दिदिया / मौसमी चन्द्रा

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बड़के भाईसाब नहीं रहे! फोन पर जैसे ही गुड्डन ने ये सुना पछाड़ खा कर गिर गयी।


"हाय रे दिदिया..कैसे रहेगी अब रे!" उसके पति उसे समझाते रहे।पर क्या समझती!दिदिया की बाकी जिंदगी कैसे कटेगी अब..! सोच-सोचकर गुड्डन का दिल बैठने लगा। दो घण्टे का सफर!जब तक दिदिया के पास पहुंचती रो-रोकर लाड़-पुआर हो गयी थी।


बरामदे में ही भाईसाब की लाश पड़ी थी। साल भर से बीमार चल रहे थे।अंदेशा तो था ही नहीं बचेंगे पर अंदेशा और हकीकत दोनों में फर्क होता है। कहने को जीजा, पर कभी बोला नहीं। हमेशा भाईसाब ही बोला सबने। जीजा वाला रिश्ता क्या होता! गुड्डन के जोड़ी के बच्चे थे भाईसाब को! सिर्फ पाँच साल बड़ी थी दिदिया गुड्डन से..पर काली खटखट! कोई रिश्ता मिलता नहीं। बाबा को बेटियों के विवाह से कभी सरोकार रहा नहीं। नेतागिरी का शौक था। पूरी जिंदगी नेताओं की जी-हुजूरी में गुजार दिये। नानी अपने जीते जी सब जिम्मेदारी निपटा कर गंगा नहा लेना चाहती थी, पर दिदिया का रंग उनकी उम्मीदों पर पानी फेर देता। ऐसे में गांव के पंडित जी ने भाईसाब का रिश्ता सुझाया।


"अम्मा कर दो ब्याह.. लड़का दुहाजू है, दो साल हुए पहली को गुजरे..पर बच्चा केवल 1 है। ऊ भी साल-डेढ़ बरस का ! परसौति में ही तो प्राण निकले थे बेचारी के। सुना है इत्तो खून बहो कि... त बस उ बच्चे खातिर ब्याह करे राजी हुए । कोय सगी माँ बन सम्भाल लय मासूम के। ऐसे भी अब दुई बरस के बच्चे को क्या पता सगी और सौतेली का फरक। सरकारी नौकरी है, अपना घर और लड़के के बारे में क्या कहूँ ! बस हीरा समझ लो।"


मन तो नहीं था पर नानी जिम्मेदारी के बोझ से दबी। आनन-फानन में बात हुई। गौर वर्ण के आकर्षक भाईसाब.. सधा हुआ व्यवहार ! दुल्हन बनी दिदिया चली गयी ससुराल। मुंहदिखाई की रस्म के बाद चाची सास ने साल भर के गुड्डू को उसकी गोद में देते हुए कहा-- "लहो कन्यान सम्भालहो इखरा.. आज से तोही ह एक्कर माय!"


दिदिया को पता था ससुराल जाते ही नयी बहु की सारी जिम्मेदारियों के साथ उसे एक अबोध की माँ भी बनना है। पर अपनी किस्मत से यारी करके आयी थी। सोच लिया था कुछ भी हो पर अच्छी बहु भी बनेगी और अच्छी माँ भी। उसने स्नेह से गोद में पड़े बच्चे को निहारा , गोल-गोल आँखें, घुंघराले बाल ,सुंदर मुस्कान देखकर लाड़ उमड़ आया। पुचकारने को जैसे ही हथेली बढ़ाई.. तभी पैरों पर किसी का स्पर्श हुआ! देखा करीब 5 वर्ष की एक बच्ची उसके पैर छू रही थी, अभी वो कुछ कहती उससे पहले ही एक-एक कर दो और बच्चों ने पैर छुए और चाची सास के पास खड़े हो गए।


"दादी! मामू बता रहे थे ये दुल्हन आंटी अब यही रहेगी?" उनमें से जो बच्चा सबसे बड़ा था उसने कहा।


"हॉं यहीं रहेगी" सुनकर दुल्हन बनी दिदिया के गाल गुलाबी हो गए। "और ई अंटी घण्टी काहे बोल रहा बेटा...चाची सास ने नकली गुस्सा दिखाते हुए कहा--ई माँ है अब तुम चारों की। माँ बोल!"


दिदिया को जैसे लकवा मार गया। पूरा शरीर जम गया। "ये..क्या..माँ.. चार बच्चों की माँ..! इतना बड़ा धोखा!" मुँह खुला रह गया। वो कभी बच्चों को देखती कभी चाची सास को!


