दलित स्त्री आंदोलन तथा साहित्य- अस्मितावाद से आगे / बजरंग बिहारी तिवारी

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दलित स्त्री आंदोलन तथा साहित्य-1
बजरंग बिहारी तिवारी

भारतीय भाषाओं में दलित स्त्री लेखन को रूपाकार लिए हुए दो दशक से ज्यादा गुजर चुके हैं। यह पूरा दौर दलित स्त्रीवादी कार्यकर्ताओं, रचनाकारों के लिए कठिन संघर्षों का रहा है। सामाजिक बदलाव की दिशा में काम करने वाले तमाम संगठनों,मंचों और समूहों तक अपनी बात पहुँचाने, उन बातों की गम्भीरता का अहसास कराने और उनकी कार्यसूची में मुमकिन हद तक अपने मुद्दों को जगह दिला सकने में उन्हें जटिल दिक्कतों का सामना करना पड़ा है। जाति-व्यवस्था के खिलाफ लड़ने वाले दलित संगठनों ने जहाँ इस मुहिम को थोडे शक की नज़र से देखते हुए दरकिनार करने की कोशिश की वहीं स्त्रीवादी संगठनों ने जाति और पितृसत्ता के गठजोड़ को तवज्जो देने लायक नहीं समझा। यह जुझारू दलित स्त्रियों और उनके समर्थकों की सतत और पुरजोर पैरोकारी का नतीजा था कि स्त्री आन्दोलन के चौथे राष्ट्रीय अधिवेशन में जाति आधारित यौन-हिंसा और दलित स्त्री के प्रश्नों पर विस्तार से चर्चा हुई। यह अधिवेशन 1990 में कालिकट में आयोजित हुआ था। (1), यह सिलसिला बाद के अधिवेशनों में सघनतर होता गया। जाति के प्रश्न के साथ आदिवासी स्त्रियों का सवाल भी तिरूपति (1994) के राष्ट्रीय अधिवेशन में शामिल हुआ। कोलकाता का 2006 में हुआ अधिवेशन भी उल्लेखनीय रहा। 2, जेण्डर को जाति से जोड़कर देखने-समझने की अकादमिक गतिविधि क्रमश: गति पकड़ती गयी। बेला मलिक ने अपने निबंध ‘अनटचेबिलिटी एंड दलित वीमेंस ऑप्रेशन’ में 20 दिसम्बर, 1998 को दिल्ली में ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वीमेंस असोसिएशन (ए आई डी डब्ल्यू ए) द्वारा अस्पृश्यता और दलित महिला के उत्पीड़न पर आयोजित सम्मेलन को खासा महत्व देते हुए लिखा है कि इस सम्मेलन ने जातिउत्पीड़न तथा पितृसत्तात्मक शोषण की जुगल-बंदी की ओर ध्यान दिलाया। 3, इस सम्मेलन में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश की हजारेक दलित महिलाओं ने हिस्सा लिया था। अलग-अलग पृष्ठभूमि से आयी इन समाजकर्मी महिलाओं ने दलित स्त्री की जिंदगी की वास्तविकता से रूबरू कराया और अपने अनुभवों तथा संघर्षों को बेलाग तरीके से प्रकट किया। इन दलित स्त्रियों में कुछ राजनैतिक रूप से सक्रिय थीं, कुछकृषिमजदूर थीं, कुछ भवन-निर्माण में दैनिक मजदूरी या ठेकेदार के अन्तर्गत काम करती थीं।

