दूसरा ताजमहल / नासिरा शर्मा

Gadya Kosh से
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हवाई जहाज में बैठी नयना किसी परिंदे की तरह सहमी और निराश थी। जिसको उडान भरते हुए बीच में ही बहेलिये ने झपट लिया था। नियति का यह खेल उसकी समझ में नहीं आया। दिल्ली पहुँच कर वह हवाई जहाज क़ी सीट पर बेहिस सी बैठी रही। भीड छंटने पर एयरहोस्टेस ने उसकी हालत देखी और पास आकर बोली, “ मैम, आपकी मदद कर सकती हूँ? “ “ नहीं मैं ठीक हूँ।” बडी देर तक वह कुर्सी पर बैठी खाली नजरों से मुसाफिरों को बाहर निकलते देखती रही। उसके दिमाग से सब कुछ पुछ सा गया था। कौनसा घर, कौनसा शहर और कौनसा पता जहाँ उसको जाना था? एयरहोस्टेस ने उसकी अटैची निकाली। वह उठी, सीढियां उतरी और इमारत में दाखिल हुई। प्रिपेड टैक्सी काउंटर पर वह बडी देर तक चुप रही। फिर बडी मुश्किल से उसने सडक़ का नाम बताया। टैक्सी पर बैठी तो लगा सर के अन्दर झनझनाहट सी है। घर का नम्बर याद ही नहीं आया। टैक्सी बडी देर तक उस सडक़ पर दांये बांये घूमती रही फिर ड्राईवर ने झुंझला कर कहा कि मेम साहब, मुझे घर भी लौटना है। नयना की चेतना लौटी। बहुत देर तक ढूंढने के बाद उसने पर्स से अपना विजिटिंग कार्ड निकाला और बडी क़ठिनता से पता पढा। घर पहुंच कर उसको अजीब घुटन का अहसास हो रहा था। सर में शदीद दर्द उठ रहा था। उसकी हालत देख कर नौकर परेशान थे। वह सर दोनों हाथों से पकडे बेडरूम में जा बिस्तर पर लुढक़ गयी। सारी रात नयना के दिमाग में फोन की घंटी घनघनाती रही। उसी के साथ रोजी क़े शब्द तपकन बन उसके दिल को मसलते रहे, “ मुझे कभी कभी लगता है कि सर अपने सारे दु:खों को नशे की हालत में तरतीब दे लेते हैंबडे बडे प्राेजेक्ट तक, जो उनकी अभिलाषा रही है, मगर पूरे नहीं हो पायेअनजाने में ही सही मुझे उनका यह अन्दाज बडा निर्मम लगाआपको देख कर मैं समझ सकती हूँ कि आपका विश्वास कहाँ पर टूटा है। प्लीज मैम हो सके तो सर को भूल जाईये।।” एयरपोर्ट पर विदा देते हुये रोजी ने बहुत धीमे सुर में कहा था। नयना को अच्छी तरह याद है कि वह जून का तपता महीना था, जब उसकी मुलाकात रविभूषण से हुई थी, शादी की उस पार्टी में ढेरों मर्द - औरतों का जमघट था। कुछ चेहरे जाने पहचाने थे कुछ कुछ अजनबी थे। उन्हीं में से एक चेहरा रविभूषण का था। कुमकुमों की रंगीन झालरों से सजे पेड क़े पास खडा वह बेतहाशा सिगरेट फूंक रहा था। धुंए से डूबा उसका चेहरा उसे और भी रहस्यमय बना रहा था। जब किसी के परिचय कराने पर उसने होंठों में सिगरेट दबा कर परंपरागत अंदाज से दोनों हाथ जोडक़र नमस्ते की तो, नयना को हल्का सा झटका महसूस हुआ। वह हलो या हाय की आशा कर रही थी मगरउसने गौर से रविभूषण को देखा, चेहरे पर खोयापन, माहौल से लापरवाह उसकी बडी बडी आँखें अपने ही सिगरेट के धुंए से अधमुंदी हो रही थीं। उसने संवाद शुरु करना चाहा, मगर जाने क्यों रुक गयी। वह भी खामोश खडा सम्पूर्ण वातावरण का जायज़ा लेता रहा। नयना को वह आदमी कुछ अलग सा लगा, बल्कि यूं कहा जाये कि उस आदमी के व्यक्तित्व से कोई और शख्स अन्दर बाहर होता नजर आ रहा था, भीड क़े बावजूद नयना की नजरें कई बार रविभूषण पर पडीं । रविभूषण से नयना की यह पहली मुलाकात बडी सरसरी सी थी सो धुंधला गयी। मगर चंद माह बाद जब लंच पर उससे दूसरी मुलाकात हुई तो वह गुमनाम चेहरा गर्द झाड क़र साफ नजर आया। सिगरेट, धुंआ, खोयापन और लापरवाह अन्दाज। चूंकि यह बिजनेस लंच था सो बाकायदा परिचय हुआ और कार्ड का आदान प्रदान भी। नयना ने तब जाना कि एक साथ दो व्यक्तित्व की झलकियां दिखाने वाला यह इंसान बंबई शहर ही नहीं बल्कि देश का जाना माना वास्तुविद् रविभूषण है तो उसने रवि से अपनी पहली मुलाकात का कोई जिक़्र नहीं किया। रवि को वैसे भी कुछ याद नहीं था, वरना वह कह सकता था कि हम पहले मिल चुके हैं। इंटीरियर डेकोरेशन को लेकर यह मीटींग बम्बई के मशहूर उद्योगपति द्वारा बुलवाई गयी थी। उसके पोते का ऑफिस जिसको रवि ने डिजाईन किया था, वह ईंट गारे की मदद से बन कर अब साकार रूप ले चुका था। उसकी सजावट को लेकर सलाह मशविरा चल रहा था। लंच के बाद कॉफी पीते हुए नयना को रविभूषण बहुत हँसमुख व मिलनसार आदमी लगा। खासकर काम को लेकर उसका नजरिया और राय जानकर महसूस हुआ कि इतनी शोहरत पाने के बावजूद आदमी काफी सुलझे स्वभाव का है, दंभ या ओछापन उसमें नहीं है। नयना को दूसरे दिन दिल्ली लौटना था। वह लौट आई। सप्ताह भर बाद उसको रविभूषण का फोन मिला। बस यूं ही हालचाल पूछने की नीयत से और नयना को उसका बात करना बुरा नहीं लगा। पांच मिनट की यह बात अगले सप्ताह दस मिनट में बदली तो नयना को कुछ अटपटा सा लगा, बात में वही दोहराव था। औपचारिकता के अतिरिक्त कोई और स्वर की गुंजाईश नहीं थी, क्योंकि वह एक इंटीरियर डेकारेटर जरूर थी, मगर रविभूषण जैसे आर्किटैक्ट से वह क्या बात कर सकती थी? जब तीसरा, चौथा फोन आया, तो नयना सोच में पड ग़ई कि आखिर बिना किसी योजना पर बात किये यह बार बार क्यों फोन कर रहा है! फिर ख्याल गुजरा, शायद उसको कोई बडा प्रोजेक्ट दिल्ली में मिला हो और उस सिलसिले से वह सम्वाद की भूमिका बना रहा हो। आखिर बंबई शहर का मामला है, दो शहर के बीच दूरियां काफी हैं मगर एक प्रोफेशनल को तो साफ साफ बात करना ज्यादा पसन्द आता है, फिर? इस फिर का जवाब नयना के पास नहीं था। वह फोन करने के लिये मना भी नहीं कर सकती थी, आखिर वह देश का सम्मानित वास्तुविद् था और बेहद शालीन स्वर में बातचीत करता था। स्वयं नयना सारे दिन अपने ऑफिस में नए नए लोगों से प्रोजेक्ट को लेकर मिलती थी। आखिर उसका काम ही ऐसा था मगर बिना काम के फोन का मौसम तो कब का बीत चुका है, वह स्कूल के दिन जब दोस्तों से बातें ही खत्म नहीं होती थीं, उन दिनों के मुकाबले में आज कम्प्यूटर का दौर है, जहां सम्वेदनाओं के लिये समय ही नहीं बचा है। वह अगस्त का उमस भरा महीना था, जब रविभूषण किसी मीटिंग के सिलसिले में उसके शहर आया था। पता नहीं क्यों नयना ने महसूस किया कि रविभूषण काम का बहाना बना केवल उससे मिलने आया है। दिमाग के इस शक को यह कह कर उसने झटक दिया कि यह बेवकूफी का खयाल उसको टेलीफोन पर होती बातों के कारण आया है, वरना एक व्यस्त आदमी बिना कारण यात्राएं नहीं करता है। मगर वह आँखे उनकी भाषा क्या अलग सी इबारत की तरफ इशारा नहीं कर रही थी? शाम की चाय पीकर जब रविभूषण उसके बंगले से निकला तो पोर्टिको में आन खडी हुई। जाते जाते रविभूषण ने उसकी तरफ मुडक़र देखा और उसने हाथ उठा कर बाय कहा, फिर चौंक कर उसने अपने उठे हाथ के नर्म इशारे को ताका और नजर उठा कर जो रविभूषण की तरफ देखा, तो धक् सी रह गई। उन आँखों में सम्मोहन था। गहरा आकर्षण! उसने हाथ नीचे किया और स्वयं से पूछा, कहीं यह तेरा भ्रम तो नहीं है नयना?