"चा..ची! मैं इनकी माँ!" बड़ी-बड़ी आँखों से जलधारा बह निकली।


चाची सास निःशब्द सी एक पल उसे देखती रह गयी। उसकी हालत देखकर चाची सास भांप गयी। शायद सच्चाई नहीं बताई गई दुल्हन को। उन्होंने पलटकर जोर से कहा-- "चलो-चलो अब जाओ सब..! दुल्हन को आराम करने दो। बहुत थक गई है।" दस मिनट के अंदर कमरा खाली हो गया था। अब वहां सिर्फ चाची सास थी ..दिदिया थी और गोद में था उसे टुकटुक निहारता एक मासूम....


कमरे में सन्नाटा था। कहने को तीन लोग थे पर एक था गोद में लेटा अबोध! जिसकी हथेली पर किसी के कजलाई आँखों की बूंदे टपक-टपककर गिर रहे थे। दूसरी जिसकी दुनिया अब सूखे रेगिस्तान सी वीरान थी दूर तक रेत ही रेत! तीसरी थी एक बुजुर्ग जो बिना किसी अपराध के सर झुकाए खड़ी थी।


दिदिया के भर्राये गले से स्वर निकला-- "मेरे साथ ऐसा क्यों किया चाची?" "हम कछु न जाने बेटा.. बेशबाश करो! हम तो खुददे चकीत थे कि कैसे ..अब जाय दो बेटा, लालमोहन बहुत लायक है। खुश रखेगा,कौनो कमी नय होगा बेटा.. कानने (रोने) से कौनो फायदा है अब? चुप हो जाओ बेटा"


चाची ने दिदिया को कलेजे में भर लिया। तटबंध टूट पड़ा। गर्म लावे से धधकते आँसू बेलगाम नदी की तरह निकलने लगे। चाची कुछ देर स्नेह से पीठ सहलाती रही।


"अब अराम करो बिटिया इत्ता कानोगी तो कमजोरी आ जायेगी..नुनु को ले जा रहे हम,तुम सुतो अराम से" कहकर उन्होंने बच्चे को लिया और बाहर निकल गयी।


दिदिया उठकर खड़ी हुई। सामने दीवार पर शीशा लटका था। एक नई नवेली दुल्हन! पीली बिहोती साड़ी! लाल-पीले लहठी..जिसपर छोटे-छोटे नगों से उभरा था-- लाली-लालमोहन कितने अरमान से बनवाया था उसने। नानी से जिद करके। गांव से 3 किलोमीटर दूर। ऐसे लहठी तो पन्ना काकी भी बनाती थी पर नाम लिखना नहीं आता था उन्हें। जब लहठी बनकर आई थी तो एक साथ नाम देखकर कैसे लाज से दुहरी हो गयी थी दिदिया। क्या पता था.. जिस नाम को उसने इतने प्यार से लिखवाया है, वो ही... उसने अपने हाथों को उठाकर देखा.लहठी अब गोल-गोल मजबूत लोहे की कड़ियों में बदल गयी। मन किया पटककर चूर कर दें इन बेड़ियों को। फिर सामने आईने में माँ दिखी.. मोतियाबिंद से पनियाई ऑंखें मिचमिचाती हुई! जीवन भर भगोड़े पति का उलाहना उसके हिस्से आया-- "क्या रे क्या कमी है जो पति भागा फिरता है घर से?..कोई भीतरी बात तो होगी ही तभी..या कहीं तुझे छोड़ किसी औऱ को तो!" फिर बेटियों के हिस्से का ताना--"एक बेटी की उम्र निकल रही और उधर दूसरी भी जवान हो रही..ब्याह की सोच अब, माँ के घर तेरा गुजारा हो गया बेटियों का क्या होगा?" माँ की जिंदगी भर बोली न निकली बस जब दिल दुखता तो आँचल का कोना आँखों के किनारे लगा लेती। तब नानी दहाड़ती-- "हम्मे हिय न! बेटी के पाल लेलिये, नतिनवों के लगा देबे किनारे..तों सब काहे मरल जाह चिंता म!" पर नानी की सारी कोशिशें व्यर्थ चली जाती..


जब लड़के वाले दिदिया को देखकर कहते-- "सब ठीक है पर लड़की का रंग थोड़ा साफ होता तो..."


