दहन / श्रीकांत दुबे

Gadya Kosh से
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मुझे उसकी आँखों की पहली अजनबियत याद है। तब मुझे यह पता नहीं था कि वह अपनी जाति में नर है या मादा। उसके समुदाय में यह तय कर पाना भी तो इतना आसान नहीं होता। अथवा हो सकता है कि मेरी उम्र का भी कुछ कसूर रहा हो। पर सच में, आज भी पंछियों में लिंग भेद करने का कोई तरीका मेरे पास नहीं है।

वे दिन कुछ ऐसे थे।

दोपहर जब भी धूप से गर्म और चटक उजली होती, हम उसे जेठ की दुपहरी कहते। इसी से शुरू होने वाले एक गाने को बुआ खूब गाती थीं। शायद इसलिए, और सच में, इसीलिए। हम जिसे अपना गाँव कहते वो वास्तव में पैंतीस चालीस घरों का एक झुंड था। उसके बाहर थोड़ी दूर पर आम और शीशम के बगीचे थे। गर्मियों के शुरू होने पर एक महकती सी खुशी होती, जिसमें आम के बौर और शीशम की नई झलकती हरी पत्तियों की खुशबू शामिल होती। हम बड़ी उद्विग्नता से छुट्टियों का इंतजार करते, जो आतीं, और झट से चली भी जातीं।

छुट्टियाँ शुरू होते ही हम घोर दिनचर बन जाते। हम दिन भर गाँव से बगीचे और वहाँ से दूसरे बगीचे का सफर किया करते। गाँव से बगीचे के बीच, एक पीली और हताश कर देने वाली धूप का लंबा चौड़ा टुकड़ा होता। उसे पार करना काफी रोमांचक और साहसिक होता और हम उसे दिन भर में कई दफा पार करते। कड़क धूप से जब हमारा चेहरा लाल हो जाता, तो उसे देखते हुए माँ की आँखें सूखी होतीं। माँ की आँखें देखकर मैं अपने चेहरे का रंग जान लेता। ऐसे में जब वह मुझे पकड़ने को झपटतीं, मैं उस लाली का और भी सुर्ख होना जान लेता। वह 'राच्छस', 'निस्साचर' और 'परेत' जैसे शब्द कहकर माथे पर हाथ रख लेतीं और हम तेजी से फरार।

मैं अपने चार भाइयों में सबसे छोटा था। सबकी उम्र में दो-दो, एक-एक वर्ष का फासला था और हम सबसे बड़ी थीं बुआ। बुआ के चार भाई थे। पिता अपने भाइयों में सबसे छोटे और उनसे छोटी वह। बुआ तब कालेज में पढ़ा करती थीं और उनकी सहेलियाँ अक्सर हमारे घर आती थीं। अपनी यादों को परत दर परत पलटने-देखने पर आरंभिक दृश्यों में बुआ मेरे सबसे करीब होती हैं।

ये हम सभी के तेजी से बड़े होने के दिन थे और बुआ हमारे लिए बड़ा होने का मानक। सबसे बड़े भइया की ऊँचाई भी बुआ से कुछ कम ही थी। और वे दिन भर बगीचे में उछल उछलकर गेंद फेंकने और बल्ला चलाने का काम करते रहते, दूसरे भाइयों के साथ। यह समय मेरे लिए घोर उपेक्षा का होता। और मैं अपनी वेदना में त्रस्त एवं अपमानित महसूस करता, छोटा होने के लिए खुद को कोसता रहता। खेल में छोटे को नहीं खेलना होता और मुझे छोड़ सभी भाई बड़ा घोषित कर दिए जाते। तब, जिद के साथ रोने को मैं अपना अचूक अस्त्र समझता, और इसी के सहारे मैं माँ को हमेशा परास्त कर देता था। इसका असर उन पर भी हुआ, लेकिन सिर्फ शुरुआती एक दो बार के लिए। बाद में वे घुड़कियों से, और उससे भी न चले तो थप्पड़ों से काम लेने लगे। यह मेरे लिए अपमान की हद होती और विरोध की भी, जो हारकर प्रतिशोध के भाव की तरह मेरे भीतर स्थायी होने लगता। मैं अपनी आखिरी सिसकी के खत्म होने तक भरपूर रोता और दूर तक फैले पेड़ों में से किसी का सहारा लेता। मैं अपने सामने बुआ के होने की कल्पना करता, जो मेरा रोना देख तीन क्या, मेरे भाइयों जैसे हजार अपराधियों के लिए भी काफी थीं। मैं और भी तेजी से रोने लगता। मेरी सिसकियाँ एक पर एक चढ़तीं और मैं अपने गालों पर आँसुओं का फिर से रेंगना महसूस करता। मैं बुआ से आकर सब कुछ बताता तो भाइयों को थोड़ी बहुत फटकार ही मिलती, जो मेरे लिए नाकाफी होता।

