षकों-आलोचकों की पुरानी राय को लेकर ही परेशान है। नई राय को वे देखना नहीं चाहते। वे इस कहानी के बारे में दलित आलोचना को 1998 में ही अटकाए रखना चाहते हैं। जबकि इस कहानी को लेकर दलित आंदोलन में नई बहस चल रही है और नई राय बन रही है। इसके अतिरिक्त इस कहानी को लेकर जिन लोगों की संकीर्णता का हवाला दिया गया है उनमें से कुछ लोग दलित साहित्य वार्षिकी के सम्पादक मंडल में भी हैं। इस वार्षिकी में एक कहानी ‘सूअरबाड़ा’ छपी है जो निम्नतर की शहरी कालोनियों में रहने वाले दलितों में व्याप्त ‘जातीयता भेद’ की ओर इशारा करती है। साथ ही अलावा उन पर पड़ने वाले पूंजीवादी सामन्तवादी व्यवस्थाओं के कुप्रभावों को भी। जो लोग ‘शवयात्रा’ को दलितों में जाति भेद फैलाने वाली और फूट डालने वाली कहानी मान रहे थे उन्हीं की देख-रेख में ही यह कहानी भी वार्षिकी में छपी है। क्या इसको नोटिस में नहीं लेंगे मोरवाल जी? बात ये है कि दलित विमर्श कोई ठहरी हुई चीज नहीं है। वह एक क्रियाशील और परिवर्तनशील कर्म है। बस यही एक बात मोरवाल जी समझना नहीं चाहते। दलित आंदोलन एक व्यापक मानवीय आधार पर खड़ा आंदोलन है वह ज्यादा देर तक इस ‘जातीय संकीर्णता’ से घिरा नहीं रहेगा। जल्दी ही इससे निजात पा लेगा।

‘दलित लेखक संघ’ दलित साहित्यकारों का संघ है। उसमें सभी दलित उपजातियों के लेखकों को आने की छूट है और चुनाव के जरिए उनमें से किसी भी उपजाति का साहित्यकार इसका अध्यक्ष हो सकता है। अभी केवल दो उपजातियों के लोग इसमें मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। इसीलिए दलित लेखक संघ की कार्यकारिणी में दोनों उप-जातियों के लोगों का संतुलन बनाए रखना चुनौती का काम है। महेन्द्र बैनीवाल के नाम का प्रस्ताव करते वक्त रजनी तिलक की टिप्पणी इसी सन्दर्भ में देखी जानी चाहिए। जब दलेस में कई उप-जातियों के लोग सक्रिय हो जाएंगे तब यह संतुलन चुनाव प्रक्रिया के द्वारा और विचारधारात्मक मसलों पर बनेगा पर अभी फिलहाल यही स्थिति है। ऐन चुनाव के वक्त रजनी तिलक की जो बात सूरजपाल चौहान को नश्तर की तरह चुभ गई, मैं पूछना चाहता हूं उन्होंने उसका विरोध क्यों नहीं किया? पहले वह चुप क्यों रह गए? बाकी सब तो जातिगत दुर्भावना से ग्रस्त थे और वह उससे मुक्त, फिर वह क्यों नहीं बोले? पिछले एक साल से वह दलेस के अध्यक्ष थे। अगर उन्हें लग रहा था कि दलेस में जातीय दुर्भावना बढ़ रही है तो अध्यक्ष की हैसियत से उन्होंने इस दिशा में क्या काम किया? क्या उन्होंने दलेस में कभी इस बात को बहस का मुद~दा बनाया? अगर नहीं बनाया तो अब किसी दूसरे तथाकथित जाटव के अध्यक्ष बनते ही उन्हें वहां जातिवाद या मनुवाद कैसे नजर आया? अब वे इस पर अपना रोना क्यों रो रहे हैं?


इन दोनों महानुभावों ने दलित साहित्य आंदोलन में ‘जातिवाद’ के जिस अन्तर्विरोध को उजागर किया है उसके केन्द्र में डाW. तेज सिंह हैं। बकौल इनके डा0. तेज सिंह जाटव हैं और संकीर्णतावादी हैं। मोरवाल की नजर में डा. तेज सिंह इसलिए संकीर्णतावादी हैं क्योंकि वह जाटव हैं और सूरजपाल की नजर में वे संकीर्णतावादी इसलिए हैं क्योंकि वह जाटव होने के साथ-साथ मार्क्सवादी भी हैं। वाह! सूरजपाल जी। क्या खूब पहचाना आपने जातिवाद और संकीर्णतावाद के मूल कारक को।

सूरजपाल चौहान का कहना है कि वे वर्षों तक मार्क्सवादियों के बीच रहे हैं और इतने समय में जब मार्क्सवादियों के बीच उनकी पहचान नहीं बनी तो वे अपनी पहचान बनाने के लिए दलित साहित्य आंदोलन में कूद पड़े। अब सवाल ये है कि क्या कोई दलित, दलित आंदोलन में केवल अपनी पहचान बनाने के लिए आ रहा है। डा. तेज सिंह अगर मार्क्सवादियों के बीच से दलित साहित्य आंदोलन में आए हैं तो इसकी वजह वहां उनके भ्रम का टूट जाना है। तथाकथित वामपंथी संगठनों में जो दलित, दलित-मुक्ति के प्रश्न को लेकर गए थे वहां उन्हें उत्तर नहीं मिला। यह बहुत अच्छा है कि डा. तेज सिंह जैसे लोग अब अपने आंदोलन में वापस लौट रहे हैं। इसमें दलित साहित्य आंदोलन का फायदा ही है नुकसान नहीं।

