दिनकर का आलोचना साहित्य / रवि रंजन

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कश्चिद् वाचं रचयितुमलं श्रोतुमेवाद्मपरस्तां
कल्याणी ते मतिरुभयथा विस्मयं नस्तनोति।
नह्रेकस्मिन्नतिशयवतां सन्निपातो गुणाना-
मेक: सूते कनकमुपलस्तत्परीक्षा क्षमोद्मन्य:।।

(---राजशेखर :'काव्यमीमांसा' में उद्धृत कालिदास-कृत माना गया श्लोक)

('कोई ऐसा होता है, जिसमें कविता रचने की क्षमता होती है। कोई ऐसा भी होता है, जिसमें कविता सुनने की क्षमता होती है। तुम्हारी कल्याणमयी बुद्धि दोनों में समर्थ है, अत हमें चकित कर देती है। एक में इतने सारे गुणों का सन्निपात नहीं हो सकता। एक पत्थर होता है जो सोने को जन्म देता है, तो दूसरा पत्थर होता है जो उस सोने की परीक्षा करने में सक्षम होता है। गरज़ कि तुम ऐसे दुर्लभ पाषाण हो जो कंचन होने के साथ ही कसौटी भी हो।' -नामवर सिंह द्वारा किया गया भावार्थ, आलोचना, जनवरी-मार्च 2008, पृ.126)

“अच्छा गद्य लिखने की कला चीज़ों को उनके सही नाम से पुकारने की कला है।” ---रॉल्फ फॉक्स

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ राष्ट्रीय जागरण की देन के साथ-साथ उसका विकास करने वाले रचनाकार भी हैं। यहाँ जब राष्ट्रीय जागरण की बात कही जा रही है तो उसका तात्पर्य केवल ‘हिन्दी नवजागरण’ के बजाय राजा राममोहन राय से आरंभ होने वाले नवजागरण से है, जिसकी बुनियादी विशेषताओं में से एक है - आलोचनात्मक चेतना का विकास। दिनकर की कृतियों में यह आलोचनात्मक चेतना साँस-साँस में पैबस्त है। उनका रचनाकार संस्कृति के निर्माता की तुलना में व्याख्याता की भूमिका में ज्यादा नजर आता है। सच्ची कविता की परख के लिए रसेल की कसौटी ‘पारदर्शिता’ को महत्त्व देने तथा ‘सच्चाई की पहचान किपानी साफ रहे’ जैसी धारणा को आदर्श घोषित करने वाले दिनकर की ‘वारदोली-विजय’ एवं ‘प्रणभंग’ से लेकर ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ एवं ‘कोयला और कवित्व’ तक की कविताओं को वस्तुत: भारतीय राष्ट्रवाद के ‘क्रिटीक’ के तौर पर पढ़ा जाना चाहिए; क्योंकि भारतीय समाज में जिन वर्गीय शक्तियों ने सदियों से दबे-कुचले हुए लोगों को नजरंदाज करते हुए केवल अपने वर्गीय हितों को ही ‘राष्ट्रीय’ बनाकर पेश करने की साजिश की है, दिनकर की रचनाएँ बहुत दूर तक उन शक्तियों की शिनाख्त करती हैं। इस क्रम में वहाँ ब्रिाटिश उपनिवेशवाद एवं भारतीय सामंतशाही के दो पाटों के बीच पिसती बड़ी आबादी की दुर्दशा के संवेदनात्मक आख्यान की पुनर्रचना की गयी है। जिसके भीतर उस युग की शीतलता और दाह के प्रमाण मौजूद हैं।

दिनकर के कवि-कर्म की परिधि जितनी बड़ी है, उनके साहिेत्यालोचन का फलक भी उतना ही व्यापक है। उनकी लगभग सात आलोचनात्मक कृतियाँ प्रकाशित हैं- ‘मिट्टी की ओर’ (1949), ‘अर्धनारीश्वर’(1952), ‘काव्य की भूमिका’(1958), ‘पन्त, प्रसाद और मैथिलीशरण’(1958), ‘शुद्ध कविता की खोज’(1966), ‘साहिेत्यमुखी’(1968) एवं ‘आधुनिक बोध’। इनके अतिरिक्त ‘संस्कृति के चार अध्याय’, ‘वट-पीपल’, ‘रेती के फूल’, ‘वेणुवन’ एवं उनके सुप्रसिद्ध कविता संग्रह ‘चक्रवाल’की भूमिका में भी साहित्यिक प्रवृत्तियों के विश्लेषण की दृष्टि से प्रचुर सामग्री मौजूद है।

दिनकर की गद्य रचनाओं में भारतीय भाषाओं के कवियों-लेखकों के साथ-साथ विश्व के महान कृतिकारों की क्लासिक कृतियों से चुनी हुई उक्तियाँ भरी पड़ी हैं। संसार के साहित्यिक एवं मिथकीय आख्यायनों के चुने हुए अंशों का इतना सूक्ष्म विवेचन-विश्लेषण तथा सूक्तियों, उपमाओं एवं दृष्टांतों का इतना सटीक इस्तेमाल उनके समकालीनों में से बहुत कम लेखकों की रचनाओं में उपलब्ध है। दूसरे शब्दों में कहें तो साहिेत्य, कला, दर्शन की श्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय विरासत के जीवंत तत्त्वों के विवेकपूर्ण उपयोग से दिनकर की आलोचना में गहरी व्यंजना का ऐसा गुण विकसित हुआ कि हमारे जमाने में भी वह अत्यंत समृद्ध व तरोताजा प्रतीत होती है।

बावजूद इसके, यदि हिन्दी साहिेत्य के अधिकांश अध्येताओं ने दिनकर के आलोचना-कर्म पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया तो इसके मूल में संभवत: वह आम धारणा रही होगी, जिसके तहत माना यह जाता है कि कविता ही कवि का परम वक्तव्य होती है। लारेंस ने तो लगभग चेतावनी की मुद्रा में कहा है कि कलाकार का कभी विश्वास मत करो। एक कवि अपनी कविता से बाहर उसके बारे में यदि कोई बात कहता है तो वह विश्वसनीय भी नहीं होता और स्पृहणीय भी नहीं। इसी प्रकार टी.एस.एलियट ने रचनाकारों की आलोचना को ‘कार्यशाला की आलोचना’ कहा है, जिसमें आलोचना के लिए अपरिहार्य वस्तुनिष्ठता के बजाय आत्मनिष्ठता की संभावना अधिक होती है। लेकिन अनुभव बतलाता है कि हर युग में संसार की तमाम भाषाओं के कुछ बड़े रचनाकार अपनी रचनाओं के साथ-साथ दूसरे रचनाकारों के बारे में भी अलग से कहते-लिखते रहे हैं और उससे कविता को समझने में पाठकों को बहुत हद तक अंतर्दृष्टि मिलती रही है।

कवियों के आलोचनात्मक सरोकार पर विचार करते हुए कवि-आलोचक अरूण कमल ने दो बातों की संभावना व्यक्त की है। एक तो यह कि कवि अपने बारे में, अपनी कविता के बारे में और कविता लिखते-पढ़ते हुए अब तक अर्जित अपने अनुभवों के बारे में लिखेगा। ऐसे में वह जो भी लिखेगा उसके केन्द्र में प्राय: खुद वही होगा और उसकी रचनात्मक समस्याएँ होंगी। इस स्थिति में उसकी आलोचना का महत्त्व भी बहुत कुछ उसकी अपनी कविता के महत्त्व से निर्धारित होता है। वह कवि कैसा है और कवि के रूप में उसका महत्त्व, उसकी समस्याओं या अनुभवों का महत्त्व क्या है- इसी से उसकी आलोचना का महत्त्व भी खुद-ब-खुद निश्चित हो जाता है। इससे भिन्न दूसरी स्थिति वह हो सकती है जब कवि अपने निजी कवि-व्यक्तित्व को थोड़ी देर के लिए ओझल करके या परदे के पीछे छोड़कर तमाम समस्याओं तथा अन्य कवियों के संबंध में बात करे। इस दशा में उसकी आलोचना अपने काव्यानुभवों का लाभ उठाती हुई भी अपनी कवि-चेतना तक सीमित न रहेगी।