बाद में एक दिन बुआ ने मुझे समझाया और मैंने बगीचे में जाना छोड़ दिया।

पेड़ अमरूद का था। घर के दाहिने जहाँ वह अकसर दिख जाती थी। अब मैं दिन भर पेड़ पर चढ़ता उतरता। दूर दूर दृष्टि फेंकता और उसे ही देखना चाहता। इस तरह से पेड़ पर चढ़े रहने को मेरा शगल समझा जा सकता था, जो कि सच नहीं था। कुछ वर्षों के बाद जब मैं सोचता कि मैं पेड़ों पर इतना इतना ऊपर इतनी इतनी आसानी से कैसे चढ़ जाता हूँ तो याद आता कि भाइयों से पिटकर दिन भर मैं पेड़ों पर ही चढ़ता उतरता रहता था, जो कि सच नहीं था। असल में बगीचे में जाना बंद कर देने पर मैं उसे देखने के लिए पेड़ पर ऊपर ऊपर चढ़कर दूर दूर देखता था। शायद इसलिए। उसकी आँखें गोल थीं। माँ की आँख के लिए खरीदी गई रतौंधी की लाल गोलियों की तरह। उसकी आँख के कुल तीन हिस्से थे। पहला बीच का एकदम से काली गोलाई, दूसरा उसके बाहर का सफेद घेरा और तीसरा सबसे बाहरी लाल वृत्त, जो आँख को किनारे के नीलेपन से जोड़ देता था।

मैं उसे कबूतरी कहता। पिता उसे परेवा कहते। बुआ उसे कबूतरी कहतीं। और भाई परेवा।

उन दिनों कुछ चीजों को छोड़कर मैं सबसे परेशान रहा करता था। एक बात न जाने कब मेरे जेहन में उपज कर मेरे भीतर स्थायी हो गई थी। मुझे लगता कि जो कुछ भी घटित होता है, वह सब मेरे सामने ही होता है। शेष सभी घटनाएँ काल्पनिक या रची गढ़ी बातें मात्र हैं। दुनिया का विस्तार मुझे अपनी आँखों का विस्तार लगता। और जो चीजें नईं दिखतीं, वह मुझे तुरंत की रची हुई दिखतीं। मुझे हर चीज एक षड्यंत्र का हिस्सा लगने लगी, जो मेरे विरुद्ध था। षड्यंत्र का कारण और कारक जैसी बातें मेरे लिए चुनौती की तरह थीं, जिन्हें मैंने स्वीकार भी कर लिया था, शायद। इस तरह से मैं अपने अस्तित्व के चारों ओर एक तिलिस्म सा महसूस करने लगा, जिसमें मैंने खुद को कैद कर लिया था। और मैं उसमें गहरे गहरे डूबकर उसकी पल पल और प्रत्येक गतिविधि की खबर रखना चाहता था। अब मुझे इस तिलिस्म के तिलिस्म होने में संदेह नहीं रहा। जब दूर कुछ लोग बातें करते हुए दिखते, तो मुझे विश्वास होता कि यह बात करने का अभिनय मात्र है। अथवा यदि वह सच भी है तो वह उस षड्यंत्र का अगला हिस्सा है, जिसे मेरी दृष्टि सीमा के रंगमंच में अगले दृश्य की तरह फिल्माया जाएगा।

पेड़, हवा, रौशनी और अँधेरा तक उस तिलिस्म में शामिल थे। रातों में नींद खुलने पर मैं अँधेरे के बीच में रौशनी को छुपते देखने की कोशिश करता। मुझे पूरा पूरा भरोसा था कि मेरे सो जाने के बाद रात में अँधेरा नहीं होता होगा। उस तिलिस्म की एक एक संरचना को मेरी नब्ज और धड़कनों तक की पूरी खबर थी। फिर भी मैं इसके रहस्यों को खोलने में जी जान से लगा था। सिर्फ दो चीजें, जो इससे बाहर थीं और जिनके सहारे मैं रहस्य को खोलने वाला था, वो चीजें थीं बुआ और कबूतरी।

