दिविक रमेश से बातचीत / लालित्य ललित

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हिन्दी के सुप्रतिष्ठित कवि दिविक रमेश से लालित्य ललित की बातचीत

लालित्य ललित: आप शुरू से कवि बनना चाहते थे या कुछ और?

दिविक रमेश: जहां तक मुझे याद है कविता लिखना तो मेरा 14-15 वर्ष की आयु से शुरु हो गया था और तब कुछ बनने बनाने की बात कहां ध्यान में आती थी। पढ़-लिख लोगे तो बड़े आदमी बनोगे, ऐसा कुछ ही सुनने में आता था। लगता है बिना किसी योजना के कवि बन गया हूँ। महाविद्यालय तक आत-आते अभिनेता बनने की धुन भी सवार हुई थी पर सफल नहीं हुआ। बाद में चलकर बाल-साहित्यकार के रूप में भी विशिष्ट पहचान मिली है।

लालित्य ललित: कविता के साथ आपने कहानी में भी अपनी कलम चलाई कॉलेज के दिनों में फिर कविता को ही क्यों चुना?

दिविक रमेश: मज़ेदार रहस्य यह है कि सबसे पहले मैंने कहानी ही लिखी थी। और काफी देर तक में कविता के साथ-साथ कहानियां भी लिखता रहा हूँ जो पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं। एक कहानी पर टेली-फिल्म बनी और एक कहानी “सुरजा" तो चर्चित भी हुई। उनमें से कुछ कहानियां आज भी वेबसाइट में छप जाती हैं। हाल ही में "सुरजा" कहानी तो बिहार की पत्रिका "सृजक" नामक पत्रिका के प्रवेशांक (नवम्बर-जनवरी, 2013) में प्रकाशित होकर आई है। फिर लिखना क्यों छूटता चला गया इसका उत्तर देना कठिन है। यूं हुड़क अब भी उठती रहती है लेकिन शायद आलस्य बाजी मार ले जाता है। अब तो कहानियां-उपन्यास पढ़ भी नहीं पाता। सच तो यह है कि गद्य में मन रम नहीं पाता। लेकिन किसी न किसी रूप में गद्य लिखता तो रहता ही हूँ। लेकिन ध्यान मेरी कविता की ओर ही अधिक बल्कि कहूँ प्राय: जाता है।

लालित्य ललित: आप पर अक्सर यह ठप्पा लगाया जाता है कि दिविक रमेश ग्रामीण कवि है जबकी मैं यह नहीं मानता। मेरी नज़र में आप जमीन से जुड़े लेखक हैं जिनकी नजर से कुछ भी नहीं बच सकता?

दिविक रमेश: आप के मत से में सहमत हूँ। लेकिन जहां तक में समझता हूँ, जिसे आप ठप्पा कहते हैं, अधिकांश समीक्षकों ने उसे ठप्पे के रूप में न कह कर मेरी कविता या लेखन की सहज ताकत और विशिष्टता के रूप में देखा है। उनका मानना है कि मेरी कविता में लोक और मेरे लोक की भाषा ’हरियाणवी’ एक सहज अभिव्यक्ति-क्षमता के रूप में मौजूद है। मैं बता दूं कि मेरा जन्म दिल्ली के एक गांव किराड़ी में हुआ था जो हरियाणे की सीमा पर है और वहां के लोग हरियाणवी बोलते हैं। मेरे तीसरे संग्रह ’हल्दी चावल और अन्य कविताएं’ का चयन कवि केदारनाथ सिंह ने किया था। उन्होंने अपनी भूमिका का शीर्षक ’हरियाणवी प्रयोगों का एक अलग रंग और शिल्पगत सहजता’ दिया था। वैसे 8वें दशक में उभर कर आने वाले मेरे समेत लगभग सभी कवियों की कविता की यह विशेषता रेखांकित की जा सकती है। गांव की संवेदना आज भी में अपनी रगों में महसूस करता हूँ और इसे धारदार बनाए रखने की सीख मुझे कवि त्रिलोचन जी से भी मिली है। लेकिन वह मेरी सीमा नहीं है। इसीलिए में अपनी कविता के प्रति आपके आकलन से भी सहमत हूँ।

लालित्य ललित: पर आज कल आपने व्यंग कविता की और अपना रुख किया है, यह माजरा क्या है? कहीं यह प्रेम जनमेजय के प्रति आपका प्रेम तो नहीं दिख रहा?