आइने में दिदिया को अपनी गुड्डन दिखी..उसको भी तो ब्याहना है! उसकी पढ़ाई शादी सब नानी के जिम्मे! ऐसे में कैसे लौटे वो उसी देहरी पर! जहां से विदा लेते वक्त माँ की आँखों में पहली बार खुशी देखी थी उसने।


अब चाहे जो भी हो..अपनी शेष जिंदगी इसी कारागार में काटनी है चार बच्चों की माँ बनकर। भगोड़े बाप की करनी का फल उसे भी भोगना था। कारागार तैयार था.. सजा शुरू हो गयी थी..औरत को नदी कहते हैं पर वो नदी भी होती है और समंदर भी। आदमी भले उस नदी की पूजा न करे पर अपने अंदर का कचरा निकालने जरूर आता है जैसे उसके पिता आते थे..और औरत समंदर की तरह सब समेटकर निकाल देती बाहर एक नये जीवन के रूप में! तभी दरवाज़े पर ठक-ठक हुई! दिदिया ने पलटकर देखा! सुनहरे कुर्ते पैजामे में कोई अपनी दूसरी सुहागरात मनाने को तैयार खड़ा था। मन के जख्म जिसपर अभी-अभी उसने मजबूरी के मरहम लगाए थे वापस से उनमें मवाद भर गया। वो धीरे से उनकी तरफ बढ़ी.. चंद कदमों का सफर, तपती हुई गर्म रेत पर नंगे पाँव चलने जैसा था। साड़ी का पल्लू संभालती हुई वो सामने खड़ी हो गयी।


"क्या मिला आपको झूठ बोलकर? तीन बच्चों को छिपाते हुए लाज नही आई आपको? अपनी बेटी से मात्र 8 वर्ष बड़ी लड़की की मांग भरते हाथ नहीं कांपे आपके?"


अभी-अभी दूल्हा बने लालमोहन दुल्हन के अप्रत्याशित प्रश्नों से हड़बड़ा गए।


"क.. क्या कह रही हो? मैंने तो सब बता दिया था पंडित जी को। बल्कि मैं तो सरस्वती के जाने के बाद शादी करना भी नही चाहता था पर बच्चों के लिए..राजी भी इसी शर्त पर हुआ कि कोई दुराव-छिपाव न हो,हर बात बता दी जाए। पंडित जी ने जब तुम्हारे बारे में बताया तो मुझे लगा तुम्हें भी सहारा मिल जाएगा। तभी तैयार हुआ। पर अब ऐसा आरोप मत लगाओ..हाथ जोड़ता हूँ।"


वो निष्प्राण सी खड़ी रही। फाटक खुला और बन्द हुआ तड़ाक! उसका अपराधी खुद को निरपराध साबित कर वापस जा चुका था। रात धीमी गति से बढ़ने लगी। कभी न खत्म होने वाले दुस्स्वप्न की तरह! आधी रात गुजरी थी..तभी! चरर्रर..की आवाज़ से नींद टूटी। अंधेरे में सुनहरा कुर्ता चमका! उसने सहमकर करवट ले ली। बिस्तर कुछ भारी-भारी सा लगा। छिपकली से लिजलिजे हाथ उसकी कमर से लिपटने लगे थे। उसने अपनी हथेली मुंह पर रख ली। उसे अब गांव का भूखा कुत्ता याद आ रहा था--लार टपकाता..सूखी हड्डियां, मांस चबाता हुआ...कटर.. कटर..


वह अदृश्य आतंक से कांप उठी। पिछले कुछ महीनों से एक अनजान चेहरा..जो सपनों में सफेद घोड़े पर सवार होकर आता और उसे अपने साथ बिठाकर ले जाता। उस सपने के टूटने की शुरुआत थी.. राजकुमार अब चेहरा बदल रहा था..अब वो कहीं से भी राजकुमार नहीं था। दिदिया ने गौर से देखा,अंधेरे में कभी वो गांव का आवारा कुत्ता दिखता कभी उसके बगीचे के झाड़ियों में चिपका रंग बदलता गिरगिट! रात खामोश थी। वो बिस्तर पर संवेदनाशून्य सी पड़ी रही। किसी का दबा उन्माद रह-रहकर हिलोरे मारता रहा। लिजलिजे हाथ जहां-तहां फिसलते रहे! सुबह हो गयी। उसने बिखरे कपड़े बटोरे और कमरे से बाहर लगे बरामदे में आ गयी। कोने में चापानल लगा था। दिदिया ने उसका हत्था पकड़ा और चलाने लगी। पानी गिरता पर ज्यों ही वो झुकती... धार बूंदों में बदल जाती।