एक रंग, जो मौसम बदलने से पहले हवा में फैलने लगता है, कुछ वैसी ही कैफियत से नयना दो चार हुई। एक खुशी जैसे उसको कुछ मिल गया हो, मगर क्या? इसी उधेडबुन में वह तैरती उतरती प्लाजा की तरफ चल पडी, ज़िसकी सारी सजावट उसी को करनी थी। रास्ते के सारे पेड उसको चमकीली पत्तियों से सजे लगे और शाम ज्यादा गुलाबी जिसमें धुंधलका सुरमई रंग की धारियां जहां तहां भर रहा था। घर लौटते हुए उसको सडक़ की बत्तियां चिराग क़ी तरह जलती लगीं, जैसे छतों पर दीवाली की सजावट घरों को दूर तक रोशनी की लकीरों में बांट देती थीं। आज उसका मूड बरसों बाद हल्का हुआ था। कोई कुंठा, कोई शिकायत, कोई कडवापन या झुंझलाहट उसको आहत नहीं कर रही थी। वह हवा में तैरती हुई जब घर पहुंची, तो नौकर ने बताया कि साहब को कोई एमरजेंसी ऑपरेशन करना है, जिसके कारण वे देर से लौटेंगे। सूचना सुनकर वह हमेशा की तरह आक्रोश से नहीं भरी, बल्कि उसने लापरवाही से कंधे झटके और गुनगुनाती हुई कमरे में दाखिल हुई। नहाने के बाद जब वह गाउन में लिपटी ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी, तो अपना ही चेहरा इस तरह देखने लगी जैसे पहली बार देख रही हो। आंखों के नीचे हल्का कालापन, भंवों के पास कई लकीरें, माथे पर सफेद बालों का झांकना, आंखों में एक जिज्ञासा कि मैं कैसी लगती हूँ? उसको अपनी त्चचा मुलायम और चमकीली लगी। होंठों पर जाने कहां से आई मुस्कान उसको अजनबी लग रही थी। थकान के बावजूद उसमें फुर्ती का अहसास था। खाना खाने के बाद जब वह पलंग पर लेटी तो उसे महसूस हुआ कि आज बरसों बाद उसके बदन को मुलायम बिस्तर मिला है। उसने आराम की सांस ली और आंखें बन्द की तो सामने रविभूषण का चेहरा तैर गया। बंबई पहुंचते ही रवि ने नयना को फोन किया कि वह भली प्रकार पहुंच गया। रात को जब दोबारा उसने फोन किया, तो नयना को पहली बार लगा कि उसकी आवाज सुन कर उसके दिल में कुछ उथल पुथल सी हुई। फिर फोन का यह सिलसिला पांच मिनट से आधा घंटा हो गया और हफ्ते की जगह रोज बातें होने लगीं, जिसमें प्रोफेशनल बातें कम और आपसी बातें ज्यादा होतीं - खाना खाया या नहीं? दिन कैसा गुजरा? मौसम कैसा है? नयना को फोन का इंतजार आठ बजे से शुरु हो जाता, जबकि ठीक दस बजे फोन की घंटी बज उठती थी, इस बीच वह सारे काम निबटा लेती ताकि, आराम से बातें कर सके। उसको अकेले घर में एक साथी मिल गया था, जिससे वह दु:ख सुख की बात कर सकती थी। पिछले पांच छ: वर्षों से नयना का अकेलापन बढता जा रहा था। दोनों बेटे पढाई के सिलसिले में अमेरिका चले गये थे। नरेन्द्र जब से डायरेक्टर बना है, तब से इतना व्यस्त होता जा रहा है कि नयना को गुस्सा आने लगा था कि ऐसा भी क्या पागलपन, जो दिन रात अस्पताल में रहना, आखिर घर की भी कोई जिम्मेदारी होती है। सारे दिन की उडान के बाद परिंदे भी तो अपने घर घोंसले को लौटते हैं? पिछले तीन दिन से डॉ नरेन्द्र घर नहीं लौटे थे, कोई बेहद पेचीदा केस आ गया है। कई विदेशी प्रोफेसर मेडिकल क्षेत्र के भी रात दिन सर खपा रहे थे। नयना को स्थिति की गंभीरता का ज्ञान था, मगर हर दिन आपातकाल का वातावरण बना रहे तो, इंसान जिये कैसे अकेले घर में? कब तक टी वी देखे, मित्रों को फोन करे और पार्टियों में शामिल हो? हर तरफ से उसको ऊब लगने लगी थी। थोडी बहुत खुशी उसको मिलती, तो वह सिर्फ अपना ऑफिस था, जहां काम में उसका दिल बहल जाता था। या फिर बच्चों के ई मेल संदेशों और फोन पर उनकी आवाजें सुनकर वह खुश हो जाती थी। नरेन्द्र इतना थके लौटते कि खाना खा कर सो जाते और नयना जब फोन पर बातें करके लेटती तो उसके दिमाग में यह प्रश्न फूलों से भरी क्यारी की तरह खिल उठता कि रविभूषण उसका क्या लगता है दोस्त या भाई? नयना अपनी सालगिरह के दिन बच्चों के बिना उदास थी। नरेन्द्र भी विदेश गये हुये थे। उस रात फोन पर रवि ने जब उसकी उदासी का कारण जानकर यह कह दिया कि वह नयना को खुश देखना चाहता है, इसके लिये वह अपने जीवन के बचे वर्ष उसको भेंट स्वरूप देता है, तो नयना भी भावुक होकर बोल उठी कि क्या वह रवि को भाई कह सकती है? इस पर रवि ने जल्दी से कहा, “ नहीं, नहीं भाई हरगिज नहीं, हमारा रिश्ता तो सखा का है।” और यह सुन नयना विश्वास से भर उठी, सारी दुनिया उसे सुगंध से भरी महसूस हुई। आखिर हर रिश्ते से बडा रिश्ता दोस्त का होता है जिसमें न कोई लालच न बंधन न जोर जबरदस्ती। जितनी लम्बी पेंग लेना चाहो, ले सकते हो। इस रात ने दोनों के वार्तालाप का अन्दाज ही बदल डाला। बातों का सिलसिला सुबह तीन बजे तक चलता रहा और अनजाने में नई दिशा की तरफ मुड ग़या। नयना का छोटा भाई, जो दो वर्ष पहले ही कार दुर्घटना में जीवित नहीं रहा था, उसके बहुत करीब था। दोनों में बचपन से दोस्ती थी। जब वह बनारस से दिल्ली नौकरी के सिलसिले में आया तो नयना की खुशी का पूछना क्या था। कुछ दिन भाई बहन के साथ नरेन्द्र घूमने गये, फिर बोर होकर अपने अस्पताल में गुम हो गये। नयना को उनकी कमी खलती न थी। उसका बचपना उसको दोबारा मिल गया था। भाई की शादी की सारी खरीदारी उसने दिल्ली से की थी। मगर होनी को कौन टाल सकता था। शादी के सप्ताह भर पहले तालकटोरा के पास कार की टक्कर होने से उसकी मौत हो गयी। डॉ नरेन्द्र कुछ न कर पाये, आखिर वो ईसामसीह तो थे नहीं, जो मुर्दाबदन में भी जान फूंक देते। नयना गहरी उदासी में डूब गई थी, उसी दुर्घटना के बाद बेटों का अमेरिका जाना हो गया। नयना को लगता कि वह इस दुनिया में तन्हा रह गई है, किसी को उससे बात करने, उसके साथ समय गुजारने की फुर्सत नहीं है। नरेन्द्र से उसकी शादी पसन्द की थी। दोनों ने शादी के पहले एक दूसरे को देखा परखा था, मगर जिन्दगी तो हमेशा से समय से आगे निकल जाने वाली चीज है, न कि ठहरी हुई जन्मपत्री, जिसके सारे शब्द अनेक संकेतों से भरे होते हैं! अपने काम को परखते, उसकी दौड में शामिल नरेन्द्र भी पहले वाले इंसान नहीं रह गये थे। उनके जीवन मूल्य जड न रह कर तरलता में अपना समाधान ढूंढने लगे थे। बहुत सी बातें नयना को परेशान करती थीं। कई सवाल थे जो वह नरेन्द्र से करना चाहती थी। मगर उनके पास हर बात का जवाब खामोशी थी। नयना भी नरेन्द्र से उखडक़र अपने ऑफिस से अधिक जुडने लगी मगर यह अहसास समय के साथ बढने लगा कि उसका पुराना घर कहीं खो गया है। नयना के दिल में छुपा नरेन्द्र के खिलाफ भरा गुबार कभी कभी फोन पर निकल जाता। आखिर रवि ने एक दिन कह दिया कि, क्यों सहती हो यह सब? चली आओ सब कुछ छोड क़र मेरे पास। सुनकर नयना चौंक पडी। पूछने वाली थी, आखिर किस रिश्ते से? फिर कुछ सोच कर रुक गयी। पूरी रात रवि के इस बुलावे पर गौर करती रही, उसमें ध्वनित प्रेम के स्वरों को पकडने की कोशिश में स्वयं से सवाल करती, क्या रवि? और उसने अपने को टटोला, दिल की गहराई में कहीं रवि मौजूद था। उसने चौंक कर स्वयं से पूछा कि नयना इस रिश्ते का यदि आरंभ अनजाने में हो गया है, तो अंत क्या होगा? समझा बूझा या फिर समझा बूझा या फिर या फिर? बहरहाल रवि से दोस्ती नयना के जीवन में एक नई उपलब्धि थी, जिसने जीवन से उसका मोह बढा दिया था। उसमें थकान की जगह खुशमिजाजी आ गयी थी। पहनने ओढने का दिल करता। सजने संवरने की इच्छा के चलते उसने क्रीम, सेन्ट का ढेर लगा लिया और हर रात रविभूषण के बुलावे पर उसका मन बम्बई जाने को मचलने लगा। उसको अपने इस घर में एक और घर नजर आने लगा। बातों की लय में दोस्ती का अनुराग मर्द - औरत की चाहत में बदल चुका था। एक दिलनशीन कैफियत थी। जिसमें नयना डूबती चली