दिविक रमेश: नहीं मैं कविता ही लिखता हूँ। मेरी कुछ कविताओं को आप व्यंग्य कविता की श्रेणी में रखना चाहते हैं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। हां प्रेम जनमेजय के प्रभाव में मैंने यदाकदा गद्य में व्यंग्य लिखे हों तो ताज्जुब नहीं। हम दोनों के सम्पादन में कभी व्यंग्य की एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी-व्यंग्य एक और एक। उसमें मेरा भी व्यंग्य है। आप पढ़ें।

लालित्य ललित: खंड काव्य भी आप ने रचा, खंड खंड अग्नि के बाद आप एक दम चुप से हो गए, क्या कारण है?

दिविक रमेश: खंड खंड अग्नि एक काव्य नाटाक है और काफी चर्चित हुआ है। भारतीय स्तर का गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार प्राप्त कर चुका है। एम.ए. के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जा रहा है। अनेक भाषाओं जैसे अंग्रेजी, गुजराती, मराठी, कन्नड़ आदि में अनूदित-प्रकाशित हो चुका है। प्रताप सहगल उसके न केवल बड़े प्रशंसक हैं बल्कि उसके क्लासिक हो जाने के प्रति आश्वस्त हैं। इस सब प्रेरणाओं के बावजूद अगला काव्य-नाटक या नाटक क्यों नहीं लिख सका हूँ तो इसका क्या जवाब दूं। बस नहीं लिख सका हूँ। विचार कोंधते रहते हैं। हो सकता है लिखा भी जाए। हां मेंने बच्चों के लिए एक बाल नाटक ज़रूर लिखा है ’बल्लू हाथी का बालघर’ जो राजकमल प्रकाशन प्रा०लि० ने प्रकाशित किया है।

लालित्य ललित: आपकी यात्राएँ जो आप आज कल कर रहे है वो आपके लेखन में कहीं अवरोध तो पैदा नहीं कर रही?

दिविक रमेश: नहीं बाधक तो नहीं कह सकता। जहां जाता हूँ साहित्यिक माहौल मिल ही जाता है। इन दिनों प्राय: वर्धा स्थित विश्वविद्यालय जाना होता है। वहां बहुत से साहित्यकार भी हैं, उनसे मिलना होता है। अच्छा लगता है, अनुभव भी होते हैं। कभी-कभार लिखना भी हो जाता है। हां, विधिवत लेखन के लिए घर ही उपयुक्त जान पड़ता है।

लालित्य ललित: क्या कविता का अंत होना तय है?