गौरतलब है कि बतौर आलोचक, दिनकर उपर्युक्त दूसरी कोटि में आते हैं। उनके आलोचना-कर्म की व्यापकता एवं गहराई को देखते हुए दिनकर-साहित्य के एक मर्मज्ञ विद्वान-आलोचक विजेन्द्र नारायण सिंह की यह धारणा बहुत हद तक अद्र्धसत्य प्रतीत होती हैै कि ‘दिनकर की आलोचना उनकी कविताओं की प्रतिरक्षा में लिखी गयी है।......दिनकर की कविताओं में ज्यों-ज्यों निखार आता गया त्यों-त्यों उनकी आलोचना के मूल्य भी बदलते गये।’ सच तो यह है कि दिनकर का आलोचक उनके कवि की भाँति ही विकसनशील रहा है और वह अपनी एक संपूर्ण विश्वदृष्टि के तहत आलोचनात्मक लेखन में भी मनुष्यता के मूलभत प्रश्नों को समाविष्ट करता चलता है। बावजूद इसके, उनका यह कथन सवा सोलह आने सही है कि “दिनकर हिन्दी के उन आलोचकों में से एक हैं, जिन्होंने हिन्दी काव्यालोचन के स्तर को बहुत ऊँचा उठाया है।” (दिनकर:एक पुनर्मूल्यांकन)

आलोचना के बारे में बहुप्रचलित ‘नीर-क्षीर विवेक’ एवं ‘गुण और दोष का विभाजन’ वाली धारणा का खंडन करते हुए दिनकर लिखते हैं कि “यह उन समस्त कलाकौशलों के विश्लेषण का नाम है जिनके द्वारा कलाकार अपनी कृति में सौन्दर्य तथा अलौकिकता उत्पन्न करता है।......जब कोई रसिक व्यक्ति, आत्मा में निर्भीकता और ह्मदय में विनम्रता लेकर, अपनी सारी कलात्मक प्रवृत्तियों को जाग्रत रखते हुए, दृष्टि को गंभीर तथा रस-ग्राहिता को व्यापक बनाकर किसी कलापूर्ण कृति का रहस्योद्घाटन करने बैठता है तब हम उसे समालोचक के नाम से पुकारते हैं। समालोचना का उद्देश्य साहिेत्य के गांभीर्य की थाह लेना है। सच्चा समालोचक दूसरों की कृति पर सम्मति प्रकट करने की कला का प्रचार नहीं करता, बल्कि, वह यह बतलाता है कि किसी कृति के निर्माण में किन प्रवृत्तियों तथा किस कौशल से काम लिया गया है।” स्पष्ट ही यह मंतव्य नामवर सिंह की ‘बुद्धि की मुक्तावस्था’ वाली धारणा से ज्यादा व्यापक व व्यावहारिक है। वस्तुत: दिनकर के आलोचना की प्रविधि एक हद तक समाजशास्त्रीय है, जिसे एडमंड विल्सन ने 'समाज और राजनीति के अंतर्निहित संदर्भों में साहित्य की व्याख्या' कहा है। इस क्रम में ‘मिट्टी की ओर’ में संकलित ‘इतिहास के दृष्टिकोण से’ शीर्षक पहले निबंध को वस्तुत: बहुत हद तक दिनकर की आलोचना-दृष्टि की कुंजी के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। कारण यह कि अपवाद स्वरूप कुछेक स्थापनाओं को छोड़कर प्राय: वे किसी कवि, कृति या काव्यांदोलन को इतिहास की धारा में रखकर देखने-दिखाने के आग्रही रहे हैं ओर इतिहास का बोध उनकी आलोचना में ठेठ इतिहास से लेकर साहिेत्येतिहास के बोध तक प्रसरित है। याद आते है एडवर्ड डब्लू.सईद, जिन्होंने हमेशा यही कहा है कि ‘साहित्य का अध्ययन मूलत: ऐतिहासिक अनुशासन है।’

काव्यालोचन के प्रसंग में एक स्थान पर दिनकर ने लिखा है कि ‘सुंदरता के बारे में तर्क जितना ही अधिक किया जाएगा, उसकी अनुभूति उतनी ही कम होगी।’ ध्यातव्य है कि उनकी आलोचना में तर्कजाल बुनने के बजाय सर्जनात्मकता पर ज्यादा बल है। नतीजतन वह पाठक से उसी संवेदनशील चौकन्नेपन व सजगता की मांग करती है जिस सजगता से कोई रचना पढ़ी जाती है। यह स्थिति इसलिए भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह आलोचना को रचना से कमतर घोषित करने वाले लोगों के पूर्वग्रह पर चोट करती है। दिनकर खुले दिल से स्वीकार करते हैं कि रचना का अनुसरण करने के बावजूद आलोचना ‘स्वयं स्वतंत्र साहिेत्य बन जाती है-स्वतंत्र इस अर्थ में कि कलाकार के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए वह भी एक प्रकार से जीवन की ही व्याख्या करती है।’ वे उन स्वयंभू आलोचकों में से नहीं हैं जो आचार्य के आसन पर आरूढ़ होकर किसी रचना का मनमाना विशिष्ट (?) पाठ प्रस्तुत करते हुए उसकी अनेकार्थता के उद्घाटक बने फिरते हैं। इसके विपरीत उनकी आलोचना में कृति की सामाजिक अस्मिता एवं सार्थकता तथा उसके रचनात्मक अभिप्राय एवं प्रभाव की पड़ताल करते हुए उसके सौन्दर्य व मर्म को चीन्हने की चाह है। आलोचना को लगभग पटवागीरी का पर्याय एवं जनसंपर्क का माध्यम समझने वाले हमारे जमाने के आंकड़ेबाज आलोचकों को दिनकर की विनम्रता से सबक लेना चाहिए जब वे कहते हैं कि-‘आलोचक बनकर प्रकट होने की न तो मुझे योग्यता है और न हिम्मत।’ उनके निबंधों से गुजरते हुए हमें व्याख्यात्मक अंतर्दृष्टि के साथ-साथ उन अंध-बिंदुओं को खोजने में भी मदद मिलती है, जो उसकी अंतर्दृष्टि के साथ पैदा होती हैं। देरिदा से शब्द उधार लेकर कहें तो दिनकर की आलोचना किसी सूत्रबद्ध निष्कर्ष के बजाय एक ऐसी संवेदनशील पाठकीय ‘कार्रवाई’ है, जिसमें बने-बनाये व आरोपित उत्तरों को पाने की हड़बड़ी से बहुत हद तक बचने की गंभीर चेष्टा दिखाई पड़ती है।

दिनकर के आलोचना-कर्म का मकसद शास्त्रज्ञ आलोचकों की पंक्ति में प्रतिष्ठित होने की महत्त्वाकांक्षा के बजाय सामान्य हिन्दी पाठकों के दिलोदिमाग को झकझोरकर उन्हें जगाना था और आम पाठकों में साहिेत्य के प्रति संवेदनशीलता जाग्रत करने का माध्यम आलोचना ही है। गौरतलब है कि सैद्धान्तिक रूप में आलोचना को साहिेत्य-विवेक पैदा करने का साधन तो सभी मानते हैं पर शास्त्रज्ञ आचार्यों की एक सीमा यह है कि वे कई बार आलोचनात्मक विमर्श को साध्य मानकर तर्कजाल बुनना शुरू कर देते हैं। इनके विपरीत दिनकर ने मानव जीवन एवं कविता के रूप में इस जीवन की पुनर्रचना पर आलोचना को कभी हावी नहीं होने दिया। असल में व्याख्या उन्हें कला में अनुस्यूत मनुष्यता की सामाजिक-ऐतिहासिक यात्रा की करनी थी और ऐसा करते हुए वे रचनाओं में अंतर्निहित सौन्दर्यात्मक संवेदनशीलता को आम पाठकों तक पहुँचाना भी चाहते थे। याद आ सकती है

'सन्देशरासक' के कवि अध्दहमाण की एक काव्योक्ति, जिसमें कहा गया है कि बुध्दिमान तो इस काव्य में मन नहीं लगाएँगे, और अबुध (मूर्ख) का काव्य में प्रवेश कैसा ? अर्थात वह उसमें आनंद कैसे लेगा? हाँ, वस्तुत: मेरा काव्य उन साधारण जनों के लिए है, जो न मूर्ख हैं और न पंडित:

णहु रहइ बुहा कुकु वित्तरेसि
अब हत्तणि अब हइ णहु पबेसि।
जिण मुक्ख ण पंडिय मज्झयार,
तिइ मुरउ पढख्विउ सख्य वार।।