मैं उस अँधेरे कमरे में दरवाजे और दीवार के बीच दुबका रहता। छुपकर माँ और पिता की बातें सुनता। उनकी अकसर की बातों में सिर्फ मुझे शब्द ही अलग अलग से समझ में आते। बातें किसी दूसरी दुनिया की सी लगतीं और तिलिस्म की रहस्यात्मकता पर मेरा विश्वास दृढ़तर होता रहता। उनकी बातों में लड़का और लड़की जैसे शब्द बार बार आते। मेरी समझ में वह लड़का मैं होता। लड़की कौन होती, यह जान नहीं पाता। लेकिन जल्द ही, जब मैंने षड्यंत्र का उनके भी खिलाफ होना जान लिया, उस लड़की की जगह बुआ ने ले ली। रोज ही मैं छुपकर एकाग्रता से उनकी बातें सुनता, समझने की कोशिश करता। रहस्य को खोल लेने में मुझे सफलता मिलती इससे पहले ही वह दिन आ गया और पिता ने मुझे छुपते हुए पा लिया। यह भी मेरे लिए एक उल्लेखनीय घटना थी।

दरअसल वह एक चुहिया थी जिसने मुझे पकड़वाया। चुहिया मेरे सिर पर उतरी और दाहिने बाजू से होकर नीचे भाग गई। जितनी तेजी से वह भागी, मेरे हाथ का झटका जाना और चीख उससे भी कहीं तेज थे। और लगभग इसी तेजी से आकर पिता मेरे सामने खड़े थे। और मैं निकलकर उनके सामने, सजा के लिए तैयार अपराधी। आवाज के पहले उनके आँखों का प्रश्न था। वे कुछ और देर चुप रहे होते तो मेरी आँखें पिघल गई होतीं और दहल कर रो पड़ा होता। लेकिन मेरी धैर्य सीमा के आखिरी क्षण पर उनकी आवाज आ गई थी - क्यों खड़े थे वहाँ?

"आइस पाइस खेल रहा था। यहीं आकर छुप गया।" यह एक छुपने पकड़ने का खेल था। पिता ने कहा, आइस पाइस घर में नहीं खेलते। अब से यहाँ मत छुपना। मेरी आँखें उनकी आँखों पर ही रहीं और गर्दन के ऊपर का भाग हिल गया।

पिता वहाँ से चले गए थे। मेरे चारों ओर हवा में दहशत घुल गई थी। धड़कनों के संयत होने तक मैं वहीं रहा। और भाई बगीचे से लौट रहे थे। पिता के सामने किया हुआ, यह मेरा पहला अभिनय था। पूरा सटीक और सफल। दोबारा, चाहकर भी मैं वैसा अभिनय कभी नहीं कर सका।

कमरे की उन रहस्यात्मक बातों से माँ ही पहले निकलतीं और रसोईघर की ओर जाने लगतीं। समय लगभग वही होता, जब उजाला उपनी हर चीज अँधेरे को सौंप रहा होता है। आँगन तब बहुत बड़ा लगता था। बुआ तुलसी के पास बने चौरों में पानी डाल रही होती, पंखुरियाँ गिर जाने पर बचे फूल के डंठलों को तोड़ा करतीं, अपनी क्यारियों के घास और तिनकों को उँगलियों में लपेटती उखाड़ती रहतीं। यह सभी उपक्रम करते हुए उनके साथ एक स्थायी चीज होती। चेहरे पर खामोशी और मुस्कराहट के बीच का एक द्वंद्वात्मक स्थायित्व। और यह स्थायित्व उनके साथ होकर उन सभी जगहों से उनका अनुपस्थित होना दर्शाता। और स्पष्ट हो जाता कि वह सब कुछ उन क्रियाओं का अभिनय मात्र है, जो वे कर रही होतीं। यह सब कुछ उनसे जुड़कर उनके प्रति मेरे भीतर एक दिलचस्पी जगाता। शायद इसलिए बुआ मुझे अच्छी लगतीं... सच में इसीलिए।

