दूसरे श्रवण का शिकार / तेजेन्द्र शर्मा

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थाना इन्चार्ज राजवीर ने पिछले दस दिन से रंजीत का रिमाण्ड ले रखा है।

रंजीत रे अब तक जुबान नहीं खोली। राजवीर सा, दाम, दण्ड और भेद सभी तरीके अपना चुका है, किन्तु परिणाम-वही, ढाक के तीन पात। रंजीत ने अब तक नहीं बताया कि उसने दीवान साहिब पर आक्रमण क्यों किया। उस पर उसने घटना स्थल से भागने की कोशिश तक नहीं की। बस एक ही बात कहता है, 'हाँ मैंने ही दीवान पर हमा किया था। जब भी मौका मिलेगा मार डालूँगा।' जबसे राजवीर का तबादला इस थाने में हुआ था। मुजरमों की तो जैसे शामत ही आ गई थी। गुनाह कबुलवाने में तो राजवीर का जवाब नहीं था। परन्तु रंजीत न जाने किस मिट्टी का बना था। राजवीर अपने आपको पराजिस और असहाय महसूस कर रहा था। आज रिमाण्ड का अन्तिम दिन है। कल रंजीत को अदालत में पेश करना है। किन्तु राजवीर को चैन नहीं। उसे यही चिन्ता खाए जा रही है कि रंजीत की जिद, उसके संकल्प को कैसे तोड़े। 'आखिर इसने दीवान साहिब पर हमला क्यों किया?' थकावट और हार राजवीर के चेहरे पर लिखी साफ दिखाई दे रही थी। उसने कान्स्टेबल को बुलाया, 'मुलचन्द, आज रंजीत को दिन भर आराम नहीं करने देना। मैं थोड़ा दम ले लूँ। आज रात, या तो वह बोलेगा, नहीं तो...।' कहने को तो राजवीर कह गया, पर मन ही मन सोच भी रहा था-'अगर रंजीत नहीं टूटा तो?' और इस प्रश्न का कोई भी उत्तर उसके पास नहीं था। रात रंजीत पर कहर बनकर बरसी। 'हरामजादे, बोलेगा तो तेरा बाप भी। हराम के, तू मुझे जानता नहीं।...बड़ से बड़े मुजरम मेरे सामने पानी माँगते नज़र आते हैं...' और राजवीर ने रंजीत को बालों से खींचकर एक ज़न्नाटेदार थप्पड़ लड़ दिया। हजार वॉट के बल्ब की रोशनी रंजीत के चेहरे पर पड़ रही थी। रावीर फिर गुर्राया, 'मुलायम सिंह, डण्डे पर तेल के साथ मिर्च भी लगा दो।...आवाज़ अपने आप बाहर निकलेगी।' साथ ही राजवीर का घुटना रंजीत की छाती से जा टकराया। रंजीत का सिर दीवार से टकराया और वह बेहोश हो गया।' मुलायम संह, इसे होश में लाओ!' रावीर ने सिगरेट सुलगा ली। रंजीत ने ऑंखें खोली। अभी तो ऑंखों के सामने अन्धेरा सा छाया था। काले से जाले ऑंखों के सामने तैर रहे थे। 'पानी!' रंजीत की कराहट फूटी। राजवीर के चेहरे पर एक विषाक्त सी मुस्कुराहट उभरी। 'आखिर बोला तो!' उसकी निगाहें फिर से रंजीत पर टिक गईं। बहुत हिम्मत करके रंजीत ने मुँह खोला, पानी पिया और राजवीर की ओर देखा, 'थानेदार साहिब, कर लो जितना भी जुल्म करना हो; मार लो लितना मारना हो। मगर याद रखना, एक तो मैंने कोई जुर्म नहीं किया है और दूसरे मैं यह कभी नहीं बताऊँगा कि मैंने उस कुत्ते दीवान पर हमला क्यों किया। राजवीर की ऑंखें आग उगल रही थीं। पर उसने अनुभव किया कि शायद रंजीत के साथ नरमी से पेश आने से कुछ काम बन सके। 