दिल से / सुकेश साहनी

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वह चाहकर भी आँखें नहीं खोल पाता, दवाओं की वजह से उस पर विचित्र-सा नशा छाया हुआ है। ऐसे में कमरे में हो रही बातचीत उसे किसी गहरे कुएँ से आती मालूम देती है...

"क्या इससे पहले भी कभी इस तरह का दर्द उठा था?" डॉक्टर पूछते हैं।

"नहीं।" पत्नी के स्वर में घबराहट है।

"दिल पर कोई बोझ?"

"ऐसी तो कोई बात नहीं है।"

"आॅफिस का कोई टेंशन?"

"नहीं," फिर कहती है-"हाँ, पिछले दिनों आफिस में इनके किसी साथी की कैंसर से मौत हो गई थी। उसकी पत्नी की नियुक्ति में हो रही देर को लेकर अक्सर झुुँझलाते रहते थे।"

थोड़ी देर चुप्पी छाई रहती है।

"डाक्टर साहब, क्या कोई खतरे की बात है?" पत्नी का स्वर रुँध जाता हेै।

"देखिए" ...डॉक्टर कहता है-"मैं आपको अंधेरे में नहीं रखना चाहता। इनका ई.सी.जी. डाउटफुल है। इस पेन से रिकवर हो जाएँ, तो इनका कार्डिएक स्ट्रेस टेस्ट (टी.एम.टी.) कराना होगा। उसके बाद ही कुछ पता चल पाएगा। मैंने दवाएँ लिख दी है। इनको बेड रेस्ट कराइए."

क्या हुआ था? वह दिमाग पर जोर डालता है-वह घर से बाहर निकला ही था कि बहुत से बच्चे दौड़ते हुए उसके पास आए थे-"अंकल, पतंग उतार दीजिए." छज्जे पर डोर से अटकी पतंग हवा में इधर-उधर झूल रही थी। उसने जैसे ही उचककर पतंग की ओर हाथ बढ़ाया था, सीने में तीखा दर्द उठा था। जैसे दम ही निकल जाएगा। वह पसीने-पसीने हो गया था। उसने बेबसी से बच्चों की ओर देखा था। वे सब उसकी बिगड़ती तबीयत से बेखबर पतंग की ओर टकटकी लगाए थे, खुशी से उनकी आँखें चमक रही थीं। सारी शक्ति बटोरकर उसने छज्जे से पतंग उतारकर बच्चों को थमा दी थी। पतंग पाकर वे सब उछलते-कूदते पार्क की ओर दौड़ गए थे। तभी उसे लगा था, जैसे आँतों ने भी काम करना बंद कर दिया है, दिल बैठा जा रहा था, सिर चकरा रहा था। वह गिरने ही वाला था कि उसने दीवार का सहारा ले लिया था। उसके बाद क्या हुआ था-उसे कुछ याद नहीं।

उसे फिर वैसा ही दर्द महसूस होता है। न चाहते हुए भी मुँह से कराह निकल जाती है।

"दर्द कैसा है?" डॉक्टर पूछता है।

ु "तेज है।" वह कहता है।

"इज इट इंटालरेबल?"

डॉक्टर के सवाल से उसे लगता है यह वार्तालाप ठीक इसी तरह पहले भी कभी हुआ है। कब? उसे कुछ याद नहीं आता। जब ऐसा दर्द जीवन में पहली बार ही उठा हो, तो फिर डॉक्टर से इस बारे में पहले कभी बातचीत का प्रश्न ही कहाँ उठता है। अक्सर किसी घटना या बातचीत को लेकर उसे इस तरह का अहसास होता है और वह सोच में पड़ जाता है।

डॉक्टर को अभी भी उसके उत्तर की प्रतीक्षा है। उसकी समझ में नहीं आता कि पत्नी के सामने डॉक्टर को क्या जवाब दे। वह बहुत छोटे दिल की है, जल्दी ही घबरा जाती है।

"इट्स सिवीयर!" वह बहुत सोचकर कहता है।

"दर्द बर्दाश्त न हो तो जबान के नीचे ये गोली रख लीजिएगा।" कहकर डॉक्टर जाने की तैयारी करने लगता है।

