देवता आदमी (सामान्य परिचय) / शरण कुमार लिंबाले

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व्यक्तिगत जीवन में भोगे यथार्थ की कथासृष्टि
आलोचना,समीक्षा

शरणकुमार के इस संगह की कहानियों में बदलते हुए यथार्थ के अनेक रूप अंकित हुए हैं। उनकी अधिकांश कहानियाँ आत्मकथात्मक शैली में लिखी हुई हैं। इन कहानियों में अपने व्यक्तिगत जीवन का भोगा हुआ यथार्थ ही निस्संग रूप में व्यक्त होता है।

कहते हैं एक बार बाबा नागार्जुन ने स्त्री-जन्म लेकर अवैध संतान उत्पन्न करने की कामना की थी क्योंकि कवि अवैध संतान को जन्म देने के उस दर्द को अनुभव करना चाहता था। निम्न अछूत जाति की माँ के गर्भ से उत्पन्न होने का दर्द क्या है, और वह भी अवैध संतान का, इसे शरणकुमार ने अपने ही जीवन में अनुभव किया और कठोर संघर्ष के बाद अपनी रचनाशीलता की बदौलत समाज में सम्मान प्राप्त किया। अपनी यातना-यात्रा को ‘ अक्करमाशी’ में बताने के बाद उन्होंने समकालीन अनुभवों के लिए कहानी का माध्यम स्वीकार किया है। कदाचित संभव है इसीलिये उनके इस संग्रह की अधिकांश कहानियाँ आत्मकथात्मक शैली में लिखी हुई हैं।

‘हरिजन मास्टर’ या और एकाध कहानी में बचपन के ग्रामजीवन के दलित संवेदना के अनुभव अब भी ताजा होते हैं। हरिजन मास्टर की कहानी विद्रोह नहीं, करुणा ही उपजाती हैं, किंतु सोचने के लिए भी विवश करती है। नया दलित कथाकार दलित पाठकों के लिए ही नहीं लिखता; वह सारे पाठकों के लिए लिखता है और कथाओं से दिल को नहीं, दिमाग को परेशान करता है।

‘त्रिमुख’ के निराधार बालक की तरह उसका भी दृढ़ आधार आंबेडकर की विचारधारा ही है, जिससे उसे लगता है कि वह ‘सूरज की पनहियाँ’ पहनकर चल रहा है:-

‘‘हजार बरसों से हम लाचार थे, गुलाम थे। किसी ने हम पर दया दिखाई ? गधे को गंगा पिला दी, लेकिन हमें अंजुली-भर पानी से महरूम रखा। गोमूत्र को पवित्र माना, लेकिन हमारे स्पर्श को अपवित्र कहा। चींटियों को शक्कर खिलाई, लेकिन हमें भीख तक नहीं दी। इनके मंदिरों में कुत्ते और बिल्लियाँ जा सकती हैं, लेकिन हमें सीढ़ी के पास भी पहुँचने नहीं दिया। इनके पानी भरने के स्थान पर जानवर पानी पी सकते हैं, लेकिन समान अधिकार से पानी पीने के लिये हमें अपनी जान गँवानी पड़ती है। यह है इस संस्कृति का बड़प्पन ! हमें गाँव की सीमा के बाहर रखकर सारे विश्व-भर को अपना घर कहना इनकी कुटिल नीति है।" (इसी संग्रह से)

‘नाग पीछा कर रहे हैं’ में बदले हुए ग्रामीण यथार्थ का चित्र समकालीन न्याय-व्यवस्था का भी पर्दाफाश कर देता है,

‘समाधि’ में आज भी देहातों में धर्म के नाम पर हो रहे पाखंड की पोल खोल दी जाती है। लेकिन शरणकुमार की कहानियों का यथार्थ शीघ्र ही नगरबोध में विकसित होता हुआ दिखाई देता है:-

‘‘हमें इस देश की दौलत, सियासत और इज्जत में बराबरी का हकदार होना है...हमें चाहिए संपूर्ण क्रांति।’’(इसी संग्रह से)

‘मालिक का रिश्तेदार’ कहानी में दूर देहातों से लाए गए बच्चों का होटल मालिक किस प्रकार शोषण करते हैं, मजदूरों के संगठन कैसे चलते हैं, इसका बड़ा ही सच्चा चित्रण मिलता है। इन कहानियों में अपने व्यक्तिगत जीवन का भोगा हुआ यथार्थ ही निस्संग रूप में व्यक्त होता है।

