दादा साहब फाल्के कथा: फिल्म जगत को नमन / जयप्रकाश चौकसे

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दादा साहब फाल्के कथा: फिल्म जगत को नमन
प्रकाशन तिथि : 30 अप्रैल 2021


नासिक से कुछ दूरी पर बसे त्र्यंबकेश्वर में गोविंद धुंडीराज का जन्म 30 अप्रैल 1870 को हुआ था। उनके पिता सरकारी स्कूल में शिक्षक थे। उनका तबादला मुंबई हुआ, जहां फाल्के को जे.जे स्कूल ऑफ आर्ट्स में विविध कलाओं को समझने का अवसर मिला। उन्हें बड़ौदा के महाराजा के वाचनालय का प्रबंधन कार्य मिला। इसी वाचनालय में उन्हें लंदन से प्रकाशित ‘बायस्कोप’ पत्रिका को पढ़ने का अवसर भी मिला। 1839 में स्थिर छायांकन का आविष्कार हो चुका था। इसी के साथ चलती-फिरती तस्वीरों को ले सकने वाले कैमरे के आविष्कार के प्रयास अमेरिका में इस उद्देश्य किए जा रहे थे कि यह उद्योग में सहायक सिद्ध होगा। इंग्लैंड में प्रयास का उद्देश्य था कि रोग के निदान में कैमरा सहायक सिद्ध होगा। फ्रांस में उद्देश्य यह रहा कि यह कथा कहने का भी माध्यम बन सकता है।

गोविंद धुंडीराज फाल्के कथा फिल्मों के जनक रहे। यह खेदजनक है कि फिल्मोद्योग और सरकार ने दादा फाल्के के जन्मस्थान पर कोई स्मारक नहीं बनाया। वहां फिल्म कला सिखाने का स्कूल खोला जा सकता था। कुछ वर्ष बड़ौदा में बिताने के बाद दादा फाल्के मुंबई आए। तीन भागीदारों ने पूंजी लगाकर उन्हें लंदन भेजा। उनके स्थिर छायांकन ने लाभ कमाया। भागीदारों ने भी काम सीखा और फिर उन्हें नौकरी से निकाल दिया। दादा फाल्के ने यह बात अपने परिवार को नहीं बताई। वे प्रतिदिन लंच बॉक्स लेकर घर से निकलते और एक उद्यान में समय बिताते थे। एक दिन अखबार में ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ नामक फिल्म का विज्ञापन पढ़ने के बाद फाल्के ने फिल्म देखी। उन्हें लगा कि इस माध्यम से कृष्ण कथा कही जा सकती है। फाल्के की पत्नी सरस्वती देवी ने गहने बेचकर साधन जुटाए। वे पुनः लंदन गए। मूवी कैमरा और अन्य सामान खरीदकर भारत आए। उन्होंने ‘राजा हरिश्चंद्र’ नामक फिल्म बनाई और 3 मई 1913 को प्रदर्शित की और लाभ अर्जित किया। गोविंद धुंडीराज ने श्री कृष्ण चरित्र पर कुछ फिल्मों का निर्माण किया। उनकी फिल्म ‘कालिया मर्दन’ में मंदाकिनी नामक किशोर वय की उनकी पुत्री ने अभिनय किया।

धुंडीराज गोविंद फाल्के ने फिल्मों के सवाक होने के बाद भी एक मूक चित्र का निर्माण किया। कुछ इसी तरह चार्ली चैपलिन ने भी सवाक फिल्मों के दौर में एक मूक फिल्म का निर्माण किया था। दादा फाल्के ने सरकार द्वारा फिल्म उद्योग की समस्याओं को समझने के लिए एक कमेटी का निर्माण किया था। दादा फाल्के ने सुझाव दिया था कि फिल्म विद्या को पढ़ाने के लिए संस्थान खोले जाने चाहिए। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पुणे में इस तरह के संस्थान का निर्माण किया। इस संस्थान में शबाना आज़मी, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, कुंदन शाह, अजीज मिर्जा और केतन मेहता जैसे कुछ लोगों ने प्रशिक्षण प्राप्त करके अपना योगदान दिया। महामारी के दौर में स्कूल और सिनेमाघर बंद पड़े हैं। बंद हुए सिनेमाघरों के मालिक अपने सेवकों को वेतन दे रहे हैं तथा बिजली विभाग को भी उस ऊर्जा का भुगतान कर रहे हैं, जिसका इस्तेमाल उन्होंने किया ही नहीं। बंद पड़ी व्यवस्था से कोई उम्मीद नहीं। नागरिक पर ही सारा उत्तरदायित्व है।

सिने विद्या के आविष्कार के समय दार्शनिक बर्गमैन ने कहा था कि सिने कैमरा और मानव मस्तिष्क की क्रियाशीलता में कुछ समानता है। मनुष्य की आंख, कैमरे के लेंस की तरह चित्र लेती है। ये बिम्ब मस्तिष्क के स्मृति कक्ष में जमा हो जाते हैं। एक विचार अपनी उर्जा से इन स्थिर चित्रों को चलाएमान कर देता है। मन के परदे पर मस्तिष्क के प्रोजेक्टर से फिल्म निरंतर दिखाई जाती है। हम इसी परदे पर दादा फाल्के की फिल्म ‘राजा हरिशचंद्र’ देखते हैं और स्वयं से वादा करें कि उनकी तरह सत्य बोलेंगे। इसी परदे पर दादा फाल्के के उस नाटक को देखें जो उन्होंने बनारस जाकर लिखा था, परंतु मंचित नहीं किया जा सका। दादा फाल्के के नाटक के अंत में हम देखें कि अंतिम टाइटल है, ‘द एंड पॉजिटिव नॉट।’