ये सही है कि कुछ लोग दलित साहित्य आंदोलन में अपनी वैयक्तिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए आ रहे हैं। यह कोई नई बात नहीं है। प्रत्येक आंदोलन में ऐसे लोग होते हैं। किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि दलित साहित्य आंदोलन कुछ खास व्यक्तियों की वैयक्तिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति का आरामगाह नहीं है और न ही उनको पूरा करने का साधन। दलित साहित्य आंदोलन सम्पूर्ण दलित जीवन की ट्रेजेडी की अभिव्यक्ति है। वह एक सामूहिक प्रयास है। इस सामूहिक प्रयास में शामिल होकर ही उनकी वैयक्तिक महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति। दलित साहित्य आंदोलन में वैयक्तिक स्वाथो± के साधकों के लिए कोई जगह नहीं है ऐसे लोग यहां ज्यादा देर तक नहीं टिक पाएंगे। वे अंतत: दलित विरोधी ही साबित होंगे और दलित आंदोलन उन्हें पीछे छोड़कर आगे बढ़ जाएगा। डा. तेज सिंह अगर संकीर्ण मानसिकतावादी हैं तो वह यहां ज्यादा देर तक टिक नहीं पाएंगे। उन्हें या तो अपनी संकीर्ण मानसिकता का त्याग करना पड़ेगा या फिर दलित आंदोलन की नई शक्तियां उन्हें बाहर कर देंगी।

सूरजपाल चौहान ने हंस के जनवरी अंक में छपे उनके लेख ;हिन्दी उपन्यास: दलित विमर्श का पुराख्यान का हवाला दिया है और कहा है कि यह लेख संकीर्ण मानसिकता से भरा पड़ा है। डा. तेज सिंह का लेख सवर्ण कथाकारों-उपन्यासकारों की दलित चेतना का खुलासा करने वाला लेख है। इस लेख में सवर्ण साहित्यकारों की दलितों के प्रति तंगनजरी और फूट की मानसिकता की खुलासा किया है। उन्होंने लिखा है कि वे दलितों की समस्या और उनके मर्म को ठीक से नहीं जान पाते और वे उसे गलत दिशा में ले जाने का प्रयास करते है। वे अपनी सवर्ण मानसिकता को छोड़ नहीं पाते हैं और अपने लेखन में किसी न किसी रूप में उसी से काम लेते हैं।

इसके अलावा सूरजपाल चौहान ने उनकी हाल ही में प्रकाशित एक किताब (आज का दलित साहित्य) के बारे में लिखा है कि यह एक आधी-अधूरी और संकीर्ण मानसिकतावादी रचना है। उन्होंने यह बताने की जहमत नहीं उठाई कि इस किताब में संकीर्ण मानसिकता किस रूप में है और कहां-कहां है? और तो और उन्होंने उस किताब से एक पंक्ति भी ऐसी उद्धृत नहीं की है जिससे यह साबित हो कि उसमें संकीर्ण मानसिकता से काम लिया गया है। सिर्फ यह कह देने भर से कि अमुक रचना संकीर्णतावादी है, से वह रचना संकीर्णतावादी नहीं हो जाती उसे सिद्ध करना होता है और यह काम उन्होंने नहीं किया है।

सूरजपाल चौहान ने डा. तेज सिंह के बारे में कहा है कि वे संकीर्ण मानसिकतावादी हैं। दलित साहित्य का उनका ज्ञान अधकचरा है। इसीलिए वे समय-समय पर दलित साहित्य के बारे में फतवे जारी करते रहते हैं। सूरजपाल जी बुरा न मानें। डाW. तेज सिंह फतवे जारी करते हैं या नहीं किन्तु इनकी उपरोक्त टिप्पणियों से पता चलता है कि खुद सूरजपाल चौहान जरूर फतवा जारी कर रहे हैं। किसी किताब को बिना पढ़े-समझे एक लाइन में उसे संकीर्ण मानसिकतावादी बता देना यह किसी कुशल फतवाकार का ही काम हो सकता है।

‘आज का दलित साहित्य’ संकीर्ण मानसिकतावादी है या नहीं यह सिद्ध करना इस लेख का विषय नहीं है, किन्तु उस पुस्तक पर एक स्वतंत्र लेख अपेक्षित है। किन्तु इतना अवश्य कहूंगा कि इस किताब पर दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित परिचर्चा में राजेन्द्र यादवऋ जयप्रकाश कर्दम, अजय तिवारी जैसे दलित साहित्य के पैरोकार उपस्थित थे जिन्होंने इस पुस्तक पर स्वतंत्र विचार प्रकट किए थे। सभी ने इसे दलित साहित्य का व्यापक दृष्टिकोण से जांच-पड़ताल करनेवाली आलोचना पुस्तक माना है।(सूरजपाल जी चाहें तो पिछले वर्ष ‘हम दलित’ में इस पुस्तक पर आयोजित परिचर्चा की मनोज केन द्वारा लिखित रपट देख सकते हैं)

आगे सूरजपाल चौहान ने डा. तेजसिंह को दलित साहित्य का अलंबरदार माना है तो इस बारे में बस इतना ही कहना है कि दलित साहित्य का अलम्बरदार कोई एक व्यक्ति नहीं है, वे सभी हैं जो दलित साहित्य आंदोलन में पूरी शिददत में लगे हैं। हम सब दलित साहित्य के अलम्बरदार हैं और दलित साहित्य के अलम्बरदार बनकर हमें व्यापक जनवादी और प्रगतिशील मूल्यों वाले दलित साहित्य आंदोलन के निर्माण में अपनी-अपनी भूमिका एक सामूहिक उददेश्य की तरह निभानी है।

वर्तमान साहित्य के अप्रैल 2001 अंक में प्रकाशित