'रंजीत, मैं तुम्हारा, जाती तौर पर शत्रु तो हूँ नहीं। एक बात तो तय है कि दीवान साहिब ने ज़रूर कोई बहुत बड़ा अन्याय किया है तुम्हारे साथ। नहीं तो इतनी क़डवाहट कभी न होती तुम्हारे दिल में।..अच्छा सुनो, मैं एक जिम्मेदार पुलिस असर हूँ।...तुम मुझे अपने दिल की बात बता दो। हो सकता है सच्चाई जानकर मैं तुम्हारी कोई सहायता कर सकूँ ।' "थानेदार साहिब, पुलिसवाले कभी किसी के हुए जो आप मेरा साथ देंगे। अभी वो दीवान नोटों का एक बन्डल आपके सामने रखेगा, और आपकी सारी ज़िम्मेदारी उड़न छू हो जाएगी।...मैं तो यह आज़मा रहा हूँ कि कितने जुल्क सहने की ताकत है मेरे शरीर में।...इतना याद रखना अपने ऊपर हुई हर ज्यादती को याद रखूँगा, भूलूँगा नहीं।' राजवीर क़डवाहट को निगल गया। उसे लोहा लाल होता दीखा। उसने एक भरपूर चोट की, 'रंजीत अपने दिल की घुटन को बाहर आने दो। मुझे अपना दोस्त समझो। मैं जानना चाहता हूँ ऐसी कौन-सी घटना है जिसने तुम्हारे जीवन को नरक बना दिया है। मुझे अपना हमराज़ बना लो, फिर देखो मैं तुसे ज्यादती करने वालों से कैसा बदला लेता हूं।' "थानेदार साहिब, मेरी जुबान खुलने से कई ज़िन्दगियों में विष घुल जाएगा। आपने मुझे दोस्त कहा है...पर यह मैं जानता हूँ कि आप पापी को दण्ड नहीं दे पाएंगे।' रंजीत कराहा। "मुलायम सिंह, तुम बाहर इन्तज़ार करो।' राजवीर ने मुड़कर रंजीत की ओर देखा, 'यह सब तुम मुझ पर छोड़ दो। तुम अपने दिमाग का बोझ, बिना किसी दबाव या डर के, हल्का कर लो।' रंजीत शून्य में ताकता रहा, उसकी ऑंखें सजल हो उठीं। उसकी ऑंखों के सामने अपने ही जीवन की एक ल्मि-सी चलने लगी। राजवीर भी बहुत ध्यान से उस ल्मि को देखने लगा।

पुरानी दिल्ली का रेलवे स्टेशन...प्लेटफार्म नम्बर द: और आठ का पश्चिमी किनारा..वहाँ पानी की टंकी के नीचे बना शिवजी का मन्दिर।... वो मन्दिर कहीं खो गया; और वहाँ आ गई एक लड़की-छोटा कद, छोटा-सा गोल चेहरा, लम्बे बाल, चेहरे पर हर समय व्याप्त मुस्कुराहट-उसी भी तो यह कहानी किसी और ने सुनाई थी। लाजो!...हाँ यही नाम था उस लड़की का। सैंतालीस के बँटवारे के बाद अचानक ही कहीं से आ गई थी। और दिल्ली स्टेशन के प्लेटफार्म को ही उसने अपना घर बना लिया था। शक्ल सूरत से तो भले घर की ही लगती थी। न किसी से कुछ कहती, न माँगती। सारा-सारा दिन प्लेटफार्म पर धूमी रहती। जब उसके मन में आता वहाँ खड़ खाली रेंकों के किसी डिब्बे में सो रहती। नहाते तो उसे कभी सिी ने देखा ही नहीं था। रेलवे स्टेशन के स्टाफ में से कुछ लोग खाने या पहनने के लिए उसे कुछ न कुछ ला देते। पर उसे, न खाने का शोक था न पहनने का। कई बार अपने कपड़ों की गठड़ी बनाकर कन्धों पर धरे नंगी ही घूमती रहती थी। सभ्य लोगों के लिए वह पगली ही थी। विक्षिप्त! हँसती तो हँसती ही