दु:ख की तपती ज़मीन पर/रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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जीवन की यात्रा सुख -दुख के बहुत से पड़ावों से होकर गुज़रती है ।दु:ख को जितना महत्त्व देते हैं, वह उतना ही बड़ा हो जाता है और सुख को जितना सहज भाव से लेते हैं , वह उतना ही व्यापक हो जाताहै ।सुख -दु:ख के ये दो प्रमुख लक्षण बताए गए हैं-

सर्वं आत्मवशं सुखं , सर्वं आत्मवशं दुखम्

एतद्विद्यात् समासेन लक्षणं सुख-दुखयो: ।

सुख-दु:ख के लक्षण संक्षेप में ये हैं-जो अपने वश में है वह सुख है ; जो परवश में है , वह दु:ख है ।वृद्धावस्था में यही परवशता दु:खों के कारण रूप में उभर कर आती है। यह परवशता आर्थिक अभाव ,बीमारी,ऐकान्तिक जीवन ,उम्र ढलने पर भी आजीविका के लिए श्रम करने की बाध्यता, शहरी क्षेत्र में नौकरी के झमेले और आवासीय समस्या, जीवन में सामंजस्य न होना ,बढ़ती उम्र में रोग के इलाज की सुविधा न होना ,बीमारी होने पर तिमारादारी न होना, पारिवारिक उपेक्षा , कर्मक्षेत्र में मिली असफलताओं की ज़िम्मेदारी का सिर पर आना । जीवन की ऐसी परनिर्भरताएँ और विवशताएँ दु:खों का ही आगाज़ है ।अगर माता-पिता हर अवस्था में खुद को हुक्म चलाने वाला ही मानते रहेंगे तो मानसिक पीड़ा सहन करनी ही पड़ेगी ।जो पास में है , उसी में खुशी तलाशनी होगी । भाई-बहन हों , चाहे माता -पिता ; सम्पत्ति का लोभ और उससे जुड़े विवाद आपसी सम्बन्धों और समझदारी का गला घोंटते हैं ।पीढ़ी दर पीढ़ी ये कटु विवाद पहले भी हुआ करते थे , अब भी होते है और भविष्य में होते रहेंगे । मनुष्य की मनोवृत्ति जैसी होती है , वैसा ही वैचारिक प्रतिफलन भी होता है ।जो धनपशु बन बैठा है , उसके लिए सारे सम्बन्ध और मानवीयता एक तरफ़ , रखे रह जाएँगे । उसके लिए माता-पिता , पत्नी ,बच्चे सब उसकी ज़रूरतों का हिस्सा भर हैं ,उसके हृदय से जुड़ा प्यार , आदर या स्नेह का कोई संवेग नहीं है ।

सुरेश शर्मा जी ने वृद्ध जीवन की विभिन्न समस्याओं को लेकर यह संकलन तैयार किया है । इस संग्रह में कही उपेक्षा है ,तो कहीं अनुताप है ,कही चुनौतीपूर्ण जीवन को आनन्दोत्सव की तरह जीने वाले लोग हैं,

जैसे -‘विजेता’(सुकेश साहनी) के बाबा जी;जो बच्चों में बच्चा बन जाते हैं ।उनको बच्चे भी उतना ही चाहते हैं, जितना वे बच्चों को । ‘बर्थ डे गिफ़्ट’( डॉ सतीश दुबे ) के दादा जी ,जिनके लिए पोती की दी एक टॉफ़ी ही जन्मदिन का सबसे बड़ा तोहफ़ा है ,परम सुख है । सकारात्मक जीवन जीने वाला ‘मन के अक्स’ (सतीशराज पुष्करणा) का ढलती उम्र का अक्षय अपने को स्फूर्त मानकर जीवन -आनन्द को महसूस करता है । खुली हवा में जीने की ललक ,लोगों की चहल -पहल और बातचीत में एकान्त को परे ठेलकर जीवन्तता को प्राथमिकता देने वाले ‘दीवारें’( डॉ श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’) के बापू जी सुख-साधन होने पर भी जीवन को अपने ढंग से ही जीना चाहते हैं।बेटे की चिट्ठी का इन्तज़ार करते ‘पिताजी का लैटर बॉक्स’ ( परिपूर्ण त्रिवेदी) के आशान्वित पिताजी जो लैटर बॉक्स’ चिट्ठी टटोलने के साथ गिलहरी के घोंसले में ही सुख तलाश लेते हैं और फिए किसी दिन उसमे बेटे की चिट्ठी भी पड़ी मिल जाती है ।यह चिट्ठी उनकी उम्र छह महीने और बढ़ा देती है । इस लघुकथा में वर्णन का विस्तार होते हुए भी विषय की नवीनता पाठकों का ध्यान आकर्षित करती है ।