इस संदर्भ में इकबाल की कविता पर दिनकर की टिप्पणी का एक अंश द्रष्टव्य है: “इकबाल के गरजते हुए भावों का साथ उनकी कला ने किस सहजता से दिया है, इसका उदाहरण ‘शिकवये खुदा’ का वह अंश है जहाँ इकबाल इस्लाम की गत गरिमाओं की याद करते हैं और उनका रूदन कला से मिलकर कितना रंगीन हो सकता था, इसका उदाहरण ‘तस्वीरे दर्द’ की ये पंक्तियाँ हैं जिनमें उनके दिल की कचोट इन्द्रधनुष की सतरंगी साड़ी पहनकर सामने आई है।’ दिनकर ने अपने मंतव्य को स्पष्ट करने के लिए इकबाल की कविता ‘बाँगे-दरा’ से एक उदाहरण भी दिया है :

उठाये कुछ वरक़ लाले ने, कुछ नरगिस ने, कुछ गुल ने,
चमन में हर तरफ बिखरी हुई है दास्ताँ मेरी।

टपक अय शमआ , आँसू बन के परवानों की आँखों से,
सरापा-दर्द हूँ, हसरत-भरी है दास्ताँ मेरी।

जलाना है मुझे हर शम-ए-दिल को सोजे-पिनहाँ से,
तेरी तारीक रातों को चिरागाँ करके छोडूँगा।

पिरोना एक ही तसबीह में इन बिखरे दानों को,
जो मुश्किल है तो इस मुश्किल को आसाँ करके छोड़ूँगा।

‘भाषा और भाव, जब दोनों एक दूसरे से मिलने के लिए बेक़रार होते हैं तभी साहिेत्य में ऐसी अनमोल पंक्तियाँ लिखी जाती हैं। कलावादी की राय में यह कला का चमत्कार समझा जाएगा और विषयवादी कहेंगे कि इसमें भाव की तीव्रता का चमत्कार है। परंतु, सच्चाई यह है कि जब तक भाव और भाषा का भली-भाँति मेल नहीं हो जाय, तब तक काव्य में वह चमत्कार नहीं आता जिसे देखकर रसिक मग्न और आलोचक मूक हो जाते हैं।’

दिनकर की ऊपर उद्धृत पंक्तियों से गुजरते हुए साहित्य के किसी भी सह्मदय पाठक को यह एहसास हुए बग़ैर नहीं रह सकता कि कैसे श्रेष्ठ आलोचना केवल आलोचक के मानस व बौद्धिकता की उपज न होकर पूर्वसंरचित भाव की अंतदृष्टिपूर्ण पुन:संरचना हुआ करती है। नाटक के संदर्भ में इसे ही भरतमुनि ने ‘भावानुकीर्तन’ कहा है और इसी बात को अपने ढंग से आगे बढ़ाते हुए आनंदवर्धन कहते हैं :‘सरस्वतयैवेषां घटयति यथेच्छं भगवती।’ मौजूदा संदर्भ में यह सरस्वती या प्रतिभा दिनकर द्वारा परंपरा, सामाजिक संस्थानों एवं सांस्कृतिक अन्तर्धाराओं से प्राप्त ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ व ‘ज्ञानात्मक संवेदन’ के आभ्यन्तीकरण से उत्पन्न वह आलोचकीय विवेक है जो पाठ को केवल ‘डिकंस्ट्रक्ट’ (विखण्डित) करने के बजाय अपनी भावयित्री प्रतिभा एवं ‘पर्युत्सुकीभवन’(कला से प्राप्त बोध) की अपार क्षमता के बल पर ‘रिकंस्ट्रक्ट’ (नवरचित) करने में समर्थ है।

गौरतलब है कि कविता की आलोचना के सैद्धान्तिक पक्ष पर विचार करने के क्रम में दिनकर ‘नई समीक्षा’ के उस आग्रह को पूरी तरह खारिज करने से नहीं हिचकते जिसके तहत यह कहा गया था कि साहिेत्य की परीक्षा ऐतिहासिक प्रक्रिया के आधार पर मत करो, क्योंकि साहिेत्य की जो अपनी विशेषता है वह साहिेत्येतर ज्ञान के द्वारा परखी नहीं जा सकती। रेनेवेलेक की यह बात उनके शब्दों में “बिल्कुल सही नहीं है; क्योंकि साहिेत्य न तो ऐसी कला है जो समय, परिस्थिति ओर समाज के प्रभावों से मुक्त हो और न कवि ही ऐसा प्राणी होता है जिस पर शिक्षा-दीक्षा और संस्कार का असर नहीं पड़ता हो।” बावजूद इसके, उन्हें इस बात का गहरा एहसास है कि- “विचारों और उपदेशों के लिए ही कविता का उपयोग करना एक भयंकर प्रयोग है।......... कविता के भाव,आवेग और विचार तथा उसके चित्रण और निर्माण की समस्त प्रक्रिया को कल्पना के भीतर से उठना चाहिए अथवा यदि उसका आरंभ बाहर से होता हो तब भी उसकी परिणति कल्पना में ही की जानी चाहिए।” प्रसंगवश ज्ञातव्य है कि दिनकर ने काव्यालोचन के संदर्भ में श्रीअरविंद की ‘भविष्य की कविता’ शीर्षक से ‘आर्य’ पत्रिका में प्रकाशित लेख-माला के महत्त्व को विशेष रूप में रेखांकित किया है। वे लिखते हैं: “जहाँ तक मेरी पहुँच है, मैंने काव्यालोचना के इससे अधिक प्रकाशमान रूप और कहीं नहीं देखे और जब मैं यह कहता हूँ, तब उस उक्ति के घेरे में उन अनेक आलोचकों के नाम आ जाते हैं, जो प्राचीन अथवा नवीन आलोचनाओं के निर्माता कहे जाते हैं तथा जिनके विचारों के प्रकाश में कविता नई राह पकड़ती आई है और आलोचना के मानदंडों में परिवर्तन होता आया है। जिस रूप में अरविंद भावी मनुष्य की कल्पना करते हैं, उसी के अनुरूप कल्पना से उन्होंने भावी काव्य को भी मंडित किया है।” संभवत: श्रीअरविंद की उपर्युक्त धारणा के आत्यंतिक प्रभाव के चलते उनके अंग्रेजी में रचित ‘सावित्री’ नामक महाकाव्य की उदात्तता पर रीझकर दिनकर उसे कबीर, रवीन्द्र और इकबाल की कविता से बहुत आगे की कविता के रूप में रेखांकित करते हैं।

प्रो.मैनेजर पाण्डेय ने दिनकर के छायावाद-विषयक मूल्यांकन को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घोषित किया है। दिनकर ने लिखा था: “छायावाद हिंदी में उद्दाम वैयक्तिकता का पहला विस्फोट था। केवल साहित्य की शैली ही नहीं, समग्र जीवन की परंपराओं, रूढ़ियों, शास्त्र निर्धारित मर्यादाओं एवं मनुष्य की चिंता को सीमित करने वाली परिपाटियों के विरुध्द जन्मे हुए एक व्यापक विद्रोह का परिणाम था तथा मनुष्य की दबी हुई स्वतंत्रता की भावना को प्रत्येक दिशा में उभारने वाला था छायावाद। डॉ.पाण्डेय ने दिनकर की आलोचना-दृष्टि एवं उनकी ऐसी बहुत सारी महत्त्वपूर्ण स्थापनाओं पर नये ढंग से सोचने और विचार करने की जरुरत को रेखांकित करते हुए लिखा है कि छायावाद का जो मूल्यांकन दिनकर ने किया है वह सबसे पहले का है। तब न नामवर सिंह की ‘छायावाद’ मौजूद थी और न रामविलास जी की ‘निराला की साहित्य-साधना’ आई थी।.....नामवरजी ने वर्षों बाद यही बात अपनी किताब में घुमा-फिराकर कही है।..... दिनकर छायावाद को समग्र विद्रोह मानते हैं।.... यह जो छायावाद का मूल्यांकन है, न तो नंददुलारे वाजपेयी के यहाँ है और न शान्तिप्रिय द्विवेदी के यहाँ, न नामवर सिंह के यहाँ और न रामविलास शर्मा के यहाँ। उन्होंने छायावाद की केवल इस बात के लिए आलोचना जरूर की कि उसमें जीवन की समस्याओं का सीधा साक्षात्कार नहीं है। यह तो रामचन्द्र शुक्ल भी कहते हैं।

