दाराशिकोह का दरबार / प्रेमचंद

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शहजादा दाराशिकोह शाहजहाँ के बड़े बेटे थे और बाह्य तथा आन्तरिक गुणों से परिपूर्ण। यद्यपि वे थे तो वली अहद मगर साहिबे किरान सानी1 ने उनकी बुद्धिमत्ता, विशेषता, गुणों और कलात्मकता को देखकर व्यावहारिक रूप में पूरे साम्राज्य की व्यवस्था उन्हीं को सौंप रखी थी। वे अन्य शहजादों की तरह सम्बद्ध प्रान्तों की सूबेदारी पर नियुक्त न किए जाते, वरन् राजधानी में ही उपस्थित रहते और अपने सहयोगियों की सहायता से साम्राज्य का कार्यभार संभालते। खेद का विषय है कि यद्यपि उनको योग्य, अनुभवी, गर्वोन्नत, आज्ञाकारी बनाने के लिए व्यावहारिकता की पाठशाला में शिक्षा दी गई, लेकिन देश की जनता को उनकी ओर से कोई स्मरणीय लाभ नहीं हुआ। इतिहासकारों का कथन है कि यदि औरंगजेब के स्थान पर शहजादा दाराशिकोह को गद्दी मिलती तो हिन्दुस्तान एक बहुत शक्तिशाली संयुक्त साम्राज्य हो जाता। यह कथन हालँाकि किसी सीमा तक एक मानवीय गुण पर आधारित है, क्योंकि मृत्यु के पश्चात् प्रायः लोग मनुष्यों की प्रशंसा किया करते हैं, फिर भी यह देखना बहुत कठिन नहीं है कि इसमें सच्चाई की झलक भी पाई जाती है।

शहजादा दाराशिकोह अकबर का अनुयायी था। वह केवल नाम का ही अकबर द्वितीय नहीं था, उसके विचार भी वैसे ही थे और उन विचारों को व्यावहारिकता में लाने का तरीका भी बिल्कुल मिलता हुआ नहीं, बल्कि उसके विचार अधिक रुचिकर थे और उनको व्यवहार में लाने के तरीके, नियमों और सिद्धान्तों में अधिक रुचि। उसकी गहन चिन्तन दृष्टि ने देख लिया था कि हिन्दुस्तान में स्थायी रूप से साम्राज्य का बना रहना सम्भव नहीं जब तक कि हिन्दुओं और मुसलमानों में मेल-मिलाप और एकता स्थापित नहीं हो जाती। वह भली-भाँति जानता था कि शक्ति से साम्राज्य की जड़ नहीं जमती। साम्राज्य की स्थिरता व नित्यता के लिए यह आवश्यक है कि शासकगण लोकप्रिय सिद्धान्तों और सरल कानूनों से जनता के दिलों में घर कर लें। पत्थर के मजबूत किलों के बदले दिलों में घर करना अधिक महत्त्वपूर्ण है और सेना के बदले जनता की मुहब्बत व जान छिड़कने पर अधिक भरोसा करना आवश्यक है। दाराशिकोह ने इन सिद्धान्तों का व्यवहार करना प्रारम्भ किया था। उसने एक अत्यन्त रोचक तथा सार्थक पुस्तक लिखी थी जिसमें अकाट्य तर्कों से यह सिद्ध किया था कि मुसलमानों की नित्यता हिन्दुओं से एकता व संगठन पर आधारित है। उसकी दृष्टि में बाबा कबीरदास, गुरु नानक जैसे महापुरुषों का बहुत सम्मान था क्योंकि दूसरे पैगम्बर मानव जाति में भेद उत्पन्न करते थे लेकिन ये महानुभाव सर्वधर्म समभाव की शिक्षा देते थे।

1. ‘साहिबे किरान’ तैमूर की उपाधि थी। उसकी छठी पीढ़ी के बाबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना की थी। मुगल बादशाहों में से शाहजहाँ के लिये सर्वप्रथम ‘साहिबे किरान सानी’ का विरुद प्रयुक्त हुआ और उसके पश्चात् शाह शुजा, मुराद बख्श, शाह आलम प्रथम, जहाँदार शाह, फर्रूखसियर, मुहम्मद शाह द्वितीय और अकबर द्वितीय के लिए भी इसी विरुद का प्रयोग किये जाने के प्रमाण मिलते हैं।

इस समय हिन्दू तथा मुसलमान, दोनों जातियाँ दो बच्चों की सी हालत में थीं। एक ने तो कुछ ही दिन पहले दूध छोड़ा था, दूसरा अभी दूध-पीता था। दाराशिकोह का विचार था कि इस दूध-पीते बच्चे पर दूसरे को बलिदान कर देना अहितकर होगा। हालाँकि उसके दूध के दाँत टूट गए हैं, लेकिन अब वे दाँत निकलेंगे जो और भी ज्यादा मजबूत होंगे। दाँत निकलने से पहले ही चने चबवाना अमानवीयता है। क्यों न दोनों बच्चों का साथ-साथ पालन-पोषण हो। अगर एक को अधिक दूध दिया जाये तो दूसरे को पौष्टिक चीजें दी जाएँ।

इस जातीय एकता के लिये दाराशिकोह के मन में भी वही बात आई जो अकबर के मन में आई थी। अर्थात् दोनों जातियों के हृदय से विजेता और विजित, आधिपत्य और अधीनता की भावना समाप्त हो जाए। दोनों खुले हृदय से मिलें, आपस में वैवाहिक सम्बन्ध हों, मेल-जोल बढ़े। न कोई हिन्दू रहे न कोई मुसलमान, बल्कि दोनों भारतभूमि के निवासी हों, दोनों में पृथक्-पृथक् होने का कोई चिह्न शेष न रह जाये। शहजादा इस एकता में अकबर से भी एक इंच आगे था। अकबर ने राजाओं की पुत्रियों से विवाह किया था, राजाओं को उचित प्रतिष्ठा प्रदान की थी, हिन्दुओं पर से उस जजिया का भार हटा दिया था जो उन्हें हिन्दू होने के कारण देना पड़ता था, लेकिन शहजादे का कहना था कि राजकन्याओं से ही विवाह क्यों किया जाए, मुगल परिवार की लड़कियाँ भी राजाओं को क्यों न ब्याह दी जाएँ। उसने भली-भाँति समझ लिया था कि भारतवासी अपनी लड़कियों का विवाह दूसरी जातियों में करने को अपना अपमान तथा तिरस्कार समझते हैं। और जब उनकी लड़कियाँ ली जाती हैं मगर मुसलमानों द्वारा लड़कियाँ दी नहीं जाती तब यह भावना और भी दृढ़ हो जाती है। सच्चा मेलजोल उसी दशा में होगा जब लड़की और लड़के में कोई अन्तर शेष न रह जाये। उसने स्वयं अग्रगामी बनना चाहा था, केवल अवसर की प्रतीक्षा में था।