जाती। खुद भूखी होते हुए भी अपना खाना कुत्तों को डाल देती। एक आध कुत्ता सारा समय उसके आगे पीछे घूमता दिखाई दे ही जाता। कुछ ही दिनों में रेलवे स्टाफ के मन में उसके प्रति हमदर्दी के अंकुर फूटने लगे। कुछ लोगों ने उसे पागलखाने भिजवाने की बात की। कुछ एक को यह राय जंची नहीं। अहम सवाल यह भी कि पागलखाने छोड़ने जाए भी तो कौर? धीरे धीरे वह पागल लाजो दिल्ली स्टेशन के कर्मचारियों के लिए स्टेशन का एक हिस्सा; परिवार का एक सदस्य-सी बन गई। स्टा हा हर आदमी उस पगली के लिए कुछ न कुछ करता रहता।

टहलराम-टी.एक्स.आर. के दफ्तर में फिटर-गोरा चिट्टा गबरू जवार। एक बात का गर्व तो उसे था कि कोई भी लड़की उससे एक बार बात कर ले तो वह उसके बिना चैन से नहीं जी सकती। अक्सर उस पागल लड़की को देखकर टहलराम मुस्कुरा दिया करता। लाजो तो सारा समय मुस्कुराती ही रहती थी। कभी-कभार टहलराम उसकी ओर देखकर अपनी बाईं ऑंख दबा देता।लाजो को इन बातों की काँ समझ। पर उसकी मुस्कुराहट को टहलराम अपनी विजय समझता। साथियों ने टहलराम को कई बार टो; समझाया; धमकाया। पर टहलराम पर उन बातों का क्या असर होने वाला था। वह इसी चक्कर में रहता कि किसी तरह स्टा से नज़र बचाकर लाजो को किसी अकेले सुनसान कम्पार्अमेण्ट में ले जाए। लड़की पागल है, क्या बिगाड़ लेगी। एक रात मौका ताड़कर; अपनी डयूटी से बेपरवाह, लाजो के अकेले कम्पार्अमेण्ट में घुस गया। लाजो उस समय सो रही थी।...काी देर बार निकला। अब तो चस्का पड़ गया था। हर दूसरे तीसरे दिन लाजो को लेकर किसी कम्पार्अमेण्ट में घुसा रहता था। समय बीतने में क्या देर लगती है। कुछ ही महीनों में लोगों को टहलराम के पाप का घड़ा लाजो के बदन पर फूलता दिखाई देने लगा। सभी जानते थे कि यह किसकी करतूत है। 'टहलराम! यह तूने क्या किया। एक पगली को भी अपनी हवस का शिकार बनाने से नहीं चूके! थू है तुम पर!' गोविन्दराम से कहे बिना रहा नहीं गया। "गोविन्द भैया, आप क्या उसे बहुत सीधी और शरीफ समझते हैं?' अरे बहुत खेली खाई चीज़ है। और जो यह पागलपन का मुखौटा ओढ़े है, वह तो केवल एक ढोंग है। न जाने किस-किस काम का माल चख चुकी है। बहती गंगा में मैंने भी हाथ धो लिए। अब क्या पता किसका बीज है।!' टहलराम ढीठ हो चुका था। कोविन्द राम लाजो को लेकर परेशान थे। निहालचन्द से बात की। लाजों के पास गये, 'अरी पगली, तू किस दुविधा में पड़ गई। हमें भी चक्कर में डाल दिया!' वह तो पगली थी। हँसी! हफर हँसी! फिर हँसती गई। लाजो की देखभाल अब सारे स्टाफ का कर्तव्य-सा बन गया था। टहलराम से सभी कर्मचारी बहुत कम बोलते और टहलराम लाजो से कन्नी काटने लगा। लाजो को न टहलराम से शिकायत थी न स्टाफ से दुलार। वह अब भी बढ़े पेट के सा, नंग-धड़ंग, प्लेटफार्म पर घूमी रहती। कभी कपड़े कन्धे पर और कभी उनकी गठरी सिर पर।

