दुर्गादास / अध्याय 6 / प्रेमचन्द

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जयसिंह ने शान्त होकर पूछा अच्छा! तो बताइये आपकी इच्छा क्या है?

दुर्गादास ने कहा – ‘ अगर मेरी इच्छा पूछते हो, तो इन्हें इसी प्रकार सोते ही छोड़ दिया जाय और हम अपनी सेना को देववाड़ी की पहाड़ियों में छिपा दें। औरंगजेब की सेना के आने पर दोनों तरफ से साथ ही धावा बोल दिया जाय। हमें विश्वास है; वह दुतरफा मार कभी न सह सकेगा। अगर भागना चाहेगा, तो सामनेवाले दर्रे के सिवा और दूसरा रास्ता न होगा। और जब दर्दे में फंसा तो उबरना कठिन होगा। फिर या तो हमारी शरण आयेगा या बेमौत मरेगा।

यह सलाह जयसिंह के मन में बैठ गई। धीरे-धीरे राजपूत सरदारों को सचेत किया। सबों ने अपनी-अपनी सेना संभाली और रात के पिछले पहर तक देववाड़ी के पहाड़ी प्रदेश में जा पहुंचे। सवेरा हुआ। तारों की चमक फीकी पड़ने लगी, प्रकाश का रंग बदलने लगा। अपने-अपने घोंसलों से निकलकर पक्षियों ने शाखाओं पर ईश्वर का गुणगान प्रारम्भ किया। अजान सुनकर मुगल सरदारों ने भी नमाज की तैयारी की। खेमे से बाहर निकले थे कि बस, जान सूख गई। कहां की नमाज; और कहां का रोजा! यहां तो प्राणों पर आ बनी। अकबरशाह की तो कुछ पूछो ही न। जो कल बादशाह बने बैठे थे, आज भागने का रास्ता न पाते थे। चेहरे पर जो शाही झलक थी, आज फीकी पड़ गई। सोचने लगा या खुदा! माजरा क्या है! राजपूत सेना थी, कि इन्द्रजाल का तमाशा?

तैवर खां से बोला हमें दुर्गादास के चले जाने का दु:ख नहीं। दु:ख तो यह है कि चोरी से क्यों चले गये? क्या हम लोग उन्हें रोक लेते?हम लोग तो खुद ही उनके बन्दी थे, फिर छिपकर जाने का कारण क्या था।? तैवर खां ने कहा – ‘ शाहजादा! इसमें दुख की कौन बात है?हम लोगों पर दुर्गादास को विश्वास नहीं आया और ठीक भी है! विश्वास कैसे आता? एक मछली सारे ताल को गन्दा कर देती है। फिर बादशाह ने छल-पर-छल किये हैं। यह दुर्गादास की भलमंसी थी, कि हम लोगों को बिना किसी प्रकार का दु:ख पहुंचाये ही छोड़कर चला गया। नहीं जान से मार डालता तो हम उसका क्या बना लेते आखिर थे तो उसी के अधीन! जो चाहता, करता।

मुहम्मद खां ने कहा – ‘ भाई! दुर्गादास ने जो कुछ किया, अच्छा किया। अब हम लोगों को चाहिए कि दुर्गादास को दिखा दें कि सब आदमी एक-से नहीं होते। अगर कुछ मुसलमान झूठे होते हैं, तो कुछ अपनी प्रतिज्ञा के सच्चे भी होते हैं। इसलिए शाहजादे को जाने दो कि वह दुर्गादास की तलाश करें। हम लोग अपना लश्कर लेकर मोर्चे पर चलें और बादशाह से लोहा लें, मरें या मारें। अपनार् कत्ताव्य पालन करें। यह खबर पाकर दुर्गादास अपनी करतूत पर लज्जित होगा।

तैवर खां को यह सलाह पसन्द आई। अकबरशाह को विदा किया और अपना लश्कर लेकर औरंगजेब के मुकाबिले पर चला। रास्ते ही में औरंगजेब की सेना से मुठभेड़ हो गई। यह लश्कर मुअज्जम और अजीम की सरदारी में था।ये दोनों ही अकबरशाह को अपने पथ का कण्टक समझते थे, परन्तु उन्हें रास्ता साफ करने की घात न मिलती थी। आज मुंहमांगी मुराद मिली। जी तोड़कर लड़ने लगे। पहले तो तैवर खां के सिपाहियों ने बड़ी बहादुरी दिखाई; मगर फिर मौलवी साहब का फतवा सुनते ही तोते की भांति आंखें बदल दीं और अपने दोनों सरदारों को घेरकर खुद ही मार डाला।

मुहम्मद खां और तैवर खां के मारे जाने के पश्चात अजीम ने अकबरशाह की बहुत खोज की, परन्तु पता न चला। विवश होकर अजमेर लौट पड़ा, क्योंकि सेना आधी से अधिक घायल हो गई थी, इसलिए वीर दुर्गादास का सामना करने की हिम्मत न रही। नहीं तो विजय के घमण्ड में आगे जरूर बढ़ता। घमण्ड तो दुर्गादास चूर ही कर देता; मगर बेचारे अकबरशाह के प्राण न बचते। किसी-न-किसी की दृष्टि पड़ ही जाती क्योंकि वह वीर दुर्गादास की खोज में देववाड़ी की पहाड़ियों पर इधर-उधर भटकता फिरता था।संयोगवश शामलदास के भेंट हो गई, जो पांच सौ सवार लिये देववाड़ी के मार्ग की चौकसी कर रहा था।पहले तो शामलदास को सन्देह हुआ कि कदाचित भेद लेने आया हो; लेकिन बातचीत होते ही सन्देह जाता रहा, और उसे वीर दुर्गादास के पास भेज दिया। शाहजादे को देखकर दुर्गादास लज्जित होकर बोला शाहजादा! मुझे क्षमा करना, मुझसे अपनी इतनी आयु में पहली ही भूल हुई है। आज तक मैंने किसी के साथ विश्वासघात नहीं किया और न किसी निर्दोष पर तलवार ही उठाई है। आपके साथ जो मुझसे चूक हुई; वह धोखे में हुई। लीजिए यह अपने पिता का पत्र पढ़िए और आप ही कहिए,ऐसी स्थिति में हमारार् कत्ताव्य क्या होना चाहिए था।?

