दीया / विवेक मिश्र

Gadya Kosh से
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खेतों के बीच सोए एक गाँव वाले की सुबह शहरों के बंद कमरों में सोए शहरातियों की सुबह से बिलकुल अलग होती है और बुंदेलखंड में माताटीला बाँध की ओर जाती पक्की सड़क से बीस किलोमीटर दूर बसे गाँव सतलोन की सुबह तो बस सतलोन की ही होती। यहाँ रोज नए-नए रूप धरता, आसमान। रोज नए-नए तरीके से सिर चढ़ता, सूरज। नए-नए तरीकों से झरते, नीम के पत्ते और हर बार अलग तरीके से घूमती, उसकी परछाईं, धूप के धीरे-धीरे सरकने पर। कटाई के बाद दूर तक फैली दिखती, सपाट, खाली जमीन। जिसके भयावह विस्तार से कई बार उस पर चलने, उसे खोदने, कुरेदनेवाला आदमी भी डर जाता। निसंग पसरी इस जमीन पर, कहीं किसी योगी-सा बिलकुल अकेला खड़ा दिख जाता, कोई बूढ़ा पेड़।

यूँ तो सुबह ही क्या, सतलोन में खेतों के बीच रहनेवाले आदमी की दोपहर, शाम और रात भी बिलकुल अलग ही होती। जब धरती मौसम के साथ रंग बदलती, तो उसकी हर आहट, हर करवट यहाँ सबसे पहले सुनाई देती। पर कई दिनों से जो चीज यहाँ नहीं सुनाई देती है, वह है किसी आस, उम्मीद, किसी बदलाव की पदचाप। जैसे यहाँ से गुजरते हुए कोई राहगीर मंतर पढ़ के, किसी पुराने पीपल से बाँध गया है, सब कुछ। यहाँ कि इनसानी आवाजें, उनमें गाए जाने वाले गीत, ढोल की थापें और झांझरों की खनक, सभी कुछ। यहाँ सूरज की धूप, चंद्रमा की चाँदनी और पूरब से पश्चिम तक दौड़ती हवाओं में एक अजीब-सा वैराग है।

एक ना भरी जा सकनेवाली रिक्तता।

इस रिक्तता को भरने के लिए, बिलिया कई बार पूरा जोर लगा कर उठाती कोई पुराना, अपनी दादी की झुर्रियों में छुपा लोकगीत, जो थोड़ी दूर तक आसमान में किसी कटी पतंग-सा तैरता और फिर लप्पे खाकर झाड़ियों में उलझ जाता। फिर भी चौदह साल की बिलिया गाती रहती। गीत। मन ही मन में। कई बार तो वह गीत उसके भीतर इस कदर गूँजने लगता कि खेतों से टेर लगाते अपने बापू की आवाज भी उसके कानों तक नहीं पहुँचती। वैसे भी बिलिया और उसके बापू के बीच भी एक ना भरी जा सकने वाली रिक्तता थी, जो उसकी माँ की मृत्यु से पैदा हुई थी। उसकी माँ उसके जन्म के समय ही चल बसी थी। बिलिया को उसकी दादी ने पाला था। अपने बाप के लिए बिलिया खेत में अनचाहे ही उग आई खर-पतवार थी। वह जैसे-जैसे बढ़ रही थी। अपने बाप की आँखों में और भी ज़्यादा खटकने लगी थी। किसी संवाद की सारी संभावनाएँ समाप्त हो चुकने के बाद, बस उसकी दादी की जर-जर हो चुकी देह ही उसके और उसके पिता के बीच एक ऐसा सेतु थी, जो चरमराते हुए भी कई बातें यहाँ से वहाँ ढो के ले जाया करती थी। वह कई बार बिलिया को झकझोर देती, "अरे सुन लै बिलिया, तुमाओ बाप चिचया-चिचया कें पागल भओ जा रओ, ...कु जाने कौन-सी दुनियाँ में खोई रौउत जा मौड़ी"।