जा रही थी। उसके क्षेत्र की अन्य औरतें उसके चेहरे पर आयी ताजग़ी देखकर जब कॉम्प्लीमेन्ट्स देतीं तो स्वयं नयना को लगता कि उम्र के इस दौर में जब औरतें दुनियावी जिम्मेदारी से निबट धर्म की तरफ मुडने लगती हैं या फिर सूखी नदी में तब्दील होने लगती हैं उस समय उसको ऊपरवाले ने कैसा वरदान दिया, जो दिल दोबारा धडक़ा और जीवन में अनुराग ताजा कोंपल की तरह फूटा। कभी नरेन्द्र और नयना का जीवन एक सुखी जीवन था, वे दोनों अपना समय अपने कार्यक्षेत्र में उनमुक्त भाव से देते थे, दिमाग पर कोई बोझ न होता, न घर की जिम्मेदारियों से दिल परेशान रहता। अपनी कामयाबी को देख कर दोनों ने फैसला लिया था कि वे ऊंची शिक्षा के लिये बच्चों को बाहर भेजेंगे। दोनों लडक़े गज़ब के जहीन थे। स्कॉलरशिप मिली और उमंग से भरे वे अमेरिका पहूँचे। उनके जाने के बाद डॉक्टर नरेन्द्र की रुचि अपने काम में और बढ ग़ई। तरक्की मिली तो व्यस्तता का बढना लाजमी था। नरेन्द्र का उलट नयना के साथ हुआ। उसका काम में दिल कम लगने लगा। मन भटका भटका सा लडक़ों के ख्याल में डूबा रहता। घर सूना लगता। खाना पीना अच्छा न लगता। कुछ माह बाद वह संभल गयी। शायद अस्पताल के नए प्रोजेक्ट ने उसका ध्यान बंटा दिया, मगर एक उदासी जरूर हरदम उसके मन पर छाई रहती थी। जिसको रविभूषण ने दूर कर दिया था। वह बम्बई जाने की तैयारी करने लगी। नरेन्द्र को बम्बई जाना प्रोफेशनल टूर लगा। इसमें क्या खास बात थी। दोनों ही समय समय पर एक दूसरे से दूर घर से बाहर जाते थे, सो नरेन्द्र ने सुबह नयना को सेफ जर्नी कह बाय बाय किया और नयना ने हमेशा की तरह उसको कुछ हिदायतें दीं और फिर वह पैकिंग में लग गई। नयना जब नए खरीदे कपडे पहन कर आईने के सामने खडी हुई, तो उसको लगा कि उम्र का साया अभी उसके चेहरे पर नहीं आया है। खुशी ने उसके चेहरे पर चमक ला दी है। इस खयाल से उसकी उत्तेजना बढी क़ि यदि रविभूषण ने उसको रोका और अपने साथ रहने का आग्रह किया तो वह क्या फैसला लेगी? रविभूषण तो साफ शब्दों में कह चुका है कि, तुम बेकार में समय नष्ट कर रही हो, वहां तुम्हारा कोई इंतजार नहीं कर रहा है। यहां मैं हूँ, आओ न - मैं फोन रखता हूँ। तब तक तुम फैसला लो। मैं दस मिनट बाद फोन करुंगा। उसकी इस तरह की बातें छोटी छोटी शिकायतों के जख्म ताजा कर देती और उसको महसूस होता कि उसने अपनी जिन्दगी जी ही कहाँ? कभी बच्चे, कभी पति कभी ससुरालवालेअब मैं अपनी जिन्दगी जी सकती हूँ। रविभूषण वास्तुविद् हैं, जो इमारत बनने से पहले उसका नक्शा खींच, मॉडल के रूप में पूरी इमारत सामने लाने की क्षमता रखता है। वह जिन्दगी का नक्शा भी बडा मजबूत बनायेगा। जिसमें वह अपनी महबूबा के लिये ताजमहल न सही, एक छोटा सा घर तो बना सकता है। जिसको वह अपनी मर्जी से सजा सकती है। नयना ने पूरे विश्वास से होंठों पर लिपस्टिक लगाई और गहरी नजरों से अपने सरापे को ताका। उडान का समय हो गया था। दिल्ली से बम्बई उडान बहुत कम समय की थी। नयना का मन तेजी से धडक़ रहा था। दो मुलाकातों के बाद घटनायें सम्वेदना के स्तर पर जिस तरह घटीं थीं, सारी मौखिक थीं मगर उसमें जादू था, जो नयना के सर चढ क़र बोल रहा था। कल रात रविभूषण की खुशी का कोई ठिकाना न था, जब उसको पता चला कि नयना ने बम्बई आना तय कर लिया है। उसके स्वर में जो धडक़न थी, उसने नयना को विश्वास दिलाया कि जीवन का अंतिम पहर जैसे रविभूषण के साथ गुजरने वाला है, वही मेरा अंत होगा धीरे से नयना ने कहा और बैग उठा हवाई जहाज़ की सीढियां उतरने लगी। उसको डर था कि रवि को देख कर वह इतनी भावुक न हो उठे कि वहीं हवाई अड्डे पर उससे लिपट जाये। या फिर रवि वहीं सबके सामने उसका चुंबन न ले ले। नयना किसी किशोरी की तरह शर्माई शर्माई सी थी। प्यार किसी भी उम्र में हो उसका अपना तर्क होता है। जो उम्र, जात पात, धर्म, भाषा की सारी दीवारों को गिरा देने की शक्ति अपने में रखता है।

नयना की बेकरार आंखें भीड में रविभूषण को ढूंढ रही थीं। जब वह बाहर निकली तो रवि धुंये में घिरा अपनी तरफ उसको आता दिखा। वह व्याकुलता से आगे बढी, मगररविभूषण का ठहरा हुआ चेहरा देख कर ठिठक गई। वहां पर अहसास की कोई लकीर न थी, बस औपचारिकतापूर्ण मुस्कान। एक ठण्डा सहाज अन्दाज नयना को परेशान कर गया। सुस्त कदमों से चल वह कार में बैठ गई। जिसको स्वयं रविभूषण चला रहा था। नयना के दिल में कुछ टूटा। मन भटक कर कहीं दूर चला गया। दिमाग रवि के गंभीर चेहरे को देख कर बार बार प्रश्न करने लगा कि क्या यह वही आदमी है जो रात के आखिरी पहर और कभी भोर तक बडी ललक से बातें करता है और दिलो दिमाग़ को उमंगों से भर देता है? “ आपकी तबियत ठीक है? “ “ हाँ।” “ बहुत चुपचुप हैं?” “ दरअसल दिन को काम में उलझा रहता हूँ सो बात करने का मन नहीं होता ! “ रवि की हल्की हँसी और जवाब ने नयना को संभाल लिया। उसके अन्दर बुझी खुशी फिर जिन्दा हो गय्ी और वह चहकने लगी। बातों में पता नहीं चला कि वह होटल पहुंच गये हैं। ऊपर समन्दर के सामने वाली कुर्सी पर बैठा रवि सिगरेट पीता रहा और वह बातें, फिर रवि ने लम्बी गहरी सांस लेकर खाली चाय की प्याली रखते हुए कहा, “ मुझे आज बंबई से निकलना होगा। अहमदाबाद में होटल बन रहा है, वहाँ कुछ दिक्कत पेश आई है। बहुत अच्छा हुआ हमारी मुलाकात हो गयी। शाम की एक उडान दिल्ली के लिये हैअगर दिल चाहे तो रुको, मैं दो तीन दिन में लौटता हूँ।” नयना सकपका सी गई। कोई उत्तर नहीं सूझा। दिल पर घूंसा सा लगा। मगर जल्द संभल गई। गहरी नजरों से उसने रवि को देखा। आंखों में छाया सूनापन था। उसने दिल को तसल्ली दी कि वे दोनों जिन्दगी के उस पडाव पर हैं, जहां फर्ज क़ा नम्बर पहले आता है। उसने शाम की उडान से लौटना तय कर लिया। रवि ने उसको बाजार छोडा ताकि वह कुछ शॉपिंग करना चाहे तो कर ले, फिर वह दो घंटे बाद जरूरी काम निबटा कर लौटता है और लंच पर साथ रहेगा। इस बीच वह टिकट भी बदलवाने की कोशिश करता है। नयना को सबकुछ अटपटा लगा। फिर यह सोच कर चुप हो गयी कि यह दो शहर की अपनी संस्कृति का प्रश्न भी है। बम्बई प्रोफेशनल सिटी है, दिल्ली पॉलीटिकल, जहाँ कभी भी प्रोग्राम बदला जा सकता है। लंच पर रवि थोडा खुला। अपने काम के बारे में बताया कि वास्तुविद कला उसका ईमान है। उसे शब्दों से ज्यादा लकीरों पर विश्वास है, जिनसे वह घरों का खाका खींचता है और लोगों को छत मुहैय्या करवाता है। नयना ने रवि के लिये एक शर्ट खरीदी थी जो उसने थैंक्स के साथ ले ली और नयना को हवाई अड्डे छोडने के लिये उठा। जब वह बाय करके चलने लगा तो उसकी आंखों में एक नरमी सी उभरी। यह संदेश नयना को संतोष दे गया। उसे याद आया कि रवि ने कहा था कि मिलना, रहना और जीना क्या होता है, इसको समय से नहीं आंका जा सकता है, कभी कभी पल भर की मुलाकात पूरी जिन्दगी पर भारी होती है। नयना को लगा आखिर रवि भी तो उससे मिलने चंद घंटों के लिये ही तो आया था। अब वह भी दो चार दिन की जगह एक दोपहर एक साथ गुजार कर जा रही है और इसमें बुरा क्या है? आखिर रवि वास्तुविद् है, उसका काम नक्शा बनाना है, अपने नक्शे को साकार रूप में देखने के लिये संयम, धैर्य की आवश्यकता होती ही है। बता तो रहा था कि उसके कई प्रोजेक्ट कई कई वर्षों तक चले हैं। फिर मुझे इतनी व्याकुलता दिखाने की जरूरत नहीं, न ही उसके बर्ताव में अतिरिक्त कुछ पढने की जरूरत है। एक नई तरंग के साथ नयना दिल्ली लौट आई। नौकर जो दो तीन दिन के आराम का प्रोग्राम बनाये बैठे थे, वे हडबडा गये। ठीक दस बजे फोन की घंटी घनघना