शाहजादे ने पत्र पढ़कर कहा – ‘ भाई दुर्गादास, इसमें तुम्हारा दोष नहीं, यह हमारी कम्बख्ती थी। मृत्यु की सामग्री तो पत्र ही में थी,परन्तु न जाने अभी भाग्य में क्या, जो जीवित रहे? खुदा जाने, तैवर खां पर कैसी गुजरी? दुर्गादास ने कहा – ‘ शाहजादा! मुझे दु:ख इस बात का है, कि भूल की मैंने और मारे गये मुहम्मद खां और तैवर खां।

दुर्गादास का यह अन्तिम वाक्य पूरा भी न हुआ था। कि 'अल्लाहो अकबर' की आवाज कानों में सुनाई दी। शाहजादे पर फिर सन्देह उत्पन्न हुआ, मगर आगे बढ़कर पहाड़ी से जो नीचे झांका तो औरंगजेब की सेना दर्रे में फंसी देखी। फिर क्या था।, राजपूतों को लेकर टूट पड़ा! लगी दुतरफा मार पड़ने। मुगल सेना जिस तरह भागती थी, उसी तरफ अपने को राजपूतों से घिरा पाती थी। दुर्गादास ने सिवा एक पहाड़ी दर्रे के चारों तरफ से देववाड़ी की पहाड़ियां घेर रखी थीं। इस दर्रे के तीनों तरफ ऊंची-ऊंची पहाड़ियां थीं और एक तरफ रास्ता था।; वह भी छोटा-सा। औरंगजेब यह क्या जाने की हमारे बचने का रास्ता नहीं, चूहादान है? पिल पड़ा। पीछे-पीछे लश्कर भी पहुंच गया। राजपूतों ने ऐसा पीछा किया, जैसे चरवाहे भेड़ों को बाड़े में हांकते हैं। जब सारा लश्कर दर्रे में चला गया, तो राजपूतों ने खिलवाड़ की तरह वह भी रास्ता पत्थरों से बन्द कर दिया। पहाड़ियां इतनी ऊंची और इतनी कठिन न थीं कि कोई चढ़ न सके; परन्तु कठिनाई अवश्य थी। रात अभी एक पहर से अधिक तो बीती न थी, लेकिन अंधियारा हो चुका था। और चन्द्रमा का प्रकाश भी इतना न था।उस पर राजपूत ऊपर से पत्थर ढकेल रहे थे। सारांश यह है कि सब ढंग बेमौत मरने के ही थे। फल यह हुआ कि कुछ तो पत्थरों से घायल मर गये और कुछ जीते रहे; परन्तु वे भी मृतकों से किसी दशा में अच्छे न थे। उपाय तो राजपूतों ने यही सोचा था। कि एक भी मुगल जीवित न बचे, और दर्रा भी आधो के लगभग पाट दिया था।, परन्तु औरंगजेब के भाग्य को क्या करते। उसे एक छोटी-सी खोह मिल गई। बाप-बेटे दोनों बड़ी सावधानी से उसी में दुबक रहे।

जब राजपूतों का उपद्रव शान्त हुआ, तो दोनों दबे पांव बाहर निकले। रात का पिछला पहर था।चन्द्रदेव अस्त हो चुके थे। हां, चारों तरफ आकाश पर तारे जरूर झिलमिला रहे थे। दुर्गादास अपना लश्कर लेकर बुधाबाड़ी लौट आया, मैदान साफ था।, इसलिए औरंगजेब को ऊंची-ऊंची पहाड़ियों पर चढ़ने के सिवा और कोई अड़चन न पड़ी। कोई कहीं देख न ले! शत्रु के हाथ फिर न पड़ जायें! केवल यही भय था।इसलिए अपने को छिपाता हुआ बड़ी सावधानी से इधर-उधर पहाड़ियों में भटकने लगा। जैसे-तैसे भूखा-प्यासा तीसरे दिन अजमेर पहुंचा। अजीम उससे पहले ही वहां पहुंच गया था।औरंगजेब उस पर बहुत झुंझला गया और गुस्सा कुछ अजीम ही पर न था।वह जिसे पाता था।, फाड़ खाता था।जलपान के पश्चात जरा जी ठिकाने हुआ, तो सरदारों को बुलाया। जब किसी में वीर दुर्गादास का सामना करने का साहस न देखा तो अपने राज्य के कोने-कोने से मुसलमानी सेना भेजने के लिए सूबेदारों को आज्ञा-पत्र लिखवाये। फिर भी सन्तोष न हुआ। सोचने लगा कि इतनी मुगल सेना,जिसे दुर्गादास का सामना करने को भेज सकूं; एक सप्ताह में एकत्र होना असम्भव है और दुर्गादास का कुछ ठीक नहीं, न जाने कब अजमेर पर धावा बोल दे? इसलिए कोई जाल फेंकना चाहिए।

