दूसरा दृश्य / अंक-2 / संग्राम / प्रेमचंद

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समय : संध्या।

स्थान : सबलसिंह की बैठक।

सबल : (आप-ही-आप) मैं चेतनदास को धूर्त समझता था।, पर यह तो ज्ञानी महात्मा निकले। कितना तेज और शौर्य है ! ज्ञानी उनके दर्शनों को लालायित है। क्या हर्ज है ! ऐसे आत्म-ज्ञानी पुरूषों के दर्शन से कुछ उपदेश ही मिलेगी।

कंचनसिंह का प्रवेश।

कंचन : (तार दिखाकर) दोनों जगह हार हुई पूना में घोड़ा कट गया। लखनऊ में जाकी घोड़े से फिर पड़ा।

सबल : यह तो तुमने बुरी खबर सुनाई। कोई पांच हजार का नुकसान हो गया।

कंचन : गल्ले का बाजार चढ़ गया। अगर अपना गेहूँ दस दिन और न बेचता तो दो हजार साफ निकल आते।

सबल : पर आगम कौन जानता था।

कंचन : असामियों से एक कौड़ी वसूल होने की आशा नहीं सुना है कई असामी घर छोड़कर भागने की तैयारी कर रहे हैं। बैल-बधिया बेचकर जाएंगी। कब तक लौटेंगे, कौन जानता है। मरें, जिएं, न जाने क्या हो ! यत्न न किया गया तो ये सब रूपये भी मारे जाएंगी। पांच हजार के माथे जाएगी। मेरी राय है कि उन पर डिगरी कराके जायदादें नीलाम करा ली जाएं। असामी सब-के-सब मातबर हैं¼ लेकिन ओलों ने तबाह कर दिया ।

सबल : उनके नाम याद हैं ?

कंचन : सबके नाम तो नहीं, लेकिन दस-पांच नाम छांट लिए हैं। जगरांव का लल्लू, तुलसी, भूगोर, मधुबन का सीता, नब्बी, हलधर, चिरौंजी।

सबल : (चौंककर) हलधर के जिम्मे कितने रूपये हैं ?

कंचन : सूद मिलाकर कोई दो सौ पचास होंगी।

सबल : (मन में) बडी विकट समस्या है` मेरे ही हाथों उसे यह कष्ट पहुंचे ! इसके पहले मैं इन हाथों को ही काट डालूंगा। उसकी एक दया-दृष्टि पर ऐसे-ऐसे कई ढाई सौ न्यौछावर हैं। वह मेरी है, उसे ईश्वर ने मेरे लिए बनाया है, नहीं तो मेरे मन में उसकी लगन क्यों होती। समाज के अनर्गल नियमों ने उसके और मेरे बीच यह लोहे की दीवार खड़ी कर दी है। मैं इस दीवार को खोद डालूंगा। इस कांटे को निकालकर फूलको गले में डाल लूंगा। सांप को हटाकर मणि को अपने ह्रदय में रख लूंगा। (प्रकट) और असामियों की जायदाद नीलाम करा सकते हो, हलधर की जायदाद नीलाम कराने के बदले मैं उसे कुछ दिनों हिरासत की हवा खिलाना चाहता हूँ। वह बदमाश आदमी है, गांव वालों को भडकाता है कुछ दिन जेल में रहेगा तो उसका मिजाज ठंडा हो जाएगा।

कंचन : हलधर देखने में तो बडा सीधा और भोला आदमी मालूम होता है

सबल : बना हुआ है तुम अभी उसके हथकंडों को नहीं जानते। मुनीम से कह देना, वह सब कार्रवाई कर देगी। तुम्हें अदालत में जाने की जरूरत नहीं।