"काहे परेशान हो रही हो बिटिया! बोल देती न किसी को चला देते ..लाओ हम ही चलाते हैं".. चाची ने स्नेह से कहा और चलाने लगी।


जब आप अंदर से टूटे हो तो प्रेम के दो बोल आँसू बनकर निकल जाते हैं।हुआ भी यहीं.. दिदिया ने अंजुली में पानी भरा पर .. वो वहीं बैठ गयी ,ऑंखों में सावन-भादो उमड़ने लगे।


"ई का कर रही हो बिटिया सुबह-सुबह अपशगुन? नयी बहु आंगन में ऐसे काने अच्छा लगता है क्या? किसी ने देख लिया तो सौ बातें बनाएंगे। लो जल्दी कोचों अंदर.." कहते हुए चाची ने पल्लू लिया और दिदिया के मुंह में दबा दिया। "चलो जाओ कमरे में..चाह भिजवाते हैं हम।" कहकर उन्होंने उसकी पीठ पकड़कर कमरे की तरफ मोड़ दिया।


यहीं विडंबना है.. हम बात करते हैं औरतों के हक उनके अधिकारों की! लेकिन उन्हें खुलकर हँसने की क्या! रोने की भी इजाजत नहीं है। रोने के पहले भी एकांत तलाशा जाता है। जहाँ रोते हुए उसे कोई देखे न!


नियति ,भाग्य या दुर्भाग्य जो भी था अब यहीं था...न सफेद घोड़ा था न कोई उजली किरण! सिर्फ स्याह अंधियारा! और इसी में जिजीविषा तलाशनी थी।


गुड्डन को आज भी याद है जब पहली बार दिदिया ससुराल से आयी थी। गांव की औरतें उसका बक्सा खोल-खोलकर कपड़ा-लत्ता जेवर-गहने देख रही थी और गुड्डन दिदिया की उदास ऑंखें। जिसमें पसरा मौन उसे कचोट रहा था। उसे लगा था दिदिया रोयेगी पर अंदर उसके सपनों की तरह सब सूखा था। सूखी अभिशप्त नदी! फिर नहीं आयी दिदिया! पूरे दो साल हो गए। इस बीच माँ ने पहले भादो में बुलाया भी पर उधर से खबर आई - "बेटी सुख में है जाना नहीं चाहती!" नानी खुश थी एक बेटी की जबाबदेही खतम। शादी हो गयी मतलब बेटी की जिम्मेदारी पूरी। अब निबाह लेगी अपने घर में। माघ का महीना चल रहा था। उस दिन रह-रहकर बारिश हो रही थी। रात में अचानक जोर-जोर से कुंडी बजने लगी। खोला तो बाहर बाशो बाऊ थे हमारे पड़ोसी। "अरी गुड्डन! नानी को भेज अपनी!"


"ऐसी कौन आफत आन पड़ी जो पानी में दौड़े चले आये।सुबह आ जाते।" नानी ने कहा।


"का बोले मैया! काम से ललिया के गांव गया था। मिलने गया तो पीला मलान चेहरा। बीमार थी।कितना भी पूछा, नही बताई नहीं क्या बीमारी हो गयी। जब बाहर निकलने लगा तो नाउन ने धीरे से बताया कि ललिया 4महीने पेट से थी पर बच्चा खराब करवा दिया दामाद जी ने। बहुत दुख लगा सुनकर। हो सके तो लिवा लाओ बिटिया को कुछ दिन।"


उस रात कोई नहीं सोया। सपने में गुड्डन को अपनी दिदिया खलिहान में दिखी..हिरणी जैसे कुलाँचें मारती! चहकती बतियाती..पोखर में छप-छप करती...


अलसुबह नानी बाशो बाऊ के साथ निकल गयी थी अपनी लाली को लाने! माँ टुक-टुक नजरों से जाते देखती रही। कुछ दिन बेटी को कलेजे से सटाकर रखेगी। थोड़ा तो दुःख कम हो जाये बच्ची का। देर रात नानी वापस लौट आयी। माँ दौड़कर दरवाज़े तक गयी शायद उसकी लाडो पीछे-पीछे आ रही हो। पर दूर तक खाली पगडण्डी..