लालू पानी वाले ने बीड़ी सुलगाई। सीताराम कुली उसके साथ ही था। हल्की-हल्की बूँदाबाँदी हो रही थी। उसने देखा लाजो ज़ोर-ज़ोर से कराह रही है। पीड़ा से जैसे छटपटा रही थी। भागर स्टा को बताने गया। टहलराम डयूटी पर ही था। "मुझे समझ में नहीं आता, तुम सब लोग उस पागल लड़की के पीछे पागल क्यों हुआ जा रहे हो?' "टहलराम, तुम्हारे ही पापों का फल भुगत रही है। जाओ देखो मुम्हारा ही बच्चा अनने वाली है।' "देख बे मुना लाल, बकवार तो करियो ना। मेरा अससे क्या लेना देना। पता नहीं किस किस यार से मिलन करती रही है। किसी का पाप मैं क्यों अपने सिर लूँ। जिसने मज़े लूटे हैं वही दर्द भी झेले।' लालू से लाजो का देखा नहीं गया। उसने स्टा के हर आदमी की ओर देखा। बाकी ऑंखों में लाजो के लिए दर्द, हमदर्दी सब कुछ था। किन्तु किसी मैं भी कुछ कर गुज़रने की हिम्मत नहीं थी। वब एक दूसरे का कुँ ह ताक रहे थे। लालू ने हिकारत भरी नज़र से सबकी और देखा और जमीन पर थुक दिया। घर से बीवी को लिया, पड़ोस से सन्तो बाई को बुलवाया और सीधा प्लेटफार्म की ओर भागा। दो एक पड़ोसनें और साथ हो जीं। सबने मिलकर लाजो को पास ही खड़ी खाली बोगी में डाला। कोई दो एक घण्टे ाद लाजो लड़की से माँ बन गई। बेहोशी में भी उसके चेहरे पर वही मुस्कान थी। रूई से सफेद बच्चे को देखकर भी टहलराम टहलता हुआ निकल गया। लालू की पत्नी की देखभाल से लाजो कुछ ही दिनों में चलने फिरने लगी। बच्चे के जन्म का खर्चा सारे स्टाफ ने मिलकर बाँट लिया। सब लालू की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे। साल भर बीत गया। सबने मिलकर लाजो के बेटे का नामकरण किया-विजय। स्टा भी देखभाल में विजय पलने लगा। लाजो तो अब भी वैसी ही थी। उसे अपने बच्चे के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था।

एक दिन टहलराम को फिर से लाजो की याद आ गई। उसे लाजो की ओर देखा और अपनी बाँई ऑंख दबा दी। लाजो आज मुस्कुराई नहीं। सहम-सी गई। टहलराम उसकी ओर बढ़ा। लाजो भागने लगी। उसकी नंगल काया रेलवे लाइनों के बीच भयभीत हिरनी की तरह दौड़ी जा रही थी। कपड़ों की गठड़ी खुलकर बिखर गई ाी। शंटिग करती एक गाड़ी ने लाजो को सदा के लिए मुक्ति दिलवा दी। गोविन्दराम ने लाश को देखा, 'चलो बेचारी की जून कट गई। पर अब विजय का क्या होगा! अब तो पूरी तरह अनाथ हो गया।' "भाई सब लोग कुछ पैसे इकट्ठे करो इस पगली की मिट्टी तो ठिकाने लगानी है।' लालू ने फिर हिम्मत दिखाई। निहालचन्द किसी सोच में खड़े थे, 'पुलिस को तो बुलवाना पड़ेगा। जब तक पोस्टमार्अम नहीं होता, अन्तिम संस्/र नहीं कर सकते।' सब कुछ हो गया। और उस सबके बाद विजय बिल्कुल अकेला रह गया। गोविन्द राम उसे अनाथालय भेजने के पक्ष में थे। "लानत है!' उबल पड़ा लालू, 'इतना बड़ा स्टाफ है और एक मासूम बच्चा भारी पड़ रहा है। असे कोई गोद लेने की क्यों नहीं सोचता?' "हराम की औलाद को गोद लेने से कई झंझट खड़े हो सकते हैं।' नेकी राम ने बाँग दी। अशाक उल्लाह अल्लाह का नाम लेकर खड़े हो गए, 'अरे डरो अल्लाह के कहर से। जब माँ और बाप दोनों का पता है तो बच्चा कैसे हरामी हो गया? यह तो कहो कि बाप ही हरामी निकल गया। अरे टहलराम को सब मजबूर करो कि उसे अपने घर ले जाए।'