जाहिर है कि दिनकरजी ने 'पन्त, प्रसाद और मैथिलीशरण' पुस्तक में जयशंकर प्रसाद की- 'ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे'- जैसी काव्यपंक्ति के मद्देनज़र छायावाद पर प्राय: लगाये जानेवाले पलायनवाद के आरोप को खारिज करने के क्रम में गालिब को उद्धृत किया है- 'रहिए अब ऐसी जगह चलकर जहाँ कोई न हो।' वस्तुत: दिनकर छायावाद को रहस्यवाद सिध्द करने की कोशिश को छायावाद के साथ एक आलोचकीय ज्यादती के रूप में रेखांकित करते हुए कहते हैं कि छायावाद में इस समाज की समस्याओं से किनाराकशी करने की जो चेतना और चिंता है उसे भारतीय कविता की परंपरा में रखकर देखा जाना चाहिए, जिसमें ग़ालिब पहले हैं, प्रसाद बाद में।

मैनेजर पाण्डेय ‘रीतिकाल’ के संदर्भ में दिनकर के मूल्यांकन में विद्यमान उस तेजस्विता को चीन्हने पर भी बल देते है जिसके तहत घनानंद को अनेक अर्थों में रीतिकाल के बजाय छायावाद का कवि माना गया है। प्रसंगात् डॉ. पाण्डेय लिखते हैं : यह कहने की हिम्मत और तत्परता उस जमाने की किसी आलोचना में नहीं है। अगर आप रामचंद्र शुक्ल के विचारों से मिलाकर देखिए तो शुक्लजी ने छायावाद की कविता से धनानंद की कविता की समानता की चर्चा अनेक स्तरों पर की है।

‘मिट्टी की ओर’ में ‘छायावाद’ को हिन्दी कविता के इतिहास में ‘उद्दाम वैयक्तिकता का प्रथम विस्फोट’ बताने वाले दिनकर ‘चक्रवाल’ की भूमिका में लिखते हैं : ‘यह आन्दोलन विचित्र जादूगर बनकर आया था। जिधर को भी इसने एक मुट्ठी गुलाल फेंक दी, उधर का क्षितिज लाल हो गया।’ दिलचस्प बात यह है कि एक जमाने में छायावाद को पुंसत्वहीन कहने वाले दिनकर के व्यक्तित्त्व में रोमैंटिसिज्म के तत्त्व भरपूर मात्रा में विद्यमान थे। इसमें व्यक्ति की चेतना और उसकी केंद्रीयता खास तौर से उल्लेखनीय है। रोमांटिक व्यक्ति प्राय: विद्रोही भी होता है। परंतु ‘विद्रोह’ क्रांति से भिन्न चीज है। आल्बेयर कामू ने विद्रोह और क्रांति में फर्क करते हुए अपनी पुस्तक ‘द रिबेल’ में स्पष्ट लिखा है।

अपनी विद्रोही प्रवृत्ति की वजह से ही दिनकर परंपरा को महत्त्व देने के बावजूद जीवन एवं लेखन में बहुत दूर तक रूढ़ि के शिकार नहीं हुए। परंपरा और विद्रोह, दोनों को ही जीवन के आवश्यक अंग के रूप में स्वीकार करते हुए उन्होंने लिखा है : ‘परंपरा पानी को गहरा बनाती है, विद्रोह उसे चौड़ाई में ले जाता है। कल जो विद्रोह था, वह आज की परंपरा है। आज जो विद्रोह है, कल वह परंपरा का रूप लेगा।’ संभवत: इसी मानसिकता के चलते उनकी आलोचना में यदि एक ओर समकालीनता की रूढ़ियों से मुक्त होकर परंपरा का मूल्यांकन करने की प्रवृत्ति है तो दूसरी ओर अपने समय की सर्जना के डायलेक्टिक्स को पकड़ने की बेचैनी भी। रवीन्द्रनाथ ठाकुर से लेकर गिरिजाकुमार माथुर तक की कविता पर लिखी उनकी आलोचना इस बात का प्रमाण है। सच तो यह है कि दिनकर के रचना-संसार के बारे में छलांग लगाकर एकतरफा किसी नतीजे पर पहुंचने के बजाय हमें अन्त:साक्ष्य पर ज्यादा भरोसा करना चाहिए। इस संदर्भ में उनकी तीन काव्य-कृतियाँ - 'कोयला और कवित्व','नयी और पुरानी कविताएँ' और 'हारे को हरिनाम' तथा भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा आयोजित पुरस्कार ग्रहण समारोह में उनका वक्तव्य ('संचयिता' में संकलित) बहुत महत्त्वपूर्ण है। अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा था कि 'नयी कविता' का अदृश्य आरंभ ' नील कुसुम' से हुआ था और 'हारे को हरिनाम' में इसे दृश्य रूप में देखा जा सकता है। दिनकर का यह भी कहना था कि कविता उसमें डूब जाने की चीज़ है। वह सीढियाँ नहीं छलांगों की तरह होती है।

मैथिलीशरण गुप्त को पुनरूत्थान के कवि के रूप में स्थापित करने वाले दिनकर को ‘साकेत’ में भारत की राष्ट्रीयता एवं स्वाधीनता संग्राम, दोनों की स्पष्ट पद-चाप सुनाई पड़ती है। इस क्रम में वे मनुष्य के पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में निवृत्ति के बजाय प्रवृत्ति की महिमा प्रतिपादित करते हुए नारी-भावना की अभिव्यक्ति के मद्देनजर कवि-दृष्टि के विकास को रेखांकित करते हैं। उन्होंने अपने इतिहास-विवेक से इस विकास के परिवेशगत कारणों का जिक्र करते हुए राष्ट्रीय जीवन में उन दिनों बह रही ‘पुनरूत्थान की बयार’ का उल्लेख किया है : “पुराने समय में नारियाँ सारे संसार में दबाकर रखी गयी थीं, प्रत्युत् , कहना चाहिए कि भारत में कुछ अधिक ही दबी हुई थीं।.....नारियों की अवज्ञा सिखानेवाली इस कुत्सित परंपरा का मूल भारतवर्ष में पुनरूत्थान ने हिलाया।....भारतवासियों के नारी-विषयक दृष्टिकोण में परिवर्तन कैसे-कैसे आया, यह बात पिछले सौ वर्षों की हिन्दी-कविता के अवलोकन से स्पष्ट समझ में आती है। हमारी पहली प्रतिक्रिया रीति-कालीन कवियों की नारी-भावना के विरूद्ध उठी, क्योंकि उन्होंने नारी को केवल काम- क्रीड़ा का साधन समझा था। और इसमें कोई संदेह नहीं कि नारी को केवल कामिनी मानने से बढ़कर उसकी और कोई निन्दा नहीं हो सकती। उसके बाद दूसरा परिवर्तन यह आया कि साहिेत्य में नारियों के वे रूप चित्रित किये जाने लगे जो सती-साध्वी, वीरा, बलिदानी और त्यागमयी नारियों के रूप थे। इसके साथ ही साहित्य में यह विलाप भी सुनायी पड़ने लगा कि भारत के पुरूषों ने ही नारियों को अशिक्षित, अपाहिज और पंगु बना रखा है। नारी नर की समकक्षिणी एवं उसका पूरक अंश है, यह अनुभूति ठीक उसके बाद ही उत्पन्न होने लगी।.... छायावाद के आते-आते हिन्दी में यह भावना जग पड़ी कि नारी नर से श्रेष्ठ है.....पुनरूत्थान की प्रेरणा से चालित होकर कवि ने उर्मिला को सहानुभूति दी तथा उसके व्यक्तित्व को जगाने एवं सँवारने का प्रयास किया।....उर्मिला को लेकर कवि ने इस प्रश्न पर सोचना आरंभ किया....उसकी पूर्ण परिणति यशोधरा में हुई है।”

कविता में भाव और भाषा के बीच जिस ‘परस्परस्पर्धि समभाव’ की जरूरत पर आचार्य कुंतक ने बल दिया है, उसे कसौटी के तौर पर इस्तेमाल करते हुए जब दिनकर गुप्तजी की ‘द्वापर’ कृति की प्रशंसा एवं प्रसाद की ‘कामायनी’ की कटु आलोचना करते हैं तो आश्चर्य होता है। ‘विचारक कवि पन्त’ निबंध में उन्होंने लिखा है : “भाषा की शक्ति वहीं प्रशंसनीय नहीं होती जहाँ सब कुछ सुस्पष्टता के साथ वर्णित हो जाता है। भाषा जब अरूप चिंतन को लिबास पहनाने में पसीने-पसीने होने लगती है, उसका सौन्दर्य वास्तव में वहीं देखते बनता है।” सवाल उठना स्वभाविक है कि कविता में भाव एवं भाषा को लेकर जो स्थिति गुप्तजी एवं पंत के काव्य के प्रसंग में ‘परस्परस्पर्धि’ है, वही ‘कामायनी’ के संदर्भ में स्खलन कैसे है। संभवत: इसकी वजह साहिेत्येतर है। दिनकरजी के ‘कामायनी’ पर लिखे निबन्ध के पीछे छिपी नीयत के मद्देनज़र निरालाजी की आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पर की गयी एक टिप्पणी की बरबस याद आती है : "ऐसे दुर्वासा समालोचक कभी भी किसी कृति-शकुन्तला का कुछ बिगाड़ नहीं सके, अपने शाप से उसे और चमका दिया है।"(चाबुक,पृ,40) इसी प्रकार अपने जमाने की तथाकथित आलोचना में प्रचलित 'किटकिटाइ गरजा अरु धावा......' वाले अंदाज से क्षुब्ध होकर ही संभवत: मुक्तिबोध ने 'एक साहित्यिक की डायरी' में आलोचक को 'साहित्य का दारोगा' कहा होगा। हमारे समय की आलोचना में व्याप्त इस 'दरोगइ' का मखौल उडाती हुई कात्यायनी कहती हैं :