पत्नी डॉक्टर को फीस दे रही है। घर आकर मरीज देखने की मोटी फीस है उसकी। उसका दिल डूबने लगता है। पिछले महीने गाँव से माँ की चिट्ठी आई थी, बरसात में घर की अधकच्ची दीवारें बैैठ जाने की बात लिखी थी। शहरी बेटे का दो कमरे वाला किराए का मकान उन्हें कबूतरखाना लगता है। इसलिए वह गाँव में ही रहती हैं। माँ बहुत स्वाभिमानी हंै। पति की मृत्यु के बाद जिस बेटे को अनेक कष्ट सहकर पढ़ाया-लिखाया, पैरों पर खड़ा किया, उसको आर्थिक मदद के लिए सीधे आदेश देना उन्हें पसंद नहीं हैं। उसने पी.एफ.से पाँच हजार रुपए निकाल लिए थे, ताकि गांव जाकर मकान की मरम्मत करा सके. वही रूपये अब उसके इलाज में खर्च हो रहे हैं। वह दिल मसोसकर रह जाता है।


मोहल्ले वाले उसे देखने आ रहे हैं।

"भइया, दिल छोटा न करो। ठीक हो जाओगे।" एक कहता है।

"खुश रहा करो। दुनिया भर के बवाल दिल से लगाए रखोगे, तो बीमार पड़ोगे ही!" दूसरा कहता है।

"बेड रेस्ट की कोई ज़रूरत नहीं है। ये सब इन डॉक्टरों के चोंचले हैं। तुम सुबह-शाम घूमने ज़रूर निकला करो, दिल बहल जाता है।" तीसरा समझाता है।

"दिल में कुछ हो तो हमसे कह डालो, दिल हल्का हो जाएगा।" मित्र कहता है।

"तुम सोचते बहुत हो। सोचना बंद कर दो। इस बीमारी का यही इलाज है।" बुजुर्ग मित्र समझाता है।

वह चिढ़कर आँखें बंद कर लेता है...

आदमी जिंदा है, तो सोचेगा ही। उसे तो सपनों में भी सोचने की आदत है। जीवन की अनेक जटिल समस्याओं से निबटने के सूत्र उसे सपनों में माथापच्ची करते हुए मिले हैं। सोचने से तो उसे शक्ति मिलती है।

दफ्तर से रमाकान्त चपरासी आया है। उसके आराम का ख्याल कर पत्नी उसे बाहर से ही लौटाने लगती है। वह आवाज देकर उसे भीतर बुला लेता है। पत्नी को बुरा लगता है, वह रसोई की ओर चली जाती है।

"बाबू जी, आप तो कभी किसी का दिल नहीं दुखाए, फिर आपको ये दिल की बीमारी।" उसकी आवाज रुँध जाती है।

दफ्तर में सभी अपने दिल की गाँठ उसी के आगे खोलते हैं। वह भी दिल से उनकी तकलीफें सुनता है और जहाँ तक संभव हो पाता है, दिल खोलकर मदद भी करता है। उसे समझते देर नहीं लगती कि एकाएक उसका इस तरह रो पड़ना किस वजह से है-दो महीने पहले उसका घर जल गया था वर्षों की मेहनत से इकट्ठा गृहस्थी का सामान पल भर में जलकर राख हो गया था, अनियमित उपस्थिति की वजह से उसकी तनख्वाह भी नहीं बनी, बेटी की शादी अलग सिर पर है यदि वह अस्वस्थ न होता तो रमाकांत उससे खर्चे-पानी के लिए रुपए ज़रूर मांगता।

उसका दिल पसीज जाता हैं

पत्नी रसोई में है। वह धीरे से उठता है, अलमारी से दो सौ रूपये निकालकर रमाकांत को दे देता है। तभी उसे याद आता है कि पी.एफ.में जमा धन के लिए नामांकन पत्र का नवीनीकरण उसने नहीं कराया है। यदि उसे कुछ हो गया, तो पत्नी को परेशानी हो सकती है। वह जल्दी से नामांकन प्रपत्र भरकर रमाकांत को दे देता है ताकि शेष कार्यवाही आॅफिस से पूर्ण हो उसकी सेवा पुस्तिका में चस्पाँ कर दिया जाए. एक महत्त्वपूर्ण काम निबटा लेने पर उसके दिल को करार मिल जाता है।

तभी रसोई से पत्नी लौट आती है। उसकी आँखों को देखकर वह समझ जाता है कि वह छिपकर रोती रही है।

