दहेज की बलिवेदी पर शहीद होती रहेंगी दुल्हनें / संतोष श्रीवास्तव

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महात्मा गांधी दहेज प्रथा के घोर विरोधी थे। उनका कहना था कि नारी कोई मवेशी नहीं है जिसके नाम पर रुपयों का लेन देन किया जाए। दहेज प्रथा को वे सभ्य समाज के माथे पर कलंक मानते थे। उनके ये विचार भी उनके जमाने में प्रचलित दहेज प्रथा को रोक नहीं पाए। अब तो यह सामाजीक जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। अब यह नासूर यहाँ से वहाँ फैल रहा है जहाँ इसका नामोनिशान भी नहीं था। मुसलमानों में पहले दहेज प्रथा नहीं थी। अब वहाँ भी इस जहरीले कीड़े ने घुसपैठ मचा दी है। इसी तरह गरीब तबकों में भी यह नहीं के बराबर था लेकिन अब गरीब तबका भी इस समस्या से जूझ रहा है।

दहेज एक स्वस्थ परंपरा के रूप में आरंभ हुआ था जिसमें विवाह के समय लड़की के अभिभावक अपनी बेटी को आड़े वक्त के लिए थोड़ा धन उसे उपहार स्वरूप देते थे जो नितांत उसका होता था। उस धन पर उसके पति या ससुराल वालों का कोई हक न था। उस समय लड़कियों की शिक्षा आवश्यक नहीं समझी जाती थी, अत: लड़की यदि विधवा हो जाए या धन की ऐसी आवयकता पड़ जाए जिसमें कोई उसकी मदद न करे उस वक्त के लिए यह धन दिया जाता था। लेकिन धीरे-धीरे इस धन पर पति और ससुराल वालों ने कब्जा जमाना शुरू कर दिया। जो धन पहले स्वेच्छा से माता-पिता देते थे अब वह मांग के रूप में माता-पिता के लिए गले का कांटा बन गया है। अब उन्हें मजबूर किया जाता है कि वे मांगा गया धन दहेज के रूप में दें अन्यथा उनकी बेटी के संग दुर्व्यवहार किया जाएगा। यह दुर्व्यवहार दहेज प्रताड़ना के रूप में प्रचलित है। इसमें विवाहिता को मारा-पीटा जाता है, गहनेृकपड़ों से मोहताज कर दिया जाता है। तलाक दे दिया जाता है या फिर हत्या कर दी जाती है। दिन प्रतिदिन बढ़ते इस जुल्मोसितम के मद्देनजर सरकार ने दहेज उन्मूलन अधिइनयम 1961 पारित किया जिसमें दहेज लेना व देना दोनों अपराध है। यह अधिनियम भारत में बसी सभी जातियों पर लागू होता है। मुसलमान, पारसी, ईसाई, यहूदी... भारत में रहने वाला हर व्यक्ति इस कानून की परिधि में आता है। कई जगह मुसलमानों में दिए गए दहेज को लामी कहते हैं। मैंगलोर के ईसाई कन्यादान लेते देते हैं। केरल जैसे शत प्रतिशत साक्षर एँ प्रगतिशील राज्य में ईसाई लड़कियों की शादियाँ दहेज के कारण बरसों रूकी रहती हैं। शादी बिना दहेज के हो भी गई तो मायके वालों का जीना दूभर कर दिया जाएगा या तलाक हो जाएगा या तलाक लेने पर मजबूर कर दिया जाएगा।

इस प्रथा को सरकार ने गैर-कानूनी करार दिया है लेकिन कानून, राजनीति से जुड़े लोग तक इस कानून की परवाह नहीं करते। वकील, मंत्री, न्यायाधीश, अफसर, डॉक्टर, इंजीनियर सभी तबके के लोग खुले आम दहेज ले और दे रहे हैं। इसे शान की बात समझा जाने लगा है। अब यह स्टेटस सिंबल बन गया है।