मेरे दिन और रात तेजी से बीतते जा रहे थे और थोड़ी बहुत हेर फेर के अतिरिक्त हर अगला दिन पिछले दिन की तरह ही होता। तब कुछ चीजें, घटनाएँ और दृश्य स्थायी रूप से मुझसे जुड़े हुए थे।

उस कमरे की रहस्यात्मक बातों से निकल आने के बाद माँ का चेहरा और भी अधिक गाढ़ा होता। बुआ आँगन के उस हिस्से में और भी अनुपस्थित हो जातीं। कभी कभी माँ से आँखें मिल जाने पर और अधिक सुर्ख हो जातीं और देर बाद, अँधेरा घना हो जाने तक वहीं रहतीं। बुआ पर पिता की नजरों का प्रभाव मैं बड़ी मुश्किल से जान पाया था, जो काफी व्यापक था और पूरे घर फैल जाता था। सारी जगहें एक तनाव भरी चुप्पी से भर जातीं, और हर कोई एक दूसरे की आँखों से बचने लगता। सब अपने लिए कुछ न कुछ ऐसा खोजते जिसमें वे पूरी तरह से व्यस्त हो जाएँ।

इस उपक्रम में सबसे सफल बुआ ही होती थीं। सच कहें तो उन्हें ऐसा कुछ अलग से करना भी नहीं होता था। बल्कि उनकी खामोशी और भी घनी हो जाती और किसी सतह पर झुकी आँखें उसमें धँसने लगतीं। भाइयों के लिए ऐसे में खेल होता, और मैं... मेरे लिए वह पेड़, जो घर के दाहिने था। मैं उसकी टेढ़ी सी डाल पर चढ़कर बैठ जाता। वह जगह मेरे बैठने के लिए तय थी। घर का छज्जा वहाँ से छह सात फीट की दूरी पर था, जो जिनिया की गाछों, फूल और सूखे पत्तों से पटा होता। कबूतरी का रहना वहीं होता था। मेरी दृष्टि के ठीक सामने। संयत और एकटक। उसकी चोंच आँखों के नीचे और मध्य से निकली थी। चोंच का शुरुआती हिस्सा सफेद था। मैं उसे भरपूर आँखों से देखता रहता और वो भी। उसे देर देर तक देखते हुए मैं पूरे घर पर ठहरे उस स्थायी प्रभाव को समझता रहता। प्रभाव वही, जो बुआ पर पिता की नजर पड़ने से उत्पन्न होता था। कबूतरी के होने की कई और भी जगहें थीं। लेकिन इधर उधर की दौड़ धूप के बाद उसे वहीं सुकून मिलता और मुझे भी। और सिर्फ वहीं वह मुझे वैसी लगती थी। अपनी आँखों, चोंच, जोड़ा पैर, पंखों के नीलेपन पर उँगली की मोटाई वाली गहरी काली लकीरों के साथ अपनी संपूर्णता में। ऐसे में उसकी खामोशी वैसी ही होती जैसी बुआ की। और कभी कभी तो कबूतरी पूरी की पूरी बुआ होती थी।

हालाँकि उसके लिए मैं पूरे दिन भटकता और उससे जुड़ी हर एक चीज को देखने जानने की कोशिश में रहता लेकिन उससे जुड़ी सबसे दिलचस्प बात मैंने पिता से सुनी। तब वे माँ से बातें कर रहे थे। घर की छत पर एक कमरा था। कमरा क्या तीन ओर की दीवारों और एक छत से ढँकी जगह। हम भाइयों के पढ़ने की औपचारिकता वहीं पूरी होती थी। कमरे के कोने में एक देहरी थी जिसे बुआ ने बनाया था। चिकनी मिट्टी के लोंदे थाप थापकर।

पिता ने माँ से बताया वह वहाँ रहती है। उन्होंने उसे परेवा कहा था। मैंने सोचा कबूतरी। पिता ने कहा कि उसका घर में रहना ठीक नहीं है। उसका कराहना बुरा लगता है। मैंने उसका कराहना नहीं समझा। माँ ने भी नहीं। पिता ने बताया कि उसका बोलना कराहने जैसा नहीं होता? माँ ने समझ लिया। मैंने सोचा 'गुटरगूँ'। पिता ने बताया कि उसे वहाँ से हटा दिया जाएगा। माँ ने कहा कि उसके बच्चों को उड़ जाने दीजिए...। पिता चुप रहे। पिता किसी बात को मान लेने पर चुप हो जाते थे। माँ वहाँ से चली गईं। पिता भी। और थोड़ी देर बाद मैं भी।