तब भी बिलिया अपने चारों ओर फैली एक कभी ना भरी जा सकने वाली रिक्तता को भरने की अपनी कोशिश जारी रखती। मन ही मन गुनगुनाती रहती। यंत्रवत अपने पिता के आगे जा कर खड़ी हो जाती। उनका हुक्म बजाती और फिर पलटकर अपने काम में लग जाती। बिलिया का परिवार खेतों के बीच बनी जिस झोंपड़ी में रहता था उसके आस-पास दूर-दूर तक एक पुराने मंदिर के सिवा कुछ नहीं था। ऐसा मंदिर जिसकी दीवारों पर घास उग आई थी, जिसके दरवाजे वर्षों से गायब थे, जिसमें विराजे देवताओं को उनके भक्त भूल गए थे। दूर पगडंडी से गुजरते लोगों के लिए वह एक परित्यक्त देवालय था, पर इस वीरान उजाड़ में दिन-रात यहाँ-वहाँ घूमती बिलिया के लिए वह एक ऐसा महल था, जिसका राजकुमार उसे छोड़ कर कहीं चला गया था। पर वह कभी भी वापस आ सकता था और तब तक यह महल, जो दूसरों के लिए एक खंडहर था, बिलिया का था। कितनी ही दोपहरें बिलिया ने इसमें गुजारी थीं। वहाँ वह पूरी आजादी से गाती, चीखती, चिल्लाती और कभी-कभी, अपनी माँ को याद करके रोती भी थी, जिसे उसने कभी नहीं देखा था। यह मंदिर बिलिया का रहस्य लोक था, जिसमें दोपहर के एकांत में उसकी सारी कल्पनाएँ जीवित हो उठती थीं। गर्मियों की रातों में जब वह अपनी दादी के साथ, अपनी झोंपड़ी के बाहर सोती, तो उसे लगता जैसे चाँद पृथ्वी के नहीं, मंदिर के चक्कर लगा रहा है। घर यथार्थ था, तो मंदिर दिन रात चलने वाला स्वप्न।

एक शाम सिर पर सूखी लकड़ियों का बोझ उठाए, किसी बुंदेली लोकगीत की तान छेड़ती, झोंपड़ी की ओर बढ़ती बिलिया ने जब डूबते सूरज की सिमटती किरनों में मंदिर को देखा तो उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ।

ना जाने कबसे खाली पड़े मंदिर की मुड़ेर पर आज एक दीया जल रहा था।

उसे लगा क्या सचमुच ही उसके कल्पनालोक का राजकुमार लौट आया है। उस रात बड़ी देर तक उसकी आँखें उस दीये की लौ को ताकती रही थीं। वह तरह-तरह की कल्पनाएँ करते कब सो गई, पता ही नहीं चला था। सुबह मंदिर की मुड़ेर पर जलता दीया बुझ चुका था। पर भोर की किरनों में वह पुराना मंदिर अब पहले जैसा नहीं लग रहा था। वह कुछ बदल गया था। दीवारों पर उगी घास गायब थी। आस-पास की झाड़ियाँ काट दी गई थीं। मंदिर के द्वार पर आम के पत्तों का बना बंदनवार बहुत करीने से बँधा हुआ था, जिसे शायद बिलिया ने अपने जीवन में पहली बार देखा था। इन परिवर्तनों ने मंदिर को निखार दिया था। पर बिलिया को लग रहा था जैसे उसका कुछ छिन गया है। उसे मंदिर के उस खालीपन, उस रिक्तता से प्यार था, जो अचानक ही किसी ने आकर भर दी थी। वह दिन भर कुछ अनमनी रही थी। आज शाम होने से पहले ही उसके पिता ने उसे खेतों से बुला लिया था। आज मंदिर की तरह वह भी बदले हुए थे। बिलिया के झोंपड़ी में पहुँचते ही वह दादी और उसको मंदिर ले गए थे। आज पहली बार बिलिया अपने पिता और दादी के साथ उस मंदिर में गई थी, जिसमें वह अक्सर ही उनसे छुपकर अकेली ही जाया करती थी।