शहजादा दाराशिकोह केवल समाज सुधारक नहीं था, उसके सिर पर ज्ञान तथा प्रतिष्ठा की पगड़ी भी बँधी हुई थी। उसने भारत की सभी प्रमुख भाषाओं पर अधिकार प्राप्त कर लिया था, विशेषकर संस्कृत से तो उसे प्यार सा हो गया था। घंटों हौज के किनारे बैठा पतंजलि या गौतम का दर्शन पढ़ता, चिन्तन करता और रोता। एशियाई भाषाओं के अतिरिक्त उसने यूरोप की भी कई भाषाओं में निपुणता प्राप्त कर ली थी। लातिनी, यूनानी तथा इबरानी भाषाओं पर उसकी अच्छी पकड़ थी। फ्रांसीसी, अंग्रेजी तथा जर्मन जैसी आधुनिक भाषाएँ, जिनका अभी तक इतना विकास नहीं हुआ था कि उनकी विशेषता व सौन्दर्य दूसरे देशों को आकर्षित करता, उसे प्रभावित नहीं कर सकीं, फिर भी उन भाषाओं से वह नितान्त अनभिज्ञ नहीं था। थोड़ी बहुत बातचीत समझ लेता और टूटे-फूटे शब्दों में अपने विचार भी प्रकट कर लेता था। वह इतने बड़े देश पर शासन करता था और उसके साथ-साथ अपनी व्यक्तिगत शिक्षा के लिये भी ऐसा प्रयास करता था; यह सोचकर आश्चर्य होता है कि उसकी क्षमताएँ कैसी थीं और मस्तिष्क कैसा।

दाराशिकोह ने वह गलती न की जो अकबर ने की थी। अकबर के सलाहकार या तो हिन्दू थे या मुसलमान और इसका स्वाभाविक परिणाम यह था कि दोनों में निरन्तर तू-तू मैं-मैं चला करती थी। यदि अकबर जैसा दृढ़ संकल्पी शासक न होता तो उस वर्ग को बिल्कुल भी वश में नहीं रख सकता था जिसमें मानसिंह, अबुल फजल जैसे मनोमस्तिष्क के लोग थे। स्पष्ट है कि ऐसे सलाहकारों की सम्मति कभी निरर्थक नहीं होगी, हरेक अपनी जाति की ओर ही खींचेगा। इस भय से शहजादे ने अपने सलाहकार अंग्रेजों से लिए थे क्योंकि उनसे अनुचित पक्षपात की आशंका नहीं हो सकती थी। पहले अपने दरबारियों से हरेक बात की पूछताछ करता और तब अपने फिरंगी सलाहकारों से राय लेकर निर्णय करता।

तीसरे पहर का समय है। शहजादा दाराशिकोह का दरबारे खास सजा है। अच्छी और नेक सलाह देने वाले सलाहकार पद के अनुरूप सजी-धजी पोशाकों में उपस्थित हैं। ठीक मध्य में एक जड़ाऊ सिंहासन है जिस पर शहजादे साहब विराजमान हैं। उनके चेहरे से चिन्तामग्न तथा विचारमग्न होना स्पष्ट होता है। हाथ में एक शाही फरमान है जिसे वे रह-रहकर व्याकुल दृष्टि से देखते हैं और फिर कुछ सोचने लगते हैं। सिंहासन से सटी हुई एक रत्नजटित कुर्सी पर हेनरी बोजे बैठा हुआ है, जो शहजादे का मनपसंद सलाहकार है और उसकी सलाह का बड़ा सम्मान किया जाता है। हेनरी बोजे के बराबर में दूसरी जड़ाऊ कुर्सी पर मालपेका बैठा हुआ है। सिंहासन के बाँईं ओर फ्रांसीसी पर्यटक बर्नियर एक कुर्सी पर बैठा हुआ कुछ सोच रहा है और उसके बराबर में एक दूसरी कुर्सी पर पुर्तगाली राजदूत जोजरेट बैठा है। पूरे दरबार में आश्चर्यजनक मौन पसरा हुआ है। चारों ओर के दरवाजे बंद हैं। सलाहकारों की आँखें बार-बार शहजादे की ओर उठती हैं लेकिन उन्हें चुप देखकर फिर नीची हो जाती हैं। थोड़ी देर बाद शहजादे साहब ने कहा, ‘महानुभावो! शायद आप लोगों को कंधार अभियान की तबाही का समाचार मिला हो।’

इस संक्षिप्त से वाक्य ने उपस्थित महानुभावों के मुँह का रंग उड़ा दिया। हरेक व्यक्ति सन्नाटे में आ गया और कई मिनट तक किसी को बोलने का भी साहस न हुआ। अन्ततः हेनरी बोजे ने कहा, ‘यह समाचार सुनकर हमें अत्यधिक शोक हुआ, हम सच्चे हृदय से साम्राज्य के पक्षधर हैं।’

पादरी जोजरेट : ‘मगर समझ में नहीं आता कि असफलता क्यों हुई। गोले उतारने वाले, सेना को व्यवस्थित करने वाले तो प्रायः फिरंगी थे जिनके सिरों पर हजरत मसीह की कृपा थी। उनका असफल रहना समझ में नहीं आता।’

