दिया तले अंधेरा / छठा परिच्‍छेद / नाथूराम प्रेमी

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रामदेई की इच्‍छानुसार दो तीन अखबारों में विज्ञापन निकलने लगा। इस समय रामदेई को पहले की अपेक्षा ज्‍यादा समय की आवश्यकता थी; क्‍योंकि अब दोनों की परीक्षा का समय निकट आ गया था। परंतु इन दिनों समय बहुत कम मिलने लगा। क्‍योंकि परीक्षा हो जाने के कारण विमलप्रसाद आदि दोपहर को भी घर पर रहते थे; इसलिये बहुत थोड़े समय के लिये इनका सहवास हो सकता था। रामदेई को इसकी बड़ी चिंता हो गई। इतने ही में एक अनपेक्षित अवकाश पाने का समय आ गया। विमलप्रसाद के घर से एक जरूरी चिट्ठी आने से दोनों मित्र जबलपुर चले गये। पति विरह से उन पतिव्रताओं को खेद तो हुआ, परंतु विद्याभ्‍यास के उत्‍साह में उन्‍होंने उसे अधिक नहीं गिना।

ग्‍यारहवें दिन दोनों मित्र लौटकर इलाहाबाद आ गये। उसी दिन की डाक में भारत मित्र के संपादक की चिट्ठी के साथ साथ स्त्रियों के निबंध आये। संपादक ने लिखा था - “अवधि के भीतर ये पांच निबंध आये हैं; सो आपके पास भेजे जाते हैं। अनमें से नं. 2 के निबंध को मैंने इनाम के योग्‍य पसंद किया है, जिसे नीचे “दिया तले अंधेरा” ऐसा नाम लिखा हुआ है। आप लोग इन्‍हें पढ़कर फल प्रकाशित कीजिये।” नोटिस में निबंध भारत मित्र संपादक के नाम से भेजने को लिखा गया था, इसलिये वे उनके पास होकर लक्ष्‍मीचंद्र के पास आये थे।

दो तीन दिन में विमल और लक्ष्‍मीचंद्र ने 3-4 और 5 नंबर के निबंध बांच डाले थे। पहला और दूसरा निबंध रहा था, सो उसे बांचकर इनाम का फैसला करना था। इसलिये एक दिन रात को 8 बजे दोनों मित्र जजमेंट देने के लिये बैठे। रामदेई तो इसके लिये बहुत आतुर हो रही थी। परंतु इनके जी में कुछ संदेह उत्‍पन्‍न न हो जावे, इसलिये उसने अपनी इच्‍छा को रोक रक्‍खा था। यह जान कर कि, थोड़ी ही देर में इसका फल प्रकट होने का है और मेरी गुप्‍तमंत्रणा प्रकट होने वाली है, उसका जी उछलने लगा। नर्मदाबाई को अपने समीप बिठाकर वह निबंध सुनने की प्रतीक्षा करने लगी।

पहला निबंध बांचना शुरू किया गया। परंतु थोड़ी ही देर में उसे सुनते सुनते सबका जी ऊब गया। इसलिये विमलप्रसाद ने उसे केवल 15-20 मिनट में शीघ्रता से बांचकर पूरा कर दिया अब दूसरे का बांचना शुरू हुआ। एक सुयोग्‍य संपादक ने उसे इनाम के योग्‍य ठहराया था, इसलिये उसके विवेचन पर सबने विशेष ध्‍यान लगाया। निबंध बांचते समय विमलप्रसाद की मुखचर्या में अनेक बार अंतर पड़ा। बांचते बांचते वे कई जगह अटके भी। उन्‍हें ऐसा मालूम पड़ता था कि; किसी मार्मिक लेखक ने यह सब मुझे ही लक्ष्‍य करके लिखा है। स्‍थान के अभाव से हम यहां पर उक्‍त निबंध की मुख्‍य मुख्‍य बातें उद्धृत करते हैं :

“विवाहित स्त्रियों की शिक्षा” यह विषय मुझे बहुत कठिन मालूम पड़ता है। परंतु अपनी एक बहिन के आग्रह से मैं इसे लिखती हूं, पारितोषिक की आशा से नहीं।”