कई लघुकथाएँ ऐसी है , जो भारतीय संस्कारों की अपरिहार्यता पर बल देती हैं और बताना चाहती हैं कि संसार में सभी कुछ बुरा ही नहीं है , सभी सन्ताने हृदयहीन नहीं होती ।इस तरह की लघुकथाओं में ‘माँ का कमरा’( श्याम सुन्दर अग्रवाल), ‘संस्कार’ (सुकेश साहनी), सहयात्री (सुभाष नीरव), अन्तर्द्वन्द्व के जाल से संस्कारों के कारण बाहर निकलकर पिता के प्रति कर्त्तव्य को प्राथमिकता देने वाला ‘औलाद ‘(उषा’दीप्ति’) का पुत्र,’बचपन’(मनोज सेवलकर) के दादाजी जो पोते के साथ बारिश में भीगकर तथा पानी में कागज़ की नावें चलाकर छोटे बच्चों की तरह आनन्द उठाते हैं । यह आनन्द कहीं बाहर से नहीं आया; भीतर से ही उपजा है । देवेन्द्र होल्कर की ‘कलरव’ के पिता सब बेटों के अलग हो जाने पर स्कूल के पास मकान लेते हैं ,ताकि बच्चों की आवाज़ों से जीवन की जीवन्तता बनी रहे ।

‘सामंजस्य’(शील कौशिक) में शिल्पा की सास थोड़ी-बहुत परेशानी को अपने तक ही सीमित रखती है ,न कि मुहल्ले में प्रचारित करती है ।‘लगता है’ का प्रसंग ज़रूर प्रेरक है, और अच्छी लघुकथा का आधार बन सकता था ;लेकिन इसमें कथ्य पूरी तरह खुल नहीं पाया और अन्तत: नकारात्मक कथन के साथ सिमट गया । अपनों से हारकर उनको जिता देना खुद जीतने से बड़ा है।मणि खेड़ेकर ने ‘हार की जीत’ में इस अच्छी तरह रूपायित किया है । जीवन तो चलने का नाम है , थककर बैठ जाने का नाम नहीं ,’मृत्यु का अर्थ’(साबिर हुसैन )की लघुकथा का यह सन्देश जीवन के प्रति नई आशा जगाता है । सम्मान पूर्वक जीना है तो माता-पिता को भी अपने अधिकार छोड़कर निरीह नहीं बनना चाहिए , वरन् परिवार के प्रतिगामी कार्यों पर रोक लगानी चाहिए ।बदला हुआ स्वर (सतिपाल खुल्लर) का बापू जब ऊँची आवाज़ में बोलता है ,तो सबके कान खड़े हो जाते हैं; और सब ‘बूढ़ों को क्या पूछना’ जैसे अपने बुने हुए भ्रम-जाल से बाहर निकलने को मज़बूर हो जाते है। यह है अपने बिखरते हुए अस्तित्व की खोज ; जिसमें से जीवन का स्वाभिमान प्रकट होता है ;न कि निराशा से सृजित दयनीयता ।

खाने का स्वाद बच्चे ही जानते हैं , हम ऐसा सोच बैठते हैं । सीमा पाण्डे की लघुकथा ‘लालसा’ इस भ्रम से बाहर निकालती है । बूढ़े होने का मतलब इच्छाओं की हत्या नहीं, वरन जीवन के लिए जितना ज़रूरी हो उनको सामान्यरूप से पूरा करना है।बुढ़ापे का सबसे बड़ा दु:ख है एकाकी जीवन।जगदीश राय कुलरियाँ ने इस प्रश्न को ‘अपना घर’ में उठाया है । ‘ किसी ज़रूरतमन्द पर चादर डाल लो’वेदप्रकाश को दी गई यह सलाह भले ही सामाजिक दृष्टि से उपयुक्त न लगे, लेकिन मनोवैज्ञानिक रूप से यह सही सलाह मानी जाएगी ।