यह कहकर उन्होंने गले से मसीह की छोटी सी तस्वीर निकाली और बड़े सम्मान के साथ चूमी। अब डाक्टर बर्नियर की बारी आई। पहले उन्होंने दर्शकों को उस दृष्टि से देखा जो सत्यनिष्ठ भी थी और सत्यवक्ता भी। इसके पश्चात् बोले, ‘महानुभावो! सच पूछिए तो इस अभियान की सफलता में मुझे पहले से ही सन्देह था। शहजादा मुहीउद्दीन इसके भाग्यविधाता बनने के योग्य नहीं थे। इसलिए नहीं कि उनमें यह योग्यता नहीं है, बल्कि केवल इसलिए कि वे अपने वैमनस्य को दबा नहीं सकते। मुझे विश्वास है कि इस असफलता का कारण राजा जगत सिंह का अलग रहना है।’

इसके पश्चात् कई मिनट तक सन्नाटा रहा।

अन्ततः शहजादे साहब ने चुप्पी को यूँ तोड़ा, ‘महानुभावो! मैं इस वाद-विवाद में नहीं पड़ता कि इस असफलता का वास्तविक कारण क्या है। इस बात की छानबीन करना उचित नहीं है। आप भली प्रकार जानते हैं कि ऐसा करना बुद्धिमानी के प्रतिकूल होगा।’

शहजादे साहब ने ये शब्द रुक-रुककर कहे। प्रतीत होता था कि इस समय ये मन में उभरने वाले विचारों से परेशान हो रहे हैं, जैसे कोई आन्तरिक दुविधा में पड़ा हो। मन पहले कहता हो अच्छा है ऐसा कर लेकिन फिर दिशा बदल जाता हो। अपनी बात समाप्त करके शहजादे ने उपस्थित लोगों को सार्थक दृष्टि से देखा। जो कुछ वाणी न कह सकी थी, आँखों ने कह दिया। पादरी जोजरेट ने शहजादे को उत्तर देते हुए कहा, ‘जहाँपनाह! धृष्टता क्षमा हो। गुलाम की तुच्छ राय तो यह है कि इस असफलता के कारणों पर प्रत्येक दृष्टि से विचार कर लें, भले ही वे कितने ही अरुचिकर क्यों न हों, ताकि भविष्य के लिये उन महत्त्वपूर्ण कारणों की रोकथाम भी कर ली जाये। असफलता हमें गलतियों से परिचित करा देती है, इसलिए मेरी दृष्टि में सफलताओं का इतना महत्त्व नहीं है जितना कि असफलताओं का। निस्संदेह सांसारिक अनुभव का असफलता से बढ़कर और कोई शिक्षक नहीं होता।’

यह कहकर पादरी साहब ने दर्शकों को गर्वोन्नत दृष्टि से देखा मानो उस समय उन्होंने कोई असाधारण काम किया हो। और निस्संदेह शहजादे साहब के वक्तव्य पर आपत्ति करना कोई साधारण काम नहीं था। उनकी सलाह सबको अच्छी लगी। शहजादे साहब ने भी समर्थन करते हुए कहा, ‘पादरी साहब! आप जो कहते हैं बहुत ठीक है। बेशक मैं गलती पर था लेकिन शायद आपने मेरे स्वर से यह तो अवश्य समझ लिया होगा कि मुझे जान बूझकर गलती करनी पड़ती है। इस असफलता के कारणों की खोज में मुझे मन से कोई आपत्ति नहीं। लेकिन ..... लेकिन किसी समय आँख बन्द करना ही ठीक होता है, विशेषकर उस समय जबकि शाही खानदान के एक वरिष्ठ सदस्य की प्रतिष्ठा में अन्तर आता हो। बस, इस समय तो हम केवल इस बात का निर्णय करना चाहते हैं कि क्या सदा के लिए कंधार से हाथ खींच लेना उचित है? इस समय तक कंधार पर दो अभियान हो चुके हैं लेकिन दोनों के दोनों असफल रहे। आपसे छिपा नहीं है कि इन दूर के अभियानों में साम्राज्य को भारी खर्च सहन करना पड़ता है।’

यह सुनते ही अरस्तू के खानदानी सलाहकारों के सिर पुनः लटक गए। निस्संदेह समस्या अत्यन्त जटिल थी और उसे सुलझाने के लिए सोच-विचार करने की भी आवश्यकता थी। पन्द्रह मिनट तक तो सबके सब अपना आपा खोए बैठे रहे, उसके बाद वाद-विवाद इस प्रकार प्रारम्भ हुआ-

हेनरी बोजे : ‘कंधार पर मुगल बादशाहों का अधिकार कब से है?’

डाक्टर बर्नियर : ‘शहंशाह बाबर के शुभ युग से।’

हेनरी बोजे : ‘दीर्घकालीन शासन होने पर भी वहाँ इस खानदान का प्रभुत्व स्थापित नहीं हुआ।’

बर्नियर : ‘इसका कारण यही है कि शहंशाह बाबर के बाद भारत के सम्राट् हिन्दुस्तान के मामलों में इतने व्यस्त रहने लगे कि कंधार पर पर्याप्त ध्यान न दे सके। इसी कारण दोनों देशों के पारस्परिक सम्बन्ध दिन प्रतिदिन कमजोर होने लगे।’

बोजे : ‘संक्षेप में इसका अर्थ यह है कि भारत के सम्राटों को कंधार से उतना फायदा नहीं था कि उसको भी भारत का एक प्रान्त समझकर पर्याप्त ध्यान देते। यदि ऐसा करते तो कंधार कभी सिर न उठा पाता।’

बर्नियर : ‘निस्संदेह, भारत के सम्राटों का अधिकांश समय हिन्दू राजाओं को अधीन करने और प्रान्तों के वैमनस्य और उपद्रव शान्त करने में व्यतीत होता था। हजरत अर्श आशियानी ने हालाँकि एक बार कंधार को एक अभियान भेजना चाहा था लेकिन कुछ न कुछ रुकावटों से तंग आकर इरादा छोड़ दिया। अन्तिम रूप से यह कहना आसान नहीं है कि भारत के सम्राट् कंधार से क्यों बेखबर रहे। सम्भव है कि दूरी के विचार अथवा असफलता के भय अथवा भरे पूरे खजाने की गरीबी के कारण ऐसा न कर सके हों।’