दहेज प्रथा से सबसे अधिक चोट खाता है लड़की का पिता। अपनी ज़िन्दगी भर की कमाई वह दहेज के रूप में गंवा देता है। कभी-कभी उसे भारी कर्ज भी लेना पड़ता है जिसे चुकाते-चुकाते वह दुनिया से चल बसता है। दहेज में मांगी गई रकम की भरपाई यदि वह नहीं कर पाया तो शादी के मंडप से दुल्हा-दुल्हन को विदा कराए बिना वापस लौट जाता है। लड़की के पिता कि पगड़ी सरेआम उछाल दी जाती है। अधिक संवेदनशील होने पर पिता आत्महत्या कर लेता है। मांग का यह सिलसिला सालों साल जारी रहता है। मांगी गई रकम यदि लड़की अपने मायके से नहीं लाती है तो उशका खाना पकाते समय स्टोव फट जाता है, या यह बात उड़ाई जाती है कि लड़की ने स्वयं को आग लगा ली या उसे मिट्टी का तेल डालकर जला दिया जाता है। कितनी अजीब बात है कि खाना पकाते हुए मायके में कभी स्टोव फटने की घटना सुनने में नहीं आई। अल्पधिक मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक एवं आर्थिक प्रताड़ना से तंग आकर कभी-कभी लड़की खुद भी अपने को खत्म कर लेती है। मारना, पीटना, गाली देना, व्यंग्य बाण छोड़ना, खाना-पीना न देना, घर से बाहर निकाल देना आदि प्रताड़नाएँ भी कानून की दृष्टि से अपराध हैं। ऐसे में अपराधी पर भारतीय दंड संहिता कि धारा 498ए तब लागू होती है जब मामला प्रताड़ना तक ही सीमित रहे। लेकिन यदि इन प्रताड़नाओं से तंग आकर और कोई उपाय न देखते हुए असहाय लड़की आत्महत्या कर लेती है या अस्वभाविक स्थितियों में मृत पाई जाती है तो भारतीय दंड संहिता कि धारा 304बी लागू होती है। यदि शादी के सात वर्षों के अंदर और मृत्यु के थोड़ी देर पहले पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा लड़की को दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया था तो यह मृत्यु, दहेज मृत्यु कहलाती है। इसकी एफ.आई.आर. दर्ज कराने पर मामला अदालत में जाते ही आरोपी को अपनी निर्दोषता सिद्ध करनी पड़ती है।

ऐसा कानून तब बनाया गया था जब हजारों लड़कियाँ इसलिए अविवाहिता कि ज़िन्दगी गुजार रही थी क्योंकि उनके माता-पिता के पास दहेज की रकम नहीं थी। अगर शादी हो भी गई तो दहेज लाने का हर तरह से लड़की पर दबाव डाला जाता था। कभी आत्महत्या और कभी हत्या तक बात पहुँच जाती थी। इस बात को कहते हुए लज्जा आती है कि लड़की की हत्या के मामले में सास तथा ननद भी शामिल होती है। लड़की की तरफ से प्रताड़ना या अगर उशकी हत्या कि गई है तो इसकी खबर लगते ही लड़की के माता-पिता, भाई-बहन रिपोर्ट कर देते हैं। दहेज प्रताड़ना सिद्ध होते ही गैर जमानती वारंट निकल जाते हैं और दुनिया के हर कोने में बसा रिश्तेदार अपराध के इस शिकंजे में आ जाता है। सभी को जेल जाना पड़ता है। उनकी नौकरियाँ तक छिनी जाती हैं। मौजूदा हालत ये है कि अधिक संख्या में दहेज प्रताड़ना के केस आने के कारण हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुष जेल में बंद हैं और अनिर्णय की स्थिति में हैं। इन्हें छुटकारा तभी मिलता है जब ये लड़की के माता-पिता द्वारा मांगे गए मुआवजे को भर पाते हैं।

यह तो घटना घट जाने के बाद की कानूनी स्थिति है। इस तरह यह कुप्रथा बंद नहीं की जा सकती क्योंकि दहेज प्रताड़ना के सभी मामलों की न तो रिपोर्ट दर्ज होती है और न प्रताड़ित लड़की ही साथ देती है। अक्सर वह अपनी मृत्यु के पहले का बयान पुलिस को ससुराल वालों के पक्ष में ही देती है कि उसकी गलती से आग लग गई या दुर्घटना घट गई। जब तक अपराधी को पकड़वाने में लड़की खुद मदद नहीं करेंगी, जब तक शादी के मंडप में वह यह कहकर दूल्हे को ठुकरा नहीं देगी कि वह दहेज लेने वाले से शादी नहीं करेगी और जब तक युवा वर्ग सामने नहीं आएगा कि वह बिना दहेज लिए शादी करेगा तब तक यह कुप्रथा जारी रहेगी और दहेज की बलि वेदी पर लड़कियाँ कुर्बान होती रहेंगी।