कंचनसिंह का प्रस्थान।

सबल : (आप-ही-आप) ज्ञानियों ने सत्य ही कहा - ' है कि काम के वश में पड़कर मनुष्य की विद्या, विवेक सब नष्ट हो जाते हैं। यदि वह नीच प्रकृति है तो मनमाना अत्याचार करके अपनी तृष्णा को पूरी करता है¼ यदि विचारशील है तो कपट-नीति से अपना मनोरथ सिद्व करता है। इसे प्रेम नहीं कहते, यह है काम-लिप्सा। प्रेम पवित्र, उज्ज्वल, स्वार्थ-रहित, सेवामय, वासना-रहित वस्तु है। प्रेम वास्तव में ज्ञान है। प्रेम से संसार सृष्टि हुई, प्रेम से ही उसका पालन होता है। यह ईश्वरीय प्रेम है। मानव-प्रेम वह है जो जीव-मात्र को एक समझे, जो आत्मा की व्यापकता को चरितार्थ करे, जो प्रत्येक अणु में परमात्मा का स्वरूप देखे, जिसे अनुभूत हो कि प्राणी-मात्र एक ही प्रकाश की ज्योति है। प्रेम उसे कहते हैं। प्रेम के शेष जितने रूप हैं, सब स्वार्थमय, पापमय हैं। ऐसे कोढ़ी को देखकर जिसके शरीर में कीड़े पड़ गए हों अगर हम विडल हो जाएं और उसे तुरंत गले लगा लें तो वह प्रेम है। सुंदर, मनोहर स्वरूप को देखकर सभी का चित्त आकर्षित होता है, किसी का कम, किसी का ज्यादा। जो साधनहीन हैं, द्रियाहीन हैं, या पौरूषहीन हैं वे कलेजे पर हाथ रखकर रह जाते हैं और दो-एक दिन में भूल जाते हैं। जो सम्पन्न हैं, चतुर हैं, साहसी हैं, उद्योगशील हैं, वह पीछे पड़ जाते हैं और अभीष्ट लाभ करके ही दम लेते हैं। यही कारण है कि प्रेम-वृत्ति अपने सामर्थ्य के बाहर बहुत कम जाती है। बाजार की लड़की कितनी ही सर्वगुणपूर्ण हो पर मेरी वृत्ति उधर जाने का नाम न लेगी। वह जानती है कि वहां मेरी दाल न गलेगी। राजेश्वरी के विषय में मुझे संशय न था।वहां भय, प्रलोभन, नृशंसता, किसी युक्ति का प्रयोग किया जा सकता था।अंत में, यदि ये सब युक्तियां विफल होतीं तो।

अचलसिंह का प्रवेश।

अचल : दादाजी, देखिए नौकर बड़ी गुस्ताखी करता है। अभी मैं फुटबाल देखकर आया हूँ, कहता हूँ, जूता उतार दे, लेकिन वह लालटेन साफ कर रहा है, सुनता ही नहीं आप मुझे कोई अलग एक नौकर दे दीजिए, जो मेरे काम के सिवा और किसी का काम न करे।

सबल : (मुस्कराकर) मैं भी एक गिलास पानी मागूं तो न दे ?

अचल : आप हंसकर टाल देते हैं, मुझे तकलीफ होती है। मैं जाता हूँ, इसे खूब पीटता हूँ।

सबल : बेटा, वह काम भी तो तुम्हारा ही है। कमरे में रोशनी न होती तो उसके सिर होते कि अब तक लालटेन क्यों नहीं जलाई। क्या हर्ज है, आज अपने ही हाथ से जूते उतार लो।तुमने देखा होगा, जरूरत पड़ने पर लेडियां तक अपने बक्स उठा लेती हैं। जब बम्बे मेल आती है तो जरा स्टेशन पर देखो।

अचल : आज अपने जूते उतार लूं, कल को जूतों में रोगन भी आप ही लगा लूं, वह भी तो मेरा ही काम है, फिर खुद ही कमरे की सगाई भी करने लगूं¼ अपने हाथों टब भी भरने लगूं, धोती भी छांटने लगूं।

सबल : नहीं, यह सब करने को मैं नहीं कहता, लेकिन अगर किसी दिन नौकर न मौजूद हो तो जूता उतार लेने में कोई हानि नहीं है।

अचल : जी हां, मुझे यह मालूम है¼ मैं तो यहां तक मानता हूँ कि एक मनुष्य को अपने दूसरे भाई से सेवा-टहल कराने का कोई अधिकार ही नहीं है। यहां तक कि साबरमती आश्रम में लोग अपने हाथों अपना चौका लगाते हैं, अपने बर्तन मांजते हैं और अपने कपड़े तक धो लेते हैं। मुझे इसमें कोई उज्र या इंकार नहीं है, मगर तब आप ही कहने लगेंगे: बदनामी होती है, शर्म की बात है, और अम्मांजी की तो नाक ही कटने लगेगी। मैं जानता हूँ नौकरों के अधीन होना अच्छी आदत नहीं है। अभी कल ही हम लोग कण्व स्थान गए थे।हमारे मास्टर थे और पंद्रह लड़के ग्यारह बजे दिन को धूप में चले। छतरी किसी के पास नहीं रहने दी गई। हां, लोटा-डोर साथ था।कोई एक बजे वहां पहुंचे। कुछ देर पेड़ के नीचे दम लिया। तब ताला। में स्नान किया। भोजन बनाने की ठहरी। घर से कोई भोजन करके नहीं गया था।फिर क्या था, कोई गांव से जिंस लाने दौड़ा, कोई उपले बटोरने लगा, दो-तीन लड़के पेड़ों पर चढ़कर लकड़ी तोड़ लाए, कुम्हार के घर से हांडियां और घड़े आए। पत्तों के पत्तल हमने खुद बनाए। आलू का भर्ता और बाटियां बनाई गई।खाते-पकाते चार बज गए। घर लौटने की ठहरी। छ: बजते-बजते यहां आ पहुंचे। मैंने खुद पानी खींचा, खुद उपले बटोरे। एक प्रकार का आनंद और उत्साह मालूम हो रहा था।यह ट्रिप (क्षमा कीजिएगा अंग्रेजी शब्द निकल गया। ) चक्कर इसीलिए तो लगाया गया था। जिसमें हम जरूरत पड़ने पर सब काम अपने हाथों से कर सकें, नौकरों के मोहताज न रहैं।

सबल : इस चक्कर का हाल सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई अब ऐसे गस्त की ठहरे तो मुझसे भी कहना, मैं भी चलूंगा। तुम्हारे अध्यापक महाशय को मेरे चलने में कोई आपत्ति तो न होगी ?