आलोचक ने हुनर बताया
कविता की तरक़ीब सिखाई
खूब लगन से सीखी सबने
रेशम की बारीक कताई
आलोचक ने धौल जमाई
अपनी पारी में कविता की
मैंने ये पंक्तियाँ सुनार्इं :
'हाहाकार मचाकर बंदर
कूद पड़ा लंका के अंदर।'

बावजूद इसके, सच का एक दूसरा पहलू, बकौल डाँ.नंदकिशोर नवल, वह भी है जहाँ 'आलोचना को संकीर्ण ही नहीं, भ्रष्ट बनाने के लिए' कई रचनाकारों में ‘कुछ भी उठा न रखा है।’ “ये रचनाकार चाहते हैं कि संपूर्ण आलोचना का विषय उन्ही को बनाया जाये और वह भी अनालोचनात्मक, यानी प्रसंशात्मक ढंग से।.....रचनाकार तो अपने से बाहर कुछ देखना ही नहीं चाहते।.... वे उस आलोचना को छूते भी नहीं है, जिसमें कहीं उनका ज़िक्र नहीं हुआ है।” (सापेक्ष-50,पृ.353) कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कई रचनाकारों एवं आलोचकों के बीच घटिया साँठ-गाँठ और तनातनी के चलते साहित्यिक परिदृश्य पर स्थिति आज लगातार जटिल से जटिलतर होती चली जा रही है, जिस पर उंगली उठाते हुए नागार्जुन ने अपने सात्विक आक्रोश में विनोद-वृत्ति को घुलाकर बहुत पहले ही लिखा था:

कलाकार ने फिर-फिर सोचा:
अगर कीर्ति का फल चखना है
आलोचक को खुश रखना है।
आलोचक ने फिर-फिर सोचा:
अगर कीर्ति का फल चखना है
कवियों को नाथे रखना है।

जाहिर है कि दिनकरजी को ऐसे आत्यन्तिक लाभ-लोभ के व्याकरण से हमेशा परिचालित चालबाज व 'अरोचकी' आलोचकों से नितान्त भिन्न ही नहीं, बल्कि बहुत हद तक विपरीत एक 'तत्वाभिनिवेशी' आलोचक कहा जा सकता है। यह सही है कि 'कामायनी दोषरहित दूषणसहित' निबंध में वे कई बार पूर्वाग्रह की सीमा लांघकर दुराग्रही दिखाई देते हैं। पर उनके इसी निबंध में अनुस्यूत वह धारणा सिरे से खारिज़ नहीं की जा सकती कि कविता का अंतिम विश्लेषण उसमें प्रयुक्त भाषा का विश्लेषण है; कविता का चरम सौंदर्य उसमें प्रयुक्त भाषा की सफाई का सौंदर्य होता है। ज्ञातव्य है कि फ्लोबेयर ने भी शैली की जिन तीन विशेषताओं का उल्लेख किया है उनमें पहली, दूसरी और तीसरी विशेषतायें हैं - स्पष्टता, स्पष्टता और स्पष्टता। चूँकि 'कामायनी' में प्रसाद की काव्यभाषा कई बार दिनकर को काव्यानुभूति की व्यापकता और गहराई को समुचित और पारदर्शी अभिव्यक्ति प्रदान करने में असमर्थ प्रतीत हुई, इसलिए उन्होंने उसकी भाषा की कटु आलोचना की और पर्याप्त अपयश भी अर्जित किया। किंतु, ध्यातव्य है कि दिनकर के अलावा हिंदी के कई समर्थ कहे जाने वाले आलोचकों को भी ‘कामायनी’ में आए बिंबों की तुलना में इसकी भाषिक संरचना 'मुरझाये हुए रूपकों का कोश'-सा प्रतीत होती रही है।

प्रसंगवश खुद दिनकर द्वारा एक भिन्न सन्दर्भ में दिये गये वक्तव्य से गुजरना दिलचस्प होगा: “पुस्तकें जब प्रकाशित होती हैं, तब आलोचक उनके बखिये उघारते हैं और कवि को यह सुझाया करते हैं कि उसकी रचना में त्रुटियां कहां-कहां पर हैं. मगर आलोचनाओं को देखकर किसी कवि ने अपनी वही पुस्तक फिर से लिखी हो, इसका दृष्टांत मैने नहीं देखा है।” दिनकरजी की ऊपर उद्धृत टिप्पणी से गुज़रते हुए अनायास किन्ही 'महाकवि' नामधारी रीतिकालीन कवि की एक पंक्ति की याद हो आती है :

'सोने को रंग कसौटी लगै पै कसौटी को रंग लगै नहिं सोने।'

बावजूद इसके, छायावाद एवं खास तौर से 'कामायनी' के हर गंभीर अध्येता को 'कामायनी दोषरहित, दूषणसहित' निबंध कम-से-कम एक बार अवश्य पढ़ने का कष्ट उठाना ही चाहिए। वस्तुत: इस निबंध के पूर्वाद्र्ध के साथ-साथ रवीन्द्रनाथ, इक़बाल, श्रीअरविन्द, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त और पंतजी पर दिनकर के आलोचनात्मक निबंध उन्हें राजशेखर कथित सहरुाों के बीच कोई एक 'तत्वाभिनिवेशी' मर्मज्ञ सचेतस्-सह्मदय सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं:

शब्दानां विविनक्ति गुम्फनविधीनामोदते सूक्तिभि:
सान्द्रं लेहि रसामृतं, विचिनुते तात्पर्यमुद्रां च य:।
पुण्यै: सङ्घटते विवेक्तृ-विरहादन्तर्मुखं ताम्यतां
केषामेव कदाचिदेव सुधियां काव्य-श्रमज्ञोजन:।।

('किसी कवि को बड़े पुण्य प्रभाव से काव्यरचना के परिश्रम को समझनेवाला ऐसा विद्वान-आलोचक व्यक्ति प्राप्त होता है, जो शब्दों की रचना-विधि का भली-भाँति विवेचन करता है, सूक्तियों - अनोखी सूझों से आह्लादित होता है, काव्य के सघन रसामृत का पान करता है और रचना के गूढ़ तात्पर्य को ढूँढ़ निकालता है।' - नामवर सिंह द्वारा किया गया भावार्थ, आलोचना, जनवरी-मार्च 2008, पृ.128)

छायावादी कविता की भाषा में निहित वैयक्तिक्ता के अति-संस्कार पर आलोचक दिनकर की टिप्पणी से जाहिर होता है कि वे बहसतलब मुद्दे को दृश्य और भाव में रूपांतरित करने के लिये अद्भुत शब्द-बिंबों को निर्मित करने की कला में दक्ष हैं। ‘मिट्टी की ओर’ से भिन्न एवं एक हद तक विपरीत दृष्टिकोण अपनाते हुए आलोचना में सृजनशील चित्रात्मक गद्य लिखने के अभ्यस्त दिनकर ‘चक्रवाल’ की भूमिका में श्रेष्ठ कविता के लिए भाव, विचार एवं भाषिक सफाई के बजाय चित्र-भाषा के सार्वभौम महत्त्व की मीमांसा करते हैं : “चित्र कविता का एक मात्र शाश्वत गुण है।.........जिस कविता के भीतर बनने वाले चित्र स्वच्छ या विभिन्न इन्द्रियों से स्पष्ट अनुभूत होने के योग्य होते हैं, वह कविता उतनी ही सुंदर होती है।” अपनी पुस्तक ‘काव्य की भूमिका’ में वे ‘रीतिकाल का नया मूल्यांकन’ प्रस्तुत करते हुए पद्माकर के प्रसंग में अपने मंतव्य को लगभग सैद्धान्तिक जामा पहनाने लगते हैं : ‘कहानी में जो स्थान मनोविज्ञान का है, कविता में वही स्थान चित्र को दिया जाता है और यह ठीक भी है......... जो ज्ञान चित्र में परिवर्तित नहीं किया जा सकता, वह कविता के लिए बोझ बन जाता है।’ पद्माकर उन्हें श्रेष्ठ कवि इसलिए प्रतीत होते हैं, क्योंकि उनके ‘हाथ में जो कलम है वह विचार कम, चित्र अधिक उठाती है।’