“विवाहित स्त्रियों की शिक्षा के उत्तरदाता वास्‍तव में यदि देखा जावे, तो उनके पति हैं। परंतु अपने इस उत्तरदायित्‍व पर ध्‍यान देने वाले पति हमारे समाज में बहुत थोड़े हैं। मैं यह नहीं कहती हूं कि, सुशिक्षित पुरुष स्‍त्रीशिक्षा को नहीं चाहते हैं। नहीं, वे चाहते हैा। परंतु आलस्‍य से कहो, अथवा किसी अदूरदर्शिता से कहो; वे इस ओर अपना ध्‍यान नहीं देते हैं! इसलिये स्‍त्री शिक्षा की उन्‍नति नहीं होती है। अनेक सुधारणाओं में आज स्त्रियों की ओर से अड़चनें उपस्थित होती हैं। परंतु यदि वे उनकी अज्ञानता से होती हैं, तो फिर वह अज्ञानता दूर करना उनके पतियों का नहीं, तो और किसका कर्तव्‍य है? पुरुषों को चाहिये कि वे अपनी स्त्रियों को विद्या का शौक लगावें, केवल सुधार सुधार चिल्‍लाने से और संसार की सुधारना करने की डींग मारने से कुछ लाभ नहीं है।”

“प्रत्‍येक सुशिक्ष्ज्ञित पति को सबसे पहिले अपनी स्‍त्री को शिक्षिता बनाने के काम में लगना चाहिये। इस कार्य में यदि स्त्रियां प्रतिबंधक हों, वे अपना दुराग्रह प्रकट करें, तो भी पुरुषों को उनमें विद्याभिरुचि उत्‍पन्‍न करनी चाहिये। हमारे विचार बहुत ऊंचे हैं, और हमारी स्‍त्री को कुछ भी अकल नहीं है, घमंड में रहने से बड़ी भारी हानि होती है।”

“शिक्षा किस प्रकार की देना चाहिये, यह एक कठिन प्रश्‍न है। परंतु अपनी बुद्धि के अनुसार मैं इसका केवल यही उत्तर समझती हूं कि, जिस प्रकार की शिक्षा से स्त्रियों की मानसिक शक्तियों का विकास हो- उनका चरित्र निर्मल निष्‍कपट परार्थतत्‍पर उदार और नीतियुक्‍त बने और वे अपनी संतान को बुद्धिमान धर्मात्‍मा और देशभक्‍त बना सकें, उसी प्रकार की शिक्षा स्त्रियों के लिये उपयोगी होगी। उसे चाहे कोई अपनी मातृभाषा में दे, चाहे संस्‍कृत अंग्रेजी आदि में दे। हां, यह अवश्‍य है कि, वर्तमान में हमारे समाज की जो अवस्‍था है, उस पर विचार करने से स्त्रियों को अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा देना लाभकारी होगा। उन्‍हें इतना समय नहीं मिल सकता है कि, वे अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा का अच्‍छा ज्ञान प्राप्‍त कर सकें। पर इसका मतलब यह नहीं है कि, स्त्रियों को अंग्रेजी पढ़ाना ही नहीं चाहिये। यदि समय हो और सुभीता हो, तो उसे भी अवश्‍य पढ़ाना चाहिये। धर्मविद्या का अच्‍छा ज्ञान प्राप्‍त करने के लिये स्त्रियों को संस्‍कृत पढ़ना भी आवश्‍यक है। स्त्रियों के हाथों में ख्‍याल चौबोले वगैरह की घृणित पुस्‍तकें तथा व्‍यर्थ समय खोनेवाली तिलिस्‍मात आदि उपन्‍यास की पुस्‍तकें न जाने देना चाहिये। जिन्‍हें अपनी स्त्रियों को सदाचारिणी और उत्त विचारों वाली बनाना हो, उन्‍हें ऐसी घृणित पुस्‍तकों से स्त्रियों को बचाना चाहिये।