दिविक रमेश: जी नहीं। न ऐसा तब हुआ जब अंत का नारा दिया गया था और न आगे ही होने वाला है। जब हिन्दी के कुछ लोग भी कविता के अंत की बात उगल रहे थे तब मुझसे एक कविता लिखी गई थी -’सवाल का अंत’ जो मेरे चौथे संग्रह छोटा-सा हस्तक्षेप में संग्रहीत है। कविता यूं है: "कविता से अब बात नहीं बनती। /और ईमान से?/फायदे की चीज़ अब नहीम रही कविता / और ईमान? / मज़ाक नहीं, यकीन कीजिए / अब कोई नहीं कद्र करता कविता की / और ईमान की? / ईमान ईमान ईमान / अजीब रट लगा रखी है ईमान की /थोड़ा-बहुत बचा है तो टिकी है दुनिया / अब में केवल हंस सकता था/इसलिए हंसता रहा देर तक / थोड़ी देर बाद / एकान्त में बैठकर / हम दोनों ही को / गम्भीर जो होना था?" और एक हाल ही में लिखी कविता "अरे अबोधा" का एक अंश दहै: "बोल रहे हैं, बोल रहे हैं / जिधर भी देखो बोल रहे सब / हद तो यह है अनहद कविता भी / उनके लेखे मर चुकी है/अरे अबोधा बोले से पहले कुछ तो सोचा होता / मारा नहीं कविता को तूने, चाही सपनों की हत्या / अब बचा क्या!" और एक अन्य कविता "बहुत कुछ है अभी" में कुछ पंक्तियां भी सुन लीजिए: "गीतों के पास हैं अभी वाद्ययंत्र / वाद्ययंत्रों के पास हैं अभी सपने / सपनों के पास हैं अभी नींदें / नींदों के पास अभी रातें / रातों के पास हैं अभी एकान्त / एकान्तों के पास हैं अभी विचार / विचारों के पास हैं अभी वृक्ष / वृक्षों पास हैं अभी छाहें / छाहों के पास हैं अभी पथिक / पथिकों के पास हैं अभी राहें / राहों के पास हैं अभी गन्तव्य / गन्तव्यों के पास हैं अभी क्षितिज / क्षितिजों के पास हैं अभी आकाश / आकाशों के पास हैं अभी शब्द / शब्दों के पास हैं अभी कविताएँ / कविताओं के पास हैं अभी मनुष्य / मनुष्यों के पास है अभी पृथ्वी" / है अभी बहुत कुछ / बहुत कुछ है पृथ्वी पर / बहुत कुछ"

लालित्य ललित: क्या लम्बी कविता का जमाना फिर से आएगा?

दिविक रमेश: क्या कह सकता हूँ कभी मैंने भी लम्बी कविताएं लिखी थीं। मेरे पहले ही संकलन ’रास्ते के बीच’ में "रास्ते के बीच: एक आधुन्क आदमी" एक लम्बी कविता है। हाल ही प्रकाशित कविता-संग्रह "बांचो लिखी इबारत" में एक लंबी कविता भी है- "वह खींचता रिक्शा कलकत्ते में’। कविता संग्रह ’वह भी आदमी तो होता है’ में भी लंबी कविताएं हैं। लेकिन आजकल लंबी कविता की वैसी बात नहीं हो रही है जो 15-20 वर्ष पहले हुआ करती थी। कहना चाहूँगा कि पंत और विशेष रूप से निराला और मुक्तिबोध की टक्कर की (और यह में बारती और अज्ञेय को ध्यान में रखकर कह रहा हूँ) लंबी कविताएं अभी लिखी जानी शेष हैं। इस संदर्भ में इतना ही।

लालित्य ललित: किस कवि की कविता ने आप को परभावित किया?

दिविक रमेश: बहुतों ने किया होगा। प्रारम्भ में हिन्दी के छायावादी कवियों, मैथिलीशरण गुप्त और अंग्रेजी के वर्ड्सवथ आदि कवियों ने। बाद में शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन, अफ़्रीकी कविता, रूसी कविता और कोरियाई आदि कविता ने।

लालित्य ललित: अकविता का दौर आएगा

दिविक रमेश: जहां तक दौर की बात है, लगता तो नहीं। मैं कविता का अंतिम संग्रह "निषेध" को मानता हूं। वहाँ अकविता के दौर का अंत मानते हुए मैंने आगे की (अर्थात बदली हुई आठवें दशक की) कविता की एक झलक को अपने द्वारा संपादित कविता-पुस्तक "निषेध के बाद" (1982) में समेटने की कोशिश की थी जो चर्चित भी रही। संकलन में अकविता से जुड़े रह चुके एक कवि को भी सम्मिलित किया था जो अकविता से प्रस्थान कर चुके थे। उनका नाम हॆं- चन्द्रकांत देवताले।

लालित्य ललित: आज कल फेस बुक के कवियों की भरमार हो गई है, उस पर क्या कहेगे?