पन्तजी की मान्यता थी कि ‘कविता प्राणों का संगीत है और छन्द ह्मतकंपन।’ ‘मिट्टी की ओर’ में छन्द को ‘काव्य-कला का सहायक नहीं बल्कि स्वाभाविक मार्ग’ घोषित करने वाले दिनकर ने आगे चलकर अपने मत को संशोधित करते हुए लिखा : “कविता साहिेत्य का निचोड़ है और छन्दों से बाहर निकलर वह अपने इस पद को और भी ऊँचा कर सकती है।” बावजूद इसके, उनको इस बात का गहरा बोध था कि ""मुक्त छन्द लिखना उतना आसान नहीं है, जितना वह समझा जा रहा है. जो आदमी छन्द के अनुशासन से भी कठिन अनुशासन में चलने में असमर्थ है, उसे मुक्तछन्द की ओर नहीं जाना चाहिए. कहना न होगा कि कालान्तर अपने मत में आवश्यक संशोधन की प्रवृत्ति उनकी विकसनशीलता का ही साक्ष्य है।

एक जमाने में रूपवादियों से मिलती-जुलती शब्दावली में काव्यभाषा की चित्र-व्यंजना को महत्व देने वाले दिनकर ने आगे अपने समय में तथाकथित आधुनिकता के नाम पर कविता में रूपवादी रूझान के संभावित खतरे से रचनाकारों को अगाह किया है: “किंतु अब भारत में वह आधुनिकता प्रवेश कर रही है, जो साहित्य को शैलीप्रधान बनाना चाहती है, जो कवियों को यह समझाना चाहती है कि उनका काम मनुष्य का सुधार करना नहीं, उसे चौंकाना है, उसकी चेतना को शॉक और धक्के देना है। यह आधुनिकता यूरोप में उत्पन्न हुई और वहाँ के बहुत बड़े-बड़े लेखक और कवि उसकी लपेट में आ गये। यूरोप में इसकी उत्पत्ति के कारण थे। किंतु भारत में वे कारण मौजूद नहीं हैं।”

माक्र्स ने आलोचना का आरंभ धर्म की आलोचना से माना है। इस दृष्टि से विचारने पर दिनकर की आलोचना भी मूलगामी आलोचना सिद्ध होती है। महावीर, गौतम बुद्ध, गांधी, रवीन्द्रनाथ, इक़ बाल एवं श्रीअरविंद के दाय कीे पूरे मनोयोग से आलोचना करते हुए उन्होंन मध्यकालीनता, सांप्रदायिकता, वर्णाश्रम धर्म, आस्तिकता, रोमैंटिसिज्म, आधुनिकता एवं भारतीय भाषाओं की समस्या आदि से संबंधित ज्वलंत प्रश्नों पर गंभीरता के साथ विचार किया है। मुक्तिबोध की शब्दावली उधार लेकर कहें तो दिनकर अपनी शक्ति एवं सीमा में हिन्दी आलोचना को ‘सभ्यता-समीक्षा’ की ऊँचाई पर ले जाने वाले पहले समर्थ कवि-आलोचक प्रतीत होते हैं। भक्तिकाव्य के रूप में सर्जनात्मक सांस्कृतिक विस्फोट पर ‘मध्यकालीनता की स्याही पोतकर बिलकुल अनुपयोगी और त्याज्य’ बतलाने वाले लोगों की खबर लेते हुए दिनकर लिखते हैं कि ऐसे लोग ‘भारत का अकल्याण कर रहे हैं।.........उनमें से अनेक कवियों के अनेक स्वप्न जीवित हैं.........उन्हें हमें धरती पर उतारकर साकार बनाना है। इन स्वप्नों में सबसे बड़ा स्वप्न सांप्रदायिक एकता का स्वप्न है।’ इसी प्रकार ‘रोमैंटिसिज्म’ एवं ‘आस्तिकता’ को आधुनिकता के प्रतिकूल घोषित करने वालों से सवालिया अंदाज में जिरह करते हुए दिनकर पूछते हैं कि “रवीन्द्रनाथ आस्तिक भी थे और रोमांटिक भी। तो क्या हम कहेंगे कि वे मध्यकालीन थे? अगर वे मध्यकालीन थे, तो ‘गोरा’ लिखकर उन्होंने यह क्यों बताया कि संस्कार मनुष्य विरासत में नहीं पाता है, उसे वह अपने परिवेश से अर्जित करता है? और सत्यकाम की कथा लिखकर उन्होंने यह क्यों बताया कि सत्य का अधिकारी वह व्यक्ति भी हो सकता है, जिसके असली पिता का पता उसकी माता को भी नहीं है?”

नामवरजी ने अपने एक व्याख्यान में हाल में कहा है कि दिनकर को साहित्य अकादमी का जो पुरस्कार मिला था वह किसी काव्य पुस्तक पर नहीं मिला था, कविता के नाम पर नहीं मिला था। वह पुरस्कार 'संस्कृति के चार अध्याय' पर मिला था जो काव्य कृति नहीं है। इत्तेफाक से जवाहरलाल नेहरू की उसमें भूमिका है। जवाहरलाल नेहरू उस समय साहित्य अकादमी के अध्यक्ष थे। इस प्रकार वह पुरस्कार एक प्रकार से दूषित ही हो गया था। (अनभै-19,जुलाई-सितंबर,2008,पृ.7) कहना न होगा कि हमारे समय में विभिन्न साहित्यिक पुरस्कारों को देने-दिलाने के विचित्र खेल तथा हिंदी पाठकों के बीच 'संस्कृति के चार अध्याय' की अपार लोकप्रियता के मद्देनज़र आज तय कर पाना शायद बहुत मुश्किल नहीं है कि उनका यह वक्तव्य कितना यथार्थ पर आधारित है और कितना विभ्रम पैदा करने वाला। खुद दिनकर ने इस पुस्तक की भूमिका में लिखा है- “'मेरी स्थापनाओं से सनातनी दुखी हैं, और आर्यसमाजी तथा ब्रााहृसमाजी भी। उग्र हिंदुत्व के समर्थक तो इस ग्रंथ से काफी नाराज़ है। नाराजगी का एक पत्र मुझे, अभी हाल में, एक मुस्लिम विद्वान ने भी लिखा है। ये सब अप्रिय बातें हैं। नाराज़ मैं किसी को भी नहीं करना चाहता।....मेरा यह विश्वास है कि यद्यपि, मेरी कुछ मान्यताएँ गलत साबित हो सकती हैं, लेकिन, इस ग्रंथ को उपयोगी मानने वाले लोग दिनोंदिन अधिक होते जायेंगे।” प्रसंगवश याद आते हैं भारतीय उपमहाद्वीप के प्रमुख कवियों में से एक डॉ.सैयद मुहम्मद इक़बाल, जिनको भी अपने ज़माने में ग़लतफहमियोंे का दंश झेलने के चलते कहना पड़ा था:

'ज़ाहिदे-तंग नज़र ने मुझे काफ़िर जाना
औ’ काफ़िर ये समझता है मुसल्माँ हूँ मैं
देख ऐ चश्मे-अदू, मुझको हिक़ारत से न देख
जिस पे क़ुदरत को भी है नाज़ वह इंसाँ हूँ मैं।'

प्रो.मैनेजर पाण्डेय ने दिनकरजी की इस 'गंभीर किताब' के बारे में सही लिखा है कि गुलशन नन्दा आदि के उपन्यासों को छोड़कर हिंदी के लेखकों को यह सौभाग्य नहीं मिलता कि उनकी किताबें पंद्रह बार छपें। इस पुस्तक की लोकप्रियता हमें आकर्षित करती है। एक तरह से यह भारतीय संस्कृति का विश्वकोष है। संस्कृति के बनने, बदलने, बिगड़ने और फिर बनने की जटिल समग्र और द्वंद्वात्मक प्रक्रिया की पहचान है 'संस्कृति के चार अध्याय'।