समय बीतने लगा। समय के साथ-साथ विजय बातूनी हो चला था। गोविन्द राम उसे स्कूल में दाखिल करवाने की सोचने लगे। पिर एक बार सब सोच-विचार के लिए इकट्ठे होने लगे। विजय एकाएक कहीं खो गया। स्टा के सभी लोगों से उसे ढूँढा। किन्तु कहीं कोई पता नहीं चला। चुपके से टहलराम उसे अपने घर ले गया था। टहलराम-विजय का पिता-उसी के लिए 'साहिब' था और टहलराम की पत्नी 'मालकिन'। टहलराम के एक बेटा और बेटी पहले ही से थे। विजय के अपने बहन-भाई। किन्तु उसमें और उनमें बहुत फ था। विजय घर का मुण्डु था-एक नौकर। जहाँ टहलराम के दोनों बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ने जाते, वहाँ विजय दिन भर ध्ज्ञर के कामों में लगा रहता। रोटी-कपड़े पर एक बन्धुआ मज़दूर। उम्र के साथ-साथ विजय पर काम का बोण भी बढ़ता गया। रंग उका अपने पितउ के समान गोरा ही था। और अब तो उसका शरीर भी भरने ला था। अब वह सोचने भी लगा था। 'क्यों, आखिर क्यों वह यहाँ ऐसा जीवन य्यतीत करने को विवश है?...उसके माता-पिता कौर हैं?...उसका अतीत क्या है...?...मन ही मन टहलराम का धन्यवाद भी करता कि उसने एक अनाथ को घर में श्रण दे रखी है। समय के साथ-साथ सच्चाई जानने की उसकी इच्छा तीव्र होती गई। 'मालिकन' से वह सदा ही क्षा खाता था। ऐसे मौके की तलाश में रहने लगा कि 'साहिब' कभी अकेले में मिलें तो ा हो। मौका मिला-'साहिब, आपसे एक बात पूछनी है।' "कहो भाई, क्या हुआ?' "साहिब, मैं कौन हूँ?' अचकचा गया टहलराम। क्या जवाब दे! बस चुन ही रह गया। "साहिब, बताइए ना।' "देखो विजय, इस घर को अपना घर समझो और अपने आप को मेरा बेटा!' चुभती हुई निगाहें टहलराम के चेहरे पर टिककर रह गईं।' अगर मैं आपका बो हँ तो फिर राजू और पिंकी की तरह स्कूल क्यों नहीं जाता?...राजू भैया तो इतने बढ़िया स्कूल में नैनीताल में पढ़ते हैं और मैं घर में नौकर की तरह रहता हँ। क्यों मालिकन मुझे प्यार नहीं करतीं?...साहिब, सवाल मानने या समणने का नहीं। सवाल तो यह है कि हकीकत में मैं कौन हूँ। ना जाने चाहकर भी टहलराम झुंझला क्यों नहीं पाया। न जाने क्यों विजय पर उसका हाथ नहीं उठा। विजय इस बात से वाकिफ हो चुका था कि उसके जीवन का कोई ऐसा रहस्य है जिसे टहलराम जानता है पर बताता नहीं। वह अपने अतीत के बारे में जानने को बहुत उत्सुक था। उसकी नींव क्या है वह जानना चाहता था। उसने टहलराम का घर छोड़ दिया। वहीं वापिस आ गया जहाँ से कई वर्ष पहले गायब