बेला मलिक के अनुसार उक्त सम्मेलन ने यह तथ्य रेखांकित किया कि वैसे तो पूरा दलित समुदाय उत्पीड़ित किया जाता है लेकिन उत्पीड़न का अधिकांश दलित स्त्रियों के हिस्से में पड़ता है। घर में भीतर का श्रम विभाजन जोड़दें और पेय जल तक पहुँच, जलावन तथा शौचादि समस्याओं को ध्यान में रखें तो दलित स्त्रियों की बदतर स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। अवमानना व हिंसा की घटनाएं दलित स्त्रियों के साथ सर्वाधिक घटती हैं। उनके उत्पीड़न में ऊंची जाति की स्त्रियों की भागीदारी अक्सर दिखाई पड़ती हैं। (4), दलित महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों की प्रकृति को देखते हुए बेला सुझाव देती हैं कि उनकी बेहतर जिंदगी के लिए किए जाने वाले संघर्ष को व्यापक सामजिक मुक्ति के अजेंडा से जोड़कर देखे जाने की जरूरत है। (5), संगठनों का निर्माण पर्याप्त नहीं, मजबूत और सक्रिय प्रतिरोध अपेक्षित है। सतत संघर्ष के बगैर परिवर्तन की संभावना नहीं बनती।

शार्मिला रेगे सामान्य नारीवादी संगठनों के महत्व को नहीं नकारतीं लेकिन दलित स्त्रियों के प्रश्न पर दलित स्त्री संगठनों का होना आवश्यक मानती हैं। (6), उन्होंने उचित ही इस बिडंवना की ओर ध्यान खींचा है कि दलितवाद पुरूषीकरण तथा स्त्रीवाद सवर्णीकरण के आशय तक सिमट गया है। उनके अजेंडें में दलित स्त्रियों को जगह न मिलने के कारण ही इस आशय की निर्मिति हुई है। 1971 में बने दलित पैंथर में भी दलित स्त्रियों की, उनसे सम्बद्ध मुद्दों की अनुपस्थिति रही। शार्मिला रेगे के मत से वाम झुकाव वाले नारीवादी संगठनों ने जाति को वर्ग में विलीन कर दिया तथा स्वायत्त स्त्री समूहों ने उसे भगिनीवाद में। दोनो ने ही ब्राह्मणवाद को चुनौती नहीं दी। (7), ऐसा नहीं है कि इस (नारीवादी) आन्दोलन ने दलित, आदिवासी तथा अल्पसंख्यक समुदायों की स्त्रियों के मुद्दों को उठाया ही न हो। यह मुद्दे उठे ज़रूर और कुछ ठोस उपलब्धियां भी रहीं मगर इन स्त्रियों को केंद्र में रखने वाली नारीवादी राजनीति उभर नहीं सकी। (8), दलित स्त्री की पहचान वाले स्वतंत्र और स्वायत्त संगठन 1990 के बाद बने। अखिल भारतीय स्तर पर बनने वाले संगठनों में ‘नेशनल फेडरेशन ऑफ दलित वीमेन’ तथा ‘आल इंडिया दलित वीमेंस फोरम’ (1994) उल्लेखनीय है। ‘महाराष्ट्र दलित महिला संघठना’ की स्थापना 1995 में की गई। इसी प्रदेश के चंद्रपुर में 1996 में ‘विकास वंचित दलित महिला परिषद’ का गठन हुआ। इस संगठन ने मांग की कि 25 दिसंबर को ‘भारतीय स्त्री मुक्ति दिवस’ के रूप में मनाया जाए। 1927 मे इसी तारीख को डॉ.अम्बेडकर ने मनुस्मृति दहन किया था। (9),

दलित स्त्रीवाद की वैचारिकी के निर्माण के संदर्भ में गोपाल गुरू के लेख ‘दलित वीमेन टॉक डिफरेंटली’ की चर्चा की जाती है। यह लेख ‘इकॉनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ के अक्टूबर 14-21,1995 अंक में प्रकाशित हुआ था। इस लेख की पृष्ठभूमि में दो तात्कालिक घटनाएं थीं- नेशनल फेडरेशन ऑफ दलित वीमेन (एन एफ डी डब्ल्यू) का निर्माण तथा बीजिंग सम्मेलन में दलित महिलाओं की भिन्न समूह के रूप