'दूसरी परम्परा की खोज' पुस्तक में नामवर सिंह ने अज्ञेय की 'स्मृतिलेखा' से एक बड़ा अनुच्छेद उध्दृत करके दिनकर की 'सामासिक संस्कृति' की अवधारणा को किसी सांस्कृतिक दृष्टि का उन्मेष न मानते हुए इसे कुल मिलाकर तद्युगीन सत्ताधारी वर्ग की सांस्कृतिक राजनीति के एक औजार के तौर पर देखा है। अज्ञेय ने लिखा था: काव्य की पड़ताल में तो दिनकर 'शुध्द' काव्य की खोज में लगे थे, लेकिन संस्कृति की खोज में उनका आग्रह 'मिश्र संस्कृति' पर ही था- ‘चार अध्याय’ भारतीय संस्कृति की मिश्रता को ही उजागर करने का प्रयत्न है, उसकी संग्राहकता के नहीं। संस्कृति का चिंतन करनेवाले किसी भी विद्वान के सामने यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि संस्कृतियाँ प्रभाव ग्रहण करती हैं, अपने अनुभव को समृध्दतर बनाती हैं, लेकिन यह प्रक्रिया मिश्रण की नहीं है। संस्कार नाम ही इस बात को स्पष्ट कर देता है। यह मानना कठिन है कि संस्कृति की यह परिभाषा दिनकर की जानी हुई नहीं थी; उनका जीवन भी कहीं उस मिश्रता को स्वीकार करता नहीं जान पड़ता था, जिसकी वकालत उन्होंने की। तब क्या यह सन्देह संगत नहीं कि उनकी अवधारणा एक वकालत ही थी, दृष्टि का उन्मेष नहीं ? और अगर वकालत ही थी तो जिसके मुवक्किल क्या समकालीन राजनीति का एक पक्ष ही नहीं था, जिसके सांस्कृतिक कर्णधार स्वयं भी मिश्रता का सिध्दान्त नहीं मानते थे, लेकिन अपनी स्थिति दृढ़तर बनाने के लिए उसे अपना रहे थे ?

इस संदर्भ में हजारी प्रसाद द्विवेदी के चिंतन के वैशिष्ट¬-निरूपण के बहाने नामवरजी ने दिनकर की अवधारणा पर कड़ी चोट की है: अब तो भारत की 'सामासिक संस्कृति' की दिन-रात माला जपने वाले बहुतेरे हो गये हैं। दिनकर जी ने तो 'संस्कृति के चार अध्याय' नाम से एक विशाल ग्रंथ ही लिख डाला..... दिनकर की 'मिश्र संस्कृति' की एक राजनीति है..। अपने विवेचन के क्रम में आगे नामवरजी ने अज्ञेय को डॉ. गोविन्दचन्द्र पांडे के एक कथन का सहारा लेकर और अंतत: गोविंदचन्द्र पांडे की अवधारणा को भी खारिज करते हुए लिखा है: यदि दिनकर की 'सामासिक संस्कृति' का संबंध राजनीति के एक पक्ष से है तो स्वयं अज्ञेय और गोविन्दचन्द्र पांडे की 'शुध्द संस्कृति' का संबंध भी राजनीति के दूसरे पक्ष से जोड़ा जा सकता है। (दूसरी परम्परा की खोज, पृ.89)

मैनेजर पाण्डेय ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा भारतीय संस्कृति की सामासिकता को समझाने के लिए दिए गये एक दिलचस्प उदाहरण का जिक्र किया है: 'भारतीय संस्कृति एक हुक्के की तरह है। हुक्के की विशेषता यह है कि हुक्का दस-बारह वर्ष पुराना हो गया, उसका नरचा खराब हो गया तो नरचा बदल दिया जायेगा और हुक्का वही रहेगा। बीस-तीस वर्र्ष बाद चिलम खराब हो गयी तो चिलम बदल दी जायेगी। फिर भी हुक्का वही रहेगा। पचास-साठ वर्ष बाद उसके नीचे का हिस्सा बदल दिया जाएगा फिर भी हुक्का वही रहेगा। जैसे हुक्का होता है कि चीजें बदलती रहती है, फिर भी हुक्का वैसा रहता है, वैसे ही भारतीय संस्कृति में बहुत सारी चीजें जुड़ती हैं, आगे बढ़ती हैं; फिर भी भारतीय संस्कृति है। भारतीय संस्कृति लगभग गंगा की तरह है। गंगा जहाँ से निकलती है उसको आप ध्यान मे रखें समुद्र तक जाते-जाते उसमें पच्चीसों नदियाँ मिलती हैं। जब कोई नदी मिल जाती है तो मिलने के बाद वह स्वयं गंगा का हिस्सा हो जाती और वह नदी गंगा ही कहलाती है। इसलिए मैं तो कई बार संगम संस्कृति कहा करता हूँ। इस संदर्भ में अपना दो टूक निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए डॉ. पाण्डेय ने सही लिखा है कि 'संगम संस्कृति का भी अर्थ वही है जो दिनकर ‘सामासिक संस्कृति’ मे कहना चाहते हैं।' (आजकल: अक्टूबर 2008, पृ.32)

प्रसंगात् खुद दिनकर ने कहा है: "पुस्तक लिखते-लिखते इस विषय में मेरी आस्था और भी बड़ गयी कि भारत की संस्कृति, आरम्भ से ही, सामासिक रही है। उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम, देश में जहाँ भी जो हिन्दू बसते हैं, उनकी संस्कृति एक है एवं भारत की प्रत्येक क्षेत्रिय विशेषता हमारी इसी सामासिक संस्कृति की विशेषता है। तब हिन्दू एवं मुसलमान हैं, जो देखने में अबभी दो लगते हैं, किन्तु, उनके बीच भी सांस्कृतिक एकता विद्यमान है, जो उनकी भिन्नता को कम करती है। दुर्भाग्य की बात है कि हम इस एकता को पूर्ण रूप से समझने में असमर्थ रहे हैं। यह कार्य राजनीति नहीं, शिक्षा और साहित्य के द्वारा सम्पन्न किया जाना चाहिए।"

असल में 'सामासिक संस्कृति' की अवधारणा की पृष्ठभूमि में लगभग पांच हजार साल पुरानी कही जाने वाली हमारी सभ्यता और संस्कृति की गतिकी पर दिनकरजी की वह अंतर्दृष्टि है, जिसका प्रकटीकरण रवीन्द्रनाथ ठाकुर की नीचे उद्धृत काव्यपंक्तियों में भी देखा जा सकता है :

‘हेथाय आर्य, हेथाय अनार्य, हेथाय द्राविड़-चीन,
शक-हूण-दल, पाठान-मोगल एक देहे होलो लीन।’

बहरहाल, कहना यह है कि दिनकर की 'सामासिक संस्कृति' की अवधारणा भले ही स्वाधीन भारत की राजनीतिक जरूरत हो, किन्तु, बुनियादी तौर पर यह कोई राजनीतिक अवधारणा नहीं, बल्कि गद्य में रवीन्द्रनाथ की काव्य-दृष्टि के उन्मेष का वैचारिक प्रतिफलन है। उल्लेखनीय है कि दिनकरजी के लिए भारतीय संस्कृति केवल हिन्दू संस्कृति, हिन्दू संस्कृति केवल हिन्दू धर्म और हिन्दू धर्म केवल ब्रााहृण धर्म का पर्याय नहीं है। दूसरे शब्दों में, 'संस्कृति के चार अध्याय' ग्रंथ अपने सार तत्त्व में भारत की सांस्कृतिक बहुलता को समाहित किए हुए है।