दूसरे दिन सरदार जुल्फिकार खां को चालीस हजार अशर्फियां देकर वीर दुर्गादास के पास भेजा। यह सरदार भी बड़ा चतुर था।शाम को दुर्गादास की छावनी में पहुंचा। सवेरे आज्ञा पाकर वीर दुर्गादास के पास गया। सलाम किया और अशर्फियां सामने रखकर बोला ठाकुर साहब! हमारे बादशाह सलामत ने आपको सलाम कहा – ‘ है; और ये चालीस हजार अशर्फियां भेंट में भेजी हैं। ठाकुर साहब, अब आपको चाहिए कि बादशाह की भेंट को खुशी के साथ स्वीकार करें, और ईश्वर को धान्यवाद दें; क्योंकि बादशाह जल्द किसी पर प्रसन्न नहीं होते। न जाने क्यों आज आपकी बहादुरी पर खुश हो गये! पुरस्कार में ये चालीस हजार अशर्फियां ही नहीं भेजी, साथ ही साथ यह भी कहला भेजा है कि तेजकरण को पांच हजार सवारों का नायक बनाऊंगा और मारवाड़ के सरदारों के अधिकार जैसे राजा यशवन्तसिंह के सामने थे वैसे ही रहेंगे। जिसकी जागीर जब्ती की गई है, वह लौटा दी जायगी। और लौट जाने पर, सब राजपूत बन्दी भी छोड़ दिये जायेंगे। इसलिए कृपा कर मुझे शीघ्र ही लौट जाने की आज्ञा दे और शाहजादे को सादर मेरे साथ कर दें। बादशाह अकबरशाह के वियोग से दुखी हैं। उसे देखते ही बड़ा प्रसन्न होगा; ईश्वर जाने आपके साथ और क्या भलाई करे? अच्छे कामों में देर न करनी चाहिए। शंका विनाश का कारण है। शंका करने से बने-बनाये काम बिगड़ते हैं। अगर मैं खाली हाथ लौटा तो समझे रहिए, राजाओं की प्रसन्नता उतना सुख नहीं देती, जितना कि अप्रसन्नता दु:ख देती है। ईश्वर न करे, कहीं बादशाह आपके बर्ताव से चिढ़ जाय, तो यह जान लीजिएगा कि पलक मारते ही जोधपुर का सत्यानाश कर डालेगा। जो बादशाह क्षण-मात्र में बीस लाख सेना इकट्ठी कर सकता है, उसका सामना आप मुट्ठी भर राजपूत लेकर क्या कर सकते हैं? मैं आपकी भलाई के लिए आया हूं, बुराई के लिए नहीं। अगर आप अपने धार्म को, अपनी बहन-बेटियों की, अपने भोले भाइयों की और देव-मंदिरों की भलाई चाहते हों, तो शाहजादे को हमारे साथ कर दें। ठाकुर साहब, एक के लिए बहुतों को दु:ख में डालना चतुराई नहीं।

दुर्गादास चुपचाप सरदार जुल्फिकार खां की बातें सुन रहा था। और सोच रहा था। कि क्या उत्तार दिया जाय? अगर हां, करता हूं, तो अधार्म होता है। अभयदान देकर शाहजादे को फिर क्योंकर मौत के मुंह में डाल दूं। अगर न करता हूं तो न जाने सरदारों के मन में क्या हो। दुर्गादास इसी सोच-विचार में पड़ा था।शाहजादा बड़ी देर से दुर्गादास की तरफ देख रहा था। क्या उत्तार देते हैं? जब देखा कि दुर्गादास बोलते ही नहीं, मौनव्रत ही धारण कर लिया है, तो शाहजादे को चिन्ता ने घेर दबाया। उदास मन विचारने लगा कि कदाचित वीर दुर्गादास अपने प्राणों के लालच से मुझे न त्यागा; परन्तु अब तो अपने देश, धार्म और जाति का प्रश्न है। देश की भलाई के निमित्ता मुझे अवश्य त्याग देगा; क्योंकि अपनी जाति वालों के आगे मुझ मुगल के प्राणों की उसे क्या परवाह होगी? और उचित भी ऐसा ही है। जहां एक के बलिदान से अनेकानेकों की रक्षा होती हो, इसमें विलम्ब न करना चाहिए। तब दुर्गादास जुल्फिकार खां की बातों का उत्तार क्यों नहीं देता कदाचि असमंजस में पड़ा हो कि जिसको अभयदान दे चुका है, उसे किस प्रकार त्याग दे? मेरी तो मृत्यु आ ही गई, तब अपने शुभचिन्तक को अधिक कष्ट क्याें पहुंचाऊं?

यह विचार कर शाहजादा उठ खड़ा हुआ और कहने लगा वीर दुर्गादास! मैं आपकी नहीं, बल्कि अपनी इच्छा से सरदार जुल्फिकार खां के साथ जा रहा हूं। इसमें आपका कुछ दोष नहीं; क्योंकि जहां तक हो सका, आपने मेरी रक्षा की। मनुष्य अपनी शक्ति के बाहर क्या कर सकता है? कोई किसी का भाग्य नहीं पलट सकता।

वीर दुर्गादास ने शाहजादे का हाथ पकड़कर अपने पास बिठा लिया और बोला, शाहजादे! मैं चालीस हजार क्या, अगर बादशाह अपना राज्य भी देकर तुम्हें लेना चाहे तब भी तुम्हें अब मृत्यु के मुख में नहीं डाल सकता। मैं अपने कुल और जाति को कलंकित नहीं करना चाहता। राजपूतों के मुख में एक ही जिह्ना होती है। शाहजादा, कदाचित तुमने यह सोचा हो कि मेरे एक के लिए दुर्गादास अपने देश भर को विपत्ति में क्यों डालेगा? तो यह तुम्हारी भूल है। देखो, केवल महासिंह के लिए हमारे मारवाड़- वासियों ने कितना कष्ट भोगा; परन्तु उसका फल कैसा मिला? कहना व्यर्थ है, हाथकंगन को आरसी क्या। देखो, मारवाड़ स्वतंत्र हुआ। बादशाह ने सलाम के साथ-साथ चालीस हजार की भेंट भेजी है। अब यदि तुम्हारे लिए कष्ट उठाना पड़ेगा तो उससे भी अच्छे फल की आशा है। अंधोरे के बाद ही उजाला होता है। दु:ख भोगने के पश्चात् ही सुख का आनन्द मिलता है। मिट्टी में मिल जाने के पश्चात् ही बीज हरा-भरा वृक्ष बनता है।

