दूर है किनारा / अंजू शर्मा

Gadya Kosh से
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तपन ने आसमान की ओर सर उठाकर देखा तो कुछ देर बस देखता ही रहा! आकाश तो वहाँ भी था पर इतना खुला कभी नहीं लगा, खूब खुला, निस्सीम, अनंत! और ये हवा, ये भी तो वहाँ थी पर इतनी आजाद, इतनी खुशनुमा कभी न थी! उसने जोर से सांस खिंची, इतनी जोर से मानो ब्रह्माण्ड की सारी हवा अपने फेफड़ों में भर लेने की ख्वाहिश रखता हो! कैसा हल्का महसूस कर रहा था खुद को, जैसे सदियों से एक बोझ उठाये हुए उसका वजूद थक गया था! कैसी थी यह थकान! बचपन में सुनी थी माँ से कहानी कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है! आज लगा...ना तो... सब झूठ है... निरा प्रलाप है... पृथ्वी तो उसके कंधों पर टिकी थी! बस अभी तो मुक्त हुआ था वह उसके भार से! और ये सुबह... इस सुबह की प्रतीक्षा में कितनी रातें तपन ने बिना जागे ही काट दी, रातें जो उसकी आँखों में उगी, ढली और सो गईं पर क्या वह कभी सुकून का एक लम्हा जी पाया था!

बस के हॉर्न ने तन्द्रा भंग की तो वह बिना कोई समय गंवाए बस में सवार हो गया! सब कुछ कितना बदल गया था! उसकी ज़िन्दगी ही नहीं, बस भी, फ्लाईओवरों से पटा शहर भी, यहाँ तक कि टिकट लेने का तरीका भी! एक इलेक्ट्रॉनिक मशीन से फाड़कर एक पर्ची उसके हाथ में थमा दी गई, यही टिकट थी! उसे उलटपुलट करता वह खिड़की के पास की एक सीट पर बैठ गया जो अभी खाली हुई थी!

तन कुछ स्थिर हुआ तो सोच के द्वार भी धीमे से खुल गये! "खूनी...हत्यारे...तुझे कभी चैन ना मिलेगा रे तपन...!" एकाएक माला बोउदी याद आईं, उनका चीखना और बेहोश हो जाना!

ये शब्द उसकी आत्मा पर खुद गये थे! इतने सालों से मानों उसका जिस्म एक ताबूत था जिसमें कैद उसकी आत्मा परकटे पंछी-सी छटपटाती रही थी इन चौदह सालों से! चौदह साल... गहन अन्धकार के, निराशा के, नाउम्मीदी के! हर दिन एक सूरज उगा करता था पर उसके नाम का सूरज तो बस आज ही उगा!

जिस दिन हत्या के आरोप ने उसके नाम के सूरज को निगल लिया था, अँधेरा उसका नसीब बन गया था और आज जब छह साल उसकी झोली में डाल दिए गए, अच्छे चालचलन के नाम पर, वह समझ नहीं पा रहा था, किस्मत को रोये या उसका शुकराना अदा करे! बीस साल के निर्वासन की यात्रा चौदह के अंक पर थमी तो जैसे ज़िन्दगी जो किसी रूकी घड़ी-सी थी, चल पड़ी!

एक झटके से बस रुकी और वह लौट गया अपने आज में! उसने खिड़की की ओर नजरें घुमाई तो सामने वही बस स्टॉप था! उसके पीछे गलियां, और पांच मिनट की चहलकदमी के बाद उसकी कल्पना स्थिर हुई! सामने होगा "भास्कर पाइपलाइन्स प्राइवेट लिमिटेड" का बड़ा-सा बोर्ड, लोहे का बड़ा गेट, ऊँची चारदीवारी जिसके भीतर उसने अपने सपनों की बुवाई की थी! दस साल अपने खून-पसीने से सींचता रहा पर फसल उगने के इंतज़ार में ही एक दिन बदकिस्मती के काले बादलों ने ढक लिया उसके जीवन को! फिर खूब बारिश हुई, काली बारिश, उसी बारिश में घुल गये सारे सपने, सपने जो उसने और शुभा ने साथ-साथ संजोये थे! सुखी गृहस्थी का सपना, सुहास और मंजरी को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाने का सपना! यही तो कहता तपन, "मेरा बच्चा सब चौकीदार नहीं बनेगा शुभी! बड़ा आदमी बनेगा!" पर सपनों का यह आशियाना बस एक झटके में ढह गया!