हो गया था। वहाँ स्टा में कई लोगों का तबादला हो चुका था। कई नये चेहरे थे। किन्तु कुछ पुराने चेहरे अभी भी वहाँ काम कर रहे थे। उन्होंने अपने विजय को पहचान लिया। प्लेटफार्म एक बार फिर उसका घर बन गया। अब उसे किसी कि सहायता की आवश्यकता नहीं थी। उसका शरीर कुछ इस तरह बढ़ रहा था कि वह अपनी उम्र से काी बड़ा दिखाई देने लगा था। अब स्टाफ को उससे हमदर्दी तो थी किन्तु उसमें कोई विशेष रुचि नहीं थी।

समय का चक्कर चलता रहा। विजय जवानी की ओर बढ़ता रहा। चेहरे पर दाढ़ी िमूँछे आने से जवान तो दिखता ही था। ऊपर से लम्बा कद और गोरा रंग। टहलराम की जवानी चलती दिखाई देती थी। हैड टिर निहालचन्द की रिटायरमेण्ट पार्टी थी। विजय के जिम्मे कई काम थे। निहालचन्द बरर-बार विजय को देखे जा रहे थे। उन्हें लाजो की याद आने लगी। 'विजय, कल शाम मेरे क्वार्टर पर आ जाना। तुमसे एक ज़रूरी काम है।' विजय क्वाटेर पर जा पहुँचा। भाव विभोर से निहालचन्द ने विजय को गले से लगा लिया, 'बेटा, आज तुम्हें तुम्हारी एक अमानत देनी है। बरसों से अपने पास रखे बैठा हूँ। जब तक तुम्हें दे नहीं दूँगा। तुम्हारी माँ की आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी।' "मेरी माँ! आप जानते हैं मरी माँ को? बताइए ना!' "हाँ बेटा, इस बक्से में तुम्हारी माँ की अस्थियाँ हैं। इन्हें गंगा में बहा दो तो उस पगली की आत्मा को शान्ति मिले।' विजय अपलक निहालचन्द को निहारे जा रहा था। "एक बात और कहनी है तुमको। तुम्हारी माँ को खरा करने वाला वही ादी है जो मेरी जगह ले रहा है-टहलराम! वही तुम्हारा पिता भी है-तुम्हें इस संसार में लाने वाला और वही तुम्हें दुखों के सागर में धकेलने वाला भी। निहालचन्द ने विजय को उसके जन्म से अब तक की पूरी कथा सूना दी। विजय रो पड़ा। उसके नथुने क्रोध के मारे फड़फड़ाने लगे। उसे उस माँ का बदला लेना था जिसकी उसे शक्ल भी याद नहीं थी। अस्थियों का बक्सा लिया; निहालचन्द को प्रणाम किया और रेलवे स्टेशन पर वापिस आ गया।

जीवन में अकेला होना भी एक बहुत बड़ा अपराध है। हर बात अकेले ही सोचनी पड़ती है, हर काम अकेले ही करना पड़ता है। विजय ने भी अकेले ही निर्णय लिया। प्लेटफार्म नम्बर छ: और आठ के बीच की खाली जगह पर उसने टंकी के नीचे एक गङ्ढा खोदकर माँ की अस्थियाँ गाड़ दीं। पास ही पड़ा एक गोल सा पत्थर उन पर रख दिया; उस पर एक हार चढ़ाया और वहाँ एक लिया जला दिया। स्टा ने सुबह वहाँ पहुँचकर एक मन्दिर लेखा तो हैरान रह गए। थोड़े पैसे इकट्ठे कर एक पीतल का घड़ा व स्टैण्ड लाकर वहाँ रख दिया। वहाँ एक पूरा शिव का मन्दिर बन गया। यात्री व स्टा सब वहाँ माथा टेकते, हाथ जोड़ते। विजय को यही लगता जैसे हर व्यक्ति उसकी माँ के आगे सिर झुका रहा हो। अब विजय को जीवन का एक ध्येय मिल गया था। उसे अपनी माँ के साथ हुए अन्याय का हिसाब चुकाना था। धीरे-धीरे उसकी एक पहचान उभरने लगी-एक गुण्डे की पहचान, लड़ाई-झगड़ा, धौंस जमाना, पीटना उसका स्वभाव बन गया था। प्रतिशोध की आग में वह पागल हुए जा रहा था। प्रतिशोध उससे, जिसने उसकी पागल माँ के जीवन के साथ खिलवाड़ किया और उसे सड़कों पर छोड़ दिया। समय की गति ने टहलराम को टी.