दुर्गादास को इस प्रकार शाहजादे को तसल्ली देते देख, जयसिंह को अब सरदार जुल्फिकार खां की बातों का जवाब देने में सहायता मिली। बड़ी नरमी के साथ बोला जुल्फिकार खां। तुम्हारे बादशाह ने आज तक राजपूत के लिए कौन ऐसा कष्ट पहुंचाने वाला काम था।, जो न किया हो? अब उससे अधिक कष्ट देने वाला कौन-सा उपाय सोच रखा है, जिसकी धामकी देता है। देव-मन्दिरों को तोड़कर मसजिदें बनवाईं, धार्म-पुस्तकों को जलवाया, ब्राह्मण्ाों के जनेऊ तुड़वाये, सती अबलाओं का सतीत्व नष्ट कराया, तीर्थयात्रिायों पर जजिया नामक कर लगाया और बिना अपराधा ही के बेचारे निर्दोष राजपूतों को बन्दी-गृह का कष्ट भुगवाया। बहुतों को फांसी दिलाई अब तुम्हीं कहो, प्राण-दण्ड से अधिक और कौन दण्ड होगा। भाई, हम राजपूतों के साथ यदि वह न्याय का बर्ताव करता, तो हम लोग काले सर्प के समान उसे कभी न डसते, वरन् श्वान के समान उसकी सेवा करते। यह नौबत कभी न आती कि इतना बड़ा बादशाह एक राजद्रोही के लिए प्रजा को झुककर सलाम करे! चालीस हजार अशर्फियों का लोभ दिलाये।

दुर्गादास ने कहा – ‘ भाई जयसिंह, आप ऐसी बातें किससे और किसलिए कर रहे हैं? मैं अभी तक इसलिए मौन बैठा रहा कि जुल्फिकार खां ने वृथा। बातें करके अपना समय क्यों नष्ट करूं? इनसे बातें करने में कोई लाभ तो है ही नहीं, उत्तार देकर क्या करें। इन्हें जो कुछ कहना है, कह लेने दो। बादशाह ने न धामकी दी है और न लालच, यह धोखेबाजी और जाल है। सरदार जुल्फिकार खां, आप अपनी ये अशर्फियां लीजिए, क्योंकि पाप से कमाये हुए धान की भेंट राजपूत कभी स्वीकार नहीं कर सकते! और न शरण में आये हुए को अपने प्राण रहते त्याग ही सकते हैं। इसलिए आप खुशी से लौट जाइए, और बादशाह के सलाम के जवाब में सलाम कहिए। जुल्फिकार खां ने अब भी बहुत कुछ कहा – ‘ सुना; परन्तु राजपूती हठ (प्राण जाहिं बरु वचन न जाहीं) कब छूट सकता है। अन्त में लाचार होकर जुल्फिकार खां को लौटना ही पड़ा।

जुल्फिकार खां के चले जाने के थोड़ी देर बाद उदयपुर के राणा का छोटा बेटा भीमसिंह आया। सब सरदारों से मिल-भेंटकर दुर्गादास के पास बैठ गया। जयसिंह ने पूछा भैया भीमसिंह! घुड़ाये से क्यों हो! क्या कोई नई बात है? भीमसिंह ने कहा – ‘ घबराहट नहीं; परन्तु आश्चर्य अवश्य है। वह यह कि आप सबको नि्रूश्चत देख रहा हूं। अभी तक आप लोगों ने अजमेर पर चढ़ाई क्यों न की? अवसर अच्छा था।, अब वह समय हाथ से निकल गया। औरंगजेब ने चारों तरफ लड़ाई बन्द करवा दी और सब मुगल-सेवा अजमेर बुला ली है। ईश्वर ही जाने अब मारवाड़ी की क्या दशा होने वाली है।

केसरीसिंह सबसे वृद्ध सरदार था।, बोला भाइयो! हमें अपनी या मारवाड़ की कोई चिन्ता नहीं। हमारा पहला धार्म है कि शाहजादे की रक्षा का प्रबन्धा किया जाय, पश्चात् औरंगजेब से लोहा लें। यह बात सब राजपूत सरदारों के मन में बैठ गई। वे सोचने लगे कि शाहजादे को कहां भेजा जाय, जहां उनकी रक्षा में किसी प्रकार की त्रुटि न हो? भीमसिंह ने कहा – ‘ महाराज, शिवाजी का पुत्र वीर शम्भा जी इनकी रक्षा कर सकेगा; क्योंकि एक तो वह वीर पुरुष है, दूसरे औरंगजेब का कट्टर शत्रु है, तीसरे अब वहां मुगल सेना नहीं है। लड़ाई बन्द है, सब तरह की सुविधा है। वीर दुर्गादास तथा। शाहजादे ने स्वयं शम्भाजी के पास जाना पसन्द किया।

शाम को दुर्गादास थोड़े-से सवारों को साथ लेकर शम्भाजी के पास चला और चलते समय सेना को मोर्चे पर ले जाने के लिए सरदारों को आज्ञा देता गया। शहजादे को साथ लिए एक बहुतेक जंगल-पहाड़ पार करता हुआ तीसरे दिन शम्भाजी के यहां पहुंचा। शम्भा जी ने देखते ही शाहजादे को पहचान लिया और बड़े आदर-भाव से मिला। निश्चिन्त होने के पश्चात् दुर्गादास ने उससे अपने आने का कारण कह सुनाया। शम्भाजी ने अपना हार्दिक हर्ष प्रकट किया और कहा – ‘ भाई दुर्गादास! हम लोगों का मुख्य धार्म ही है कि शरणागत की रक्षा करें। फिर शहजादे ने तो हमारे साथ बड़ा उपकार किया है। जब दिल्ली के कारागार में मैं और मेरे पूज्य पिताजी दोनों बन्दी थे, उस समय शहजादे ने हमारी बड़ी सहायता की। इनका दिया हुआ घोड़ा अभी तक हमारे पास है। मैं इनकी रक्षा अपने प्राणों के समान करूंगा। अब आप इनसे निश्चिन्त रहिए।

रात को दुर्गादास ने वहीं विश्राम किया, दूसरे दिन शम्भा जी से विदा हो मारवाड़ की तरफ चल दिया। गुजरात के आगे एक पहाड़ी पर खड़े शामलदास मेड़तिया से भेंट हुई। यह अपनी सेना लेकर जयसिंह के आज्ञानुसार दक्षिण्ा प्रान्त से आने वाली मुगल- सेना रोकने के लिए रास्ते में आ डटा था।यह हाल दुर्गादास को मालूम न था।; इसलिए शामलदास ने कहा – ‘ महाराज! आपके चले जाने के पश्चात् सब सरदारों ने यह सलाह की कि मुगल-सेना जो हम लोगों की असावधानी के कारण अजमेर आ चुकी सो आ चुकी परन्तु अब दूर से आने वाली सेना के सब मार्ग रोक दिये जायें। नहीं तो स्वप्न में भी जय पाना कठिन होगा। यह सोचकर सरदारों ने कुछ सेना बंगाल, मद्रास और पंजाब की तरफ भेद दी है। अब जहां तक हो सके शीघ्र ही पहुंचिए। कदाचित् आज ही आपका रास्ता देखकर सरदार शोनिंगजी अजमेर पर चढ़ाई कर दें।