मालपेका : ‘मगर क्या वही चिन्ताएँ इस समय भी सामने नहीं हैं। दक्खिन की उलझनें इतनी बढ़ गई हैं कि अब उनको सुलझाना बहुत कठिन है, और यह कहने की आवश्यकता नहीं कि दक्खिन-विजय कंधार-विजय से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। भारत और कंधार के मध्य जो दूरी थी वह तिलमात्र भी कम नहीं हुई। और अब असफलता का भय पहले से भी अधिक है क्योंकि अब ईरान के शासक भी कंधार की सहायता के लिये कटिबद्ध हैं।’

पादरी जोजरेट : ‘ठीक कहा, मगर अब भारत के सिंहासन पर वह बादशाह नहीं है जिसे दूरी या असफलता का भय अपने संकल्प से डिगा सके। पूर्ववर्ती सम्राटों के काल में भारत का साम्राज्य शैशवावस्था में था। अब उसकी जवानी उठान पर है। उस काल में भारत पर हजरत मसीह की कृपा नहीं हुई थी। अल्लाह ताला साहिबे किरान सानी को दीर्घायु करें, उनके पवित्र मस्तक पर तो मसीह ने अपने हाथों से ऐश्वर्य का मुकुट रख दिया है।’

इस प्रभावशाली तर्क पर शहजादा दाराशिकोह के होठों पर क्षीण सी मुस्कराहट दिखाई देने लगी। दो-तीन मिनट विचारमग्न रहकर डाक्टर बर्नियर बोले, ‘महानुभावो! साम्राज्य की नित्यता के लिए आवश्यक है कि प्रतिपक्षी शक्तियाँ उसका लोहा मानें। दूसरे की दृष्टि में महत्त्व कम हो जाना उसके लिए प्राणघातक जहर है। यदि विपक्षियों के मन में उसका आतंक बैठ जाये तो फिर साम्राज्य अटल है। जब तक कि आन्तरिक बीमारियाँ उनकी तबाही का कारण न हों, दक्खिन की उलझनें बढ़ती ही जाती हैं। मरहठों ने उपद्रव फैलाने पर कमर बाँध ली है। जाठों ने भी कुछ सिर उठाया है। बस, यह समय भारतीय साम्राज्य के लिये बहुत ही नाजुक तथा खतरनाक है। इस नाजुक समय में कंधार से बेखबर होना इन उपद्रवियों को शेर बना देगा। यदि साहिबे किरान सानी ने अली मर्दान खाँ को शरण न दी होती और कंधार के लिये दो अभियान कूच न कर चुके होते तो इस समय उस देश से किनारा कर लेने में तनिक भी हानि नहीं थी। मगर जब संसार पर यह खुल गया है कि भारत के सम्राट् कंधार पर अधिकार जमाना चाहते हैं और इस काम के लिए उद्यत हैं तो फिर इस संकल्प से पीछे हटना साम्राज्य के लिए बहुत भयावह होगा। अब तो भारत का यह कथन होना चाहिए कि लड़ेंगे, मरेंगे मगर कंधार को नहीं छोड़ेंगे। यदि इस समय कंधार से हाथ खींच लिया तो मरहठों में स्वाभाविक रूप से यह विचार उत्पन्न होगा कि यदि इसी भाँति उपद्रव मचाते रहें तो हम भी कंधार की भाँति स्वतंत्र हो जाएँगे, दक्खिन के शाहों को हमारी क्षमता का अन्दाजा हो जाएगा। ईरान-नरेश समझेगा कि भारत में अब दम नहीं रहा तो वह कंधार से होता हुआ काबुल तक चला आएगा। और क्या आश्चर्य कि भारत की ओर भी मुँह कर ले, फिर तो काबुल के अफगान सिर उठाए बिना नहीं मानेंगे। संक्षेप में यह कि इस समय कंधार अभियान से मुँह मोड़ना बहुत भयावह है।’