में भागीदारी। दलित महिलाओं की ‘बात की भिन्नता’ को रेखांकित और स्थापित करना इस लेख में गोपाल गुरू का मकसद है। इसके लिए वे दो कारकों की चर्चा करते हैं- बाहरी कारक तथा भीतरी कारक। बाहरी कारकों में वे उन ‘गैर दलित ताकतों’ का हवाला देते हैं जो ‘दलित स्त्री के मुद्दे का समरूपीकरण’ कर रही हैं। भीतरी कारकों में ‘दलितों के बीच पितृसत्तात्मक प्रभुत्व’ का होना है। सत्य के अवबोधन में सामाजिक अवस्थिति को गोपाल गुरू निर्णायक मानते हैं। उनका कहना है कि इसी तर्क से ग़ैर दलित स्त्रियों द्वारा दलित स्त्रियों के मुद्दों का प्रतिनिधित्व ‘कम वैध और कम प्रामाणिक’ ठहरता है। वे यह भी जोड़ते हैं कि दलित स्त्री कार्यकर्ताओं के इस दावे का अर्थ नारीवाद की प्रायोगिक बहुलता का उत्सव नहीं है। दलित स्त्रियों ने महाराष्ट्र में नए किसान आन्दोलन के शुरूआती दौर में नारीवादी रेडिकल राजनीति का समर्थन किया था। यह समर्थन जारी नहीं रह पाया क्योंकि किसान संगठनों की ऊंची आवाज़ में दलित आवाज़ दब गयी। दूसरे, किसान आन्दोलन समृद्ध किसानों के पक्ष में चला गया और दलित कृषि मजदूरों के हित भुला दिए गए। गोपाल गुरू जोर देकर कहते है’ कि राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर स्त्री मात्र की एकता (सॉलिडरिटी) का दावा ऊँची जाति और दलित महिलाओं के बीच मौजूद अन्तर्विरोधों पर लीपापोती कर देता है।दलित स्त्रियों ने इसीलिए गैर दलित स्त्रियों के लेखन अथवा भाषण में अपने यदा-कदा उल्लेख (गेस्ट अपीरेंस) का विरोध किया और अपनी शर्तों पर खुद को संगठित किया। गैर दलित स्त्रियों द्वारा विकसित नारीवादी सिद्धांत उनकी समझ से अप्रामाणिक हैं क्योंकि वे दलित स्त्री के यथार्थ को नहीं समेटते। इसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति एन एफ डी डब्ल्यू द्वारा स्वीकृत बारह सूत्री अजेंडे में तथा मई 1995 में पुणे में संपन्न महाराष्ट्र दलित वीमेंस कॉनफरेंस में पढ़े गए तमाम पर्चों में देखी जा सकती है। गोपाल गुरू बताते हैं कि दलित स्त्रियों ने दलितपन की व्याख्या कड़ाई के साथ जाति के संदर्भ में की और ग़ैर दलित स्त्रियों द्वारा खुद को दलित मान लिए जाने के दावे को नकार दिया।

आंतरिक कारणों का विश्लेषण करते हुए गोपाल गुरू का कहना है कि उत्तर अम्बेडकर काल में दलित नेताओं ने हमेशा दलित स्त्रियों की स्वतंत्र राजनीतिक अभिव्यक्तियों को गौण समझा है और कई बार उनका दमन किया है। कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी दलित पुरूषों का दबदबा कायम रहा है। साहित्य की दुनिया में दलित लेखकों के एकाधिकार की दलित लेखिकाओं ने आलोचना की है। गोपाल गुरू सूचित करते हैं कि दलित लेखक दलित स्त्री रचनाकारों की कृतियों को गंभीरता से नहीं लेते। उनकी प्रवृति इन लेखिकाओं की उपलब्धियों को