दिखते नहीं निशान / गरिमा सक्सेना / तारकेश्वरी 'सुधि'

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आजकल दोहा विधा लेखकों की पसंदीदा विधा बनी हुई है। विभिन्न लेखकों द्वारा उत्कृष्ट श्रेणी के दोहे लिखे जा रहे हैं और पाठकों द्वारा सराहे भी जा रहे हैं। इसी क्रम मे गरिमा सक्सेना जी की ' दिखते नहीं निशान' दोहा विधा पर लिखी गई एक उत्कृष्ट श्रेणी की पुस्तक है, जिसमें लगभग हर विषयों से संबंधित दोहों का समावेश है। 'बेस्ट बुक बड़ीज' द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का मनमोहक आवरण स्वयं गरिमा जी द्वारा ही तैयार किया गया है।

पुस्तक में 'कविता लोक सृजन संस्थान' के संस्थापक अध्यक्ष श्री ओम नीरव जी द्वारा दोहा लेखन की आधारभूत जानकारी दी गई है तथा मेरे दोहा गुरु श्री हरि फैजाबादी जी, जिनके मार्गदर्शन में मैंने दोहे लिखने सीखे और अपना दोहा संग्रह 'सुधियों की देहरी पर' प्रकाशित करवाकर पाठकों के सम्मुख लाई, ने दोहा विकास यात्रा को बेहद उत्तम तरीके से दर्शाया है।

लेखिका ने अपने दोहों में ज्वलंत मुद्दों को उठाया है। कश्मीर के मौजूदा हालात पर बच्चों की चिंता करते हुए वे लिखती हैं-

फिर से घाटी में खिलें, अमन, शांति के फूल।
गोलीबारी बंद हो, खुले सभी स्कूल।।

लेखिका अच्छे दिनों पर तंज कसते हुए कहती हैं -

धूप ओढ़कर दिन कटे,शीत बिछाकर रात ।
अच्छे दिन देकर गए, इतनी सी सौगात।।

अंधकार में प्रकाश, निराशा में आशा की उम्मीद रखते हुए वे लिखती हैं-

 सूरज भी जब ढल गया, फैल गया अंधियार ।
जुगनू ने तब थाम ली, हाथों में तलवार।।

दो कदमों पर रुक गए, थककर जिसके पाँव।
उसे सफलता का कहो, कैसे मिलता गाँव।

जब तक है यह जिंदगी, मन में रखिए आश।
अगर आप ही मर गई, देह बनेगी लाश।

नन्हा-सा दीपक जले, झेले वह अँधियार।
छोटा है पर हार कर, कब डाले हथियार।।

भारतीय संस्कृति का अहम हिस्सा तीज त्योहारों को भी दोहों में शामिल किया है जो लेखिका की भारतीय संस्कृति के प्रति प्रेम भावना को प्रकट करता है।

एक दीप से जल उठे, दीपक कई हजार।
 सिखलाता सहयोग को, दीवाली त्योहार।।

शरद पूर्णिमा रात में, चंद्र नहाई खीर।
अमिय अदृश्य होती सखे, हरती मन की पीर।।

चूम लिफाफे में रखा, राखी, रोली, प्यार ।
यूं बहना ने भ्रात से, जोड़े दिल के तार।।

 रिश्तो में जो लग गई, अहंकार की जंग।
 उस पर होली में चलो, रंगें प्यार का रंग।

कोई भी विधा श्रंगार रस के बिना पूर्ण नहीं मानी जाती है ।लेखिका ने श्रृंगार रस से ओतप्रोत दोहों को अपने संग्रह में स्थान देकर इस संग्रह को परिपूर्ण कर दिया है।

प्रेम कृष्ण की बांसुरी, प्रेम राधिका नाम।
पावन सच्चा प्रेम यों, जैसे चारों धाम।।

जहां प्रेम होता सघन, सच्चा और अनूप।
 एक दूसरे में वहाँ, दिखता प्रिय प्रतिरूप।।

चाहे तुम गीता रटो, या फिर रटो कुरान।
प्रेम बिना तो व्यर्थ है, अर्जित सारा ज्ञान।।

पीर हो गई बांसुरी, दर्द हो गए साज।
 आंसू मेरे बन गए, गीतों की आवाज।।

 यह सुधियों के डाकिए, चले तुम्हारे गांव।
 हो पाए तो भेजना, नेह भरी कुछ छांव।।

लेखिका ने अपने इस संकलन में पारिवारिक रिश्तो को भी बहुत महत्व दिया है। जैसे मां, पिता, नारी, बेटी तथा बच्चों के प्रति अपनी भावनाओं को प्रकट करते हुए उन्होंने उत्कृष्ट दोनों का सर्जन किया है-

बेटी हरसिंगार है, बेटी लाल गुलाब।
बेटी से हैं महकते, दो -दो घर के ख्वाब।।

लक्ष्मी, दुर्गा, शारदा, सब नारी के रूप।
देवी सी गरिमा मिले, नारी जन्म अनूप।।

जिनकी उँगली थम कर, बढ़ते नन्हें पाँव।
पिता नरम-सी धूप भी, पिता घनेरी छाँव।

अंत में इतना ही कहना चाहूंगी कि गरिमा सक्सेना जी बहुत ही उत्तम किस्म के दोहे सृजित कर पाने में सफल हुई हैं। मैं उन्हें उनके सुखद भविष्य के लिए शुभकामनाएं देती हूं व प्रार्थना करती हूं कि उनकी साहित्यिक यात्रा अनवरत रूप से जारी रहे तथा यश अर्जित करते रहें।