डाक्टर बर्नियर के उग्र तथा हितकर व्याख्यान ने श्रोताओं को प्रभावित कर दिया। शहजादा साहब तो सन्नाटे में आ गये। उन्होंने अभी तक यह नहीं सोचा था कि कंधार से अलग होने के क्या परिणाम होंगे, क्या-क्या कठिनाइयाँ सामने आएँगी। अब डाक्टर बर्नियर के मुँह से इस दुष्परिणाम का वर्णन सुनकर उनके होश उड़ गये। फिर हेनरी बोजे के इस भाषण ने कुछ ढाढ़स बँधाया, ‘महानुभावो! डाक्टर बर्नियर साहब एक भ्रम में पड़ गये। सम्भवतः उनको ज्ञात नहीं है कि साम्राज्यों को अपना सिक्का जमाने के लिए केवल सेनाओं की ही आवश्यकता नहीं। ऐसे साम्राज्य जिनकी शक्ति हथियारों पर आधारित होती है, लम्बे समय तक नहीं बने रहते। बल्कि आवश्यकता है नैतिक बल की ताकि जनता के मन में उसकी ओर से कोई विपरीत धारणा उत्पन्न न हो। साम्राज्य का हरेक कथन तथा कार्य न्याय व समानता के समर्थन में हो, कोई उसे लालची न समझे। जब तक साम्राज्य इस कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा, न तो उसकी धाक दिलों में बैठेगी और न ही अन्य विपक्षी शक्तियाँ उसका लोहा मानेंगी। मैं मानता हूँ कि साम्राज्य को बहुत साहसी होना चाहिए ताकि जनता के दिल में भी जोश पैदा हो, अपने शासकों से साहस का पाठ पढ़े, लेकिन यह ध्यान रहे कि साहस निरर्थक न हो। निरर्थक साहस और लोभ, दोनों समानार्थी शब्द हैं। मैं एक उदाहरण देकर समझाता हूँ कि सार्थक और निरर्थक साहस से मेरा क्या मंतव्य है। यूरोपीय देश बड़ी तत्परता से जहाज बना रहे हैं। सेनाओं की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है। उन जहाजों पर दूर-दूर के देशों की यात्रा की जाती है, अन्य देशों से व्यापारिक अथवा क्षेत्रीय सम्बन्ध बनाए जाते हैं, नयी बस्तियाँ बसाई जाती हैं। इसे मैं सार्थक साहस कहता हूँ। लेकिन जब किसी कमजोर देश या शक्ति को तलवार के बल पर अधीन करने की कोशिश की जाती है तो मैं उसे निरर्थक साहस कहता हूँ क्योंकि उसके आवरण में अनीति और असमानता छिपी रहती है। अब आप स्वयं निर्णय कर सकते हैं कि भारतीय साम्राज्य का कंधार को अभियान भेजना सार्थक है या निरर्थक। मैं कहता हूँ निरर्थक है, नितान्त निरर्थक। और अत्यन्त खेद का विषय है कि जनता का भी यही विचार है यद्यपि उसकी आवाज आपके कानों तक नहीं पहुँची। अब विचार कीजिए कि यह भावना उत्पन्न हो जाना कितना भयंकर है क्योंकि जब अन्य शक्तियाँ देखेंगी कि भारत विजय या विश्वविजय हेतु सन्नद्ध है तो वे शक्ति-संतुलन के लिए अपनी सेना बढ़ाएँगी और क्या आश्चर्य है कि आपस में संगठित होकर हिन्दुस्तान पर ही चढ़ दौड़ें। जहाँपनाह! डाक्टर बर्नियर साहब ने कहा है कि अब भारत का यह संकल्प होना चाहिए कि लड़ेंगे, मरेंगे पर कंधार नहीं छोड़ेंगे। ये उनके मुँह से निकले हुए शब्द हैं। मैं उनकी अनुमति से कुछ शब्द और बढ़ाता हूँ अर्थात् कंधार को नहीं छोड़ेंगे! नहीं छोड़ेंगे! सारा संसार उलट-पलट हो जाये मगर कंधार को नहीं छोड़ेंगे! सारा संसार इकट्ठा हो जाये, हम मिट्टी में मिल जायें मगर हमसे कंधार नहीं छूटेगा! महानुभावो! ध्यान तो दीजिए यह सलाह है! एक छोटे से प्रान्त के लिये एक शानदार साम्राज्य को खतरे में डालना! मैं यह नहीं कहता कि खतरा सन्निकट है मगर खतरा सिर पर भी होता तो डाक्टर साहब के कथनानुसार हिन्दुस्तान को जान पर खेल जाना चाहिये था। यह सलाह नीतिसम्मत नहीं। नीतिसम्मत सलाह उसे कहते हैं कि साँप मर जाए और लाठी न टूटे। माना कि आपने पुनः कंधार को एक जबर्दस्त अभियान भेजा। मान लीजिए कि मामला लम्बा खिंचा। ईरान का शाह अपनी पूरी शक्ति के साथ आ डटा तो आपको सहायता की आवश्यकता हुई। और इस प्रकार आठ महीने बीत गये। नवें महीने में जब बर्फ पड़ने लगी तो आपको विवश होकर हटना पड़ा और शत्रु ने उस अवसर का दिल खोलकर लाभ उठाया। बताइये अपमान, दुर्दशा और असफलता के अतिरिक्त क्या हाथ लगा? आप कहेंगे कि हम पूरी शक्ति से कंधार पर आक्रमण करेंगे और आठ महीने में ही उसे अधिकार में ले लेंगे। आप पूरी शक्ति से उधर गये, इधर हमारी जरा-जरा सी हलचल की टोह लेने वाले दक्खिनवासी, मरहठे और जाठ मैदान खाली देखकर आ चढ़े। बताइये, उस समय भारत की सत्ता क्या करेगी? क्या किले की दीवारें लड़ेंगी या कलम पकड़ने वाले मुंशी, या सौदा बेचने वाले व्यापारी? जहाँपनाह! मैं डाक्टर साहब से सहमत हूँ कि सत्ता को अपना सिक्का जमाने की कोशिश करनी चाहिये। निस्सन्देह यदि उसकी धाक जम जाये तो बहुत अच्छा है मगर इसके लिए सत्ता को ही दाँव पर लगा देना कौन सी नीति है? यदि देश की वास्तविक शक्ति को आघात पहुँचाए बिना आप अपनी धाक जमा सकते हैं तो शौक से जमाइये, मगर मैं एक बार नहीं सौ बार कहूँगा कि यदि ऐसा करने से देश कमजोर होता हो तो इसका विचार भी मत कीजिए। दो अभियानों का असफल हो जाना स्पष्टतः सिद्ध करता है कि कंधार को जीतना मुँह का निवाला नहीं। लगभग आधी सदी के खूनखराबे के बाद भी दक्खिन के देशों का मुकाबले के लिए तैयार रहना उनकी आन्तरिक शक्ति का ज्वलन्त प्रमाण है। मैं डंके की चोट कहता हूँ कि यह साम्राज्य उन दोनों उद्दण्ड शत्रुओं का सामना एक साथ नहीं कर सकता। कंधार और दक्खिन, दोनों पर विजय पाना कठिन है। इनमें से एक ले लीजिये, कंधार या दक्खिन। मेरी सलाह यह है कि कंधार पर दक्खिन को वरीयता दीजिएगा।

जहाँपनाह! मेरा विचार है कि संसार के प्रत्येक प्रसिद्ध देश का पतन इसी कारण से हुआ कि उसने अपनी चादर से बाहर पाँव फैलाने की कोशिश की। उनके दुस्साहस लोभ-लालच की सीमा तक पहुँच गये। ईरान, यूनान, इटली, रोम सबने सीमा से अधिक पाँव फैलाये। केवल सैन्य शक्ति तथा तलवार के बल पर दूर-दूर के देशों को अधिकार में रखना चाहा, लेकिन परिणाम क्या हुआ। उन्हें अधीन करने के अभिमान में अपनी शक्ति खो बैठे, यहाँ तक कि न केवल अपने अधिकृत क्षेत्रों से ही हाथ धो बैठना पड़ा बल्कि अपने जत्थे को भी खो बैठे। उनका नाम इतिहास से सदा के लिए मिट गया। इस गलती में भारत क्यों पड़े? अन्य देशों से प्रेरणा क्यों न ग्रहण करे? हिन्दुस्तान विस्तृत देश है। यदि हिन्दुस्तान की आबादी पच्चीस वर्षों में दोगुनी भी हो जाए तो सदियों तक तंगी की शिकायत भी सुनने को नहीं मिलेगी। कंधार को अधीनस्थ देशों में सम्मिलित करना युद्ध के खर्चे को अत्यधिक बढ़ाना है क्योंकि वहाँ की पहाड़ी जातियाँ सदा झगड़े और उपद्रव का बोलबाला रखेंगी और उन विद्रोहों को दबाने के लिए एक भारी सेना रखनी पड़ेगी। बस, केवल साम्राज्य को विस्तार देने के विचार से कंधार पर आक्रमण करना या अभियान भेजना मेरी दृष्टि में उचित नहीं है।’

