दिल, दिमाग और कैमरा / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
दिल, दिमाग और कैमरा
प्रकाशन तिथि : 03 मई 2013


भारत में कथा फिल्में अपनी दूसरी सदी में प्रवेश कर रही हैं और अपने इस सफर में उसने अपने दौर की अनेक लोकप्रिय विधाओं को समाप्त कर दिया जैसे तमाशा, जात्रा, चौपालों पर कथा वाचन इत्यादि। उसकी व्यापक मार से रंगमंच ने किसी तरह अपने को संभाले रखा है परन्तु वह भी केवल महानगरों में। सिनेमा आगे बढ़ रहा है, उसकी पीठ पर अनेक मृत कलाओं की लाशेें है परन्तु उसके कंधे मजबूत हैं क्योंकि इन सब विधाओं के अंश उसने अपने में आत्मसात कर लिए हैं, उसकी शिराओं में वे बह रहे हैं। उसकी अपनी ऊर्जा के प्रवाह में सारे कूल किनारों के उपजाऊ तत्व शामिल हैं। शायद इसे समाहित करने की ताकत से ही वह बचा हुआ है। उसका स्वभाव पानी की तरह है, जैसा रंग मिला दो वैसा ही नजर आता है। उस पर लगे कत्ल के आरोप में इजलास को कहीं न कहीं आत्महत्या का संदेह भी है। जनता की अदालत में उस पर लगाए हर कत्ल की बहुत सी जि?मेदारी जनता की भी है जिसने इसके सितारों के लिए अपने में उन्माद जगा लिया और अन्य विधाओं से मुंह फेर लिया। अत: इस अदालत में जनता रूपी जज भी जुर्म में शामिल है, अत: मुकदमा खारिज कर दिया गया है। अधिकतम की पसंद पर आधारित सनकी अर्थशास्त्र वाला सिनेमा लोकगीत बन गया है और इसमें लोकगीतों की कसक, सत्य का सरलीकरण और साथ ही उनकी कुछ फूहड़ता भी है जो सिपहिया गीतों में छाई रही है। लोकगीतों में स्त्री, पुरुष संबंधों का वर्णन बिना हिचक किया गया है और वही तत्व सिनेमा में आ गए और पवित्रता तथा शुद्धता के स्वयंभू ठेकेदारों ने उसे अश्लील करार दिया। सिलसिला का रंग बरसे, पिया पान खाएं बलम तरसे भी लोकगीत ही है।

प्राय: लोकगीतों में उन बातों की झलक होती है जो इतिहास में शामिल नहीं हैं परंतु उस दौर के समाज की आशाओं और कुंठाओं की सच्ची तस्वीर होती है। सिनेमा काल्पनिक होता है, उसमें यथार्थ की झलक भी अफसानों को चाशनी में लिपटी होती है। साहित्य की तरह ही सिनेमा में भी श?दों की तरह फ्रे?स के बीच कुछ अर्थ छुपा होता है और इसी परदे के पीछे सिनेमा का सच भी छुपा है, वरन् ये प्राय: आधी हकीकत, आधा अफसाना ही रहा है। सिनेमा के प्रस्तुत विवरण में प्राय: फे्र?स के बीच में छुपा अर्थ प्रगट नहीं हो पाता। यह अर्थ दर्शक के अवचेतन में दर्ज हो जाता है और इतिहास अवचेतन को ही अनदेखा करता है।

विगत सौ सालों में हिंदुस्तानी समाज और सिनेमा दोनों ही में ढेरों परिवर्तन हुए हैं और दोनों ने ही तल में छुपे अनंत मूल्यों की रक्षा का प्रयास किया है। खतरनाक बात यह है कि मूल्यों के नाम पर दकियानूसी और कुरीतियों की रक्षा भी हो गई है और इस जंगल घास के सफाये का कोई ट्रेक्टर नहीं बना है, कोई पेस्टीसाइड नहीं है। सिनेमा ने फिर भी कुरीतियों से लडऩे का प्रयास किया परंतु टेलीविजन तो इनके सामने आत्म समर्पण कर चुका है। इन तमाम परिवर्तनों में तीन चीजें नहीं बदली, कुछ समर्पित फिल्मकारों का दीवानापन, दर्शक का पागलपन और अर्थशास्त्र का सनकीपन।

इसके पहले प्रदर्शन १८४५ में दर्शकों में जार्ज मेलिए नामक जादूगर भी मौजूद था और उसे लगा कि इस माध्यम का उपयोग करके वह रंगमंच पर अपने जादू के खेल में नया रोमांच भर सकता है और इस माध्यम में जादू के करतब डालकर वह फंतासी रच सकता है और उसने दोनों काम ब?ाूबी किए जबकि अविष्कारकर्ता लूमिअर बंधुओं का विश्वास था कि माध्यम यथार्थ प्रस्तुत करेगा और यह काम भी बखूबी प्रस्तुत हुआ। भारतीय फिल्मकारों ने जब भी यथार्थ प्रस्तुत किए उसमें कुछ सपने मिला दिए और जब फंतासी बनाई तो उसमें यथार्थ की झलक आ गई। सिनेमा के १८९६ में रूस में प्रदर्शन के समय मैक्सिम गोर्की मौजूद थे जिन्होंने अपने कॉलम में लिखा- कल रात में छायाओं के रहस्यमय संसार में था जहां समय और स्थान का भान नहीं रहता और फिल्म में माली जब फव्वारे का मुंह आपकी ओर करता है तो आप गीला होने के भय से झुक जाते हैं। मैक्सिम गोर्की झुके परंतु मन में आद्र्रता का भाव तो जागा जो सिनेमा का सार है। ज्ञातव्य है कि गोर्की की मदर पर अनेक देशों में फिल्में बनीं और चेतन आनंद ने उनकी लोअर डेप्थ नीचा नगर के नाम से बनाई।

इस विधा के प्रारंभिक दिनों में दार्शनिक बर्गसन ने कहा कि सिनेमा का कैमरा मनुष्य के दिमाग की झलक से प्रेरित है-आंख अर्थात लैंस चित्र स्मृति पटल में एकत्रित करता है और विचार की ऊर्जा उन्हें चलायमय कर देती है। मनुष्य का दिमाग भी कैमरा ही है जहां जीवन की असंपादित रीलें मौजूद होती है और यादें उन रीलों का पुनरावलोकन हैं। सारी दुनिया के फिल्मकारों ने मशीनी कैमरे को दिमागी कैमरे से संचालित किया परंतु भारत मे दिमागी कैमरे के बदले दिल का इस्तेमाल हुआ, इसीलिए भारतीय सिनेमा में प्रेम है, हिंसा है और पागलपन भी है। दूसरी सदी में आकर भी ये दिल है कि मानता नहीं।