देहरी के पास, दीवार में दो खूँटियाँ थीं। उनके नीचे की ओर दीवार से कुछ ईंटें निकाली हुई थीं, जैसा कि अकसर कच्चे मकानों में होता है। ईंट के निकल जाने की जगह में पैर रखकर मैंने उचक कर खूँटी पकड़ ली। इस तरह से मैं अचानक उसके सामने हो गया। मेरे उधर मुड़ते ही उसने अपने पंख खोलने शुरू कर दिए। उसके नीचे अंडे थे। पैरों के बीच में। पैर उसके लाल ओर अंडे सफेद। वह मेरी आँखों पर जमी थी और मैं अपनी नजरों के साथ उसके पैरों के आस पास। मैंने अब तक उसकी आँखों में एक बार देख लिया था। वे डर से भरी थीं। और इस आकस्मिकता से चकित। लेकिन मैं झट से वहाँ से निगाह हटाकर उधर देखने लगा। पैरों के आस पास, उनके बीच। अंडों पर, पैरों पर।

वह उद्विग्न थी। अपनी आँखों पर मेरी आँखें लाने के लिए। मेरी आँखों के झुक जाने के लिए। मेरी खूँटी से नीचे उतर जाने के लिए, और ऐसा कुछ नहीं करने पर पंखों का फैलाव बढ़ाते हुए उचक कर उड़ जाने के लिए। पर मेरी आँखें नियत रूप से अंडों की गोलाई सफेदी और उसके पैरों की लाली के बीच कहीं थीं। और वह उन्हीं, अपनी सबसे बड़ी आँखों के साथ मेरी आँखों पर डटी रही और मेरे प्रति उसकी दहशत कुछ कम हो गई थी। उद्विग्नता भी लगभग समाप्तप्राय। इस तरह से मैं एक रहस्य खोल रहा था। रहस्य जो उस तिलिस्म से ठीक बाहर लगता और अधिक रोचक था। तिलिस्म जिसे रचे जाने में वे सभी थे। वे मतलब मैं नहीं, बुआ नहीं, और कबूतरी और अंडे तो बिलकुल नहीं। वे मतलब बाकी सभी। और खास कर वे जो अब सामने से मेरी ओर आ रहे थे। वे मतलब मेरे भाई। तीनों बड़े भाई, जिन्हें देखते हुए मेरी गर्दन पूरी मुड़ गई थी। और जिनके मेरी ओर बढ़ते आने से मेरी पकड़ खूँटी पर से ढीली होने लगी। मैं नीचे उतर आया और वे देहरी के बिलकुल पास।

आगे बड़े भइया, उनके पीछे वह दोनों और सबके आगे मैं। भइया की ऊँचाई देहरी की ऊँचाई थी। लेकिन उसके ऊपर देखने के लिए उन्हें और ऊँचा होना था। देहरी के किनारे को हाथों से पकड़कर वह पैर के पंजों पर खड़े होने लगे। कबूतरी के पास से गुर्राने की आवाज आने लगी। ये आवाज निकालते हुए उसकी गर्दन फूल जाया करती थी। और वह एक अर्द्धवृत्त की परिधि पर बार बार घूमने लगती थी। इसके बाद उसके पंख खुलने लगते थे। और अचानक एक उछाल के साथ पटपटाने की आवाज करती हुई वह उड़ जाती थी। भैया की आँखें ऊपर चढ़ रही थीं। मेरे हाथ उनके पैरों को पीछे खींचते रहे। लेकिन अंततः उनकी आँखें उस सीमा के ऊपर हो गईं, जिसके बाद पटपटाने की आवाज के साथ वह पूरे कमरे में तेजी से उड़ानें भरने लगी। इसके बाद स्वाभाविक रूप से भइया के साथ मेरा संघर्ष शुरू होकर अपनी परिणति की ओर अग्रसर।

भइया लगातार पीटते जा रहे थे और मेरा चिल्लाना भी वैसा ही लगातार। दोनों क्रियाएँ यथासंभव तेज से तेजतर। उनका पीटना इसलिए तेज कि मैं चुप हो जाऊँ। मेरा चिल्लाना इसलिए तेज कि बुआ सुन सकें। अंततः मैं जीतने लगा। और इसलिए वे हारने लगे। मेरी चीख बढ़ती रही और उनका पीटना कम होता रहा। बुआ भी हमारी ओर आती रहीं।