खारिज करने की होती है। अपने विश्लेषण को सूत्रबद्ध करते हुए गोपाल गुरू तीन निष्कर्ष देते हैं- क) जाति और वर्ग की पहचान के साथ लैंगिक पहचान भी किसी परिघटना में समान भूमिका अदा करती हैं; ख) दलित पुरूष उसी मेकनिज़्म का पुनउत्पादन कर रहे हैं जिसका इस्तेमाल सवर्णों ने उन्हें दबाने के लिए किया था; ग) दलित स्त्रियों का अनुभव बताता है दलित(दायरे) के भीतर का स्थानीय प्रतिरोध कम महत्वपूर्ण नहीं है। कुल मिलाकर, जो स्थिति बनती है उसमें यह मानने को बाध्य होना पड़ता है कि दलित स्त्रियों की भिन्न बात का दावा सही है। अपनी तरफ से यह साबित करने के बाद कि दलित स्त्री ही दलित स्त्री समुदाय का वैध और प्रामाणिक प्रतिनिधित्व कर सकती है गोपाल गुरू यह चेतावनी भी जोड़ते हैं कि भिन्नता दलित स्त्रियों में भी है। शिक्षा, नौकरी और संगठन में महाराष्ट्र की दलित स्त्रियां जितनी आगे है कर्नाटक की नहीं। तब प्रतिनिधित्व का पेंच उलझ जाता है। लेखक ने समाधान के तौर पर इस सुझाव पर अपनी सहमति दी है कि दलित स्त्री आंदोलन को ग्रासरूट स्तर की दलित स्त्रियों से जुड़ना चाहिए। उन्होंने दलित स्त्रियों को इसके प्रति भी सावधान किया है कि उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं को स्पेस मुहैया कराने के क्रम में राज्य द्वारा उनका सहयोजन किया जा सकता है। इस आशंका के साथ ही उन्होंने दलित स्त्रियों की राजनीतिक समझ पर भरोसा भी किया है। सबूत के तौर पर उन्होंने भारत सरकार द्वारा निजीकरण और वैश्वीकरण वाली नयी आर्थिक नीति थोपे जाने की एन एफ डी डब्ल्यू द्वारा संघर्ष छेड़ने के संकल्प का उल्लेख किया है।(10),

गोपाल गुरू के उक्त लेख पर बहस चली। इस बहस में प्रमुख नाम शार्मिला रेगे का उभरा। रेगे ने मोटे तौर पर लेख की स्थापनाओं पर अपनी सहमति व्यक्त की, लेकिन, उन्होंने ‘प्रामाणिकता’ पर आत्यंतिक बल दिए जाने को उचित नहीं पाया। उनके अनुसार हाशिए के लोगों के आंदोलन में आवाजाहीपर रोक नहीं लगनी चाहिए। अपने-अपने संघर्षों तक महदूद रहने के बजाए इन संघर्षों से अर्जित अनुभवों का, विचारों का साझा करना संघर्ष को आगे ले जाने में सहायक होता है। दलितेतर नारीवादी दलित स्त्रियों ‘की तरह’ या दलित स्त्रियों ‘के लिए’ भले ही न बोल सकती हों लेकिन वे दलित नारीवादी की तरह अपनी ‘पुनर्खोज’ तो कर ही सकती हैं। इस तरह की छूट प्रत्यक्ष अनुभवजन्य ‘प्रामाणिकता’ की संकरी गली से बचाती है तथा ‘अस्मितावादी राजनीति’ की संकीर्णता को भी परे ढकेलती है। (11), अस्मितावादी दृष्टि की आलोचना करते हुए महाराष्ट्र की ही चर्चित नारीवादी चिंतक छायादातार ने कहा कि ‘भिन्नता’ और ‘आइडेंटिटी’ पर केन्द्रित हो जाने से आर्थिक शोषण और बाजार की जकड़बंदी की उपेक्षा होती है। स्त्रियों को अधिकार वंचित करने वाली स्थितियों का जन्म यहीं होता है। छाया दातार ने यह भी कहा कि अगर नारीवादी आंदोलन के इतिहास का पुनरावलोकन किया जाए तो मालूम होगा कि पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष में कई मोड़ ऐसे भी आए हैं जब जाति प्रभुत्व के खिलाफ मोर्चा खुला है। ‘मथुरा रेप केस’ मामला इसका उदाहरण है। दलित पैंथर के साथ भी नारीवादियों ने सहयोग किया है।(12)