"नय आई छोरी! मेहमान ने बोल दिया ले जाइए कुछ दिन के लिए पर ललिये नय तैयार हुई। बड़ी मनाए ..एतना जिदीयल है छोरी! टस से मस नय हुई। का करते लौट आये समझा बुझा के।" माँ को व्याकुल देखकर नानी ने जवाब दिया।


"त पूछी काहे नही कि बच्चा काहे मार दिए पेट में?" माँ ने तड़पकर कहा।


"पूछे रे नय गछे! बोले अपने आप खराब हो गया पेट में। हमलोग क्या जल्लाद हैं जो मारेंगे? और बच्चा के लिए एतना काहे परेशान हो रहें आपलोग? चार-चार बच्चा है। सब इसी का तो है..अब बोलो का बोलते? ललिया कुछ बोलती तब न। गुम होके बइठल रही। लौट आये,अब ...जाय दो ठीक हो जाएगी.. ध्यान रख रहा सब। खाना-पीना सब पुष्ट और तो और घरे में गाय-गोरु है दूध-दही पूरा से होता है। कपड़ा-जेवर सब भरल-पूरल! पहली का पूरा जेवर सब इसी को मिला है। दिक्कत थोड़े न है कोय! इसी से आने से मना कर दी होगी।ओतना अराम यहां कहाँ! नय मन है त नय सही। रहने दो छोरी को।"


यही तो है औरत के सुख की परिभाषा! खाना-पीना,दूध-दही, जेवर-कपड़े ,नौकर-चाकर... और क्या चाहिए! उसकी चुप्पी को तोड़कर उससे पूछने की जरूरत कहाँ रहती फिर! पति कुछ भी करे लेकिन अगर वो पत्नी को ये भौतिक सुख-सुविधा दे रहा तो पति परमेश्वर हो गया अब तो उसे खुश रहना ही चाहिए। उसके मन को झांकने की जरूरत नही रहती फिर। अच्छा खाओ, अच्छा पहनो और मुस्कुराओ! ये पति परमेश्वर भी विचित्र तरह के परमेश्वर होते हैं जो अपनी लम्बी उम्र के लिए अपनी पत्नियों के व्रत पर आश्रित रहते हैं। भगवान होकर भी तुच्छ सी स्त्री पर आश्रित!


दिदिया नहीं आयी। अब तो गुड्डन के सपनों में भी नहीं आती। गुड्डन ने हर उस जगह पर जाना छोड़ दिया था जहाँ उसे अपनी दिदिया दिखती थी। खेत-खलिहान,नदी-पोखर और आम का बगीचा। घर में गुड्डन के ब्याह की बात होने लगी। पढ़ी-लिखी,तीखे नैन-नख्श और दूधिया रंग! इस बार नानी नाक पर जीभ चढ़ाकर लड़के वालों से बात करती। झट-पट शादी तय हो गयी। गुड्डन को और पढ़ना था..लेकिन उसका विरोध मॉं की मजबूरियाँ और नानी की चटकती हड्डियों के आगे टिक न पाया। पर उसकी क़िस्मत बुलंद निकली। हाँ ये अलग बात है कि गहने के दो सेट नहीं मिले दिदिया की तरह। गाय भी नहीं थी घर में न नौकर-चाकर। लेकिन पति ठीक-ठाक कमा लेते थे और आगे पढ़ने की भी इजाजत मिल गयी। तो मतलब दिदिया जितनी अमीर नहीं फिर भी अच्छा ही घर बार मिल गया। गुड्डन के ब्याह पर उसकी दिदिया आयी थी। एक पल को पहचान में नहीं आयी। चश्मा लग गया था..चेहरा चमक रहा था. गाल फूल गए थे, और क्या महारानी जैसे ठाठ। साथ में चारों बच्चे भी थे। माँ-माँ कहकर चिपके हुए। दिदिया सगी माँ सी न्योछावर थी उनपर।


छोटकी काकी ने दबे-दबे कहा भी- "लाडो! एक कोखजना भी रहना चाहिए।" अब नय काकी! एक बच्चे के गर्भपात के पांच महीने बाद ही दूसरा रह गया था। खराब करवाने वक़्त इतना खून बहने लगा कि...बच्चेदानी निकालनी पड़ी। अब जो है यही चार बच्चे हैं मेरे।" दिदिया ने चश्मे के कोने से उंगली डाली और बूंदों को हवा में उड़ा दिया। गुड्डन ने उन बूंदों से पूछना चाहा क्या वे ऐसे ही आते रहते हैं उसकी दिदिया की आंखों में? या आज आये? शादी की हर विधि में दिदिया ने जमकर हिस्सा लिया। उसकी ज़रदोज़ी साड़ियाँ गाँवभर की औरतों की आँख में चुभती रही। शादी वाले दिन गुड्डन के भाईसाब यानी दिदिया के पति आये। गांव की औरतें गुड्डन को लेकर देवीपूजन को जाने लगी। निकलने समय गुड्डन ने धीरे से पूछा-- "माँ दिदिया कहाँ है? नही दिख रही कब से!" खोज शुरू हुई पर दिदिया तो जैसे लापता..!