यह सुनकर वीर दुर्गादास शामलदास को युद्ध के विषय में कुछ समझा-बुझाकर घोड़े पर सवार हुआ। लगाम खींचते ही घोड़ा हवा से बातें करता हुआ चल दिया। रात के पिछले पहर बुधावाड़ी पहुंचा, मालूम हुआ सेना मोर्चे पर गई है। यद्यपि वीर दुर्गादास और घोड़ा दोनों ही लस्त हो चुके थे; परन्तु दुर्गादास तो देश-सेवा के लिए अपना शरीर अर्पण कर चुका था।बिना मारवाड़ स्वतन्त्रा किये उसे चैन कब था।, सीधा अजमेर भाग और पौ फटने के पहले अपनी सेना में पहुंच गया। यह सब समाचार औरंगजेब को मिला तो वह घबड़ा उठा; क्योंकि अजमेर में अभी तक मुगल सेना के दो ही भाग आ सके थे। बाकी सेना की प्रतीक्षा की जा रही थी। बादशाह को अपनी आधी सेना पर काफी भरोसा न था। : इसलिए दूसरा जाल रचा और सवेरा होते ही सरदार दिलेर खां के हाथ सन्धिा का सन्देश भेजा। वीर दुर्गादास ने कहा – ‘ सरदार दिलेर खां! भोले राजपूतों ने बहुत धोखे खाये। अब हम लोग तुम्हारे बादशाह की जबानी बातचीत पर विश्वास नहीं करेंगे; अगर वह सचमुच सन्धिा करना चाहता है तो बादशाही मुहर लगाकर पत्र लिखे कि हमारे धार्म पर आक्षेप न करेंगे, हिन्दू और मुसलिम में कोई अन्तर न समझेंगे,योग्यता पर ही ओहदे दिये जायेंगे; यदि तुम्हारा बादशाह ऐसा स्वीकार करता है तो हम लोग भी सन्धिा को तैयार हैं। नहीं तो हाथ में ली हुई तलवारें मारने के बाद ही हाथ से छूटेंगी। बस जाओ, हमें जो कुछ कहना था।, कह चुके, अब हमारे कहने के विरुद्ध यदि उत्तार लाना हो तो युद्ध-स्थल में तलवार लेकर आना।

दिलेर खां कोरा उत्तार पाकर औरंगजेब के पास लौट गया और दो की चार बताई। सुनते ही औरंगजेब जल उठा। और तुरन्त ही युद्ध की तैयारी के लिए डंका बजवा दिया। मुगल-सेना मैदान में एकत्र हुई। उस समय एक ऊंचे स्थान पर खड़े होकर औरंगजेब ने धार्म उपदेश किया और सैनिकों को यहां तक उत्तोजित किया कि धार्मान्धा मुगलों को लड़ाई की दाव-घात की सुधि न रही। जिस प्रकार लहरें किनारे की चट्टानों से टकराकर फिर जाती हैं, उसी प्रकार मुगल सेना राजपूतों से टक्कर लेने लगी। वीर राजपूतों ने बड़ी सावधानी से हमलों को रोका और देखते-देखते आधी मुगल सेना काट डाली। धार्मान्धा औरंगजेब की आंखें खुलीं। सारा धार्म का घमण्ड जाता रहा। प्राणों के लाले पड़े। दायें-बायें झांकने लगा और मौका पाकर प्राण ले भाग। सेना की भी हिम्मत टूट गई। पैर उखड़ गये। बादशाह के भागते ही सेना भी भाग खड़ी हुई। किले के अलावा दूसरी तरफ मार्ग न मिला; क्योंकि राजपूतों ने अपूर्व व्यूह-रचना की थी। जब मुगल-सेना किले में जा घुसी तो राजपूतों ने चारों तरफ से किला घेर लिया। उसी समय एक भेदिये ने बादशाह को खबर पहुंचाई कि शामलदास और दयालदास ने दक्षिण से आने वाली सेना का एक भी सिपाही जीवित नहीं छोड़ा और मालवे में भी राजपूतों ने बड़ा उपद्रव मचा रखा है। यह समाचार सुनकर औरंगजेब घबड़ा गया और राजपूतों से सन्धिा कर लेने का निश्चय किया। अपने बड़े बेटे मुअज्जम को बुलाकर राजपूतों की मांगें सन्धिा-पत्र पर लिखाकर बादशाही मोहर लगाई और दुर्गादास को भेज दिया। वीर दुर्गादास ने सन्धिा-पत्र पढ़कर अपने सरदारों को सुनाया। किले का द्वार खोल दिया। बादशाही झण्डे की जगह राजपूती झण्डा फहराया गया। मारवाड़ की सब छोटी-बड़ी रियासतों को विलय-समाचार भेजा गया। और कुंवर अजीतसिंह ने राज्यभिषेक में सम्मिलित होने के लिए उन्हें निमन्त्रिात किया गया।

वीर दुर्गादास ने कुंवर अजीतसिंह का राजतिलक औरंगजेब के हाथों करवाना निश्चिन्त किया था।, इसलिए उसे दिल्ली जाने से रोक लिया। दूसरे दिन वीर दुर्गादास अपने साथ करणसिंह, गंभीरसिंह तथा। थोड़े-से सवार लेकर आबू की घनी पहाड़ियों में बसे हुए डुडंवा गांव में पहुंचे। जयदेव ब्राह्मण के द्वार पर भीलों के लड़काें के साथ आनन्द से खेलते हुए कुंवर अजीतसिंह को देखा। यद्यपि अजीत अब आठ वर्ष का हो चुका था।; परन्तु राजचिद्दों को देखकर दुर्गादास ने पहचान लिया। आंखों में आनन्द के आंसू भर आये। अजीत को गोद में उठा लिया। उसी समय आनन्ददास खेंची भी आ पहुंचे। बड़े प्रेम से एक दूसरे के गले मिले। दुर्गादास ने खेंची महाशय को आठ वर्ष के अच्छे-बुरे समाचार कह सुनाये। अजमेर की विजय और कुंवर अजीतसिंह की राजगद्दी सुनकर सबको बड़ा ही आनन्द हुआ। यह शुभ समाचार वायु के समान क्षण भर में सारे गांव में फैल गया।