अचल : (हंसकर) वहां आप क्या कीजिएगा, पानी खींचिएगा ?

सबल : क्यों, कोई ऐसा मुश्किल काम नहीं है।

अचल : इन नौकरों में दो-चार अलग कर दिए जाएं तो अच्छा हो, इन्हें देखकर खामखाह कुछ-न-कुछ काम लेने का जी चाहता है। कोई आदमी सामने न हो तो आल्मारी से खुद किता। निकाल लाता हूँ, लेकिन कोई रहता है तो खुद नहीं उठता, उसी को उठाता हूँ। आदमी कम हो जाएंगे तो यह आदत छूट जाएगी।

सबल : हां, तुम्हारा यह प्रस्ताव बहुत अच्छा है। इस पर विचार करूंगा। देखो, नौकर खाली हो गया, जाओ जूते खुलवा लो।

अचल : जी नहीं, अब मैं कभी नौकर से जूता उतरवाऊँगा ही नहीं, और न पहनूंगी। खुद ही पहन लूंगा, उतार लूंगा। आपने इशारा कर दिया वह काफी है।

चला जाता है।

सबल : (मन में) ईश्वर तुम्हें चिरायु करें, तुम होनहार देख पड़ते हो, लेकिन कौन जानता है, आगे चलकर क्या रंग पकड़ोगी। मैं आज के तीन महीने पहले अपनी सच्चरित्रता पर घमंड करता था।वह घमंड एक क्षण में चूर?चूर हो गया। खैर होगा अगर और अब देनदारों पर दावा न हो, केवल हलधर ही पर किया जाए तो घोर अन्याय होगी। मैं चाहता हूँ दावे सभी पर किए जाएं, लेकिन जायदाद किसी की नीलाम न कराई जाए। असामियों को जब मालूम हो जाएगा कि हमने घर छोड़ा और जायदाद गई तो वह कभी न जाएंगी। उनके भागने का एक कारण यह भी होगा कि लगान कहां से देंगे।मैं लगान मुआग कर दूं तो कैसा हो, मेरा ऐसा ज्यादा नुकसान न होगी। इलाके में सब जगह तो ओले गिरे नहीं हैं। सिर्ग दो-तीन गांवों में गिरे हैं, पांच हजार रूपये का मुआमला है। मुमकिन है इस मुआफी की खबर गवर्नमेंट को भी हो जाए और मुआफी का हुक्म दे दे, तो मुझे मुर्ति में यश मिल जाएगा और अगर सरकार न भी मुआग करे तो इतने आदमियों का भला हो जाना ही कौन छोटी बात है ! रहा हलधर, उसे कुछ दिनों के लिए अलग कर देने से मेरी मुश्किल आसान हो जाएगी। यह काम ऐसे गुप्त रीति से होना चाहिए कि किसी को कानोंकान खबर न हो, लोग यही समझें कि कहीं परदेश निकल गया होगा। तब मैं एक बार फिर राजेश्वरी से मिलूं और तकदीर का गैसला कर लूं। तब उसे मेरे यहां आकर रहने में कोई आपत्ति न होगी। गांव में निरावलंब रहने से तो उसका चित्त स्वयं घबरा जाएगी। मुझे तो विश्वास है कि वह यहां सहर्ष चली आएगी। यही मेरा अभीष्ट है। मैं केवल उसके समीप रहना, उसकी मृदु मुस्कान, उसकी मनोहर वाणी।

ज्ञानी का प्रवेश।

ज्ञानी : स्वामीजी से आपकी भेंट हुई ?

सबल : हां।

ज्ञानी : मैं उनके दर्शन करने जाऊँ ?

सबल : नहीं।

ज्ञानी : पाखंडी हैं न ? यह तो मैं पहले ही समझ गई थी

सबल : नहीं, पाखंडी नहीं हैं, विद्वान् हैं, लेकिन मुझे किसी कारण से उनमें श्रद्वा नहीं हुई पवित्रात्मा का यही लक्षण है कि वह दूसरों के ह्रदय में श्रद्वा उत्पन्न कर दे। अभी थोड़ी देर पहले मैं उनका भक्त था पर इतनी देर में उनके उपदेशों पर विचार करने से ज्ञात हुआ कि उनसे तुम्हें ज्ञानोपदेश नहीं मिल सकता और न वह आशीर्वाद ही मिल सकता है, जिससे तुम्हारी मनोकामना पूरी हो!