सारे कमरे,अंगना, ओसारा सब देख लिया गया। न दिदिया दिखी..! न दामाद बाबू! दोनों लापता! सबके माथे पर चिंता की लकीरें दिखने लगी। ऐसे में नानी ने सबको समझाकर कहा- "अरे तनी रुक जाओ का पता कछु लाने निकल गए हो ,शादी का घर है,का पता मन कर गया होगा किन्ने का। आ ई ललिया त हइये है चटक मटक की शोक़ीन! ले गयी होगी जबरन।"


सबको लगा शायद सही ही कह रही है नानी ,घर की आखिरी शादी है सब चाह रहे थे कुछ छूटे न इही लिए पक्का ललिया भी निकली होगी कुछ खरीदने। अभी माथे की लकीरें हल्की हुई ही थी कि..


दिदिया! गुड्डन की आवाज़ सुनकर सबकी नजर ऊपर उठी। टूटी-फूटी सीढ़ियों पर पैर जमाते दिदिया और उसके पति लालमोहन आहिस्ते-आहिस्ते उतर रहे थे। गुड्डन ने देखा आंगन में सबको देख उसकी दिदिया झेंप सी गयी थी।


जबरदस्ती हंसते हुए बोली--"अरे..क..क्क क्या हुआ! काहे सब यहां जमा हैं?"


"देवीपूजन के लिए निकल रहे थे सब। तुम कहाँ.." अभी गुड्डन बात पूरी करती कि माँ ने जोर से कुहनी दबा दी गुड्डन की।


"जाय दो न कुछ काम होगा..चलो-चलो सब अब निकलते हैं..देरी हो रहा पूजा में..अ..ललिया तनी सुनो.." माँ ने लाली को किनारे ले जाकर धीरे से कुछ कहा फिर.. "चलो अब हमलोग निकलते हैं ललिया आ जायेगी थोड़ी देर में मंदिर।"


मंदिर में गुड्डन पूजा खत्म कर किनारे खड़ी हुई तो दिदिया ने उसकी कमर में अपने हाथों को लपेट लिया दुलार से।


"जाओ छोड़ो हमको। बात नहीं करते तुमसे। इतना देर से आई हम तो पूजा भी कर लिए और तुम न..गुड्डन ने उसे ऊपर से नीचे देखा फिर कहा--"साड़ी बदलने लगी थी! अच्छा तो था उ साड़ी भी। जाओ सिंगारे करते रहे तुम।" गुड्डन ने दिदिया का हाथ कमर से हटा दिया।


"गुस्सा गयी मेरी गुड्डन!"


"और नही तो क्या ! गुस्सा तो आएगा न! एक तो इतने दिनों बाद आयी और उसपर भी दूर-दूर। जब से भाईसाब आये हैं तुम मेरे पास रहती ही नहीं और का कर रही थी ऊपर?" गुड्डन नाराज होकर बोली।


दिदिया की आँखें डबडबा गयी। "तुम्हारे भाईसाब की सेवा!"


"सेवा! मतलब!" "तू अभी नहीं समझेगी। गुड्डन, ऐसे तो ये मेरा बहुत ध्यान रखते हैं पर कभी-कभी..जिद कर देते हैं अजीब से, अपने जरूरतों को लेकर इतने आवेशित हो जाते हैं कि रोकने से भी रुकते नहीं। इतने दिन हो गए हैं हमको आये। समझ रही है न..! त उसी के लिए ऊपर वाली कोठरी में गए थे। हम नहीं चाहते थे कि शादी वाले रोज गुस्सा-गुस्सी हो। ऐसे तेरे भाईसाब अच्छे हैं रे।"