तेज़ बारिश में उस सुनसान रात में चोरी के लिए घुसे, उन दोनों ने फैक्ट्री ही नहीं उसके सुखी संसार में सेंध लगाई थी! जब वह छोटा था, माँ कहा करती थी, "सब पहले से लिखा है रे तपन! कब क्या होगा, सब लिखा है!"

क्या ये भी पहले से ही लिखा था कि वे फैक्ट्री में घुसेंगे, तपन को आवाज़ आएगी और वह आवाज़ की दिशा में टोर्च लिए दौड़ेगा? ये भी कि उनमें से एक सुबोध निकलेगा जो तपन पर पिस्तौल तान देगा? क्या सुबोध नहीं जानता था कि रात की पाली में तपन की ड्यूटी है? सुबोध नहीं होता तो क्या तपन को किसी को काबू करना मुश्किल था? उसके भरोसे को ठेस लगी पर संभल भी गया था तपन!

आज माँ होती तो पूछता तपन, क्या उस गोली पर भी नाम लिखा था जो छीना झपटी में चली और उसके साथी को जा लगी! जानवर बना सुबोध, वहशी दरिन्दे की तरह टूट पड़ा था! कितना तो रोका, कितना गिडगिडाया तपन! सुबोध पर तो मानो खून सवार था! फिर क्या हुआ, कुछ भी तो याद नहीं। बस याद था तो यही कि उसे घर जाना था, शुभा को माछेर झोल के लिए माछ चाहिए था! दो दिन से कह रही थी...और मंजरी को...गुलाबी...खूब झालर वाला फ्रॉक...सुहास को नया कलम, ठीक सुबोध काका के बेटे जैसा, चमचम रुपहला! सब लेकर जाना है! तब लगा, सुबोध सब छीन रहा है, उसकी रोजी ही नहीं सब कुछ! कैसे सब ले जाने देता तपन, कैसे?

होश आया तो अस्पताल में था! वहीं से पुलिस ले गई थी! तीन गोली लगी थीं सुबोध को! अदालत में ही जाना तपन ने! नहीं जानता था तपन, उसकी भूख बड़ी थी या सुबोध की या फिर फैक्ट्री मालिक की जिसने बिना कारण, बिना नोटिस सुबोध और कई लोगों को निकाल बाहर किया था! कौन था हत्यारा, तपन का फर्ज़, सुबोध का बदला या फिर उन मालिक लोगों का चार पैसे का लालच जो आये दिन कामगारों को छंटनी की सूली चढ़ा देते थे।

किसी से खुल्ले पैसे मांगते कंडक्टर की कर्कश आवाज़ ने कुछ इस तरह ध्यान खींचा जैसे कोई वर्षों की नींद से सोये आदमी को झंझोड़कर जगा दे! और स्मृतियां ठिठकीं, अगला स्टॉप, यानी उसका गंतव्य बस आने को है! चलो सब बदलने के बाद भी, कम से कम उसकी इन्द्रियां अपने गंतव्य को लेकर सजग होने की अभ्यास चौदह साल के लम्बे अन्तराल के बाद भी नहीं भूली!