नगरवासी तथा। राजकुमार के साथ खेलने वाले सब साथी इकट्ठे हो गये। अब राजकुमार के भोले-भाले मुख पर अलबेली राजश्री प्रकाश था।छोटे-छोटे लड़के आपस में कहते थे भाई! हम लोगों ने अनजाने में बड़े अपराधा किये हैं। हजारों बार खेल में राजकुमार को मारा होगा। भाई,एक दिन वह था। कि राजकुमार हम लोगों के साथ धाूल में खेलते थे। अब कल वह दिन होगा कि सारे मारवाड़ देश के स्वामी बनकर राज- सिंहासन पर शोभा पायेंगे। राजमद में चूर होकर हम दीन-सखाओं की ओर फिर कृपा-दृष्टि क्यों करने लगे? इसी प्रकार अपनी-अपनी कहते थे और राजकुमार के मुख की ओर एकटक देख रहे थे। राजकुमार भी अपने प्यारे मित्रों की तरफ बड़े प्रेम से देख रहा था। और सोच रहा था। कि चाचाजी इन सबको हमारे साथ ले चलेंगे या नहीं? एक बार अपने मित्रों की तरफ देखकर आनन्ददास खेंची की ओर देखा। खेंची महाशय ने राजकुमार का अभिप्राय समझकर बालकों से कहा – ‘ जाओ, अपने-अपने पिता को लेकर राजकुमार के साथ चलो, तुम लोगों के लिए इससे बढ़कर आनन्द का समय और कब होगा, कि तुम्हारे साथ खेलने वाला आज मारवाड़ देश का स्वामी हो!

थोड़ी ही देर में सारे नगर-निवासी राजकुमार का राजतिलक देखने के लिए साथ चलने के लिए तैयार होकर पहुंचे। जिससे जो हो सका,राजा को भेंट की सामग्री भी अपने साथ ले चला। राजकुमार अपने मित्रों को अपने साथ चलते देख बड़ा मगन था।उमर ही अभी खेल-कूद की थी। था। तो केवल आठ वर्ष का! क्या जाने राज्य किसको कहते हैं? राजतिलक क्या होता है? वह तो यह सब खेल समझता था।आज तक उस बेचारे के सामने कभी पूज्य पिता का भी नाम न लिया गया था।वह संसार में किसी को अपना जानता था।, तो आनन्ददास खेंची को और देव शर्मा तथा। देव शर्मा की स्त्राी को, जिन्हें वह चाचा-चाची कह कर बुलाता था।।

गीदड़ों में पला हुआ सिंह का बच्चा चाहे उसके स्वाभाविक गुण नष्ट न हुए हों अपने को सिंह नहीं समझता, जब तक सिंहों के साथ न पड़े। यही बात राजकुमार अजीत के साथ थी। भीलों के साथ पाला गया था।फिर राज्य करना क्या जाने? अपने मित्रों से हंसता-बोलता दूसरे दिन यात्र समाप्त कर दो-पहर दिन ढलते अजमेर आ पहुंचा। यहां भारी भीड़ थी। एक ओर मुगल सेना दूसरी ओर राजपूत सेना, सुन्दर वस्त्राों से विभूषित, राजकुमार का स्वागत करने के लिए खड़ी थी। स्थान-स्थान पर बाजे बज रहे थे, नाच-गान हो रहा था।ऐसा कोई भी घर न था।, जिसके द्वार पर बन्दनवार न बंधी हो, मंगलकलश न धारे हों। घर-घर आनन्द मनाया जा रहा था।, और जय-धवनि आकाश में गूंज रही थी। मारवाड़ की छोटी-बड़ी सब रियासताें के सरदार उपस्थित थे। राजकुमार का स्वागत बड़ी धाूम-धाम से किया गया, और शुभ मुहूर्त में उसे सोने के सिंहासिन पर बैठाकर औरंगजेब के हाथों तिलक कराया गया। सरदारों ने राजकुमार के चरणों पर शीश झुकाया और यथा।शक्ति नजरें दी। उसी समय वृद्ध नाथू को साथ लिए हुए बाबा महेन्द्रनाथ जी पधारे। उपस्थित जनता ने उनका बड़ा सत्कार किया। नाथू ने स्वामी को महाराज यशवन्तसिंह की दी हुई लोहे की सन्दूकची सौंपी, जिसे वीर दुर्गादास ने भरे दरबार में महाराज अजीतसिंह को सर्मपण कर दिया; और महाराज यशवन्तसिंह जी ने जिस अवस्था में और जो कुछ कहकर शोनिंग जी चम्पावत को सन्दूकची सौंपी थी, वह कह सुनाई। अजीतसिंह ने सन्दूकची बड़े मान के साथ लेकर दुर्गादास को फिर दे दी और उसे खोलकर प्रजा को दिखलाने की आज्ञा दी। सन्दूकची दरबार में खोली गई। उसमें महाराज यशवन्तसिंह का राजमुकुट राजकुमार को पहना दिया और जनता के सामने खड़े होकर राजकुमार अजीतसिंह के जन्म से लेकर राजतिलक-पर्यन्त जो-जो घटनाएं हुई थीं, कह सुनाई। दैवयोग वह मुसलमान मदारी भी मिल गया, जो खेंची महाशय और अजीत को छिपाकर लाया था।उसकी गवाही ने प्रजा का सन्देश समूल नष्ट कर दिया! वीर दुर्गादास को प्रजा ने कोटिश: धान्यवाद दिये, क्याेंकि महाराज यशवन्तसिंह जी के वंश तथा। राज्य के रक्षक ये ही थे।