दिविक रमेश: देखिए में समझता हूँ कि अपने यहां नए ही नहीं पुराने कवियों को भी उपेक्षित रखने की सशक्त परंपरा कायम है। और इसके समानांतर अपने-अपने को ही आगे बढ़ाने की दलीय नुमा प्रवृत्ति भी घर किए हुए है। यह साहित्य के प्राय: हर माध्यम जैसे पत्र-पत्रिकाओं, संस्थाओं, आलोचकों आदि के संदर्भ में कहा जा सकता है। ऐसे में फेसबुक ने सबकी पहुंच को तो आसान बनाया है। लेकिन हां, पाठकों और उनकी जिम्मेदारी तॆयारी पर ज्यादा आ गई है। साथ ही रचनाओं पर ईमानदार प्रतिक्रिया देने का माहौल बना तो फेसबुक की सर्थकता बनी रहेगी। खतरा यही है कि कहीं फेसबुक को भी पहले जैसी प्रवृत्तियां न जकड़ लें। उनसे बचाना होगा। फेसबुक कोई पुरस्कार या आलोचना की परम्परा न शुरु कर दे। यदि ऐसा हुआ तो फिर वही गन्द...।

लालित्य ललित: इन दिनों क्या बेहतर लिखा जा रहा है या आप ने किस रचनाकार को पढ़ा या किस लेखक ने आप के मन को हिलाया?

दिविक रमेश: पढ़ता तो बहुत कुछ रहता हूँ। तुम जानते हो कि तुम्हारी कविताएं भी पढ़ी ही हैं। जो पढ़ा है उसमें से अच्छा भी बहुत कुछ लगा है। किस किस का नाम लूं। स्मृति दोष के कारण कुछ नाम छूट भी सकते हैं। लेकिन बीच-बीच में जो पुराना पढ़ा है वह बार बार हिलाता है। मसलन शमशेर, नागार्जुन और त्रिलोचन की कविताएं। इधर प्रसिद्ध रूसी उपन्यास "जुर्म और सजा" भी पढ़ा और भगवत शरण उपाध्याय की ’खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर’, राहुल संकृत्यायन की ’वोल्गा से गंगा तक’ आदि पुस्तकों को दोबारा पढ़ा। इन्होंने भी हिलाया।

लालित्य ललित: कवियत्रियों की अगर बात करे तो किन्ही पांच के नाम लेना चाहगे?

दिविक रमेश: नाम गिनाने की प्रथा से मुझे मुक्त ही रखने की कृपा करें। मैं नाम छूटने की पीड़ा को समझता हूँ। जहां नाम गिनाए जाते हैं वहां हर रचनाकर (छोटा-बड़ा) और इसमें में स्वयं को भी सम्मिलित कर रहा हूँ, अपने नाम खोजते पाए जाते हैं और नाम न देख कर दुखी भी होते हैं।

लालित्य ललित: इन दिनों अपनी आत्मकथा लिखने का दौर चल पड़ा है। क्या आप के मन में भी ऐसा आया है की मैं भी कुछ लिखूं और अमर हो जाऊं.

दिविक रमेश: मन तो होता है विधिवत लिखूं पर मन की बात मन में ही रह जाती है। और कामों में जुट जाता हूँ। यूं अंशों में लिखा है। आत्मकथा लिखने से तात्कालिक रूप से चर्चित तो हुआ जा सकता है लेकिन कोई अमर होगा ही होगा यह मेरे लिए एक समाचार है।

लालित्य ललित: अपने पास जो पत्र आते है उन को कैसे लेते है?

दिविक रमेश: पत्रों को में बहुत महत्व देता हूँ और उनके लिए उत्सुक भी रहता हूँ। जहां तक संभव हो सबका उत्तर भी देता हूँ। रचनाकार की हैसियत से पत्र प्राय: रचनाओं के संदर्भ में होते हैं। प्रशंसा होती है। प्रशंसा से मुझे हौंसला ही नहीं सुख भी मिलता है।

लालित्य ललित: क्या कहना चाहते है आप नए कवियों को?