मंदिर पहुँचकर ही उसे पता चला था कि एक साधू ने अपने दो चेलों के साथ मंदिर में डेरा डाला है। मंदिर की मुड़ेर पर जलता दीया उन्हीं के आगमन की सूचना थी। मंदिर के अहाते में बीचों-बीच बने गोल चबूतरे पर साधू बाबा पालथी मार कर जमे हुए थे। नीचे जमीन पर दो-चार बूढ़ी औरतें और दो-एक अधेड़ आदमी बैठे थे। बाबा के दोनों चेले जवान थे। जिनमें से एक दीया जला कर मंदिर की मुड़ेर पर रखने जा रहा था और दूसरा बाबा और उनके भक्तों के बीच बैठा था। बाबा भक्तों से मुखातिब थे। उनके अनुसार यह स्थान किसी देवता के श्राप से अभिशप्त था और वह इसके के उद्धार के लिए, दैवी कृपा से यहाँ पधारे थे, या कहें कि अवतरित हुए थे। यह सब उन्हें स्वयं इस मंदिर में विराजे देवता ने स्वप्न देकर बताया था। बिलिया, उसके पिता और दादी भी अचानक हुए इस चमत्कार से प्रभावित हुए बिना ना रह सके. वे भी मंदिर पहुँचते ही बाबा के चरणों में साष्टांग हुए और एक कोने में बैठ गए. बाबा अपने तमाम तर्कों से एक ही बात सिद्ध करने पर तुले थे कि ईश्वर की सत्ता से भले ही यह संसार चलता हो, पर उस तक पहुँचने के लिए, उसकी कृपा का पात्र बनने के लिए, एक पहुँचे हुए गुरु की सबसे अधिक आवश्यकता होती है और इस बात को अपने भक्तों तक पहुँचाने के लिए उन्होंने एक सूत्र का आविष्कार किया था। जिसे बाबा जी अपने प्रवचन में इस तरह प्रयोग करते, जैसे कोई हवन की अग्नि में घी डाल रहा हो। उसे उच्चारते हुए उनके चेहरे पर, वैसे ही भाव उभरते, जैसे 'युरेका' कहते हुए आर्किमिडीज के चेहरे पर उभरे होंगे।

वह हुंकार कर कहते,

" ईश्वर है तो सृष्टि है,

सृष्टि है तो माया है,

माया है तो भटकन है,

और भटकन है, ...तो?

सारे भक्त एक साथ कहते, "तो गुरुजन हैं।"

यह कहते हुए वे आँखें मूँद लेते और उनके स्वरों में सबसे ऊँचा स्वर बाबा के चेलों का होता, जिनकी आँखें हमेशा खुली रहती। उस रोज बाबा ने प्रवचन समाप्त करते हुए धीरे से कहा, 'हरि बोल' उसे भी भक्तों और चेलों ने एक साथ दोहराया। सब गुरुनाम की महिमा से सराबोर, बाबा को देख रहे थे। तभी बाबा ने बड़े गौर से बिलिया को देखा और कहा, "बहुत सुरीला कंठ पाया है, तूने। मैंने तुझे गाते हुए सुना है। जब गाती है तो लगता है कोयल कुहुक रही है।" बिलिया को देखते हुए बाबा के मन में जो कोयल कुहकी थी, उसे वहाँ उपस्थित लोगों में से सिवाय बिलिया के कोई नहीं देख पाया था।

"तुझे तो प्रभु की सेवा में होना चाहिए. गुरुकृपा से सब ठीक हो जाएगा।" यह कहते हुए वह बिलिया के पिता की आँखों में देख रहे थे। उसके पिता की सुनसान आँखों में कोई ठंडे पानी का सोता फूट पड़ा था। उन आँखों का खालीपन धीरे-धीरे छँट रहा था। वह कभी बाबा को और कभी बिलिया को देख रही थीं। अब बिलिया उन आँखों को चुभने वाली खर पतवार नहीं थी।