उठी। अहमदाबाद से रवि का फोन था। नयना हाथ में पकडा कौर प्लेट में रख बेडरूम में आ गयी और बिस्तर पर लेट कर बातों में डूब गई। फोन रखते हुये उसको चुंबन मिला, नयना के चेहरे पर एक साथ कई चांद चमक उठे। उसने आंखें बन्द कर लीं। सामने एक भरपूर जिन्दगी का नक्शा था, जहाँ वह होगी और रविभूषण। उसने हंस कर आँखे खोलीं और अपने से कहा - “ नयना, जरा धैर्य से काम लो, माना कि तुम्हारा काम सूने कमरों को सजाना है, मगर इतनी जल्दबाजी क़ी क्या जरूरत है, जिन्दगी से भरपूर शरबत का गिलास तुम्हारे हाथ में है। उसको आहिस्ता आहिस्ता करके पियो, एक एक घूंट कर, ताकि तरावट तुम्हारे वजूद में इस तरह फैले, जैसे सूखी धरती पर पानी धीरे धीरे उसकी खुश्की क़ो जज्ब करता है।” नयना ने रात को एक सपना देखा। एक खूबसूरत घर है, जिसके सामने घास का मैदान है, जिसके चारों तरफ फूलों से भरी क्यारियाँ हैं। एक बडे सायेदार दरख्त के नीचे रवि उसके साथ बैठा है। सामने पडी मेज पर एक नक्शा फैला है जिसको दिखाते हुए रवि कह रहे हैं, नयना, जापान में मेरे इस प्रोजेक्ट को बहुत पसन्द किया गया है। उम्मीद है इस जाडे में इसकी शुरुआत मैं कर दूँ। तुम साथ रहोगी, देखना मेरी लकीरों का कमाल - वह इस तरह बोलेंगी कि उनके सामने शब्द भी फीके पड ज़ाएंगे। ' नहीं रवि जाडे में नहीं हम बसन्त में जाएंगे, जब हर तरफ फूल की मालाएं लिये पेड हमारा स्वागत करेंगे। चमकीला सूरज नीचे आसमान पर चमकेगा। तब हिरोशिमा घूमने में मजा आयेगा, वह शहर बमबारी के बाद दोबारा बसा है जैसे हमारी यह जिन्दगी, जो बिना बमबारी हमको सागर मंथन के द्वारा मिली है! “ नयना हँसती है। उसकी बात सुन रविभूषण ने जोर से ठहाका कहकहा लगाया और गहरी सम्मोहन भरी नजरों से नयना को ताका और सिगरेट मुंह में दबा लाईटर को जलाया, लपकते शोले ने सिगरेट को लाल बिन्दी में बदल दिया। धुंए के छल्लों में घिरी नयना के कान सुनते हैं - “ तुम्हारी आँखे बहुत खूबसूरत हैं। तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिली नयना? मैं इस तरह न भटकता, मैं इस भटकाव में जिन्दगी की जुस्तजू को छोड नहीं पाया हूँ, तो भी नयना तुम मुझे कभी छोडना मतचलना क्षितिज के अंतिम छोर तकमेरे साथ।” रात का सपना नयना के दिमाग पर छाया रहा, दिल ने कहा कि रवि मैं दुनिया छोड सकती हूँ, मगर तुम्हें नहीं, तुम मेरी श्वासों में बस गये हो, मेरे वजूद में समा चुके हो। तुमसे अलग होने का मतलब है अपने शरीर को दो हिस्सों में बांट देनानहीं नहीं रविमैं अब तुम्हारी हूँ। सिर्फ तुम्हारी। जैसे मीरा कृष्णमय हो गय्ी थी, मैं रविमय हो गई हूँ, मेरी तपस्या हो तुम, मेरी निष्ठा हो तुम, मेरी जिन्दगी की नई शुरुआत हो तुम! कई दिनों से रविभूषण के जुमले रात दिन नयना के कानों में गूंजते थे। उस पर हर पल नशा दर नशा चढाते हुए। काम करते करते वह ठहर जाती, बात करते करते खामोश हो जाती। “नयना! तुम कैसे उस माहौल में जी लेती हो। आओमैं तुम्हारे इंतजार में यहाँ बैठा हूँ। मुझ पर विश्वास करो। अपनी बडी बडी आंखों से इस रविभूषण को देखो, यह तुम्हारा है। नयना, सिर्फ तुम्हारा है। मैं तुम्हारे सारे दु:खों को मिटा दूंगा। तुम्हें इतना प्यार दूंगा कि तुम फिर से खिल उठोगी, एक तरोताजा गुलाब की तरह महकी महकी सी।” रात के लम्बे पहर तक टेलीफोन व्यस्त रहने से बाकि की कॉल रुकी रहतीं। कई बार नरेन्द्र को सुनने को मिला कि मरीज क़ी हालत खराब थी, घर फोन किया मगर बात न हो पाई। बेटों का भी ई मेल मिला तो इसमें भी वही जिक़्र, जिसको पढ क़र नरेन्द्र को कोई विशेष फर्क नहीं पडा। आखिर नयना फोन पर अपने क्लाईन्ट से ही तो बात करती होगी, फिर मेरा तो सैल ऑन रहता ही है। मगर उस दिन न जाने क्यों नरेन्द्र पर क्रोध का दौरा पड ग़या। जब कानपुर से कॉल था। मरीज क़े रिश्तेदार फोन मिलाते मिलाते थक गये थे। सुबह जब फोन मिला, तब तक मरीज बिना दवा की गोली खाये चल बसा यह दवा उसकी जान बचा सकती थी, अगर समय पर मिल गई होती तोवह होश खोकर नयना पर जी भर के बिगडा, यह मरीज उसके कैरियर की सबसे बडी उपलब्धि था। उसका ऑपरेशन कामयाब हुआ था। मेडिकल क्षेत्र में उसके काम को सराहा गया था। अखबारों में उसकी तस्वीरें छपी थीं। बी बी सी ने उसकी एक विशेष भेंटवार्ता प्रसारित की थी। उस कामयाबी का यह अम्जाम? नयना को नरेन्द्र की यह बातें बेहद बुरी लगीं। उसके पास तर्क था कि पूरे अस्पताल में कितने फोन होंगे, उसका अपना सैलुलर था। क्या सारा मेडिकल विभाग एक ही फोन पर टिका है? इस बात को जान कर नयना बुरी तरह भडक़ उठी, जब नरेन्द्र ने बताया कि उसने थकान के कारण सैल बन्द कर दिया था, ताकि पूरी नींद सो सके। दूसरे दिन उसको कहीं लैक्चर देने जाना था। नयना को लगा कि सारी जिन्दगी नरेन्द्र ने अपनी हर लापरवाही का इल्जाम नयना पर थोपा है। उसकी हर गलती को नयना ने हंस कर टाला, मगर कब तक? वह भी इन्सान है, उसको भी प्यार चाहिये, तारीफ चाहिये, धन्यवाद वाले चन्द शब्द, ताकि वह भी जी सके, मगर पूरी जिन्दगी वह इस घर की सलीब पर टंगी हर तरफ से ताने सुनती रही है। जिसकी जरूरत पूरी नहीं हुई उसीने शिकायत दर्ज कर दी, मगर कभी यह नहीं पूछा कि उसकी जरूरत क्या है, उसके मन में कौनसी नाकाम इच्छाएं मचलती रहती हैं? रवि ठीक ही कहता है कि मैं यहां क्यों टिकी हुई हूँ? नयना उस रात बहुत दुखी थी। उसने अपने मन का दुख रवि के सामने नहीं खोला, जब वह कह ही चुका है कि तुम आओ, यह चैम्बर तुम्हारा है। तुम्हारे लिये मैं इतनी रात गये तक यहां रुकता हूँ, ताकि बात कर सकूं, वरनायह सब सोच कर नयना खामोश रही कि फैसला जब उसी को लेना है तो फिर शिकवा क्या, सो रविभूषण की जादुई आवाज में खोई रही, जो कह रहा था। “ नयना, मैंने कितने घर बनाये मगर दुखी होता हूँ, जब उनमें लोगों को खुशी के साथ रहते नहीं देखता हूँ। क्या वे नहीं जानते कि नर नारी एक दूसरे के पूरक होते हैं, फिर काहे कि लडाई? जो सम्बन्ध शाश्वत है, उसमें एक दूसरे को ध्वस्त करने की बेजा हठ क्यों? इन सारी गैरजरूरी बतकही का जवाब कौन देगा? शताब्दियां गुजर गईं हैं, मगर यह जो समस्या नर नारी के बीच आन खडी हुई है, वह आज की तारीख तक सुलझ नहीं पाई है, आखिर क्यों? क्या कर रहे हैं हमारे बुध्दिजीवी, जिन्हें लेखक, कवि, पत्रकार, समाजसेवी की सम्मानित उपाधि समाज ने दे रखी है, जो शब्दों के जन्मदाता हैं, जो शब्दों से खिलवाड क़रते हैं, मगर क्या उन्होंने इन सम्बन्धों के लिये कोई त्याग किया है? नयना सच मानो किसी ने कुछ नहीं किया है, केवल दिमाग को पालने, मन को मारने के सिवा। मेरा तो अटूट विश्वास है कि इंसान को मन की बात माननी चाहिये। संवेदना से बढ क़र सुन्दर इस संसार में कुछ भी नहीं है और यह शातिर दिमाग जाने कबसे उसको तबाह करने की योजनायें बनाता आया है। कितनी तरह के नियंत्रण, कितनी संख्या में कारागार, अनेक तरह के अत्याचार हुए हैं इस पर, देखो नयना, इतिहास के पन्ने पलट कर देखो। मगर क्या कोई कैद कर पाया है भावना को? क्या वास्तव में किसी ने उसकी हत्या की है? नहींनहीं, बस शोषण के बलबूते पर इंसान एक दूसरे का दोहन कर रहे हैं, नहीं जानते वे मूर्ख कि नर नारी संबध संसार का सबसे सर्वोत्तम संबंध है। काश! कोई इस संबंध को जीने का सही फार्मूला ढूंढ पाता और उसको घर घर बांट सकता। काश!” रविभूषण की आवाज ग़हरी होते, अंत में आकर भर्रा गई। नयना को लगा कि रवि रो रहे हैं। उसका दिल भी भर आया। बांध से रुके आँसू बेकरार हो गालों पर लुढक़ आये। उसकी