राजपूतों का यह आनन्दोत्सव औरंगजेब को अच्छा न लगता था।; इसलिए केवल तीन दिन अजमेर में रहकर महाराज अजीतसिंह से विदा हो दिल्ली चला गया। जोधपुर की प्रजा राजकुमार के दर्शन के लिए बड़ी उत्सुक थी। थोड़े दिनों तक रास्ता देखती रही, जब राजकुमार को जोधपुर में न देखा, तो वृध्दों और बालकों को छोड़कर, जिनकेमें चलने की शक्ति न थी, बाकी सब-की-सब अजमेर को चल दी। कई एक दिन में गाते-बजाते आनन्द मानते प्रजाजन अजमेर पहुंचे। वीर दुर्गादास ने अपने राजकुमार पर प्रजा का इतना प्रेम देखकर दरबार किया। सबने अपने इच्छानुरूप दर्शन किये और उनसे जोधपुर की सूनी गद्दी शोभित करने की प्रार्थना की। महाराज ने अपने पूज्य पिता की गद्दी पर बैठना स्वीकार किया। लगभग तीन मास अजमेर में रहकर महाराज जोधपुर चले आये। आज प्रजा को जैसा आनन्द हुआ, कदाचित् महाराज यशवन्तसिंह के शासन-समय में न हुआ हो। घर-घर हवन होता था।, द्वारे-द्वारे मंगल कलश धरे थे। बन्दनवारें बंधी थी। सुगन्धित फूलों की मालाएं लटकी थीं। शीतल वायु चल रही थी। दरबार में सुन्दर वस्त्र पहने सरदार तथा। योग्यतानुरूप जनता बैठी थी। सामने सोने के सिंहासन पर महाराज अजीतसिंह बैठे थे! पास ही वीर दुर्गादास खड़ा हुआ महाराज के आज्ञानुसार, सहायता करने वाले राजपूतों को उनकी जागीरों में कुछ बढ़ती करता और पट्टे बांट रहा था।वृद्ध महासिंह को कोषाधयक्ष बनाया, गुलाबसिंह तथा। गम्भीरसिंह को महाराज का रक्षक नियुक्त किया। करणसिंह को सेना-नायक बनाया। और दरबारियों की अनुमति से अपने ऊपर राज्य-भार लिया। अन्त में महासिंह की कन्या लालवा की बारी आई। दुर्गादास ने उसको सबसे अच्छा और अमूल्य पुरस्कार दिया; अर्थात राणा राजसिंह जी के ज्येष्ठ पुत्र जयसिंह के साथ विवाह निश्चित कराया और राज्य की ओर से ही बड़ी धू-धाम के साथ विवाह कर दिया।

इन सब आवश्यक कामों से छुट्टी पाने के बाद एक दिन दुर्गादास को शाहजादे अकबरशाह की याद आई; परन्तु शाहजादा वहां न मिला। पता लगाने पर मालूम हुआ कि दक्षिण में औरंगजेब की सहायता के लिए जब मुगल सेना जाने लगी तो शाहजादे ने शम्भाजी को उसके रोकने की अनुमति दी, परन्तु शम्भा जी ने सुनी अनसुनी कर दी। इस बात पर शहाजाद रुष्ट होकर मक्का चला गया और थोड़े दिनों के बाद वहीं उसका देहान्त हो गया। इस समाचार से दुर्गादास को बड़ा दु:ख हुआ; परन्तु करता क्या? ईश्वरेच्छा समझकर मन को शान्त किया। खुदाबख्श तथा। मुसलमान मदारी को महाराज ने अपने दरबार में रखा और सदैव उनका मान करते रहे। अपने साथ खेलने वाले भील बालकों की शिक्षा का जोधपुर में ही प्रबन्धा कराया और उनके पिताओं को बड़ी-बड़ी जागीरें प्रदान की। दुर्गादास ऐसी नीति से राज्य था। कि किसी प्रकार कष्ट न था।शेर-बकरी एक ही घाट पानी पीते थे। चोरी-चमारी का मारवाड़ देश में नाम भी न था।; प्रजा निश्चिन्त और सुख से रहती थी। खजाना उदारता के साथ लुटाने पर भी बढ़ता ही था।टूटे-फूटे किलों की उचित रूप से दुरुस्ती कराई गयी। जहां कहीं नये किले की आवश्यकता हुई, तो नया बनवाया गया। महाराज ने उजड़ा हुआ कल्याणगढ़ फिर से बसाने की आज्ञा दी।

अब महाराज अजीतसिंह की आयु अठारह वर्ष की थी। धीरे-धीरे राज्य का काम समझ गये थे, और इस योग्य हो गये थे कि दुर्गादास की सहायता बिना ही राज्य-भार वहन कर सकें। यह देखकर वीर दुर्गादरास ने संवत् 1758 वि. में महाराज अजीत को भार सौंप दिया। जरूरत पड़ने पर अपनी सम्मति दे दिया करता था।जब 1765 वि. में औरंगजेब दक्षिण में मारा गया तो उसका ज्येष्ठ पुत्र मुअज्जम गद्दी पर बैठा और अपने पूर्वज बादशाह अकबर की भांति अपनी प्रजा का पालन करने लगा। हिन्दू-मुसलमान में किसी प्रकार का भेदभाव न रखा। यह देख दुर्गादास ने निश्चिन्त होकर पूर्ण रूप से राज्यभार अजीतसिंह को सौंप दिया, किन्तु स्वतन्त्र होकर अजीतसिंह के स्वभाव में बहुत परिवर्तन होने लगा। फूटी हुई क्यारी के जल के समान स्वच्छन्द हो गया। अपने स्वेच्छाचारी मित्रों के कहने से प्रजा को कभी-कभी न्याय विरुद्ध भारी दण्ड दे देता था।क्रमश: अपने हानि-लाभ पर विचार करने की शक्ति क्षीण होने लगी। जो जैसी सलाह देता था।, करने पर तैयार हो जाता था।स्वयं कुछ न देखता था।, कानों ही से सुनता था।जिसने पहले कान फूंके, उसी की बात सत्य समझता था।धीरे-धीरे प्रजा भी निन्दा करने लगी। दुर्गादास ने कई बार नीति-उपदेश किया, बहुत कुछ समझाया-बुझाया, परन्तु कमल के पत्तो पर जिस प्रकार जल की बूंद ठहर जाती है,और वायु के झकोरे से तुरन्त ही गिर जाती है, उसी प्रकार जो कुछ अजीतसिंह के हृदय-पटल पर उपदेश का असर हुआ, तुरन्त ही स्वार्थी मित्रों ने निकाल फेंका और यहां तक प्रयत्न किया कि दुर्गादास की ओर से महाराज का मनमालिन्य हो गया। धीरे-धीरे अन्याय बढ़ता ही गया। विवश होकर दुर्गादास ने अपने परिवार को उदयपुर भेज दिया और अकेला ही जोधपुर में रहकर अन्याय के परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा।