दूसरे दिन सुबह से ही नहा-धो कर बिलिया और उसके पिता मंदिर पहुँच गए थे। बिलिया को मंदिर की सेवा में लगा दिया गया था। बिलिया के पिता और बाबा के बीच बिना कुछ कहे-सुने ही एक समझोता हो गया था। बिलिया को बाबा की सेवा में रहना था और बदले में बाबा को जीवन भर बिलिया का ध्यान रखना था और इस महान काम का साधन बनने के लिए बिलिया के पिता की झोली में जो पुण्य आना था, वह अलग। पुण्य न भी मिले तब भी तेजी से बड़ी होती बिलिया की जिम्मेवारी तो उसके सिर पर नहीं रहेगी। कुछ और नहीं तो उसके खाने-पीने और कपड़ों का इंतजाम तो हो ही जाएगा। यही सब सोच कर वह बहुत खुश थे और बाबा की हर बात पर हाँ में सिर हिला रहे थे। बाबा ने भी बड़े प्रेम से बिलिया को उसकी जाति, उसकी निर्धनता और तमाम अवगुणों को भुला कर प्रभु के लिए स्वीकार किया था। एकादशी के दिन बिलिया की दीक्षा का होना तय हुआ। बिलिया को भी खेत के काम से छुटकारा मिलने से बड़ी राहत मिली थी, पर दीक्षा! इसका ठीक-ठीक अर्थ वह अभी नहीं समझ पाई थी। एकादशी आने में अभी पाँच दिन बाकी थे। जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे, बाबा जी धीरे-धीरे गुरुकृपा का महत्त्व उसे विस्तार से समझा रहे थे। वह उसे बड़े प्यार से अपने पास बैठा कर दोपहर का प्रसाद खिलाते। उसके बाद बिलिया से कोई बहुत पुराना लोकगीत सुनते।

कल का सूरज अपने साथ बिलिया की दीक्षा का शुभ मुहुर्त लाने वाला था। शाम के प्रवचन के बाद सभी लोग जा चुके थे। बाबा ने बिलिया को मंदिर में ही रोक लिया था। कल दी जाने वाली दीक्षा से पहले, वह उसे कुछ गुप्त और गंभीर बातें बताना चाहते थे। उनका चेहरा डूबते सूरज की तरह लाल हो गया था। उनकी आँखों के नीचे रात की कालिमा उतर आई थी। उन्होंने अपने चेलों को मंदिर से बाहर रहने का इशारा कर दिया था। बिलिया का गला, जिससे वह किसी भी समय लोकगीत की तान छेड़ दिया करती थी, आज अनायास ही सूखने लगा था। आज पहली बार अपने कल्पनालोक में वह उल्लसित नहीं थी। आज मंदिर की दीवारें उसे डरा रही थीं। आज सचमुच ही उसे वह जगह एक अभिशप्त खंडहर लग रही थी। बाबा उसका चेहरा अपनी मोटी हथेलियों में भर कर उसके कानों में कुछ फुसफुसा रहे थे। मंदिर के बाहर दूर तक पसरी जमीन पर खड़ी कँटीली झाड़ियों में अटका सूरज धीरे-धीरे अपना तेज खो रहा था। मंदिर के द्वार पर खड़े बाबा के चेले कुछ अजीब तरीके से कसमसा रहे थे। तभी जैसे कमान पर चढ़ा तीर शिकारी के हाथों से अनायास ही छूट कर, बिना लक्ष्य को भेदे जमीन पर आ गिरता है, भागती हुई बिलिया मंदिर की चौखट से उलझ कर मुँह के बल जमीन पर आ गिरी। चेले कुछ समझ पाते इससे पहले ही, वह उठकर अपनी झोंपड़ी की ओर भाग खड़ी हुई. पीछे से बौखलाए शिकारी की तरह, बाबा भी हाँफते हुए आए, पर वह मंदिर की चौखट नहीं लाँघ सके. वह वहीं ठिठक गए.