सिसकियां सुनकर रविभूषण ने चुंबन लेना शुरु कर दिया। आवाज द्वारा स्पर्श की यह भूमिका नयना को और भावुक बना गई। सारी जिन्दगी का दुख मोम बन कर पिघलने लगा। जब शमा पिघल कर खामोश हो गयी तो रवि का स्वर फूटा - “ नयना तुम्हारे पास होता तो ये सारे आंसू पी जाता। आंखों में आये पानी को मैं बहुत पवित्र मानता हूँ। उसको संभाल कर रखो। मेरा दरवाजा खुला है, जब चाहो आ जाओ नयना।” नहाते हुये नयना ने अपने सरापे को निहारा। बदन का हर अंग जैसे उत्सव मनाने की चाहत में सरशार लगा, मन बार बार भटक जाता था। अभी तक रविभूषण ने उसके गालों पर चुम्बनों के फूल नहीं खिलाए थे, मगर इस बार रात को हवा में तैराये गये सारे लाल गुलाब उसके चेहरे पर खिलेंगे। झब वह हमेशा के लिये रवि के साथ होगी। तब वह अनुभव कैसा होगा? उसने पिछले कई वर्षों से किसी का चुंबन नहीं लिया है, न पति का, न बेटों का। पति के संग उसके सम्बंध अलग तरह से पनपे थे, जिसमें बिस्तर लगभग गायब हो गया था और जिम्मेदारी, परिवार, काम, भविष्य की समस्याओं ने उसकी जगह ले ली थी। वह मर्द के स्पर्श से बेगाना एक बैरागी जीवन व्यतीत कर रही थी, जहां पति को उसके स्पर्श की चाहत जगह मरीजों की चिन्ता ज्यादा सताने लगी थी। यह सब कुछ धीरे धीरे घटा था। मगर आज का यथार्थ यही था कि मधु की बूंद की तरह मीठा प्यार शब्द व्यवहारिक रूप से उसकी धरती छोड चुका था।

कानपुर के मरीज क़ी मौत ने कई तरह के सवाल नरेन्द्र के लिये उठा दिये थे, जिनका जवाब उनसे मांगा जा रहा था, यह सब कुछ उनसे जलने वाले करा रहे थे, यह सबको पता था मगर बात तो उठ ही गई थी। नरेन्द्र इन दिनों बहुत परेशान था। उसको किसी अपने की जरूरत थी जो उसका हाल सुन उससे सच्ची हमदर्दी जता सकता। बच्चे दूर थे। नयना बुरी तरह से खफा थी। वह सुकून की तलाश में अकसर दोस्तों के पास चला जाता और जब घर लौटता नयना फोन में डूबी होती। वह परेशान सा शराब की बोतल खोलता और अकेले ही पीना शुरु कर देता, फिर धुत्त सा सोफे पर सो जाता था। सैलुलर जेब में पडा बजता रहता। यह कैफियत भी ज्यादा दिन नहीं चली। उसको किसी कॉनफ्रेन्स का बुलावा आ मिला, जिसने उपद्रव को जहां शांत किया, वहीं पर उसकी खोई प्रतिष्ठा भी उसे वापस मिल गई। चूंकि कॉनफ्रेन्स को लेकर रोज ख़बरें पत्रों में होतीं और भारत से प्रतिनिधित्व करने वाले केवल डॉक्टर नरेन्द्र कुमार थे, सो माहौल बदलते देर नहीं लगी। नयना हमेशा के लिये घर छोडने का प्लान बना चुकी थी। उसको नरेन्द्र से कोई मतलब न था, पिछले दो हफ्तों से उनके बीच कोई बात नहीं हुई थी। अपना ऑफिस वह फिलहाल अपने असिस्टेन्ट के हवाले कर चुकी थी, जिससे कहा सिर्फ इतना था कि वह महीने भर के लिये किसी बडे प्राेजेक्ट के सिलसिले में बम्बई जा रही है। यही बात नौकरों को कहते हुए उसने नरेन्द्र को सुनाई थी। बैंक जाकर लॉकर से उसने वह सारे जेवर छांट कर निकाले थे जो उसको मायके से मिले थे और स्वयं खरीदे थे। चेकबुक उसने पर्स में डाली और महीने भर का राशन पानी का इंतजाम किया। आये हुये बिल जमा करवाये। वह सब काम किया, जो उसकी आज तक की डयूटी में शामिल था। जब यह सब कर चुकी तो उसने अपनी सीट बुक कराई और अटैची में कपडे सजाने लगी। नरेन्द्र जा चुका था। हफ्ते भर बाद उसको लौटना था। उसकी भी जरूरी चीजें उसने पूरी कीं और एक दो लोगों से जरूरी मुलाकात के लिये चल पडी। रात को रविभूषण का फोन आया तो उसने बताया कि वह कल सुबह की फ्लाईट से आ रही है। फ्लाईट न और एयरलाईन्स का नाम रविभूषण ने नोट कर लिया। रविभूषण ने फोन काट कर शायद किसी को इत्तिला दी, फिर मिलाया और लम्बी बातों का सिलसिला चल पडा। दो बजे के लगभग बात खत्म हुई। फोन रख कर नयना बिस्तर पर पैर फैला कर लेट गयी। यादों का काफिला घर के कोनों से निकल कर उसकी आँखों के सामने से गुजरने लगा। शादी के आरंभ के दिन, बच्चों की पैदाइश, सास ससुर का बुढापा, बीमारी, फिर मौत, मायके का घर, भाई बहनों की मौत और अपने काम में जुडे लोगों की अच्छाईयां और बुराईयां। एकाएक खयाल कौंधा क्या बच्चे इस रिश्ते को स्वीकार कर पाएंगे? शायद वे मुझसे घृणा करने लगें। अपने डैडी से उन्हें ज्यादा हमदर्दी हो और वे नरेन्द्र की उस मित्रता को एकदम भूल जायें जो बडे ज़ाेर शोर से अपनी जूनियर डॉक्टर से हुई थी। तब घर में तनाव ही तनाव था। उस लडक़ी का विवाह मां बाप ने अगर न करा दिया होता तो आज वह मुसीबत इस घर को बांट देती। तब तो बच्चे छोटे थे, ग्यारह और तेरह साल के। वह भी काम नहीं करती थी। तब भविष्य किसी अंधकारमय गुफा की तरह डराता था। सहेलियों के हिम्मत दिलाने पर उसने पुरानी डिग्री का सर्टिफिकेट किसी फाईल से निकाला था और किसी की सिफारिश पर छोटे मोटे बिजनेस मैन का ऑफिस डेकोरेट किया था। उसके बाद काम मिलता ही गया और घर में उसकी हैसियत हर दिन मजबूत होती चली गई। नरेन्द्र को अपने सम्बन्ध टूटने का दु:ख था। वह लडक़ी कई बार नरेन्द्र से मिलने भी आई। दो साल बाद वे दोनों पति पत्नी सऊदी चले गये और नरेन्द्र दिल को बहलाने के लिये काम में रमता चला गया। आज वे सारी बातें नयना को आक्रोश से नहीं भर रही थीं, बल्कि उसको संतोष भरा विश्वास दे रही थीं कि उसने अपना गृहस्थाश्रम बखूबी निभाया। बेटे विवाह शायद वहीं करें और बस भी जायेंगे। उनमें भौतिक दौड क़ी गर्मी और रिश्तों का ठण्डापन उसने बराबर महसूस किया। मगर वह कर भी क्या सकती है, जब इंसान बदल रहा हो, सम्वेदनाएं मूर्खता समझी जाने लगें तब? अपने बालों को रंग करते हुए एकाएक नयना के हाथ रुक गये। शंका का गर्म थपेडा फूलों भरे बाग में दाखिल होकर उससे पूछने लगा कि अगर यह सब कुछ छलावा साबित हुआ और रवि भी नरेन्द्र की तरह निकला तो वह क्या करेगी? क्या तब वह अकेलापन सह पाएगी? इस उम्र में सम्मोहन का क्या कोई तर्क है? क्या यह वास्तविकता है जिसके आधार पर वह सब कुछ छोड क़र जा रही है? कहीं यह आवेग उसको यथार्थ के विरोध में तो नहीं खडा कर रहा है? प्रेम कहींनहीं नहींरविभूषण एक जिम्मेदार इन्सान हैं, उनकी उम्र भी अब गैरजरूरी हरकत करने की नहीं है, फिर बम्बई में जवान औरतों की कमी थी, जो वह मेरी तरफ आकर्षित हुए, यह आकर्षण वास्तव में पुराने जीवन की निराशा से उपजा भाव है या फिर यूं कहा जाये कि एक फसल कट जाने के बाद दूसरे पौधे लगाने का समय है। जीवन तो निरन्तरता का नाम है, तो फिर भावनाएं भी तो खिल सकती हैं बार बार! अपने नए सूट, सेंट, क्रीम अटैची में सलीके से रख कर जब उसने जिप लगाई तो एक बार फिर आशंका ने उसका दिल दहलाया कि नयना यह ज्वार कहीं भाटा बनकर तुमको बर्बाद न कर दे। यूं पुराना छोड क़र नए की तरफ जाना वह भी इस जल्दबाजी में कहां की अक्लमंदी है? नयना ने मुड आईना देखा, अपनी आशंका को मुंहतोड ज़वाब दिया कि उम्र के इस मोड पर उसके पास साल ही कितने बचे हैं, सो वह सोचने में गंवा दे। और बुढापे को गले लगा ले। उम्र का यह दौर ढलती जवानी का जरूर है मगर यह भी सच है कि हम अभी जवान हैं। इस जज्बे को संभालना ही चुनौती है और आज का सच यही है कि रविभूषण मेरे अहसास में उपजी एक सुगन्ध है, जिसकी चाह मेरी आत्मा को है। पौ फट चुकी थी। उसने चाय बनाई, नहाई और रवि की पसन्द के रंग वाले कपडे पहने। सारी रात आंखों में कटी थी। आखिर गृहस्थाश्रम का अंतिम अध्याय आज खत्म होने वाला था। मगर नए सूरज ने उसको थकान की जगह उमंग दी! नयना को पता था कि नई जिन्दगी की शुरुआत दिल के आईने में शुरु हो चुकी है। मगर उसकी कोई रूपरेखा व्यवहारिक रूप से सामने