खिड़की से बाहर सडक पर पीछे छूटतीं वही कुछेक पुरानी इमारतें, वही प्रभु जनरल स्टोर, अतीत के वैभव को ढोता जर्जर मंगल हाउस, बीच से गुजरता गलियारेनुमा रास्ता और उसके किनारे खड़ा विशालकाय पीपल...चलो कहीं कुछ तो ऐसा है जो नहीं बदला...उसने एक लम्बी सांस लेकर सोचा तो उसे वर्तमान से अपनी अजनबियत कुछ कम होती प्रतीत हुई!

सराय रोहिल्ला का फ्लाईओवर शुरू हो गया था! ठीक बीच में स्टॉप था! आहिस्ता से उतरकर तपन ने तेज़-तेज़ चलना शुरू किया! घर अब थोड़ी ही दूरी पर था, बीच में बाज़ार था! अपने हाथ के छोटे बैग को कलेजे से लगाये चलता गया तपन!

सब कितना बदल गया है! ये पुल से उतरकर किनारे का कच्चा रास्ता, पक्का हो गया है, सीवर भी डल गया है! फोन की ये दुकान, मिठाई की ये बड़ी-सी दुकान पहले तो नहीं थी! रसगुल्ले खरीदे तपन ने, मंजरी को बहुत पसंद है और सुहास के लिए वह नीले कागज़ वाला चॉकलेट मिठाई! शुभा के लिए एक साड़ी भी, माछ भी लाना था पर यहाँ माछ नहीं मिलता पास में, कल ज़रूर लायेगा! शुभा से अच्छा झोल कोई नहीं बनाता, कोई भी नहीं! तरस गया तपन इतने साल में!

जेल से आने की चिट्ठी नहीं भेजी उसने, परेशान होकर भागेगी वह! उसके जेल जाने के बाद कॉलोनी के अगले छोर पर अपने माँ-बाबा के पास चली आई थी शुभा! वहाँ सुबोध के परिवार के पास, माला भाभी के सामने की खोली में कैसे रहती! पहले माँ गई और अब दो साल पहले शुभा के बाबा भी नहीं रहे! वह गया गया, नसीब उसे हर दिन अकेला करता गया! उस दिन आखिरी बार मिलने आई थी तो तपन ने बोल दिया था, दिल पक्का करने को, जेल ना आने को! बच्चों के लिए, उनके अच्छे कल के लिए! इतना दूर जेल आयेगी तो बच्चा सब को कौन देखेगा! घर में जो काम करके चार पैसा बनाती थी उसका हर्जा अलग! जिस शुभा को देखे बिना दिन नहीं निकलता था, जिसे चूमे बिना रात नहीं ढलती थी, उसी शुभा को अपने से दूर कैसे कर पाया, पत्थर हो गया था तपन इन दो सालों में!

कदम एक ही रफ्तार से चलते चलते तेज़ होने लगे! कितनी तस्वीरें जेहन में उभर रही थीं! उसे देखकर हंसती-रोती शुभा, दौड़कर उसके घुटनों से लिपटते मंजरी-सुहास! बाबा रे, बिल्कुल पगला जायेंगे न सब!

हाँ यही घर है, बिल्कुल वैसा ही! आसपास तो सब बदल गया है! नई-नई इमारतों के ठीक बीच अब भी वैसे ही खड़ा था जैसे सदियों से किसी की प्रतीक्षा करते-करते कोई जड़ हो जाए! शांत, स्थिर और उदास! सुबोध के दिल की धड़कने जैसे रफ़्तार की सारी हदें तोड़ देना चाहती थीं।

"पी"

कौन? सुहास, दाखो तो ओ लोग आ गया! " डोरबेल के प्रतिउत्तर में भीतर से एक आवाज़ गूंजी! ये शुभा ही थी!

"माँ?" कितने प्रश्न, कितना अजनबीपन पसरा था उस चेहरे पर जो दरवाज़े के उस ओर था!

"की होलो?" उसे पहचानने में चश्मे से झांकती शुभा को उतना वक़्त नहीं लगा पर उसके चेहरे पर तिरता असमंजस क्या छिप पाया था तपन से!