मनुष्य अपने हाथ से सींचे हुए विष-वृक्ष को भी जब सूखते नहीं देख सकता, तो यह तो वीर दुर्गादास के पूज्य स्वामी श्री महाराज यशवन्तसिंह जी का पुत्र था।, उसका नाश होते वह कब देख सकता था।परन्तु करता क्या? स्वार्थी मित्रों के आगे उसकी दाल न गलती थी,अतएव जोधपुर से बाहर ही चला जाना निश्चित किया। अवसर पाकर एक दिन महाराज से विदा लेने के लिए दरबार जा रहा था।रास्ते में एक वृद्ध मनुष्य मिला, जो दुर्गादास का शुभचिन्तक था।कहने लगा भाई दुर्गादास! अच्छा होता, यदि आप आज राज-दरबार न जाते; क्योंकि आज दरबार जाने में आपकी कुशल नहीं। मुझे जहां तक पता चला है वह यह कि महाराज ने अपने स्वार्थी मित्रों की सलाह से आपके मार डालने की गुप्त रूप से आज्ञा दी है। दुर्गादास ने कहा – ‘ भाई! अब मैं वृद्ध हुआ, मुझे मरना तो है ही फिर क्षत्रिय होकर मृत्यु से क्यों डरूं? राजपूती में कलंक लगाऊं; मौत से डरकर पीछे लौट जाऊं! इस प्रकार कहता हुआ निर्भय सिंह के समान दरबार में पहुंचा और हाथ जोड़कर महाराज से तीर्थयात्र के लिए विदा मांगी। महाराज ने ऊपरी मन से कहा – ‘ चाचाजी! आपका वियोग हमारे लिए बड़ा दुखद होगा; परन्तु अब आप वृद्ध हुए हैं, और प्रश्न तीर्थयात्र का है; इसलिए नहीं भी नहीं की जाती। अच्छा तो जाइए, परन्तु जहां तक सम्भव हो शीघ्र ही लौट आइए। दुर्गादास ने कहा – ‘ महाराज की जैसी आज्ञा और चल दिया; परन्तु द्वार तक जाकर लौटा। महाराज ने पूछा चाचा जी, क्यों? दुर्गादास ने कहा – ‘महाराज, अब आज न जाऊंगा; मुझे अभी याद आया कि महाराज यशवन्तसिंह जी मुझे एक गुप्त कोश की चाबी दे गये थे, परन्तु अभी तक मैं न तो आपको गुप्त खजाना ही बता सका और न चाबी ही दे सका; इसलिए वह भी आपको सौंप दूं, तब जाऊं? क्योंकि अब मैं बहुत वृद्ध हो गया हूं, न-जाने कब और कहां मर जाऊं? तब तो यह असीम धान-राशि सब मिट्टी में मिल जायेगी। यह सुनकर अजीतसिंह को लोभ ने दबा लिया। संसार में ऐसा कौन है, जिसे लोभ ने न घेरा हो? किसने लोभ देवता की आज्ञा का उल्लंघन किया है? सोचने लगा; यदि मेरे आज्ञानुसार दुर्गादास कहीं मारा गया, तो यह सम्पत्ति अपने हाथ न आ सकेगी। क्या और अवसर न मिलेगा? फिर देखा जायगा। यह विचार कर अपने मित्रों को संकेत किया। इसका आशय समझ कर एक ने आगे बढ़कर नियुक्त पुरुष को वहां से हटा दिया। इस प्रकार धोखे से धान का लालच देकर चतुर दुर्गादास ने अपने प्राणों की रक्षा की। घर आया, हथियार लिये, घोड़े पर सवार हुआ और महाराज को कहला भेजा कि दुर्गादास कुत्तो की मौत मरना नहीं चाहता था।रण-क्षेत्र में जिस वीर की हिम्मत हो आये। अजीतसिंह यह सन्देश सुनकर कांप गया। बोला दुर्गादास जहां जाना चाहे, जाने दो। जो औरंगजेब सरीखे बादशाह से लड़कर अपना देश छीन ले, हम ऐसे वीर पुरुष का सामना नहीं करते।

वीर दुर्गादास इस प्रकार महाराज अजीतसिंह से विरक्त होकर और अपनी उज्ज्वल कीर्ति के फलस्वरूप अनादर और उपेक्षा पाकर उदयपुर चला गया। यहां उस समय राणा जयसिंह अपने पूज्य पिता राणा राजसिंह के बाद गद्दी पर बैठे थे। अजीतसिंह का ऐसा बुरा बर्ताव सुनकर उन्हें बड़ा क्रोध आया। परस्पर का मित्र-भाव छोड़ दिया। वीर दुर्गादास को अपने परिवार के मनुष्यों की भांति मानकर जागीर प्रदान की। थोड़े दिन तक दुर्गादास महाराज के दरबार में रहा, फिर आज्ञा लेकर एकान्तवास के लिए उज्जैन चला गया। वहां महाकलेश्वर का पूजन करता रहा। संवत् 1765 वि. में वीर दुर्गादास का स्वर्गवास हुआ। जिसने यशवन्तसिंह के पुत्र की प्राण-रक्षा की और मारवाड़ देश का स्वामी बनाया, आज उसी वीर का मृत शरीर क्षिप्रा नदी की सूखी झाऊ की चिता में भस्म किया गया। विधाता! तेरी लीला अद्भुत है।

समाप्त।

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