दलित आंदोलन में दलित स्त्रियों की भूमिका का पहले-पहल सशक्त रेखांकन मीनाक्षीमून और उर्मिला पवार ने किया। 1989 में प्रकाशित ‘हमने भी इतिहास बनाया’ में इन दोनों आदोंलनधर्मी लेखिकाओं ने डॉं. अम्बेडकर के सामाजिक अभियानोंमें दलित स्त्रियों की भागीदारी का वृतांत लिखा है। दलितस्त्री कार्यकर्ताओं की पहली पीढ़ी इसी दौर में निर्मित हुई। परिवार, समाज और राजनीति में व्याप्त पुरूष वर्चस्व से लड़कर परिवर्तन के ऐतिहासिक दस्तावेज में अपना हस्ताक्षर करने वाली दलित स्त्रियों की पहली पीढ़ी का परवर्ती आंदोलन ने लाभ नहीं उठाया। किसी दलित स्त्री का नाम न तो पैंथर के, न ही रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के नेतृत्वकारियों की सूची में दिखाई पड़ता है। इसकी वजह जानने में बहुत मशक्कत करने की ज़रूरत नहीं। गोपाल गुरू ने पूर्वोद्धत लेख में दलित नेताओं की पितृसत्तात्मक सोच का स्पष्ट जिक्र किया है।

बेबी कांबले मुख्यत: सामाजिक कार्यकर्ता रहीं। आन्दोलनों में शिरकत करते हुए उनके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ। उनकी जुझारू शख्सियत की अभिव्यक्ति उनके आत्मकथन ‘जिण आमुच (जीवन हमारा) में हुई है। यह आत्मकथन धारावाहिक रूप में सन् 1982 में छपा और पुस्तक रूप में 1086 में आया। भारत में किसी दलित लेखिका का यह संभवत: पहला आत्मकथन है । इसमें बेबी कांबले ने अपनी जिंदगी से ज्यादा दलित समुदाय में हो रही उथल-पुथल का चित्रण किया है। उत्तर अम्बेडकरकालीन दलित राजनीति में घुस आई निजी महत्वाकांक्षाओं को निशाने पर लेते हुए लेखिका ने नेताओं के स्वभाव पर तल्ख टिप्पणियाँ की हैं। इस आत्मकथा के अंग्रेजी अनुवाद में लिखे ‘आफ्टरवर्ड’ मे गोपाल गुरू ने लिखा है-‘ दलित स्त्रियों की आत्मकथाएं एक तरफ राज्य के शोषण का प्रतिरोध करती है तो दूसरी तरफ बाज़ार का। उनका लेखन ‘दलित पब्लिक स्फीयर’- साहित्यिक सभाओं, अकादमिक संगोष्ठियों, प्रकाशन केन्द्रों और पहचान दिलाने वाले अन्य क्षेत्रों मसलन राजनीतिक पार्टियों से बाहर रखे जाने के खिलाफ बयान हैं। दलित लेखकों की आत्मकथाओं में उनका उल्लेख चलताऊ ढंग से किया जाता है। (13), सार्वजनिक गतिविधियों-रैलियों धरने-प्रदर्शनों में बेबी कांबले की भागीदारी को ध्यान में रखकर गोपाल गुरू टिप्पणी करते हैं कि दलित स्त्रियाँ घरेलू से सार्वजनिक क्षेत्रों में निर्बाध आवाजाही करती हैं (‘दे फ्लो फ्रीली फ्रॉम द