दिविक रमेश: किसी भी कीमत पर अपनी सृजनशीलता को बनाए रखें। प्रकाशन, चर्चा, आलोचना, पुरस्कार आदि बहुत बार अवरोध का काम किया करते हैं, यह ध्यान में रखना चाहिए। सृजनशीलता बनी रही तो ये ज़रूर आपके हो जाएंगे।

लालित्य ललित: कविता अगर आप के पास न होती तो किस विधा में आप लिखते?

दिविक रमेश: कविता के साथ-साथ, बाल साहित्य, लेख, अनुवाद आदि क्षेत्रों में तो में आज भी काफी सक्रिय हूँ। कविता मेरे पास है और जब तक वह मेरे पास है में ऐसे सवालों पर क्यों गौर करूं?

लालित्य ललित: अगर लेखक न होते तो आप अपने को कहा पाते?

दिविक रमेश: शायद भ्रष्टाचारियों और अहंकारियों के बीच

लालित्य ललित: विदेशी लेखन और स्वदेशी लेखन में क्या और कितना फ़र्क है?

दिविक रमेश: जितना मैंने पढ़ा है, कह सकता हूँ कि मूलत: तो कोई नहीं है। परिवेश की अनुगूंजों और उनके कलात्मक अनुभवों की दृष्टि से बाह्य कलेवर में कुछ अलगाव होता ही है।

लालित्य ललित: कोई ऐसा सपना है जो आप को लगता है की वह छूट गया है?

दिविक रमेश: वह जो मेरी कविता का सपना है वह जाने कब पूरा होगा।

लालित्य ललित: अगला जन्म यदि आप को मिलता है तो दुबारा दिविक रमेश होना पसंद करेगे या कुछ और?

दिविक रमेश: दिविक रमेश से थोड़ा बेहतर होना चाहूँगा।

लालित्य ललित: क्या और कोई ख्वाइश अभी भी अधूरी है जो पूरी नहीं हुई?

दिविक रमेश: मेरे आम पाठक बहुत हैं। मेरे अनुज और वरिष्ठ कवियों ने भी मुझे पढ़ा है। बहुतों ने सराहा भी है। लेकिन मुझे अब भी कोई आलोचक कायदे से नहीं मिल पाया है। अपने साहित्यिक परिवेश में बिना कायदे के आलोचक के बिना किसी रचना का सही तो क्या सामान्य मूल्यांकन हो जाना भी कठिन है। और आलोचक का अर्थ प्रशंसक मात्र नहीं है। चाहता हूँ कि मेरा लिखा दुनिया के अंतिम आदमी तक पहुंचे और अपनी योग्यतानुसार जगह बनाए।

लालित्य ललित: अपना खाली समय कैसे बिताते है?

दिविक रमेश: यूं तो आप जैसे मित्रों के कारण खाली समय है ही कहां। पर कुछ समय पत्नी, बच्चों और विशेष रूप से बच्चों के बच्चों के साथ बिताता हूँ। दोस्तों और टी.वी. का भी मुझे शौक है। आजकल तो कम्प्यूटर का भी कम जलवा नहीं है।

लालित्य ललित: आप अपने इस साहित्यिक जीवन में कई विद्वानों से मिले है कभी कोई संस्मरण लिखने का नहीं सोचा?

दिविक रमेश: मेरी एक प्रकाशित पुस्तक है- "फल भी और फल भी’। पीताम्बर पब्लिशिंग कं०लि०, करोल बाग, नई दिल्ली से प्रकाशित है। इस दृष्ट से उसे पढ़ा जा सकता है। यूं शमशेर, त्रिलोचन, माराठी कवि हेमन्त जोगलेकर आदि से सम्बद्ध संस्मरण भी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं शायद उस ओर आप का ध्यान नहीं जा सका है।

लालित्य ललित: कोई बड़ा पुरस्कार आप की झोली में नहीं आया अभी तक, मसलन साहित्य अकादेमी.....क्या कहते है? आप को नहीं लगता कि भारतीय भाषाओं के कवियों को यह पुरस्कार बहुत जल्दी मिल जाता है?