"बाबा...सुहास..." सकते में खड़े सुहास ने माँ के इशारे पर पांव छुए, तब तक मंजरी भी आ गई थी अंदर के कमरे से! दौडकर सबको सीने से चिपटा लिया था तपन ने! इतने बड़े हो गये थे बच्चे! गया तो मंजरी आठ साल की थी और सुहास पांच साल! अभी देखो, कितने बड़े हो गये! आँख धुंधला रही हैं तपन की, सूझता भी नहीं, गले में शब्द रुंधकर जैसे फंस गए! और शुभा...खिचड़ी बाल, झुर्रियों से भरा चेहरा, चालीस से कुछ ऊपर की ही तो होगी पर पचास से कम नहीं मालूम होती है!

"तुमी...आज..." शुभा के चेहरे पर जैसे भावों का एक जलजला-सा आ गया था! एक रंग आता था, एक रंग जाता था।

तीनों उसे घेरकर खड़े थे! आज अपनों के बीच था तपन और अपने सौभाग्य पर उसे यकीन नहीं हो रहा था! किन्तु...किन्तु ये लोग... उसे देखकर खुश हैं या...? तय नहीं कर पाया तपन! हाँ खुश हैं! पर...क्या है जो इस ख़ुशी पर छाया है? कुछ तो है! शुभा बार-बार द्वार की तरफ देखती है, तीनों एक- को देखते हैं! उनकी उलझन छू रही है तपन को! नहीं अब चुभ रही है! हाथ का सामान वहीँ रखा है! बैग अभी भी कंधे पर टंगा है! कुछ था जो उनके बीच कहीं सहजता को लील रहा था, खुशियों पर छाया बनकर मंडरा रहा था! क्या था वह?

कुछ पल को थमा समय फिर चल पड़ा! बाहर तेज़ हवा का झोंका सिहरा रहा है! जा रहा है तपन, कहाँ जा रहा है, किस दिशा में, मालूम नहीं! कब लौटेगा, नहीं मालूम! ये जो वक़्त है न, बीतता नहीं है, वह तो अतीत और वर्तमान के बीच कहीं खड़ा हो जाता है चट्टान की मानिंद! सख्त, विशाल और मजबूत-सी चट्टान! वह सीधे अतीत से अपने वर्तमान में कैसे जा सकता है...कैसे भूल गया था तपन इस चट्टान को!

जिनके चेहरों पर तपन अपनी प्रतीक्षा ढूंढ रहा था, आज वहाँ किसी और की प्रतीक्षा थी! वह लोग मंजरी की शादी की बात करने आने वाले थे! आस्तीन से आंसू पोंछ लिए तपन ने! इतनी बड़ी हो गई उसकी नन्ही मंजरी! दुल्हन बनेगी किसी की! उनके सामने कैसे जा सकता था तपन! आज वहाँ कैसे हो सकता था वह! वह खूनी तपन, हत्यारा तपन...दो लोगों का हत्यारा, अपने ही मित्र का हत्यारा तपन! अतीत का कद बढ़ा और इतना बढ़ा कि उसकी परछाई में आज कहीं सहम कर दुबक गया।

क्या तो बताते, कैसे कहते कि लडकी का बाबा अभी जेल से हत्या की सज़ा काटकर आया है! नहीं, नहीं... कैसे शामिल हो सकता था अभी उनकी ख़ुशी में! उनकी खुशियों में कहीं कोई रिक्त स्थान नहीं था जो तपन के नाम से भरा जा सकता था! मध्य की चट्टान जैसे कुछ और बड़ी हो गई! तपन को लगा ये चट्टान अतीत और वर्तमान के बीच नहीं, उनके संबंधो के बीच उग आई है, जिसकी नींव उसकी छाती पर है! दब रहा है तपन का पूरा अस्तित्व इसके बोझ तले, दबता ही जा रहा है धीरे-धीरे!