गुड्डन चुप रह गयी। ये कौन सी परिभाषा है 'अच्छे पति' की! 3 बच्चे छुपाकर शादी की, पेट मे बच्चे की हत्या की, गर्भाशय निकलवा दिया और फिर भी अच्छा पति है! पति क्या ऐसे होते हैं! पहली बार उसे शादी के बाद का सोचकर सिहरन हुई। जी चाहा मना कर दे शादी करने से..उसे भी कहीं ऐसा ही अच्छा पति मिल गया तो! पर अब क्या हो सकता था। दिन बीता रात हुई। बारात आयी और विदा हो गयी गुड्डन। विदाई वक़्त फूट-फूटकर रोई थी दिदिया। ऐसा लगा जैसे गुड्डन नहीं उसी की विदाई हो रही। एक दिन रुककर दिदिया भी लौट आयी अपनी दुनिया.. वापस अपने घर! फिर न गुड्डन जा पाई अपनी दिदिया से मिलने न उसकी दिदिया आ पाई। हाल-चाल मिलता रहा माँ से। सीधी चलती जिंदगी अचानक से लड़खड़ा गयी जब एक रोज पता चला भाईसाब किसी जरूरी काम से गांव से बाहर गए थे। ट्रेन प्लेटफॉर्म छोड़ने लगी, चढ़ने की कोशिश में गिर गए। गनीमत थी जान बच गयी पर चोट इतनी गहरी लगी कि ठीक होने में महीनों लग गए। गुड्डन गयी थी देखने...एक पैर पर पट्टियों लगी थी, भाईसाब से ज्यादा दिदिया का चेहरा देखकर उसे रुलाई आ गयी। किसी तरह समझा-बुझाकर लौट आई। पर मन वहीं टँगा रहा अपनी दिदिया के पास। धीरे-धीरे जख्म भर गए। लालमोहन अपनी दिनचर्या पर लौटने लगे। दिदिया के होठों की खोई मुस्कुराहट वापस आने लगी ...की अचानक लालमोहन की तबियत फिर से खराब रहने लगी। पहले गांव के वैद्य-हकीमों का इलाज चला। फिर अंत में बड़े शहर के बड़े अस्पताल! जांच के बाद जो बीमारी आयी उसने मरी हुई दिदिया को एक बार फिर मार दिया! प्रोस्टेट कैंसर!


इस खबर ने पूरे परिवार को हिलाकर रख दिया। गुड्डन..नानी.. और..माँ ! माँ को तो जैसे काठ मार गया! ये दोनों बेटियाँ ही तो थी उनके पूरे जीवन की पूंजी! और मिला ही क्या भगोड़े पति से! मंदिर-मंदिर बस इनदोनो के सलामती के लिए झुकती। अभी-अभी तो उसकी कमर सीधी होनी शुरू हुई थी कि लगा जैसे किसी ने तड़ाक से.. कसकर कमर पर लाठी चला दी हो! सब भागे थे दिदिया के पास। कोई मंदिर के मन्नत का धागा लाया था कोई मजार की मिट्टी। पूजा-पाठ कर्मकांड, सुई-दवा सब शुरू हुए। दवाइयों और परहेजों के पुलन्दे बंधने लगे। दिदिया ने फिर कमर कसी.. दुःखों से दो-दो हाथ जो करने थे। इस बार जिद थी पति को मौत के मुंह से छीन लाने की। सेहत सुधरने लगी सबकी डूबती उम्मीदें चमकने लगी लेकिन दिदिया का काला रंग उसकी किस्मत पर ऐसा चढ़ा बैठा था,कैसे उतरता इतनी आसानी से! नहीं जीत पाई ललिया! फिर हार गई.. एक बार फिर! आधी रात को अचानक शुरू हुआ दर्द सीधे जान लेकर गया। दर्द से बिलबिलाते बेसुध लालमोहन को अस्पताल लेकर दौड़े सब, और लौटे तो उसके पार्थिव शरीर के साथ। दिदिया पत्थर बनी बैठी रही। लोग आते सांत्वना देते और चले जाते। होंठ सिले थे, आँखें सूखी थी। न कुछ बोलती न रोती। सबको चिंता होने लगी। भीतर जमा पीड़, घाव न बन जाये।

"कोय रोलाव कनियाँ के! नय त यहो नय बचतय।" चाची रिरियाकर बोली। किसमें हिम्मत थी! माँ-नानी सब थककर हार गई। अंत में दिदिया को रुलाने का काम दिया गया उसकी गुड्डन को। गुड्डन! जिसे प्यार से उसकी दिदिया कहती थी--"मेरी कलेजा है तू" उसको हंसाने के लिए,खुश करने के लाख जतन करने वाली अपनी दिदिया को, आज गुड्डन को रुलाना था! आह! ईश्वर की कैसी परीक्षा है!