“मामूल लिखने बांचने तथा सीना पिरोना आने लगने को मैं स्‍त्री शिक्षा नहीं कहती हूं। पति को अपनी स्‍त्री में इतनी पात्रता लानी चाहिये, जिसमें वह अपने विचार समझ सके। प्रत्‍येक विषय में दोनों को वादविवाद करना चाहिये। और गृहस्‍थीसंबंधी विषय दोनों को एक दृष्टि से देखना चाहिये। कोई एक आंदोलन उठने पर स्‍त्री के उस विषय में प्रश्‍न करने पर यह कह देना कि, ‘तू इस विषय में कुछ समझेगी नहीं,’ स्‍त्री पर अन्‍याय करना है। इसलिये इस निबंध को पूर्ण करने के पहले मैं एक बार फिर कहती हूं कि, स्‍त्री शिक्षा की सब जवाबदारी पुरुषों पर है। स्‍त्री शिक्षा की उन्‍नति न होने में मुख्‍य कारण पुरुष ही हैं। सामाजिक सुधारणाओं में सित्रयों की ओर से जो विघ्‍न पड़ते हैं, उनके भी मूल कारण पुरुष ही हैं। मैं यह नहीं कहती हूं कि, सब दोष पुरुषों का ही है। तो भी दोषों का सबसे बड़ा भाग उन्‍हीं की ओर है, ऐसा मैं अपने अनुभव से कहती हूं।”

निबंध के अंतिम शब्‍द सुनकर सब लोग स्‍तब्‍ध हो रहे। दोनों मित्र एक दूसरे की ओर देखने लगे। रामदेई बड़ी भारी उत्‍सुकता से यह देखने लगी कि, देखें, कौन पहले बोलता है और क्‍या बोलता है। परंतु जब दो तीन मिनट बीत गये, किसी ने कुछ भी नहीं कहा, तब रामदेई ने बेचैन होकर पूछा, लालाजी, तो क्‍या अब निबंध लिखनेवाली स्त्रियों के नाम नहीं सुनाये जावेंगे और इनाम किसको दी जावेगी, इसका निर्णय नहीं होगा?”

लक्ष्‍मीचंद्र ने कहा, “हां! हां! यह तो होना ही चाहिये। मेरी समझ में तो नंबर दो को ही इनाम मिलना चाहिये। क्‍योंकि उसकी लेखिका ने सब बातें अपनी अनुभव की हुई लिखी हैं।”

विमलप्रसाद ने कहा, “मालूम तो ऐसा ही होता है। निबंध अच्‍छा है। कहीं कहीं संगति नहीं मिलती है, तो भी उसके विचार अच्‍छे हैं। और फिर इसमें हम सरीखों की तो खूब ही खबर ली गई है। मेरी समझ में इसके साथ नंबर एक को भी थोड़ा सा इनाम देना चाहिये। अच्‍छा तो अब मैं ये लिफाफे खोलता हूं।”

विमलप्रसाद ने लिफाफे खोलना शुरू किया कि, नर्मदाबाई रामदेई के कान में कुछ धीरे धीरे कहकर उठ गई! परंतु विमलप्रसाद ने उस ओर नहीं देखा। पहले नबंर का लेख “जानकीबाई-गौरीशंकर त्रिपाठी-सागर” का लिखा हुआ था, ऐसा मालूम हुआ। पश्‍चात् दूसरा लिफाफा खोला गया। उसमें लिखे हुए नाम को देखकर विमलप्रसाद चकित स्‍तंभित हो रहे। उनके मुंह से एक अक्षर भी निकलना कठिन हो गया। हाथ कांपने लगे। इधर रामदेई ने अपने मुंह को लंबे घूंघट में ढंक लिया था। यह लीला देखकर लक्ष्‍मीचंद्र ने बड़ी उत्‍सुकता से पूछा - विमलप्रसाद, है क्‍या? तुम नाम क्‍यों नहीं बांचते हो?”