डोमेस्टिक टू द पब्लिक स्फीयर्स’) (14), यह बात जितनी आसानी से कह दी गई है वस्तुस्थिति वैसी है नहीं। हाँ, यह अवश्य है कि बेबी कांबले ने आत्मकथा में अपनी पारिवारिक स्थिति-पति-पत्नी के रिश्तों पर कुछ खास नहीं लिखा है। गोपाल गुरू की उक्त धारणा के निर्माण में इसी खामोशी की भूमिका है। अंग्रेजी अनुवादिका को यह खामोशी खटकी होगी। तभी उन्होंने बेबी कांबले का इण्टरव्यु लेते हुए उनकी अंतरंग जिंदगी पर प्रश्न पूछे। यह इण्टरव्यु आत्मकथा के आखीर में अंग्रेजी अनुवाद में दे दिया गया। इसमें बेबी कांबले ने बताया है कि उनकी जिंदगी अन्य दलित औरतों की जिंदगी से बहुत भिन्न नहीं रही। “इन दिनों पत्नियों की पिटाई सामान्य बात थी। पत्नी की निष्ठा पर शक किया जाता था और मैं भी कोई अपवाद नहीं थी। एक बार हम (मैं और पति) एक बैठक में हिस्सा लेने मुंबई गए। हमने सामान्य डिब्बे में यात्रा की। डिब्बा खचाखच भरा हुआ था। कुछ युवाओं ने मुझे देख क्या लिया कि मेरे पति ने तत्काल मुझ पर शक किया। उन्होंने मुझे इतने जोर से मारा कि मेरी नाक से खून का फौव्वारा फूट पड़ा। भला बताओं कोई किसी को घूरने से कैसे रोक सकता है। लेकिन, यह सब कहने का कोई फायदा नहीं था। हम प्रोग्राम में भी नहीं रूके। उसी शाम को लौट आए। उनका क्रोध ऐसा था कि लौटती बेर ट्रेन में पूरे रास्ते मुझे पीटते रहे।(15), इस प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए प्रश्नकर्ता ने जब अगला सवाल किया तो बेबी कांबले का जवाब था- ‘वे (पति) मुझे बेहद मामूली कारणों पर पीटते थे। बड़े शक्की थे। अपने को निर्दोष साबित करना मेरे लिए बहुत कठिन था। मैं रोती थी, गिड़गिड़ाती थी, मनाती थी। कभी माहौल हफ्ते भर सामान्य रहा तो बहुत गनीमत थी। शक फिर से अपना सिर उठा लेता था। मुझे फिर यातना की उस चक्की से गुजरना पड़ता था। ज्यादातर औरतों की जिंदगी ऐसी ही थी। ...एक मर्द छोड़ दूसरी से शादी करना समस्या का हल नहीं था। हर मर्द में वहीं “पति” मिलता था। इसलिए मैंने तय किया कि दूसरा घर नहीं करूंगी। (16), ‘आत्मकथा’ में इन अनुभवों को क्यों नहीं लिखा? इस प्रश्न पर बेबी कांबले का कहना था कि ‘मैंने व्यक्तिगत पीड़ा के बदले समुदाय की व्यथा को तरजीह दी। फिर अधिकांश औरतों पर जब ऐसी ही हिंसा की जाती थी तो मैं उनसे अलग कहाँ थी?’(17), प्रस्तुत प्रसंग को थोड़े विस्तार से उद्धृत करने की जरूरत इसलिए महसूस हुई कि गोपाल गुरू के कथन का समुचित संदर्भ सामने रहे। उस कथन का प्रत्याख्यान भी हो सके। आत्मकथा के हिन्दी या मराठी संस्करणों में चूंकि यह साक्षात्कार नहीं है,इसलिए संभव है कुछ लोग लेखिका की जिंदगी के इस पक्ष से वाकिफ न हों। इस आत्मकथा का हिन्दी अनुवाद वैसे भी थोड़ा संदिग्ध लगता है। किसी समर्थ अनुवादिका/अनुवादक को यह काम अपने हाथ में लेना चाहिए।