दिनकर मूलत: एक कवि एवं मुख्य रूप से कविता के आलोचक हैं। किंतु, उनकी आलोचना हिन्दी में श्रेष्ठ गद्य का प्रतिमान भी है। उनके गद्य में विचार और व्याकरण के बीच संतुलन का उत्कर्ष उनकी सूक्तियों में देखा जा सकता है। ‘सरस्वती की जवानी कविता और उसका बुढ़ापा दर्शन होता है’, ‘उगती सभ्यता के कवि भावनाशील और बुझती सभ्यता के कवि बुद्धि पीड़ित होते हैं’, ‘जातियां जब थकती हैं, तब उनका ध्यान रचना से हटकर आलोचना पर चला जाता है’, ‘आदर्श मनुष्य शरीर से दैत्य और मन से महात्मा होता है’, ‘बिना आत्मखंडन किए सत्य का सेवन चल नहीं सकता’, ‘प्रेम स्वत:स्फूर्त भावना है और विवाह एक कठोर कर्तव्य’, ‘युद्ध राजनीति की उस अवस्था को कहते हैं , जब वह लोहू से लाल हो उठती है और शांति राजनीति का वह रूप है, जब वह कंठी माला और चंदन से विभूषित रहती है’- जैसी हजारों सूक्तियाँ उनकी गद्य कृतियों में भरी-पड़ी हैं। बावजूद इसके, दिनकर की आलोचना को सूक्ति-निर्भर कहना ज्यादती होगी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने काव्य और सूक्ति में भेद करते हुए लिखा है - "जो उक्ति ह्यदय में कोई भाव जागरित कर दे या उसे प्रस्तुत वस्तु या तथ्य की मार्मिक भावना में लीन कर दे वह तो है काव्य। जो उक्ति केवल कथन के ढंग के अनूठेपन, रचनावैचित्र्य, चमत्कार, कवि के श्रम या निपुणता के विचार में ही प्रवृत्त करे, वह है सूक्ति।" उल्लेखनीय है कि कवि दिनकर के यहाँ भी ऐसी अनेकानेक सूक्तियाँ मौजूद है जो काव्य के दायरे में बेहिचक स्वीकार्य हो सकती हैं। 'निरी बुध्दि की निर्मितियाँ निष्प्राण हुआ करती हैं,' 'वाणी का वर्चस्व रजत है किन्तु मौन कंचन है,' 'शान्ति नहीं तब तक जब तक सुख भाग न नर का सम हो' - जैसी अनेकानेक काव्य-पंक्तियाँ इसके प्रमाणस्वरुप उद्धृत की जा सकती है। उनका गद्य ‘संस्कृत-फारसी प्रभाव से युक्त और संस्कृत-फारसी दबाव से मुक्त’ है। सच तो यह है कि हिन्दी गद्य की ताकत का उन्हें पूरा एहसास था। इस संबंध में उन्होंने ‘वट-पीपल’ नामक पुस्तक में खुद अपने अनुभव के बारे में लिखा है : “हिन्दी गद्य के हजार, दो हजार पृष्ठ मैंने भी लिखे हैं और उन पृष्ठों में कहानियां नहीं लिखकर मैंने चिंतन किया है और यदा-कदा उन विषयों पर भी चिंतन किया है, जो अंतर्राष्ट्रीय चिंतन के विषय हैं, किंतु, मुझे कभी यह एहसास नहीं हुआ कि हिन्दी में अभिव्यंजना शक्ति का किंचित भी अभाव है अथवा यह कि जो विचार अंग्रेजी में आसानी से लिखे जा सकते हैं, वे विचार हिन्दी में सुगमता से नहीं लिखे जा सकते।”

इस संदर्भ में रैल्फ फॉक्स के एक मंतव्य को उध्दृत करना प्रासंगिक होगा कि “अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा जख़ीरा हर जाति की लोक भाषा में मौजूद है। न ही इस भाषा को आज तक किसी ने मरते सुना है, यों संशोधन इसमें बराबर होता रहता है। आप यह बखूबी कह सकते हैं कि महानतम लेखकों के बारे में यह कहना कठिन होता है कि इन्होंने मुहावरेदार भाषा को सचमुछ गढ़ा है या मुहावरेदार भाषा का उपयोग मात्र किया है। फिर भी,......महानतम लेखकों ने मुख्यत: इसी लोकप्रिय, करीब-करीब मुहावरेदार भाषा को ही अपनाया है।” सच तो यह है कि दिनकर में चीजों को उनके असली नाम से पुकारने की कला कुदरती तौर पर मौजूद थी और इस कला की सिध्दि में उनकी भाषा का योग अप्रतिम है।

एक हद तक छायावादी भावबोध के आलोचक होने के बावजूद दिनकर के गद्य की प्रकृति छायावादियों के गद्य की काव्यात्मक प्रकृति से नितांत भिन्न है। उदाहरण के लिए दिनकर के किसी निबंध के बरक्स पन्त रचित ‘पल्लव’ की भूमिका को रखकर देखा जा सकता है, जिसे खुद दिनकर ने ‘छायावाद का मेनिफेस्टो’ कहा है, किंतु, जो आत्यन्तिक भावात्मक, अलंकृत व शिथिल गद्य है। इसके विपरीत दिनकर का गद्य न केवल सुलिखित, बल्कि धारदार, हँसमुख और जीवंत गद्य भी है और वहाँ यह जीवंतता लेखन में बोलचाल के लहजे के सार्थक व संतुलित इस्तेमाल से आयी है। दूसरे शब्दों में उनका गद्य केवल लेखन का गुलाम नहीं है। गुप्तजी के बारे में उन्होंने लिखा है कि “एक प्रकार से, खड़ी बोली की उँगली पकड़ कर उन्होंने उसे चलना सिखाया है।” सच तो यह है कि दिनकर तक आते-आते खड़ी बोली बहुत हद तक वयस्कता प्राप्त कर लेती है। दिनकर का गद्य अनुभूति के स्तर पर आदिम, किंतु, संप्रेषण के स्तर पर आधुनिक है। रैल्फ फॉक्स के ही एक सुप्रसिध्द निबन्ध का शीर्षक उधार लेकर कहे तो आज तथाकथित भूमण्डलीकरण और बाज़ारवाद के ज़माने की हिन्दी में 'गद्य की विलुप्त कला' को देखते हुए दिनकर के आलोचना-साहित्य की भाषा अपनी ज़मीन से जुड़े हिन्दी गद्य का एक बेहतरीन नमूना है। दिनकर के गद्य में उनके खुले जीवट, अभिव्यक्ति की स्पष्टता और पारदर्शिता, मुहावरेदार भाषा, लेखन में बोलचाल के लहजे का इस्तेमाल एवं चीजों को सही नाम से पुकारने की उनकी कला के नमूने के तौर पर नीचे उद्धृत अनुच्छेद दृष्टव्य है। 'संस्कृति के चार अध्याय' को 'भारतीय एकता का सैनिक' के रूप में अभिहित करते हुए वे लिखते हैं: यह महल साहित्य एवं दर्शन का है। इतिहास की हैसियत यहाँ किरायदार की है। किरायेदार का आदर तो मैं करता हूँ, किन्तु, महल पर उसे कब्जा देने की बात मैं नहीं सोच सकता। मैं कोई पेशेवर इतिहासकार नहीं हूँ। इतिहास की ओर मैं शौक से गया हूँ और शौक से ही मैं उसकी सामग्रियों का उपयोग भी करता हूँ। साहित्य की ताजगी और वेधकता जितनी शौकिया लेखन में होती है, उतनी पेशेवर में नहीं होती। कृति में प्राण उँड़ेलने का दृष्टान्त बराबर शौकिया लेखक ही देते हैं। थरथराहट, पुलक और प्रकंप, ये गुण शौकिया की रचना में होते हैं पेशेवर लेखक अपने पेशे के चक्कर में इस प्रकार महो रहते हैं कि क्रान्तिकारी विचारों को वे खुलकर खेलने नहीं देते।

दिनकर के आलोचना साहित्य और सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतन की जीवंत भाषा को देखते हुए नामवर सिंह के एक कथन की याद हो आती है: सच्चे रचनाकार की तरह कृती-आलोचक की भाषा भी विशिष्ट होती है, और यह विशिष्टता केवल शब्दावली में ही नहीं, बल्कि उसके 'स्वर' अथवा 'तेवर' से भी साफ पहचानी जा सकती है। (वाद विवाद संवाद, पृ.27) बावजूद इसके, यह सच है कि साहित्यशास्त्र की पारिभाषिकी से प्रयत्नपूर्वक बचने और अपने अनुभव के खुलेपन पर बहुत दूर तक निर्भरता की वजह से दिनकर की आलोचना की भाषा कभी-कभार आत्यंतिक रूप से भावाविष्ट हो जाने के कारण प्रभावाभिव्यंजक आलोचना की कमजोरियों का शिकार हो गयी है। फिर भी दिनकर के खुले जीवट के चलते उनकी आलोचना से शुक्लजी कथित किसी प्रकार के 'विचार-शैथिल्य और बुध्दि का आलस्य फैलने' का कोई खतरा पैदा होता प्रतीत नहीं होता। शुक्लजी की ही शब्दावली उधार लेकर कहें तो कवि-आलोचक दिनकर को इस सीमा तक 'हवाई होना' कभी गवारा नहीं रहा जिससे आलोचना में ‘विचारशीलता का ह्यास’ होने की संभावना उत्पन्न हो जाती है।