"हार्र्र्ट सेंटर" के रिसेप्शन पर बैठी लड़की उसका नाम पुकारती है। वह टेस्ट फीस सात सौ रूपये जमा करने को कह रही है। उसका दिल बुझ जाता है। माँ के साथ-साथ उसे रुड़की में पढ़ रहे बेटे का ध्यान आता है, जिसका अगले महीने पी.आर.एल.अहमदाबाद में वैज्ञानिक पद हेतु इंटरव्यू है। उसे वहाँ भेजने के लिए भी रुपयों की ज़रूरत होगी। उसे जोर की प्यास महसूस होती है, पर डॉक्टर ने टेस्ट से पहले खाना-पीना सब बंद कर रखा है।

पत्नी ने सात सौ रूपये जमा कर दिए है। वह बहुत चिंतित है, लड़की से स्ट्रैस टेस्ट (टी.एम.टी.) के बारे में तरह-तरह के सवाल कर रही है। लड़की चंचल है, वह शरारत भरे अंदाज में एक निगाह उस पर डालती है, फिर पत्नी से कहती है, "मैडम, आप बेकार ही परेशान हो रही हैं। आपके पति का चेहरा ही बता रहा है कि वे बिल्कुल स्वस्थ हैं।"

लड़की का यह अंदाज उसे अच्छा लगता है। उसका दिल बढ़ जाता है।

कक्ष में घुसते ही उसकी नजर बड़ी-सी मशीन, कंप्यूटर और उससे जुड़े तारों के जाल पर पड़ती है, उसे ये सब बहुत भयानक लगते हैं। उसके सीने के बाल साफ कर जगह-जगह तारें चिपका दी जाती हैं। वह खुद को किसी मकड़जाल में जकड़ा महसूस करता है।

यदि टेस्ट से उसके दिल में किसी नुक्स का पता चलता है तो? ...वह तो बिल्कुल अपाहिज होकर रह जाएगा। इन सात दिनों के बेड रेस्ट से वह खुद को काफी बूढ़ा महसूस करने लगा है...

डॉक्टर मशीन चालू कर देता है। वह पैरों के नीचे धीमी गति से 'मूव' करते चैड़े से पट्टे (बैल्ट) पर कदमताल करने लगता है। स्क्रीन पर उसके दिल की गतिविधियों के ग्राफ बन रहे हैं...

यदि उसे कुछ हो गया तो...? स्क्रीन पर पहले उसे सिनेमा स्लाइड्स की तरह मां, पत्नी और बेटे के चित्र दिखाई देते हैं, फिर भविष्य के बहुत से भयानक दृश्य फड़फड़ाते हुए गुजर जाते हैं। उसके माथे पर पसीने की बूँदे चुहाचुहा आती हैं।

"कोई दिक्कत?" डॉक्टर नजदीक आकर पूछता है।

"न...नहीं।" वह चैंक पड़ता है।

"स्पीड बढ़ेगी।" डॉक्टर सचेत करता है।

बर्फ की सिल्ली पर पड़ा पिता का शव ...रोती...बिलखती माँ...क्या वह भी अपने पिता की तरह असमय ही इस दुनिया से चल देगा...? फिर...फिर...उसके सपनों का क्या होगा...? कैसे भी इस मकड़जाल से निकलना चाहिए.

वह दिल को कड़ा करता है और दृढ़-निश्चय के साथ बैैैल्ट पर दौड़ने लगता है।

"कहीं दर्द तो महसूस नहीं हो रहा?" डॉक्टर की आवाज सुनाई देती है।

"नो प्राब्लम!" वह आत्मविश्वास से कहता है।

बैैल्ट फुल स्पीड पर है। वह पूरी ताकत लगाकर दौड़ने लगता है। इस मकड़जाल से तो निकलना ही होगा। कंम्यूटर हार्ट रेट एक सौ अस्सी प्रति मिनट दर्शा रहा है, पर अब उसका ध्यान इस ओर नहीं है। वह दौड़ते-दौड़ते बहुत आगे जाता है, जहाँ से डॉक्टर मशीन, कंप्यूटर सब खिलौने जैसे दिखाई देने लगते हैं।

'की' बोर्ड पर चलती डॉक्टर की अँगुलियों को जैसे लकवा मार गया हो। वह अचकचाया-सा उसे देखे जा रहा है। टेस्ट एक्सरसाइज के प्रति ऐसी टालरेन्स तो किसी नॉर्मल आदमी में भी देखने को नहीं मिलती।