उस समय डाक्टर बर्नियर विचार-प्रवाह में डूबे हुए थे। उन्होंने हेनरी बोजे की आपत्तियों का खण्डन करने के लिए कुछ नोट किया था। उनके चेहरे से तनिक भी उत्साह या उतावलापन नहीं झलक रहा था। लोगों की दृष्टि उन पर लगी हुई थी कि देखें अब ये क्या उत्तर देते हैं। अन्ततः वे कई मिनट के असमंजस के पश्चात् बोले, ‘महानुभावो! मुझे अत्यन्त खेद है कि इस समय मुझे कुछ अरुचिकर सच्चाइयों को प्रकट करना पड़ता है। परन्तु क्योंकि सच्चाइयाँ बहुत कम रुचिकर होती हैं, आशा है कि आप लोग मुझे क्षमा करेंगे। मेरे विद्वान् मित्र हेनरी बोजे साहब ने कहा है कि शासन की स्थापना और स्थायित्व नैतिक गुणों पर आधारित है, न कि प्राकृतिक गुणों पर। जिसका अर्थ यह है कि ऐ भूखण्ड के बादशाह! यह मार-काट किसलिए? यह लड़ाई-झगड़ा किसलिए? यह पैदल व सवार किसलिए? इन्हें नरक में फेंकिए। कुछ ईश्वरवादी, पवित्र, धर्मात्मा बुजुर्गों से कहिए कि जनपथ पर खड़े होकर उपदेश दिया करें, बस बाकी अल्लाह-अल्लाह खैर सल्ला। फिर देखिये कि कैसे झन्नाटे का शासन चलता है। आश्चर्य है कि मिस्टर बोजे साहब व्यापक अनुभव होने पर भी ऐसी बेतुकी गलती में पड़ गये। हम यह नहीं कहते कि जो सिद्धान्त उन्होंने बताया है वह गलत है। लेशमात्र भी नहीं, वह बिल्कुल ठीक है। लेकिन सिद्धान्त का ठीक होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि व्यावहारिक रूप में वह सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता हो। सम्भवतः ये विद्वान् यूटोपिया के लोकतंत्र का सपना देख रहे थे। वे भूल गये थे कि यूटोपिया का अस्तित्व सपने तक ही सीमित है और यहाँ उसकी चर्चा करना निरर्थक है। मैं मिस्टर बोजे से पूछता हूँ, भगवान् ने अच्छाई के साथ बुराई भी पैदा की थी। उनका उत्तर होगा नहीं, भगवान् ने अच्छाई पैदा की। अच्छाई की अनुपस्थिति बुराई है। इस पर भी जिधर देखिए बुराई का ही बोलबाला है। अच्छाई और बुराई की जो पहली लड़ाई अदन के बाग में हुई, उसमें भी मैदान बुराई के ही हाथ रहा। संसार में मशाल लेकर ढूँढ़िये तब भी अच्छे आदमी कठिनाई से इतने मिल सकेंगे जो एक नगर बसा सकें। सारा संसार बुराई से भरा हुआ है। ऐसी दशा में क्योंकर सम्भव है कि कोई शासन बना रह सके जब तक कि वह आतंकियों, उपद्रवियों, विद्रोहियों, अत्याचारियों के दमन के लिए सदा तत्पर न रहे। भगवान् से हमारी प्रार्थना है कि मिस्टर बोजे किसी देश के बादशाह हों और वे अपने सिद्धान्तों का पालन करके सारे संसार को पाठ पढ़ाएँ कि नैतिक गुणों पर शासन कैसे बना रहता है।