कमरे के दूसरे छोर पर, हमारे द्वंद्व और देहरी के बीच देखती कबूतरी स्थिर सी बैठ गई थी। दोनों भाई अब भी बुत की तरह जड़ और भइया बुआ की ओर एकटक। बुआ के आने की तेज रफ्तार से मेल खाता एक थप्पड़ भइया के चेहरे पर जड़ गया, जो लगभग पूर्व निर्धारित था।

जिस दौरान, जबकि भइया का हाथ, थप्पड़ की चोट पर जाकर रुक गया था, आँख में कुछ बूँदें उगकर गिर गईं थीं और झुकी हुई आँखें बुआ की ओर उठकर फिर झुक गई थीं, बहुत सी चीजें अपने बदलने की प्रक्रिया में काफी आगे बढ़ चुकी थीं। इसके बाद वहाँ से कबूतरी उड़ गई थी। भैया अपनी उसी उम्र में अब बड़े होने लगे थे। बाकी दोनों भाई उनसे अलग हो गए। और मैं उनके साथ हो गया। फिर हम तीनों भी कबूतरी की तरह कहानी से उड़ गए। द्वंद्व और देहरी के बीच देखती कबूतरी की तरह दर्शक बन गए। कहानी के शेष अंश को अंत तक देखते रहे। आगे, इस प्रकार कहानी ने अपना मूल बदल दिया। और बुआ...

(कहानी के अगले हिस्से के आधार पर पहले ही निकाल लिए गए निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि बुआ भीतर से बेतहाशा दहल गईं थीं, कहानी के अपना मूल बदलने के समय की उनकी आँखों और चेहरे की स्थिति इस तथ्य की पुष्टि भी कर देती है।)

तिलिस्म अब भी था। बल्कि पहले से कहीं अधिक गूढ़ और रहस्यात्मक अवस्थिति में। तिलिस्म की सभी संरचनाएँ अपने ही अंतर्जगत में उलझी हुई त्रस्त रहने लगी थीं। और अब वहाँ कोई षड्यंत्र नहीं दिखता था। घर की सभी गतिविधियाँ बुआ के इर्द गिर्द होने लगीं। घटित होने वाली हर चीज उन्हें ही प्रभावित करने का प्रयास करती। और ऐसा शायद इसलिए भी था, कि वे उनसे प्रभावित नहीं होती थीं अथवा एक सीमा तक, न होने की सफल कोशिश करतीं।

इन सब के आधार पर यह जान लेना एक सहज और स्वाभाविक सी बात थी कि बुआ के संदर्भ में कोई ऐसी चीज जुड़ गई है, जिसका प्रभाव पूरे घर पर है। बरसात के आसमान में बादल की तरह चुप्पी पूरे घर में छा गई थी। और बादलों के बीच से झाँक लेती रौशनी की तरह कभी कभी कुछ आवाजें सुनाई दे जातीं, जो प्रायः बरतनों अथवा दैनिक उपयोग की दूसरी किसी चीज के स्थानांतरण से पैदा हुई होतीं। ऐसी यांत्रिक ध्वनियों का व्याकरण समझ पाना उन्हीं दिनों संभव हुआ था। और इस तरह की विस्तृत चुप्पी के एक बड़े हिस्से में बुआ अकेली होती थीं। माँ और पिता की बातों में, जो कमरे में होती थीं, अब भइया भी शामिल होने लगे। बातें देर देर तक होने लगीं। अकसर शाम के ढल जाने के बाद तक भी।

यह सब उसी शाम तक था जब भइया की लगभग आधे दिन की खोज और कड़ी मेहनत सफल होकर सबके सामने आ गई थी, जिसके बाद यह कहानी पूरी हो गई थी, और जिसकी इक्कीसवीं शाम को बुआ से पूछे बिना ही उनकी शादी कर दी गई थी।