बिलिया के पिता किसी अपराधी की तरह सिर झुका कर बाबा के सामने बैठे थे। बाबा की आँखों में क्रोध और अपमान की लपटें उठ रही थीं। बिलिया का अपराध अक्षम्य था। उसने देवता तुल्य गुरु का अपमान किया था। वह अपनी नादानी के कारण बहुत बड़े सौभाग्य से वंचित रह गई थी। उसे किसी भी कीमत पर इसका प्रायश्चित करना था। बिलिया के पिता, बाबा को आश्वस्त कर रहे थे कि वह उसे समझा कर, कल दीक्षा के लिए अवश्य ले आएँगे। उनकी आँखों में पहले-सी रिक्तता थी। वह बाबा के चरणों में सिर झुका कर, मंदिर से निकल पड़े। वह किसी भी हाल में यह मौका अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे। उन्हें लगता था बाबा के आगमन से इस अभिशप्त मंदिर का ही नहीं, उनकी बेटी का और उनका भी उद्धार हो सकता था, पर इस नादान बिलिया ने सब कुछ चौपट कर दिया था। पर वह ऐसा नहीं होने देंगे। वह उसे किसी भी तरह बाबा की शरण में जाने के लिए बाध्य कर देंगे। यही सब सोचते हुए उन्होंने झोंपड़ी की टटिया को जोर से भीतर धकेला। झोंपड़ी के एक कोने में जलती ढिबरी गहन अँधेरे को अपनी काँपती लौ से भस्म करने की कोशिश कर रही थी, पर अँधेरा उस कमजोर लौ के प्रकाश को स्वाद ले-ले कर लील रहा था। बिलिया की दादी एकटक ढिबरी की काँपती लौ को देख रही थीं। बिलिया झोंपड़ी में नहीं थी।

बाबा के चेलों के साथ दूर-दूर तक खेतों-खलिहानों में, झाड़ियों-झुरमुटों में, नदी-नालों और ताल-तलैयों में देख चुकने के बाद भी, बिलिया के बापू को बिलिया कहीं नहीं मिली थी। वह उसे ढूँढ़ कर थक गए थे। उन्हें ऐसी कोई जगह नहीं सूझ रही थी जहाँ बिलिया हो सकती थी। वह अपना संशय मिटाने के लिए कई बार खेतों के बीच बने कुएँ में भी झाँक आए थे। रात बीत गई थी। सतलौन में फिर एक बार अपनी ही तरह की सुबह हो रही थी। बिलिया के पिता की आँखें इसी आस में यहाँ-वहाँ दूर-दूर तक देख रही थीं कि कहीं से भागती, दौड़ती, गाती बिलिया उन्हें दिख जाएगी, पर बिलिया आस-पास दूर-दूर तक कहीं नहीं थी।

अब वह बिलिया को नहीं उसके होने या ना होने के निशान ढूँढ़ रहे थे। पर उन्हें कहीं भी, कुछ भी ऐसा नहीं दिख रहा था, जो यह बता सकता कि बिलिया कब, कैसे, कहाँ बिला गई. अगर कहीं कोई निशान था तो वह बिलिया की दादी की आँखों और उनके चेहरे की झुर्रियों में था, जिन्होंने बिलिया को आखिरी बार देखा था, पर उन आँखों में झाँककर देखने की सुध किसी को नहीं थी।

जब घायल हिरनी-सी बिलिया झोंपड़ी में पहुँच कर अपनी दादी की सूखी छाती से चिपट कर फूट-फूट कर रो पड़ी थी। तब बिलिया की आँखों में याचना थी, जीने की, खुले आकाश में उड़ने की। वह बाबा की आँखों में अपने जीवन को, अपने बचपन को, अपने लोकगीतों की लय को जला कर भस्म कर देने वाली लपटें देख चुकी थी। वह अपने निष्ठुर बाप को भी जान गई थी। झोंपड़ी के भीतर अँधेरा पसर गया था। दादी ने कोने में रखी ढिबरी जला दी। एक कमजोर, काँपती रोशनी में बिलिया जीवन के आखिरी छोर पर खड़ी औरत से, अपनी दादी से, अपने औरत होने की सारी लाचारगी अपनी आँखों में लिए, अपने औरत बने रहने का हक माँग रही थी। वह सूर्योदय के साथ आने वाली एकादशी पर उसे दी जाने वाली दीक्षा का अर्थ समझ चुकी थी।