गुड्डन ने आहिस्ते से कोठरी का दरवाजा खोला। दिदिया अभी भी बैठी थी। मुरझाया चेहरा..पपड़ी जमे होंठ! गुड्डन एकटक देखने लगी। उसकी चहकती दिदिया खो गयी थी। नानी उसके जोर से हंसने पर हमेशा डाँटती--ऐसे खी-खी करके हंसे है! लड़की जात! बात सुनाएगी ई ललिया ससुराली में। आहह! कहाँ खो गयी मेरी दिदिया की वो हँसी?


उसने गाल पर ढुलक आये आँसुओं को पोंछा और बैठ गयी अपनी दिदिया के पास। उसके ठंडे पड़े हाथों को लिया और चूमकर बोली- "कब तक ऐसे गूंगी बनी रहोगी। कुछ तो बोल न दिदिया! हमसे नहीं कहेगी। जानते हैं.. दुःख छोटा नहीं..पति का साथ छूटना वो भी भाईसाब जैसे अच्छे इंसान को खोने का दर्द इतनी जल्दी नहीं जाने वाला पर..


"नही थे वे अच्छे इंसान!" अभी गुड्डन अपनी बात पूरी करती कि... मौन टूटा दिदिया का! "क्या कह रही हो दिदिया..! तुम्हीं तो कहती रहती थी हमेशा!अच्छे पति हैं बहुत अच्छे पति!" गुड्डन अवाक थी।


"झूठ कहती थी गुड्डन! बिलख पड़ी-- "भेड़िया था वो..भेड़िया! जब तक जीवित रहा नोंचता रहा। बेटी की उम्र की पत्नी का बलात्कारी था। पंडित जी को उसने ही कहा था बोलने को, केवल एक बच्चे का बाप! मेरी कोख भी उसने ही उजाड़ी जबरन। हम समर्पित होती गयी और वो उस समर्पण का मज़ाक बनाता गया। हर रात एक मौत मरती फिर धीरे-धीरे इसी नर्क में जिंदगी तलाशने लगी। माँ का सोचकर..तुम्हारा सोचकर, सब सहती गयी। पर देखो भगवान का इंसाफ! जिस वासना में पड़कर उस पापी ने हमसे शादी की उसी वासना ने लील लिया उसका जीवन!"


दिदिया के होठों पर व्यंग्य भरी मुस्कुराहट थी, बोलती गयी धाराप्रवाह! उफनती नदी का बांध टूटा था-- "जानती है! उस रात लाख मना किया हमने,नहीं माना..गुस्से में जमा दिया मेरे गाल पर थप्पड़! वासना में पगला गया था,क्या करते हम! वहीं किया जो करती आई थी..समर्पण! ऊँह.. फिर क्या! थोड़ी देर में ही केंचुए की तरह तड़पने लगा। दया आयी थी बहुत पर नहीं रोक सके उस दिन उसको। कितना थप्पड़ खाते रे? और देख! वही हुआ जिसका डर था। समेटकर ले गयी मौत अपने साथ! का रोये उसके मरने पर अब। जीते जी एतना त रोला दिया। नय निकल रहा आंसू गुड्डन। सब सूख गया।"


गुड्डन लिपट गयी अपनी दिदिया से। दोनों के कंधे भींगते रहे। दरवाजा खुला! गुड्डन अपनी दिदिया का हाथ पकड़े बाहर आयी। चारों बिलखते बच्चे अपनी मॉं से चिपक गए।


"हाय! पहाड़ टूट गया ई सब पर! ममता लग रहा। कैसे पलेंगे अब ई बिन माँ-बाप के बच्चे! अनाथ कर दिए भगवान ई लोग को!" चाची बच्चों को देख कलपकर बोली।


"अनाथ नहीं हैं ईसब! हमरे बच्चे हैं चाची..दिदिया शेरनी की तरह चिल्लाई। कोय नय बोलेगा मेरा बच्चा लोग को अनाथ! हमहि इसकी माय हैं आर हमहि इसके बाप हैं आज से। पढ़ाएंगे लिखाएँगे और..चाहे कुँवारी रखेंगे जीवनभर पर दुहाजू से शादी नय करेंगे चाची..न वैसा लड़का से जो मेरी बेटी का हँसी छीन ले!" दिदिया ने बच्चों को कलेजे से चिपका लिया।

सारे क्रिया-कर्म खत्म हुए। विदा लेते वक्त गुड्डन ने पलटकर अपनी दिदिया को देखा! अपने बच्चों को अपने मजबूत आँचल में समेटे उसकी दिदिया के होठों पर बरसों खोई मुस्कान झिलमिला रही थी। उसकी मुस्कान ऐसे ही बनी रहे। आमीन!