दिविक रमेश: अपने समय का एक बड़ा समझा जाने वाला पुरस्कार "सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड" तो मिला है। लेकिन वह मुझे प्रारम्भ में ही मेरी मौलिक कविता पुस्तकों पर मिल जाने के कारण शायद हानिकारक भी रहा। बहुत को ईर्ष्यालु और विरोधी बना दिया। मेरा नाम त्रिलोचन के शब्दों में ’सूचियों से’ हटाया जाने लगा। विशेषांकों में मेरे लिए जगह नहीं बचाई जाने लगी। आदि-इत्यादि बनाया जाने लगा। आज भी ऐसे अनुभवों से गुजर रहा हूँ। पुरस्कार तो छोड़िए, वे माननीय भी जो अकेले में मेरी रचनाओं को सराहते हैं, जब लेखों में जिक्र करना होता है तो उन्हें न मेरी कोई रचना याद आती है और न ही मेरा नाम। जरा सोचिए। दिलचस्प लगेगा सुनना। हिन्दी अकादमी, दिल्ली जो मुझे तीन बार पुरस्कृत/सम्मानित कर चुकी है उसकी कविता संबंधी पुस्तक में, जिसके संपादक केदारनाथ सिंह हैं, मेरी कविता नहीं हैं। इसे विडम्बना नहीं तो क्या कहा जाए। क्या कहा जा स्कता है कि उस समय के सचिव महोदय घास चरने चले गए थे या सम्बाद्ध सभी लोग पूर्वाग्रहों/दुराग्रहों से ग्रसित थे। पिछले दिनों प्रगति मैदान मे हुए एक समारोह में में भी वक्ता था और वहां हिन्दी अकादमी के इस समय के उपाध्यक्ष भी थे। मैंने इस विडम्बना की ओर उनका ध्यान दिलाया। पता नहीं सुधार होगा या नहीं। वैसे न होने की संभावना ही अधिक है। बाद में कोई तथाकथित बड़ा पुरस्कार मसलन ’साहित्य अकादमी पुरस्कार’ न मिलने के पीछे थोड़ा मेरा स्वभाव भी आड़े आया होगा। अपनी रचना के पढ़ने का आग्रह तो कर सकता हूँ लेकिन चलन के मुताबिक उसके लिए कुछ मांगने या उसकी प्रशंसा में लिखवाने में संकोच के सामने ही झुकना पड़ा है। मुझे न अपने आप को प्रमोट करना आता है और न ही वह कला मैं सीखने का इच्छुक ही रहा हूँ और इस बात का मुझे संतोष भी है। यह तो में नहीं कहूँगा कि पुरस्कार के लिए में आशान्वित नहीं रहता अथवा उसे प्राप्त नहीं करना चाहता लेकिन न मिलने पर अब अवसाद नहीं होता। यूं भी जो पुरस्कार मुझे मिल चुके हें उनकी में तौहीन नहीं करना चाहता। वे भी मेरे लिए कम बड़े नहीं हैं। साथ ही जो मुझे महत्त्व देते हैं (और वे गुटबाजों की तरह निरे प्रशंसक नहीं होते), मुझे ससम्मान प्रकाशित करते हैं, उपयुक्त स्थान देते हैं वे भी मेरे लिए बहुत बड़े और महत्त्वपूर्ण हैं। ज्यादा न सही मेरे कुछ दोस्त तो हैं ही जो मुझे संभालते हैं। उन्हें क्यों कम आकूं। अत: अवसाद नहीं है। वैसे पुरस्कार मिलता तभी है जब निर्णायक समिति में बैठा आपका प्रस्तावक प्रशंसक ही नहीं दबंग भी हो। ऐसा में अन्यत्र भी कह चुका हूँ।

(दिसम्बर 21, 2012)

दिविक रमेश: बी-295, सेक्टर-20, नोएडा-201301

लालित्य ललित: ब३/४३,शकुंतला भवन,पश्चिम विहार,न्यू डेल्ही-110063