बिलिया की दादी की ओखली बन चुकी बूढ़ी आँखों ने उस समय ना जाने कितनी बार अपनी झुर्रियों के बीच बची रह गई, अपनी जवानी की नमी को टटोला। कितनी बार अपने मन में बैठे ईश्वर के डर को उससे तोला। फिर अनायास ही बिलिया की आँखों में आँखें डालकर वह पागलों की तरह बोलने लगी, "जा मौड़ी हटा दै अपनी छाती सैं जौ भारी सिल सौ बोझ। तैं जा मोरी चिरैया उड़ जा। कुरंजा, मोर, पपीहा, बगुला, कौआ, तीतर, हंस, मिटठू तोता और हाँ कारे, सुफेद, सलेटी कबूतरन के संगै और उन बिलात चिरैयन के संगै, जिने मैंने कभऊँ नईं देखे नियरे सैं, इत्ती उमर होवे के बाद भी। तैं जा मोरी चिरैया, ऊपर-ऊपर उड़िओ, नाप-नाप कैं धरियो पाँव और पेड़न-पेड़न रईओ, बो सब देखियो जो हमने और तोरि मताई ने बस अपनी आँखन के भीतरई देखो। पत्थर तोड़त, लकड़ियाँ बटोरत, बोझा उठाउत कड़ गई जिंदगी"

यह कह कर उसने झोंपड़ी की जरजर हो चुकी टटिया ऐसे खोली जैसे किसी पंछी को आजाद करने के लिए कोई सालों से बंद पिंजरा खोल देता है। उसके बाद बिलिया दूर तक फैली जमीन पर ऐसे बिला गई जैसे अनंत आकाश में कोई पुच्छल तारा या विराट समुद्र में बारिश की बूँद हमेशा-हमेशा के लिए खो जाती है। अब उसे बारीक से बारीक छेदों वाली छलनी से छान कर भी दुनिया की भीड़ से अलग नहीं किया जा सकता था।

वह किसी गंध की तरह हवा में घुल गई थी। वह कहीं नहीं थी पर वह कहीं भी हो सकती थी।

आज भी दिल्ली, मुंबई, चेन्नई या कोलकता के रेल्वे स्टेशन पर गाकर पैसे इकट्ठे करती, कोई भी साँवली-सी लड़की बिलिया हो सकती है। पर हाँ अगर बुंदेलखंडी में गाती, कोई ऐसी लड़की आपको मिलती है, जिसके गीतों में कुरंजा, मोर, पपीहा, बगुला, तीतर, हंस, कबूतर का जिक्र आता है, तो जान लीजिए, निश्चय ही वह बिलिया ही है, पर अब उसका उसके गाँव सतलौन से कोई रिश्ता नहीं है। सतलौन बदल गया है। वहाँ अब उस खंडहर से दिखने वाले मंदिर की जगह एक बड़ा आश्रम बन चुका है। बाबा की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई है। हर साल निर्जला एकादशी के दिन वहाँ बहुत बड़ा मेला भरता है। अब मंदिर के आस-पास दूर-दूर तक कोई झोंपड़ी भी नहीं है। हाँ, एक पागल-सा आदमी ज़रूर मंदिर में आने-जाने वालों को रोक-रोक कर कहता है,

" इसुर नईं तौ सिरस्टी नईं

सिरस्टी नईं तौ माया नईं

माया नईं तौ भटकन नईं

और जा भटकन नईं

तौ, जे ससुरे गुरुजन नईं,

उस पागल ने भी, बाबा की ही तरह लोगों को समझाने के लिए अपना एक फार्मूला बनया है। जिसे सुन कर लोग हँसते हुए आगे बढ़ जाते हैं, बाबा के बनाए फार्मूले से अपनी ज़िन्दगी की मुश्किलों का हल ढूँढ़ने के लिए.