नहीं थी। उसको पता था कि रविभूषण विवाहित है, उसके तीन बच्चे हैं। माता पिता का देहांत हो चुका है। इकलौती बहन ससुराल में खुश है। उस पर ऐसी कोई बडी ज़िम्मेदारी नहीं बची है जो उसके जीवन में बाधा बन कर आए। बडी बेटी का विवाह हो चुका है। बेटा कैम्ब्रिज में अपनी विदेशी पत्नी के संग है, केवल छोटी बेटी इंटर कर रही है। अब बचा सवाल समाज का, उसका मुकाबला हर कदम पर हर तरह से नयना ने किया है, कभी प्रताडना मिली तो कभी सराहना और अब वह हर अंजाम के लिये तैयार है! हवाई जहाज क़ब उडा, कब उतरा नयना न जान पाई। चौंकी तब जब सारे मुसाफिर अपना सामान निकालने लगे। नयना मंद मंद मुस्कुराती उठी। जेवरों से भरा पर्स कंधे पर टांगा और अटैची किसी की मदद से उतरवाई, फिर उतरते मुसाफिरों के पीछे चलने लगी! घर से भागने का यह अंदाज पुराना होने के बावजूद कितना नया था। जब तर्जुबा आपके बालों में सफेदी बन कर उभर रहा हो और आपके पैर किसी पुराने बरगद की तरह धरती में एक विशेष स्थान पर गहरे धंस चुके हों, तब सब कुछ नकार कर एक नई जिन्दगी की बुनियाद डालना कितना अनोखा अनुभव है! जहाज क़ी सीढी उतरते हुए नयना को महसूस हुआ कि वह पिंजडे में कैद मैना थी जो आज बरसों बाद पंख फैला कर सूरज की गर्मी को डेनों में भर हवा के डोले पर सवार फल फूलों से भरे बागानों की तरफ उडान भरने वाली है, जहां हरी पत्तियों वाली मोटी शाखों वाले दरख्त पर पडे झूले में बैठ उसे केवल प्रेमगीत गाना होगा और राग उठाना होगा, जिसका आलाप जाने कब से उसने सीने में दबा रखा था। सामान लेकर जब वह बाहर निकली तो उसकी बेचैन आंखें रविभूषण को तलाश करने में लग गईं। आस पास की भीड छंटी तो वर्दी पहने ड्राईवर उसकी तरफ बढा और अदब से पूछा, “ नयना मेम साहब! “ “हाँ।” “ साहब की मीटिंग थी, सो वह न आ सके।” सलाम कर उसने अटैची हाथ बढा कर उठाई। नयना को हाथों में पकडा गुलाबी फूलों का गुच्छा कांटों से भरा गुलदस्ता लगा। आंखों में दिल के टूटने से पानी तैर गया। नया गुलाबी सूट, उसी रंग की लिपस्टिक, सफेद मोतियों और गुलाबी नगों के जेवर, सारा साज श्रृंगार अर्थहीन हो उठी। दिल्ली से बम्बई तक का रास्ता इसी पहली नजर के इंतजार में बार बार पर्स से आईना निकाल कर देखने में गुज़ारा था। तडप के सुलगते अम्गार दहकने के बाद एकाएक राख होने लगे। वह अपने आप को समझाने लगी कि इतना आवेश ठीक नहीं। रविभूषण एक व्यस्त आदमी है। उसके पास समय की कमी हो सकती है आखिर जिन्दगी की शुरुआत में यह कैसे नकारात्मक भाव उभर रहे हैं। यदि उनको नयना का खयाल न होता तो वह कार क्यों भेजते? शिकवे शिकायत तो कम से कम बाद के लिये रखे, मगर सारी समझदारी के तर्क मन की इच्छा के आगे निहत्थे हो उठे। जब वह हठ से बार बार यह प्रश्न करता कि आज तो एक विशेष दिन था! माना कि वह अपने कार्यक्रम में महत्वपूर्ण व्यक्ति है, तो आधा घंटा देर से मीटिंग शुरु करने की व्यवस्था नहीं कर सकते थे? “ मुझे नयना तुमसे सब कुछ चाहिये। बस तुम पूरे विश्वास से इस जमीन पर खडी रहो, मैं तुम्हारे पास हूँ।” कई महीनों से अनुराग भरा आग्रह उन्हीं की तरफ से रहा था और परसों रात को सारा कार्यक्रम तय हुआ था। आज सुबह पहुंचने का फैसला हम दोनों ने लिया था। फिर? उसने सर झटका। पर्स से आईना निकाल कर चेहरा देखा। ताजग़ी रूखेपन में बदल रही थी। उसने अपने को संभाला और जबरदस्ती मुस्कान चेहरे पर लाई, ताकि रवि उदासी उसकी उदासी न ताड ज़ायें। “ मेम साहब किधर जाना है? “ हवाई अड्डे की सडक़ से निकल ड्राईवर ने मोड से पहले पूछा। “ किधर चलूं यानि क्या? “ नयना ने पलक झपकाई! फिर धीरे से बोली, “ क्या साहब ने कुछ नहीं बताया?” “ नहीं, बस इतना कहा था कि मेम साहब जहां जाना चाहें पहुंचा देना और जहां ठहरें वहां का नम्बर लेते आना, ताकि मीटिंग के बाद मैं उनसे फोन पर बात कर सकूं। “ ड्राईवर ने धीरे से कहा। “ मतलब? तय तो कुछ और हुआ था। क्या रवि सबकुछ भूल गये?” मन ही मन नयना ने कहा और चकराई सी बैठी रही। “ किधर जाना है?” ड्राईवर ने दोहराया। “ साहब के ऑफिस चलो।” नयना के मुंह से निकला। कार सडक़ पर तेजी से फिसलने लगी। चेहरे पर तना खुशी का शामियाना धीरे धीरे उतरने लगा। वहां चिन्ता प्रश्न बन कर उभर आई। कहीं रवि की धर्म पत्नी तो कोई फसाद नहीं खडा कर दिया? मैं इस शहर में कहाँ ठहरने जाऊं। दो बार आई तो ठहरने का इंतजाम बुलाने वालों ने किया था। इस बार बुलावा रवि की तरफ से था। उसने साफ शब्दों में कहा था, “ मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ। पिछली बार तुम्हारा स्टे कम रहा, मगर इस बार ताजमहल होटल में एक सुईट बुक करवा दूंगा। उसको फूलों से सजवा दूंगा ताकि उनकी उपस्थिति में हम कई दिनों तक एक दूसरे की बांहों में बेहोश रहें। फिर देखेंगे कि जिन्दगी कैसे शुरु करेंगे। मुझे कोई जल्दी नहीं है, अब रात दिन हमारी मुट्ठी में हैं, तुम मुझ पर यकीन रखो, मैं हूँ ना तुम्हारे साथजानती हो मेरे दो दिल हैं, एक में तुम मौजूद हो और दूसरे में मेरा प्रोफेशन!” मीठी बातों की याद से नयना के चेहरे पर मुस्कान दौड ग़ई। फिर दूसरे ही लम्हे वह कार रुकने से चौंक पडी। फ़ीके चेहरे पर खुशी की तह जमाने की नाकाम कोशिश करती हुई नयना कार से नीचे उतरी। मन में रवि का कमरा देखने की जिज्ञासा उभरी। जब तब वह अपने कमरे को घर कह कर नयना को वहां रहने की दावत देता था, उसका कहना था कि मुझे घर से ज्यादा अपने ऑफिस में सुकून मिलता है। वहां मेरी जरूरत की हर चीज मौजूद है। इसलिये नयना को अपने घर में पहला कदम रखना था।

ड्राईवर के पीछे पीछे ग्यारहवें फ्लोर पर नयना लिफ्ट से पहुंची। रवि का ऑफिस शानदार था। चौकोर कमरे में दो लोग सिर झुकाए लैम्प के नीचे काम कर रहे थे। कई रंगों के फोन के पीछे काउंटर पर एक जवान लडक़ी बैठी थी। उसने नयना को देख कर नजरें उठाईं, “ यस मैम? “ “ मुझे रविभूषण जी से मिलना है।” “ किस सिलसिले से? योर गुडनेम प्लीज? “ लडक़ी ने डायरी के पन्ने पलटते हुए पूछा। “ नयना।” एक तीखा अपमान बोध नयना को हुआ, मगर नाम तो बताना था। “ सॉरी मैम! आज सर से आपकी मुलाकात का कोई समय दर्ज नहीं है।” “ वह साहब ने आपको लेने भेजा था।” ड्राईवर ने कहा। “ ओह तो ऐसे बोलो ना।” इतना कह कर लडक़ी ने दूसरे कमरे का दरवाजा लपक कर खोला और बेहद विनीत भाव से बोली, “ सॉरी मैम! प्लीज आईएरात को सर ने फोन करके बताया था। गाडी ठीक समय पर आपको लेने पहुंच गई थी ना? “ “ हाँ, डा्रईवर पहुंच गया था। रवि कब तक मीटिंग से लौटेंगे? “ नयना ने सोफे पर बैठते हुए कहा। “ सर का फोन आया था। अभी वह मीटिंग से साईट पर जायेंगे। फिर ऑफिस दोपहर तक लौटेंगे।” “ ओह! उनको याद था कि मैं आ रही हूँ।” दु:ख में नयना के मुंह से निकला। “ जी?” चौंक कर लडक़ी ने नयना को देखा। “ कुछ नहीं।” नयना संभल कर बोली! “ इधर बाथरूम है, आप फ्रेश हो लें, मैं कॉफी भिजवाती हूँ।” इतना कह कर वह लडक़ी कमरे से बाहर निकली। ड्राईवर अटैची लेकर अन्दर दाखिल हुआ और कोने में रख कर चला गया। फिर एक अधेड मर्द हाथ में शीट लिये दाखिल हुआ और गौर से नयना को देख, बिना विश किये हुए उसको मेज पर रख कर बाहर निकल गया। नयना को उसका यूं देखना खल गया! उसका मूड खराब था। मगर इतना नहीं कि वह वातावरण में फैली जिज्ञासा को सूंघ नहीं सकती थी! वह उठ कर बाथरूम गई। बाल ठीक कर होंठों पर नई परत लिपस्टिक की जमाई, फिर बाहर आकर कमरे का जायज़ा लिया। रविभूषण की बडी सी मेज क़े पीछे उफनते समुन्दर की पेन्टिंग लगी