एक्स.आर. बना दिया और वह टहलराम से टी.आर. दीवान हो गया। विभाग में उसका आदर मान बढ़ने लगा। सब उसे भक्त जी कहने लगे; पर उस भक्त की काली करतूतों का जीता जागा प्रमाण है विजय।

रंजीत की ऑंखों के सामने से धुँध हटने लगी। ल्मि चलनी बन्द हो गई। थानेदार राजवीर ने रंजीत की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। हाँ थानेदार साहिब आप सोच रहे हैं ना कि विजय है कौन और कहाँ है? मैं ही वह विजय हूँ, और उस कुत्ते टहलराम के पापों का दण्ड भुगत रहा हूँ। दीवान के शारीरिक घाव तो भर जाएंगे, मगर मेरे दिल में, दिमाग़ पर जो घाव लगे हैं, उन पर मरहम कौन लगाएगा।...मगर मैं...मैं भी चुप नहीं बैठूँगा।...पापी के पापों का भण्डा फोड़ कर रहूँगा। अपने अधिकार पाने के लिए कुछ कर गुज़रूँगा।' रंजीत हाँने लगा। राजवीर चुपचाप रंजीत की आर देखता रहा। उसका बाँया हाथ अपनी दाढ़ी में उलझा हुआ था। वह विजय और रंजीत की भूलभूलियाँ में फंसता जा रहा था।...एकाएक उसने कुछ पैँसला कर लिया। रंजीत को हवालात में छोड़ घर की ओर चल दिया।

तीसरे दिन दीवान साहिब समाचार पत्र पढ़ रहे थे। उनकी ऑंखें जमकर रह गईं। रंजीत की मौत का समाचार छपा था। 'दिल्ली की रेलवे कालोनी के गुण्डे रंजीत की लाश ओखला हैड से बरामद। कुछ दिन पहले इसी गुण्डे ने भक्त टी.आर.छीवान पर कातिलाना हमला किया था। किसी तरह जेल से रार हो गया था।' भक्त जी की ऑंखें नम हो आईं।

शाम को राजवीर घर पहुँचा तो दीवान साहिब काी ग़मगीन लग रहे थे। "पिताली, आप बहुत परेशान लग रहे हैं? राजवीर पूछ ही बैठा। "राजू, तुमने बहुत बुरा किया। उस गरीब को मार डाला। वह तो केवल अपने अधिकरों के लिए लड़ रहा था। इसमें क्या बुराई है?' "पर पिताजी उसने धमी दी थी कि आपको अदालत में घसीट लगा; आपका भण्डा फोड़ देगा। आपका...खून कर देगा।...उसने तो एक घटिया सी कहानी भी सुनाई थी। कह रहा था आपसे बदला ज़रूर लेगा।' दीवान साहिब ने बेटे से ऑंखें चुराकर रुमाल से पोंछी, 'अरे वह केवल अपना अधिकर ही तो माँग रहा था। उसने जो कुछ भी कहा। सब का सब सच था। वह तुम्हारा छोटा भाई था।...घटिया उसकी कहानी नहीं...घटिया मैं खुद हूँ।...मैं तो उसे बचपन में अपने घर भी ले आया था...उपने पाप का प्रायश्चित्त करने...पर तुम्हारी माँ ने उसे मेरे ही घर में मुण्डु बनाकर रख दिया था। वह तो श्रवण की तरह मेरी सेवा कर गया...तुमने दूसरे श्रवण का शिकार किया है...' और दीवान साहिब की रुलाई फूट पड़ी।