वह भैया थे, उसी उम्र में पूरे बड़े हो चुके, हाथ में प्लास्टिक का थैला लिए हुए बुआ के कमरे से बाहर आए थे। थैला सफेद रंग का था और उस पर लाल अक्षरों की छपाई थी। समय वही था जब उजाला अपनी हर चीज अँधेरे को सौंप रहा था और बुआ तुलसी के पाँच चौरों के पास जड़ दिए जाने की तरह खड़ी हो गई थीं। और पिता, माँ के साथ भइया की ओर बढ़ आए थे। भइया ने उनके हाथों में थैला दे दिया था। थैले को पिता ने जमीन पर उड़ेल दिया था। उड़ेलते ही वे गिरे थे। छोटे छोटे गुटखों के रूप में, जिनके मोड़े दाब डालकर स्थायी कर दिए गए लगते थे। कागज के टुकड़े थे। लिखावट उनके अंदर के पृष्ठों पर थी जो नम हवा और सीलन के प्रभाव में आकर गुटखों के बाह्य पृष्ठ पर भी उग आई थीं।

पिता ने उनमें से एक को उठाया। वे उसे खोलने लगे। और वह एकदम सिकुड़ा, सहमा हुआ सा, मोड़ों के स्थायित्व में अपने विस्तार को संकुचित किए हुए। पिता ने उसके साथ जबरदस्ती की। मोड़ों को उनके स्थायित्व के विरुद्ध खोलने लगे और वह टूटकर चार टुकड़ों में खुल गया। उसे जमीन पर रखा गया, टुकड़ों को जोड़ा गया और फिर पिता उसके अक्षरों और शब्दों को जोड़ जोड़कर पढ़ने लगे।

बुआ के पास से एक हूक उठी। बुआ भागकर उस कमरे की ओर गईं। फिर कई बार वहाँ से तेज तेज आवाजें आईं। आवाजें देर तक आती रहीं, जो पूरे घर पर छाई हुई चुप्पी की तरह ही फैल गईं। आवाजें रोने की थीं। बुआ इसके पहले ऐसे नहीं रोई थीं। और बाद में भी नहीं। पिता गुटखों को जलाने लगे थे। लिखावटें अपने रंग की लाल, नीली और हरी लौ में धीमे धीमे जलने लगी थीं। गुटखों की अवस्था बदलती जा रही थी। वे नीचे की ओर राख बनते जा रहे थे... ऊपर धुएँ के साथ उड़ते जा रहे थे। और बीच में जलते जा रहे थे। बुआ राख, धुएँ और जलने की तर्ज पर रोती रहीं। जलना रुक गया, राख स्थिर हो गई, धुआँ आसमान में गायब हो गया। बुआ का रोना चुप्पी में मिलकर खामोश।

उनकी अवस्था पूरी बदल चुकी थी।

हालाँकि मैं बाकी दो भाइयों के साथ कबूतरी की तरह कहानी से पहले ही उड़ चुका हूँ, लेकिन मुझे शक है कि कबूतरी फिर से कहानी के इस बचे हिस्से में झाँकने जरूर आई होगी। और तब तो उसे निश्चित रूप से देखा गया होगा, जब वह धुआँ उठ रहा था। धुआँ वही, जिसने जेठ की दुपहरी बनकर बुआ की जिंदगी के चिथड़े से सुख का आखिरी कतरा तक निचोड़ लिया था। इसलिए मुझे भी कम से कम एक बार फिर से कहानी में आ जाने की अनुमति मिलनी ही चाहिए। और न मिले तो वादाखिलाफी ही सही, लेकिन अब मैं कहानी में फिर से दाखिल होता हूँ।

मैं दोनों हाथों से खूँटियाँ पकड़ता हूँ। पैर, उन ईंट की जगहों में डालता हूँ और सावधानी से ऊपर आकर पीछे की मुड़ता हूँ। हालाँकि वहाँ से उसके घोसले का आखिरी तिनका भी हटाया जा चुका है, लेकिन आश्चर्य न करें, वह अभी भी वहीं बैठी है। उन्हीं, अपनी सबसे बड़ी आँखों से मुझे देखती हुई। मेरी आँखों से लगातार बूँदें टपकती जा रही हैं, लेकिन वह उसी कौतूहल से मेरी आँखों पर डटी है। लगातार।

अब, जब कि यह सब बीते लगभग दो दशक हो गए हैं, लोग कहते हैं कि बुआ हमेशा मुस्कराती रहती हैं। असल में ऐसा करते हुए उनके होंठ फैल जाया करते थे। और अब वह फैलाव स्थायी हो गया है। इस कहानी के बाद के दिनों में कभी उन्होंने बार बार मुस्कराते रहने की कोशिश की होगी। शायद इसीलिए।