थी। बाईं तरफ रोल किये हुए कागज़ों का ढेर था। मेज पर उपर से लटकता लैम्प और दो दो टेलेफोन, मेज के पीछे रखी नीली ऊंची सीट वाली कुरसी, तो यहां बैठ कर रविभूषण फोन करते होंगे। “ सुनो नयना, मेरा कोई भावनात्मक जुडाव पत्नी से नहीं हो पाया। बहुत कोशिश की, मगर वह खुश्बू, जिसकी मुझे तलाश थी हमारे बीच कभी नहीं फैली। क्या एक इंसान सामाजिक बंधन से बंध सारी जिन्दगी तडपता छटपटाता रहे और अपने लिये कोई लम्हा उधार न ले सके?” दरवाजा खुला, नयना ने नजर उठाई। कॉफी और सैण्डविच की ट्रे लेकर लडक़ा कमरे में दाखिल हुआ और मेज पर रख कर जाने लगा, तभी वह लडक़ी अन्दर दाखिल हुई। “ सॉरी मैम! आपको अकेला छोड दिया था। मेरा नाम रोज़ी है। आप कॉफी लें। हमारे ऑफिस की कॉफी पूरे पन्द्रह माले में मशहूर है।” कहते हुये रोजी ने कॉफी आगे बढाई। तभी फोन की घंटी बज उठी। “ हलो, रविज एसोसियेटजी सर! ऐसी कोई इनफॉरमेशन नहीं है। आपने रात को कब बात की थी? साढे ग्यारह बजेसॉरी सर मुझे रात की बातों की कोई सूचना नहीं रहती, यदि आप चाहें तो दो बजे फोन कर लें।” इतना कह कर रोजी ने लम्बी सांस ली और गरदन हिलाते हुए फोन रखा। नयना का मन हुआ कि उसके चेहरे पर उभरे अजीब से भाव और आँखों में उभरी परेशानी देख कर पूछे कि क्या हुआ, मगर फिर सोचा कि भले ही वह रवि के नजदीक है, मगर यह तो उसका ऑफिस है। उसको चिन्ता व्यक्त करने की कोई जरूरत नहीं है। कॉफी का घूंट भरते हुए उसको रविभूषण का आक्रोश में भरा स्वर याद आया, “एक एक को मैं देख लूंगा। समाज के ठेकेदारों को एक दिन जवाबदेह होना पडेग़ा। मैं यहां बैठा हूं न, आएं और मेरे प्रश्नों का उत्तर दें कि अपमान बडा होता है या शोषण? किसी एक अवस्था में जीना बेहतर होता है या सब कुछ नकारते चले जाना? सच्चाई को स्वीकार करने से डरना कोई अच्छी बात नहीं है! मेरे ऊपर लांछन लगाना बहुत बडा मानवीय कारनामा नहीं है, फिर हिम्मत है, तो सामने आओ न,” इस तरह का वार्तालाप वह किसको सम्बोधित करके करता था, नयना समझ नहीं पाती थी। इतना जरूर जानती थी कि रविभूषण के अन्दर कहीं जहर से बुझा आहत परिन्दा कैद है, जब तब उसका उद्गार निकलता रहता है। उसका यह अन्दाज ज़िसमें भटकन भी थी और ठहराव भी, आजादी भी थी और विस्तार भी! परंपरागत पुरुषों एवं नए सांचे में ढले मर्दों से वह अलग था। कुछ था जरूर। एक तेज झटके से कमरे का दरवाजा खुला और एकाएक छह फुट लम्बे रविभूषण अन्दर दाखिल हुए। होंठों में सिगरेट थी। आंखें धुएं से अथमुंदी थीं, जिनको जरा तिरछी करके उसने सोफे पर बैठी नयना को ताका और पास रखे गुलदान की ऊंची मेज पर रखी ऐश ट्रे में सिगरेट बुझाया फिर बडी शालीनता से दोनों हाथ जोड क़र नयना को नमस्ते किया, बडी अदा से थोडा झुक कर पूछा, “ आपको कोई कष्ट तो नहीं हुआ? “ “ जी? जी नहीं।” नयना का चेहरा लाल पड ग़या। “ ठहरी कहाँ हैं इस बार? “ अपनी कुर्सी पर बैठते हुए उसने नयना से पूछा। “ क्या आपको याद नहीं कि कल रात आपने” नयना ने गुस्सा पीते हुए हैरत से पूछा। “ दरअसल मुझे रात की सारी बातें याद नहीं रहतीं है, आप कह रही है, तो यकीन करता हूँ। मैं ने जरूर कुछ कहा होगा।” रविभूषण कहकहा लगा कर बोले। “ यस सर!” रोजी घंटी की आवाज पर हाजिर थी। “ लंच का टाईम हो रहा है।” रविभूषण ने कहा। “ जी सर, मैं ऑर्डर देती हूँ।” कह कर रोजी मुडी। “ हाँ, जरा बताईये तो मैं ने क्या कहा था? पीने के बाद दरअसल मेरे जहन की सारी खिडक़ियां, दरवाजे ख़ुल जाते हैं। अकसर दोस्त बताते हैं कि उस समय बोलते बोलते मैं बहुत मार्के की बात कह जाता हूँ।” “ जी? “ नयना को लगा रवि उसको छेड रहा है! “ कभी कभी फैन्टासी में रहना अच्छा लगता है, जो असलियत में न हो उसको गढना क्या सृजन नहीं है? मानिये चाहे न मानिये इस सारे ताम झाम के बावज़ूद हमारा काम बहुत रूखा सूखा है और मैं अब इन समानान्तर रेखाओं और वृत्ताकार लकीरों के बीच घुटने लगा हूँ। हमारा पेशा है तो बडा अमीर मगर सच तो यह है कि हमारे पेशे में बडे ग़रीब लोग हैं। आप समझ रही हैं मेरा इशारा किस तरफ है? सोच की विपन्नताओं और दिल की दरिद्रता की तरफ “ “ आप पीते हैं? “ “ मैं किसी से कुछ छिपाता नहीं हूँ। अपने को असहज स्थितियों में सहज बनाये रखने के लिये अकसर लोगों को गैरजरूरी चीजों का सहारा लेना पडता है।” अपनी धुन में रविभूषण, आज दिन में कुछ ज्यादा बोल रहा था। “ आपने रात को जो बातें कीं थीं, वह सारी की सारी नशे की कैफियत में कीं थीं? वे वायदे, वे” नयना की सांसे उखडने लगीं। “ जरूर किये होंगे। अकसर नशे की झोंक में बडे बडे प्लान डिसकस कर जाता हूँ, पूरी बारीकी के साथ, मगर जब क्लाइन्ट आता है तो यकीन करें, मुझे कुछ याद नहीं रहता है।” रवि ने मासूमियत से कहा। “ मुझे बुलाना भी नहीं? और वह ताजमहल भी नहीं?” नयना के जहन में बना ताजमहल जगमगाने सा लगा। “ ताजमहल? क्या उसको बनाने की कोई बात आपसे कर डाली? माय गुडनेस! आय एम रियली जीनियस! मगर मैं उस्ताद मोहम्मद मूसा की तरह हाथ कटवाना नहीं पसन्द करुंगा।” रविभूषण कहकहा मार कर हंस पडे! नयना के दिमाग में कोयले का इंजन पूरे वेग से धुंआ फैलाता सीटी देता गुजरने लगा। उसकी आंखें जलने लगीं। उसने कांपते हुए होंठों से पूछा, “ मुझसे बात करना तो याद है या वह भी भूल गये?” “ बिलकुल याद है जनाब! मैं रोज आपकी खैरियत लेने के लिये दिल्ली फोन करता हूँ, मगर बातों की दिशा किस ओर बढ ज़ाती है वह सब मुझे कुछ याद नहीं रहता। मुझे छानबीन की आदत नहीं है, तो भी मैं ने आपसे कोई गैरजरूरी बात कह दी हो तो मुझे क्षमा करेंमैं बदतमीज आदमी हूँ, मगर मेरी मंशा किसी का दिल दुखाना नहीं होतायह रुमाल लेंप्लीज अपने को संभालें।” “ मैं ठीक हूँ।” नयना ने आंसू पौंछे। “ मन हो तो हम कहीं और चल कर बैठते हैंलीजिये खाना आ गया।” “ सर आपने सुबह ब्लडप्रेशर की दवा ली थी?” रोजी ने धीरे से पूछा। “ नहीं।” रविभूषण को अपनी उत्तेजना का भेद समझ में आ गया! “ सर आपका फोन।” रोजी ने बजते फोन को उठाया। “ हलो, माय स्वीट हार्ट बोलो! मुझे याद नहीं खैर अभी दिल्ली से मेरी क्लाईन्ट आई है। मैं निकल नहीं पाऊंगातुम मम्मी के साथ हो आओसॉरी!” “ सर, आपकी मीटिंग पांच बजे लीला में मिस्टर बृजेश मदान के साथ है फिर सात बजे आपको नाज ज़ाना होगा, जहाँ सेमिनार के बाद डिनर भी है।” “ ठीक है! नयना जी आप खाना लें।” कहते हुए रविभूषण आकर नयना के पास सोफे पर बैठ गये। नयना ने नजरें उठा कर रवि के चेहरे को ताका, क्या सचमुच रवि गंभीर है, वह मुझसे मजाक नहीं कर रहे हैं, तो फिर क्या पिछले ग्यारह माह से होती बातें झूठ थीं? इतना लम्बा झूठ किसी वृत्तान्त की तरह कैसे कोई हर रात बोल सकता है? क्या मौखिक शब्दों की कोई जिम्मेदारी नहीं होती? क्या वह मुंह से निकलते ही हवा में विलीन हो जाते हैं? कैसे विश्वास कर लूं कि उन शब्दों में रस नहीं था, भाव नहीं थे। निष्ठा नहीं थी? माना कि वे लिखित नहीं थे, मगर उन्होंने मुझे पूरा संसार दिया था।