जहाँपनाह! कौन नहीं जानता कि मनुष्य जाति के कर्त्तव्य पृथक्-पृथक् हैं। बाप का कर्त्तव्य बेटे के कर्त्तव्य से पृथक् है। बाप का कर्त्तव्य बेटे की शिक्षा-दीक्षा, रोटी-कपड़ा और अन्य आवश्यकताएँ उपलब्ध करना है। और बेटे का कर्त्तव्य है माता-पिता की आज्ञा का पालन करना और उनकी सेवा करना। बादशाह का कर्त्तव्य जनता के कर्त्तव्य से बिल्कुल पृथक् है। प्रजापालन तथा न्यायप्रियता बादशाहों के उच्चतम कर्त्तव्य हैं और आज्ञापालन तथा कृतज्ञता जनता के। यदि पिता अपने बेटे को मारे तो उसे कोई भी बुरा नहीं कह सकता, लेकिन पिता की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल पुत्र का एक कठोर वाक्य कहना भी पाप है। यदि सामान्य व्यक्ति बिना आज्ञा के दूसरे की वस्तुएँ ले ले तो उसे चोरी या लूट कहेंगे, लेकिन अपने अधीन करने के लिए एक बादशाह का दूसरे बादशाह पर आक्रमण करना लेशमात्र भी अनुचित नहीं है। राज्य का विस्तार करना तो बादशाहों का सर्वाधिक मुख्य कर्त्तव्य है क्योंकि प्रजापालन उसका एक विशेष अंग है। राज्य-विस्तार से व्यापार का विकास होता है, उद्योग-धन्धों की प्रगति होती है, प्रजा का राष्ट्रीय उत्साह बढ़ता है, देशभक्ति उत्पन्न होती है, अपनी जाति के कारनामों पर गर्व होता है। क्या ये सब विशेष और लाभदायक परिणाम नहीं हैं? प्राचीन राष्ट्रों के विनाश को राज्य-विस्तार से सम्बद्ध करना बुद्धिमानी के प्रतिकूल है। रोम, ईरान तथा यूनान का नाम इस कारण नहीं मिटा कि उन्होंने अपने अधिकृत क्षेत्र को विस्तार दिया वरन् इस कारण से कि उनमें आलस्य, भीरुता, आरामतलबी, विषय लोलुपता और दुराचरण बढ़ गया। वे प्रकृति के उस कानून से प्रभावित हो गये जिसे प्रकृति का चुनाव कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से समस्त जीवधारियों में वह खींचतान, वह आपाधापी मची हुई है जिसे जीवन-संघर्ष कहें तो असंगत न होगा। इस जीवन-संघर्ष में शक्तिशाली की विजय होती है और जो दुर्बल तथा निर्बल हैं वे हारते हैं और उनका नाम अशुद्ध लेख की भाँति सदा के लिए जीवन-पृष्ठ से मिट जाता है। इस कानून का प्रभाव मनुष्य और पशु, सभी पर एक समान होता है। पशुओं की सैकड़ों प्रजातियाँ विलुप्त हो गईं और सैकड़ों बड़ी-बड़ी जातियाँ गुमनाम, क्योंकि एक विशेष अवधि के पश्चात् प्रत्येक जाति में वे बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जो धन, ऐश्वर्य, बड़प्पन तथा वैभव से सम्बद्ध होती हैं। इसके अतिरिक्त काल की गति प्रगति पर है और जब कोई एक जाति दीर्घकाल तक बनी रहती है तो उसमें सहसा पुरानेपन की गन्ध आने लगती है। और, क्योंकि प्रगतिशीलता एक मानवीय गुण है, यह जाति अपनी परम्पराओं, सभ्यता और संस्कृति में ऐसे परिवर्तन नहीं कर सकती जो वर्तमान काल के अनुकूल हों। अन्ततः नयी-नयी जातियाँ उठ खड़ी होती हैं जिनका उत्साह नया होता है, पुरानी जातियाँ उनका सामना नहीं कर सकतीं। क्या मिस्टर बोजे का आशय यह है कि हिन्दुस्तान इस जीवन-संघर्ष से मुँह फेर ले और डरपोक माना जाय और दूसरे नये देशों का शिकार बने? देखिये, आज योरुप में कैसे उत्साह से जीवन-संघर्ष हो रहा है। कौन सी सत्ता ऐसी है जो अपनी सीमाओं से बाहर पाँव फैलाने के लिये प्राणपन से प्रयास नहीं कर रही है। जहाज बनाए जा रहे हैं, उन पर हजारों मील की भयंकर यात्रा की जा रही है, कौड़ियों की भाँति रुपया फूँका जा रहा है और आदमियों की जानें अत्यल्प मूल्य पर बेची जा रही हैं। क्यों? इसलिए कि नयी बस्तियाँ बनाई जाएँ, देश का व्यापार विस्तृत हो, धन में वृद्धि हो और देश की बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए जगह बने। दो सदियों में फ्रांस की जनसंख्या चौगुनी हो जायेगी। यदि अभी से रोकथाम न की जाए तो उसके लिए क्या जीवनाधार होगा। हम यह नहीं कहते कि इस समय हिन्दुस्तान को तंगी अनुभव हो रही है। नहीं, अभी बहुत से विस्तृत क्षेत्र नितान्त निर्जन हैं लेकिन निकट भविष्य में यहाँ भी आवश्यक रूप से तंगी अनुभव होगी। जनसंख्या का बढ़ना एक प्राकृतिक नियम है, इसे कोई नहीं रोक सकता। हिन्दुस्तान योरोपीय देशों का अनुसरण और भविष्य के लिए अभी से प्रयास क्यों न करे। आगत काल को वर्तमान काल से अधिक मूल्यवान समझा जाता है।’

डाक्टर बर्नियर जिस समय अपने स्थान पर बैठे, सभाजनों ने प्रशंसा की बौछार कर दी। विशेषकर शहजादे साहब को उनका भाषण बहुत अच्छा लगा, तत्काल सिंहासन से उतरकर उनसे हाथ मिलाया। हेनरी बोजे साहब मन ही मन में कटे जा रहे थे। वे समझते थे कि डाक्टर बर्नियर का सम्मान मेरा परोक्ष अपमान है क्योंकि डाक्टर साहब उनसे बहुत कम मतभेद किया करते थे, और अगर करते भी थे तो मुँह की खाते थे। मगर इस समय मैदान उन्हीं के हाथ रहा। कुछ मिनटों के मौन के बाद भी जब हेनरी बोजे साहब अपने स्थान से न हिले तो पादरी जोजरेट ने यूँ मोती बिखराए, ‘महानुभावो! मेरी जानकारी में सभ्य राष्ट्रों की विजयश्री से कभी यह आशय नहीं लिया जाना चाहिये कि अपने देश का ही फायदा सोचें, अपने देश को ही दौलत से मालामाल तथा निहाल करें और केवल अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए अन्य देशों की गरदन पर आज्ञापालन का जुआ रख दें। बल्कि इन विजयों से विजित देशों का लाभ दृष्टि में रहना चाहिए। यूनान की विजयों ने यूनान का केवल यश ही नहीं बढ़ाया बल्कि उसके विजित राष्ट्रों में ज्ञान व सभ्यता, उद्योग व व्यवसाय तथा सत्कलाओं की आधारशिला रखी। सारे यूरोप ने ही नहीं बल्कि सारे संसार ने यूनान के ही सांस्कृतिक विद्यालय में शिक्षा पाई है। यूनान ने संसार को सबसे पहले राजनीति के सिद्धान्त सिखाये। दर्शन और तर्कशास्त्र, पिंगल व रसायनशास्त्र, चिकित्साशास्त्र व संगीतशास्त्र सब इसी यूनानी मस्तिष्क के खिलौने हैं। आज योरुप में यह आँखें चुँधिया देने वाला प्रकाश कहाँ होता यदि यूनान ने अपनी संस्कृति की प्रज्ज्वलित मशाल से उस घटाटोप अंधेरे को दूर न कर दिया होता। यूनान का इतिहास उन बलिदानों से भरा पड़ा है जो यूनानियों ने दूसरों को सभ्य बनाने के लिए किये। इटली की विजयों ने संसार पर वह उपकार किया जिसे वे अनन्त काल तक भूल नहीं सकते। जिसने सभ्य अनीश्वरवादियों को आदमी बनाया, जिसने संसार की मुक्ति का द्वार खोल दिया। महानुभावो! वह कौन सा उपकार है? वह यह है कि इटली ने मसीह के मिशन को सारे संसार में फैलाया, मसीही प्रकाश से असत्य का अंधकार दूर किया। इटली से ही आध्यात्मिक प्यास बुझाने वाले पानी का स्रोत फूटा।

