दिलीप की आत्मकथा: विमोचन का जलसा / जयप्रकाश चौकसे

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दिलीप की आत्मकथा: विमोचन का जलसा
प्रकाशन तिथि : 16 जून 2014


दिलीप कुमार: द सब्सटेंस एंड शेडो: एक आत्मकथा लगभग 450 पृष्ठ की किताब है जिसमें 106 पृष्ठों में उनके मित्रों ने उनपर लिखा है अर्थात चित्र, फिल्मों की सूची इत्यादि 'शेडो' हटा दे तो 'सब्सटेंस' संभवत: 250 पृष्ठ का है जो 2004 में सायरा बानो के आग्रह पर कई किश्तों में दिलीप कुमार ने बोला और पत्रकार उदयतारा नायर ने लिखा। इसे 'हे हाउस' नामक प्रकाशक संस्थान ने प्रकाशित किया है तथा मूल्य है 699 रुपए। आधी किताब पढ़कर पूरी राय नहीं दी जा सकती परंतु सारे प्रयास सायरा बानो के हैं गोयाकि एक पत्नी का दृष्टिकोण ही इसका सब्सटेंस है और उभरकर आई रचना महान कलाकार के अवचेतन की झलक मात्र है। दिलीप साहब का उर्दू, अंग्रेजी और पंजाबी पर अधिकार है और पश्तो तथा बंगाली भी वे अच्छी-खासी जानते हैं।

अगर उनकी कहानी उनकी कलम से लिखी जाती तो वह रचना साहित्य की श्रेणी में आ सकती थी परंतु इसका आशय उदयतारा नायर के प्रयासों को कमतर आंकने का नहीं है। जिस दिलीप कुमार की मनपसंद किताब एमिल ब्रोंटे की 'वुदरिंग हाइट्स' हो, उसके अवचेतन की परतों का अंदाज कैसे लगाया जा सकता है। दिलीप साहब अत्यंत सुसंस्कृत और पढ़े लिखे इंसान हैं। इंडिया टुडे के वार्षिक संस्कृति अंक में जावेद अख्तर को दिया लंबा साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था और वह जरूर उस उलझे अवचेतन की परतें इस प्रयास से बेहतर उजागर करता है। किसी व्यक्ति के जीवन वृतांत को बयां करने से वह सचमुच उजागर नहीं हो पाता, वह स्वयं लिखे तब भी आंशिक सफलता मिलती है। अब हरिवंशराय बच्चन की तरह साहसी आत्मकथा लिखना सबके बूते की बात नहीं है। बहरहाल जो कुछ भी सामने आया है, वह कम महत्वपूर्ण नहीं है।

पुस्तक समर्पित उनके माता-पिता को और नीचे की पंक्तियां कुछ इस तरह हैं -'सुकूने दिल के लिए कुछ तो एहतमाम करूं, जरा नजर जो मिले फिर उन्हें सलाम करूं, मुझे तो होश नहीं, आप मशविरा दीजिए, कहां से छेडूं फसाना, कहां तमाम करूं'। ये पंक्तियां यकीनन दिलीप साहब के अदब की नुमाइंदगी करती हंै। बाकी सब अफसाना है और मजेदार भी है। यह भी गौरतलब है कि मित्रों द्वारा लिखे लेखों के भाग में सलीम खान के लेख में से केवल चंद पंक्तियां हटा दी गई हैं और वे महज यह बयां करती थीं कि जब देविका रानी ने यूसुफ खान से पूछा कि तुम अपना स्क्रीन नाम क्या रखना चाहोगे तो उनका जवाब था वासुदेव परंतु देविका रानी को लगा कि दिलीप कुमार बेहतर है क्योंकि पहले भी कुमुद गांगोली को वे अशोक कुमार के नाम से प्रस्तुत कर चुकी थीं। दिलीप कुमार का श्रेष्ठतम प्रदर्शन सिनेमा के नेहरू काल खंड में प्रस्तुत हुआ और उसे सिनेमा का स्वर्ण-युग भी माना जाता है तथा धर्म निरपेक्षता उस कालखंड का केंद्रीय विचार था। पाकिस्तान के साथ 1965 के युद्ध के समय अफवाह फैलाई गई कि दिलीप के घर ट्रांसमीटर पाया गया, वह जासूसी करता था। अफवाहों के अंधड़ के दौर में दिलीप साहब जैसे संवेदनशील व्यक्ति के मन पर क्या बीती होगी इसका कहीं जिक्र नहीं है। इसी तरह 1998 में जब दिलीप पाकिस्तान से निशान-ए- इम्तियाज लेकर लौटे तो हुड़दंगियों ने उनका घर घेर लिया।

जबकि इसी तरह का पुरस्कार लेकर आए मोरारजी देसाई और आडवाणी का विरोध नहीं हुआ था। उस समय फिल्म उद्योग का कोई व्यक्ति उनकी सहायता को नहीं आया और दिलीप साहब ने कहा कि आज मेरा दोस्त राजकपूर जीवित होता तो वह अवश्य आता। क्या-क्या हादसे दिलीप साहब ने सहे हैं। मुंबई के 92-93 के दंगों के समय कुछ बेघर हुए मुसलमानों ने उनकी शरण ली और पहली बार दिलीप कुमार को ज्ञात हुआ कि उनकी फिल्म की कामयाबी के लिए नमाज अदा की जाती थी। क्या उन दिनों दिलीप बनाम यूसुफ में कोई जंग हुई थी, क्या उनके मन में निदा फाजली की पंक्तियां गूंजी होंगी 'जो बीत गया वह इतिहास है तेरा, जो अब काटना है वनवास है तेरा'। दिलीप साहब की यह जद्दोजहद शायद कभी कोई बयां नहीं करेगा और वे भी खामोश ही रहेंगे। उनके अभिनय में भी खामोशी बहुत कुछ बोलती थी।

बहरहाल इस किताब में यह महत्वपूर्ण बात दर्ज है कि देवलाली में उनका माली अपनी पत्नी फुलवा से प्यार भरा झगड़ा जिस बिहारी बोली में करता था, उसकी मिठास युवा यूसुफ के मन में बसी थी और वर्षों बाद उन्होंने अपनी 'गंगा जमुना' उसी भाषा में बनाई। उस दौर की सबसे महंगी फिल्म एक आंचलिक भाषा में है और उसी का प्रभाव सन् 2001 में आमिर खान की लगान में गूंजा। सारांश यह है कि इस किताब में तथ्य है परंतु पूरा दिलीप कुमार उजागर नहीं हुआ और उसके लिए कोई विष्णु खरे या ज्ञानरंजन के समकक्ष लेखक चाहिए औरयह उदयतारा नायर के प्रति कोई अनादर नहीं है। उन्होंने भी बढिय़ा काम किया है परंतु दिलीप नामक रहस्य को खोलना आसान नहीं है। काश राजेंद्रसिंह बेदी या सआदत हसन मंटो आज होते तो उनकी लिखी किताब में दिलीप कुमार का पूरा रहस्य उजागर होता। दिलीप कुमार एक आइसबर्ग की तरह हैं और यह किताब केवल उसका एक हिस्सा ही सामने लाती है।

इस किताब के विमोचन के समय जावेद अख्तर बहुत अच्छा बोले परंतु दिलीप साहब खामोश रहे। यह बताना नामुमकिन है कि मौजूद होते हुए भी वे कहीं नदारद तो नहीं थे। क्या महज उनकी नुमाइश हुई? कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अनुपस्थित व्यक्ति भी वहां होता है और उपस्थित अनुपस्थित होता है। यह खेल अजीबोगरीब है।