नयना कोई सीन क्रिएट नहीं करना चाहती थी, सो न चाहने पर भी उसने प्लेट में खाना निकाला। ऑफिस के बाकि लोग लगातार कमरे में आ जा रहे थे। कुछ रख उठा रहे थे। रोजी पास ही खडी थी। “ आप ठहरी कहाँ हैं? ओह सॉरी! जहां भी ठहरना चाहें, मेरा ड्राईवर आपको ले जाएगा। कार आप अपने साथ रख सकती हैं। ड्राईवर को फोन नम्बर दे दीजियेगा, अब में इजाजत चाहूंगा। हाँ रोजी तुम मैम के साथ रहना, उन्हें कोई तकलीफ न होकल मुलाकात होगी।” रवि ने बडी सी अटैची पर नजर डालते हुए नैपकिन से हाथ पौंछा और उठ खडे हुए। नयना ने बडी बेबसी से उन्हें जाते देखा। उसकी आँखों से आंसू गालों पर बह निकले। अपमान की सिद्दत ने उसके सारे बांध तोड दिये! “ मैम! “ रोजी ने घबरा कर दरवाजा लॉक किया, “ आप अपने को संभालें मैम! सर को रात की बातें याद नहीं रहतीं, आप विश्वास करें। अकसर लोग सर की इस आदत से परेशान हैं और हम ऑफिस वाले भीयूं न रोएं मैम! “ रोजी बौखलाई परेशान सी नयना के पास खडी दिलासा देती रही। “ मैं ठीक हूँ।” नयना ने अपने को संभालते हुए कहा। “ सर एक अच्छे इंसान हैं, वरना मैं कब का काम छोद देती, मगर जब ऐसी दुर्घटना घटती है तो अकसर यह सवाल मैं अपने आप से करती हूँ, क्या सचमुच सर एक ईमानदार संवेदनशील व्यक्ति हैं या फिर मानसिक रोगी?” नयना अपने को संभालने के लिये बाथरूम गई। जब जी भर कर रो चुकी तो मुंह धोकर बाहर निकली। रोज़ी से नजरें बचाते हुए उसने दीवार पर लगी तस्वीरें देखना शुरु कर दिया। “ इस ग्रुप फोटोग्राफ में कौन कौन से कौन कौन हैं? “ एका एक अपनी जगह से उठ कर नयना बोली। उसको रोजी क़ा अपनी जिन्दगी में झांकना जाने क्यों बुरा लग रहा था। “ सर के स्टूडेन्ट्स की हैं।” “ यह लडक़ी” नयना ने गौर से देखा! “ यह सरला जी हैं, आप जब ऑफिस में दाखिल हुईं, तो निजाम साहब समझे सरला जी आई हैं, आप उनसे बहुत मिलती हैं, वह बता रहे थे।” “ अब कहाँ है?” नयना का दिमाग जाग उठा। “ शादी के बाद पता नहीं कहां चली गईंसुना सर और सरला जी विवाह करना चाहते थे मगर” रोजी ने धीरे से कहा। “ सब कुछ कितना उलझ गया है” नयना ने धीरे से कहा! “ सर काम में ईमानदार हैं, इसलिये लगातार कठिनाइयों का सामना करते हैं। फिर भी उनको वह सब नहीं मिला, जो वह चाहते हैं, इसलिये कभी कभी बहुत तल्ख हो जाते हैंहो सके तो उन्हें माफ कर दें मैम! “ रोजी क़ी आंखों में याचना थी। नयना वापस आकर सोफे पर बैठ गई। उसके साथ क्या घट गया, यह रोजी नहीं जानती। वह ईंट गारा, बेजान नक्शे और इंसान के अन्दर की दुनिया का ढहना वह नहीं जानती, अभी बहुत छोटी है। वीराने की खंडहर होती इमारतों को वह नहीं समझ सकती है। मेरी टूटन का हिसाब वह नहीं लगा सकती, अब मुझे चलना चाहिये। “ रात की या शाम की फ्लाईट में बुकिंग मिल सकती है?” सहज हो नयना ने पूछा। “ श्योर मैम! सर तोआप रुकेंगी नहीं?” “ मेरा आज ही लौटना जरूरी है।” नयना हल्के से मुस्कुराई। “ ओके मैम! “ रोजी क़े चेहरे पर राहत सी उभरी। सुबह नयना को लगा कि वह लम्बी बीमारी के बाद उठी है। बाथरूम जाकर उसने ठण्डे पानी से मुंह धोया। सर का दर्द अभी बाकि था। चाय पीते हुए उसकी नजर नरेन्द्र और बेटों की तस्वीर पर पडी। वे तीनों उसको अजनबी से लगे। इनसे कट कर वह पानी के जिस जहाज पर बैठी थी, उसने पता नहीं किस निर्जन द्वीप पर लाकर उसको पटका था! वह खाली नजरों से टकटकी बांधे फोन को देख रही थी, मन में आक्रोश बवंडर उठ रहा था कि फोन को पटक दे, अपना सर दीवार पर मार ले। कनपटी के पास तपकन अब टीसों में बदल रही थी। टीसों के साथ उसके अन्दर का उबाल भी पल पल बढ रहा था। नरेन्द्र हफ्ते भर के लिये गया था। घर के नौकर मालकिन के यूं लौटने से मन ही मन खिन्न थे। दुपहर तक वे कमरे के आस पास चक्कर लगाते रहे कि नाश्ते खाने के लिये कुछ कहे। एक ने हिम्मत कर कमरे में झांका भी, मगर नयना को लेटा देख कर वह लौट गया। सभी परेशान थे कि ना डॉक्टर आ रहा है, न दवा, वरना मेम साहब जरा सी छींक भी सहन नहीं कर सकती थीं। नयना सारी चीजों से बेखबर पीडा के संसार में डूबती जा रही थी। निराशा अपमान भरे दुख के साथ मिल कर उसकी मांसपेशियों में उत्तेजना भर रही थी! उसके अन्दर सांस लेती औरत किसी तूफान की तरह तडप रही थी। मोहब्बत के बिना यूं जिन्दगी जीने का मकसद? क्या अब कोई भी किसी से प्यार नहीं कर पायेगा? ऐसा प्यार जो दो लोगों के बीच हुई जबानी बात का संदर्भ तलाश कर सके? जो शताब्दियों के गुजर जाने के बाद किसी कलाकृति में डूब अमर हो जाये? किसी पुस्तक के खुले पन्नों पर सदा के लिये दर्ज हो सके? या फिर सिर्फ इतना कि वह किसी दो इन्सानों के दिलों में पल भर के लिये ही पूरी ईमानदारी के साथ जिन्दा रह सके? शाम का धुंधलका कमरे में दाखिल हो चुका था। नयना को उठने की सुध न थी कि बत्ती जलाती। कुछ देर पहले नौकर आया था। चाय की प्याली वैसे ही मेज पर पडी थी। उसके कानों में घडी क़ी टिकटिक गूंज रही थी। ऐसी ही गूंज और सनसनाहट उसको तब महसूस हुई थी, जब उसका बडा ऑपरेशन हुआ था। पेट के अर्धचन्द्राकार कटाव के बाद यूट्रस खो चुकी थी तब गहरी बेहोशी से निकलते हुए महसूस हुआ था कि भारी पत्थर उसके पेट पर रखा है। दो माह आराम करने के बाद जब वह ऑफिस जाने के काबिल हुई तो लेडी डॉक्टर ने हिदायत दी थी कि, ' डॉ नरेन्द्र इसके बाद औरतें आहत और सम्वेदनशील हो जाती हैं। मूड में फर्क आता है, इसलिये आपको कुछ खास ध्यान अपनी श्रीमति का रखना होगा। इन्हें ज्यादा संभालने की जरूरत होगी। इसलिये गुस्से और निराशा के समय आप इनकी विशेष देख रेख करें, वैसे तो आप सफल डॉक्टर हैं सारी पेचीदगियां आपको मालूम हैं, आपसे ज्यादा क्या कहना? “ मैम साहब! डॉक्टर को फोन कर दूं, हस्पताल से कोई आ जाएगा।” नौकर बरतन उठाते हुए बोला! “ नहीं।” डूबती आवाज उभरी। कमरे में रोशनी थी। नयना के अन्दर अंधेरा बढता जा रहा था। घडी क़ी टिकटिक उसके सर पर हथौडे बरसा रही थी। तभी फोन की घंटी हमेशा की तरह ठीक दस बजे घनघना उठी। बिना सोचे आदत के मुताबिक नयना का हाथ आगे बढ ग़या। “ क्या सो गई थीं?” “ नहीं।” नयना का पूरा वजूद जल उठा! “ मुझे अगले हफ्ते इटली जाना है। इस बार तुम्हें साथ लेकर चलूंगा, अरसे से आराम करने की सोच रहा हूँ। इस बहाने हमारा हनीमून भी हो जाएगा सुन रही हो ना? “ फिर बात रोक कर चुम्बनों की दीपशिखाएं। नयना का जख्मों से भरा वजूद इस ज्वार लहरी से थर्रा उठा। शब्दों का ये कैसा सम्मोहन है, जो उसको फिर अपनी ओर खींच रहा है। फिर वही सब कुछ? घबरा कर उसने फोन रख दिया, “ नहीं, नहीं अब यह सब फिर से दोहराना बेकार है, कितनी पीडा सही है, मगर इन शब्दों से दूर रहने का सन्ताप जो वह सहेगी। उसका विकल्प क्या होगा? यदि हर सच में अन्त में झूठ साबित होकर रह जाता है तो फिर इस झूठ को सच क्यों नहीं मान लेती है, आखिर वह भी तो यथार्थ का एक चेहरा है” तभी फोन की घण्टी फिर बज उठी। “ तुम बहुत सुन्दर नारी हो, मेरी तन्हा जिन्दगी में एक दीप की तरह, जो कभी नहीं बुझ सकता। मेरी विश्वास की जमीन बहुत पुख्ता है, मेरा यकीन करो।” नयना की कनपटी के पास पीडा का खिंचाव बढा और रविभूषण की जानलेवा आवाज क़े साथ नयना आहिस्ता आहिस्ता ताजमहल के आंगन में दाखिल हो गयी। सारे प्रश्नों को पीछे छोड क़र संगमरमर की जालीदार खिडक़ी से वह यमुना को चांद की रोशनी में बहता देखती रही, जहां रेत की स्थिरता और जल का बहाव जाने कब से साथ साथ था! “ सुन रही हो नाकुछ तो बोलो, कब चल रही हो? आओमेरा विश्वास करो” नयना के दिमाग में रविभूषण की पुख्ता जमीन गोल गोल घूमने लगी। हाथ से टेलीफोन फिसल गया और नाक के नथुनों से तेज बहता खून उसके गले को तर करता कपडे भिगोने लगा। नयना की सांसो का सरगम धीमा पडने लगा। फोन पर शब्द घनघनाते रहे। जैस कहना चाह रहे हों कि मेरा यकीन करो, मेरे विश्वास की जमीन बहुत पुख्ता है। मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता हूँआओ! मेरे घर के दरवाजे तुम्हारे लिये खुले हैंनयना कुछ तो बोलो? नयना मुमताज क़ी कब्र में दाखिल हो गयी।