जहाँपनाह! कौन कहता है कि इटली का नामोनिशान मिट गया? कौन कहता है कि इटली की सत्ता विनष्ट हो गई? आज का संसार एक बड़ी इटली है और संसार के समस्त राज्य इटली का नाम रोशन कर रहे हैं। यदि सन् 200 ई. में इटली की बादशाहत उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँची हुई थी तो आज चौथे आकाश तक पहुँची हुई है। हरेक देश की संस्कृति, नैतिकता तथा व्यवहार, सत्ता के सिद्धान्त जो आज संसार में प्रचलित हैं, इटली की टकसाल में ही ढलकर निकले हैं। यहाँ तक कि हम पर यूनान का जो प्रभाव पड़ा है, वह भी इटली के कारण ही है। इटली की भाषा लैटिन ही आज संसार के सभ्य देशों की मान्य भाषा है।

भगवान् ने भारत को एशिया में ज्ञान तथा सभ्यता का खजांची बनाया है और अब कुछ दिनों से उसे अमूल्य मसीही रत्न भी सौंपे जाने लगे हैं। बस, उसका कर्त्तव्य है कि अन्य एशियाई देशों को अपनी सम्पदा से यश प्रदान करे, दिल खोलकर उस खजाने को लुटाए, विशाल हृदयता दिखाये, दानशीलता का प्रमाण दे। यदि इस अकूत सम्पदा से वह स्वयं लाभ उठाएगा तो स्वार्थी कहलाएगा, आने वाली पीढ़ियाँ उस पर कंजूसी का आरोप लगाएँगी। यदि वह संस्कृति का प्याला स्वयं पियेगा और दूसरे देशों को उससे आनन्दित नहीं होने देगा तो उस पर अपना ही पेट भरने का आरोप लगाया जाएगा। बस, उसका कर्त्तव्य है कि कंधार को यह प्याला पिलाए और मन में समझे कि वह इस कार्य को करने के लिए ईश्वर द्वारा नियुक्त किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कंधार यह प्याला सरलता से नहीं पियेगा, मगर इसका कारण यह है कि वह इसके आनन्द को नहीं जानता, इसके लाभों से अनभिज्ञ है। अब भारत का कर्त्तव्य है कि उसे इसका आनन्द दे और इसका लाभ उसके मन में जमा दे।’

पादरी जोजरेट ने अपना भाषण समाप्त किया ही था कि खानदानी शहजादे ने सिंहासन से उतरकर उनसे हाथ मिलाया। हर्ष के आवेग से डाक्टर बर्नियर साहब का मुँह खिल उठा, मगर हेनरी बोजे साहब का चेहरा बुझ गया क्योंकि उन पर स्पष्टतः प्रकट हो गया कि अब मेरी सलाह स्वीकार किए जाने की तनिक भी आशा शेष नहीं रही। पादरी साहब का क्या पूछना! वे तो समझते थे आज जग जीत लिया। और क्यों न समझते! अब तक किसी ने इस दृष्टि से कंधार अभियान पर विचार नहीं किया था। यह पादरी साहब की ही सूझबूझ है।

इस भाषण के पश्चात् कई मिनट तक सन्नाटा रहा। अन्ततः शहजादे साहब ने कहा, ‘महानुभावो! मैं आपका हृदय से आभारी हूँ कि आपने अपने बुद्धिमत्तापूर्ण वक्तव्यों से मुझे प्रफुल्लित किया। जिस समय मैंने इस दीवाने खास में पाँव रखा था, मैं कंधार अभियान का धुर विरोधी था। दो निरन्तर पराजयों ने मेरा साहस तोड़ दिया था और स्वाभाविक रूप से मेरे मन में यह विचार उत्पन्न होता था कि ईश्वर ने इस प्रकार हमारे भ्रामक उत्साह का दण्ड दिया है। मगर डाक्टर बर्नियर और पादरी जोजरेट के प्रभावशाली वक्तव्यों ने मेरे विचारों की कायापलट कर दी और अब मेरा यह निश्चय है कि यथासम्भव कंधार को हाथों से न निकलने दूँगा। मैं कंधार को हिन्दुस्तान का एक प्रान्त बना दूँगा और यह कोई नयी बात नहीं है। संस्कृत किताबें प्रमाण हैं कि प्राचीन काल में जब आर्यों की तूती बोल रही थी, तब कंधार भारत का एक प्रान्त था, दोनों देशों के शासकों में वैवाहिक सम्बन्ध थे। राजा धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी कंधार की राजपुत्री थी। दोनों बहनों में अब तनिक मनोमालिन्य हो गया है, लेकिन मैं उन्हें पुनः गले मिलाऊँगा।’

इस वक्तव्य के पश्चात् सभा विसर्जित हुई।


[मुंशी बिशन सहाय आजाद के सम्पादन में लाहौर से उर्दू मासिक ‘आजाद’ प्रकाशित होता था, जिसके सितम्बर 1908 के अंक में प्रेमचंद की एक कहानी ‘दाराशिकोह का दरबार’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। लम्बे समय तक अनुपलब्ध रहने के पश्चात् यह कहानी सन् 1991 में डा. हुकम चंद नैयर ने खोज निकाली और कलकत्ते के उर्दू मासिक ‘इंशा’ के जनवरी 1995 के अंक में प्रकाशित कराकर प्रेमचंद साहित्य में सम्मिलित कराई।]