विमलप्रसाद ने एकाएक चौंककर कहा, “यह निबंध-यह निबंध श्रीमती नर्मदाबाई बाबू विमलप्रसाद जी-इलाहाबाद का लिखा हुआ है।”

“कौन नर्मदाबाई? क्‍या आपकी नर्मदाबाई? उसने लिखना-पढ़ना कब सीख लिया? क्‍या उसने यह निबंध लिखा है?” लक्ष्‍मीचंद्र ने आश्‍चर्ययुक्‍त होकर पूछा।

“मुझे क्‍या खबर है? भाभीजी, यह गोरख धंधा तुम्‍हें अवश्‍य मालूम होगा? यह कौन नर्मदाबाई है और यहां तुम्‍हारी नर्मदाबाई थी, सो कहां चली गई?” विमलप्रसाद ने बड़ी उत्‍सुकता से अपने प्रश्‍न का उत्तर चाहा।

“नर्मदाबाई थोड़ी देर पहले यहां से उठ गई है? क्‍योंकि उसे मालूम था कि, कुछ समय पीछे ही यह कौतुक होनेवाला है?”

“तो क्‍या सचमुच यह निबंध उसी ने लिखा है? उसमें इतनी योग्‍यता कहां से आ गई? और मुझे अभी तक इसकी खबर क्‍यों नहीं लगी?”

“तुम्‍हें खबर करने के लिये ही तो यह निबंध का स्‍वांग रचा गया था? लालाजी, जब आप वारंवार कहने पर भी उस बेचारी का कल्‍याण करने के लिये तत्‍पर न हुए, तब मुझे आखिर यह विचार करना पड़ा, जिस में आज आप थोड़ी बहुत सफलता देख रहे हैं?”

“यह तो तुमने गजब का काम किया है, जो इस विलक्षण बात की हवा भी तुमने मेरे कानों तक नहीं आने दी। उस दिन भारत मित्र की बात से यह तो मैं जान चुका था कि, तुमने पढ़ाने का निश्‍चय कर लिया है, परंतु पीछे तुमने क्‍या किया, उससे सर्वथा अपिरिचित ही रहा।”

रामदेई ने कहा, “बस, भारत मित्र की घटना के दूसरे दिनसे ही मैंने पढ़ाने का काम प्रारंभ कर दिया था। नर्मदाबाई की बुद्धि तीक्ष्‍ण है, इसलिये छह महीने में ही उसे लिखते पढ़ते बनने लगा था। और फिर एक वर्ष तक तो उसने खूब ही परिश्रम किया। मुझे कुछ अधिक श्रम नहीं पड़ा।”

इसी समय नर्मदाबाई ने एक ओर से आकर कहा - “जीजी, अधिक श्रम नहीं पड़ा! ऐसा मत कहो। आपने अपरिमित परिश्रम किया है। एक दिन त्रासित होकर मैंने भूल से कुछ उत्तर दे दिया था, इसलिये शिक्षितों के ख्‍याल में तो मेरी शिक्षा की बात करना ही पाप समझा जाने लगा था! ऐसे समय में यदि आपने मुझे विद्या का व्‍यसन न लगाया होता, तो मैं सर्वथा मूर्ख बनी रहती। यह अभी तक कुछ भी नहीं हुआ होता।”

“भाभी सा, आपकी मैं मुंह पर क्‍या प्रशंसा करूं? मैंने निराशा के कारण जो बड़ी भारी भूल की थी, उसे आपने ऐसी रीति से सुधारी है कि मैं उसे जन्‍मपर्यंत नहीं भूलूंगा। जो बात एक दिन असंभव जान पड़ती थी, आज उसे प्रत्‍यक्ष देखकर मुझे जो आनंद हुआ है, वह वचन से नहीं कहा जा सकता है। आज आपने, सच कहता हूं कि, मुझे एक नवीन ही नर्मदा दी है। मैं एक नवीन ही संसार में आ गया हूं।”

इसी आनंद के समय में एक पड़ोसी ने आकर खबर दी कि, “लक्ष्‍मीचंद्र और विमलप्रसाद दोनों एल.एल.बी की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गये।” यह सुनकर उन दंपतियों को जो आनंद हुआ, उसका अनुमान पाठक स्‍वयं करें।