दीपक की लौ की भांति ही मनुष्य की चेतना है / ओशो

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प्रवचनमाला

सांझ से ही आंधी-पानी है। हवाओं के थपेड़ों ने बड़े वृक्षों को हिला डाला है। बिजली बंद हो गई है और नगर में अंधेरा है।

घर में एक दीपक जलाया गया है। उसकी लौ ऊपर की ओर उठ रही है। दीया भूमि का भाग है, पर लौ न मालूम किसे पाने निरंतर ऊपर की ओर भागती रहती है।

इस लौ की भांति ही मनुष्य चेतना भी है।

शरीर भूमि पर तृप्त है, पर मनुष्य में शरीर के अतिरिक्त भी कुछ है, जो निरंतर भूमि से ऊपर उठना चाहता है। यह चेतना ही, यह अग्नि-शिखा ही मनुष्य का प्राण है। यह निरंतर ऊपर उठने की उत्सुकता ही उसकी आत्मा है।

यह लौ है, इसलिए मनुष्य मनुष्य है, अन्यथा सब मिट्टी है।

यह लौ पूरी तरह जले तो जीवन में क्रांति घटित हो जाती है। यह लौ पूरी तरह दिखाई देने लगे तो मिट्टी के बीच ही मिट्टी को पार कर लिया जाता है।

मनुष्य एक दीया है। मिट्टी भी है, उसमें ज्योति भी है। मिट्टी पर ही ध्यान रहा, तो जीवन व्यर्थ हो जाता है। ज्योति पर ध्यान जाना चाहिए। ज्योति पर ध्यान जाते ही सब कुछ परिवर्तित हो जाता है, क्योंकि तब मिट्टी में ही प्रभु के दर्शन हो जाते हैं।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)