कुछ लघुकथाएँ ऐसी हैं , जिनमे बुज़ुर्गों की दयनीय स्थिति और परवशता का दुख बहुत गहराई से उजागर होता है । इनमें प्रमुख हैं- चालाकी -कमल चोपड़ा,कमरा -सुभाष नीरव ,तस्वीर बदल गई -प्रताप सिंह सोढ़ी ,अज्ञातगमन-बलराम अग्रवाल,दृश्यान्तर-जया नर्गिस (इस लघुकथा के शिल्प र ध्यान देना ज़रूरी है) ,मातृत्व-नरेन्द्र नाथ लाहा, सुरेश शर्मा-बन्द दरवाज़े,छमाहियाँ-जसवीर सिंह ढण्ड,तंग होती जगह -कृष्ण मनु, कबाड़वाला कमरा -निरंजन बोहा ,पिताजी सीरियस हैं-राम कुमार आत्रेय।

हमेशा बुज़ुर्ग ही दयनीय नहीं होते; घर की गाड़ी को खींचने में लबोदम सन्तान भी दयनीय हो सकती है , जिसका अहसास बुज़ुर्गों को नहीं है । पृथ्वीराज अरोड़ा की लघुकथा-‘कथा नहीं’ इसी तरह की मार्मिक लघुकथा है , जो विषयवस्तु एवं सम्प्रेषणीयता की दृष्टि से लाजवाब लघुकथा है । ‘अन्तिम कथा’ में अशोक भाटिया ने दारिद्रय से उपजी विवशता को बहुत गहराई से उकेरा है । दादाजी पूरी उम्र खपाकर भी आने वाली पीढ़ी के लिए सही व्यवस्था नहीं कर पाए हैं।

सुकेश साहनी की लघुकथा ‘काला घोड़ा’ उस वर्ग को बेनक़ाब करती है , जिनके लिए पैसा ही परमेश्वर है । जिसकी लालसा हड़क में बदल जाती है, वह सारी संवेदनाओं को कुचलता हुआ उसकी पूर्ति के लिए विक्षिप्त हो जाता है ।पत्नी , बच्चे उसके लिए कुछ नहीं ।हद तो तब हो जाती है , जब मरणासन्न माँ की चिन्ता न करके मिस्टर आनन्द करोड़ों के ठेके को महत्त्व देते हैं । माँ का पूरा दायित्व नर्स और डॉक्टर के हवाले कर देते हैं । दर्द से छटपटाती माँ बेटे के नाम की रट लगाती रह जाती है और बेटा है कि अशोका होटल पहुँचने के लिए ड्राइवर को कहता है-‘गोली जैसी रफ़्तार से गाड़ी दौड़ाओ।’यहाँ गरीबी की दीनता नहीं;बल्कि अमीरी का पागलपन है , जो पैसे के पीछे सब कुछ भस्म करने पर तुला है ।

बनैले ‘सूअर’ का सम्बन्ध बुज़ुर्ग जीवन से न होकर वर्गवाद की संकुचित मानसिकता से है ।

‘अपनी कमाई’-(सुदर्शन) अगर प्रसिद्ध लोक कथा है तो ‘पिता’ देवेन्द्र गो होल्कर भी प्रसिद्ध कथा है , जिसे लेखक ने अपने हिसाब से परिवर्तित कर लिया है। इसी श्रेणी में ‘ …वह क्या है?’-(नन्दलाल हितैषी ) भी है , जिसे हमने अनेक बार आज से पचासों साल पहले सुना था ।लघुकथा के लिए यह प्रवृत्ति शोभनीय नहीं है । इसी तरह की चेष्टा ‘नई धारा ‘ के मई -2011 के अंक में भी देखी जा सकती है ।

फिर भी सुरेश शर्मा जी ने इस क्षेत्र में जो यह कार्य किया है , सचमुच सराहनीय है । आशा की जाती है कि इस तरह का और भी कार्य लघुकथा -जगत में किया जाएगा ।

बुज़ुर्ग जीवन की लघुकथाएँ :सम्पादक- सुरेश शर्मा ;प्रकाशक : समय प्रकाशन,आई-1/15,शान्तिमोहन हाउस,अंसारी रोड , दरियागंज दिल्ली-110002 ; पृष्ठ : 176 (सज़िल्द); मूल्य : 250 रुपये -0-