‘भोगा हुआ यथार्थ’ एक घिसा-पिटा वाक्यांश हो गया है हिंदी कथा-आलोचना के क्षेत्र में। लेकिन उसका सार्थक प्रयोग दलित-कथा के संदर्भ में ही हो सकता है। कई कहानियों में लेखक स्वयं अपने यथार्थ रूप में ही पात्र बना हुआ है। इनका नायक स्वयं दलित कार्यकर्ता और लेखक है। नौकरीपेशा, मध्यवर्गीय मानसिकता से आक्रांत पढ़ा-लिखा युवक है।

‘साहित्य संबोध’ से दलित साहित्य को फैशन के तौर पर और अपने आपको प्रगतिशील दिखाने के लिए सहलानेवाले सफेदपोश अध्यापक-समीक्षक की असलियत का पता चलता है, जहाँ उसकी तथाकथित गंदी पुस्तक को घृणा से देखा जाता है। साहित्यिक संस्कृति के दंभों को शरणकुमार बेबाक खोल देते हैं।

‘भीतर-बाहर बलात्कार’ आत्मानुसंधान और आत्मस्वीकृति की कहानी है। दलित युवती पर हुए बलात्कार का संगठन कैसा लाभ उठाते हैं, इस अनुभव के साथ ही नायक को अपनी नौकरानी पर किए बलात्कार की याद आ जाती है। वह अपने को माफ नहीं कर सकता। इस निर्ममता के बावजूद उसकी खामोशी बहुत-कुछ मध्यवर्गीय बनी रह जाती है।

इसी मध्यवर्गीय मानसिकता में जीते हुए वह ‘रोटी का जहर’ में भिखारी को लात तो मारता है, लेकिन फिर भी उसे अपनी रोटी में जहर भरा प्रतीत होता है। समकालीन जीवन के सारे अनुभव तनावों से भरे हैं:-

"अब हम अपने अधिकारों की बात करने लगे हैं तो इन्हें मिर्च लगती है। बुनियादी तौर पर वे हमारे अधिकार मानते ही नहीं। आरक्षण और योजनाओं के टुकड़े डाले जाते हैं। इससे समस्या सुलझ नहीं सकती।" (इसी संग्रह से)

आरक्षण की नीति के फलस्वरूप दलित युवक अब कार्यालयों में नौकरियाँ पा रहे हैं, पदोन्नति भी मिल रही है, कुछ काले साहब बने हुए हैं, कुछ ने इसी बल पर सवर्ण औरतों से विवाह कर लिये हैं; लेकिन कुछ हैं तो इस मध्यवर्गीय समझौते से भरी मानसिकता में जीते हुए भी विद्रोह की चिनगारी को जीवित रखना चाहते हैं। वातावरण उन्हें निगलना चाहता है। कार्यालय में भिन्न जातिवाले से मित्रता होती है, लगता है कि ‘नशे में छुआछूत’ नहीं रहेगी, लेकिन अपने दलित मित्र को अपवाद बनाकर छुआछूत बरकरार रहती है। ऐसे दलित को भी अपने गँवार बाप पर शर्म आती है।

‘हम नहीं जाएँगे’ कहानी का नायक अन्य दलितों की तरह आंबेडकरजी की तसवीर नहीं लगाता, क्योंकि उसे वह दलितों के जनेऊ की तरह लगती है।

पश्चात्ताप की अवस्था में दलित ‘साहब’ फिर झोपड़पट्टी में रहने के लिए जाना चाहते हैं तो वाल्मीकि की तरह उसके बच्चे भी उसके निर्णय में शामिल नहीं होते। मध्यवर्गीय मानसिकता के कारण इन कहानियों का नायक उग्र आंदोलनों से दूर हटता जाता है। वह इस अंतर्द्धंद्व से भी पीड़ित है। उसे लगता है कि सवर्णों की भावनाएँ दुखाकर दलितों की समस्याएँ सुलझने की अपेक्षा और भी उलझ जाएँगी। सामंजस्य बहुत जरूरी है। विद्रोह के स्थान पर सौम्य भाषा का प्रयोग होने लगता है-लेकिन समझदारी के कारण नहीं, सुविधाभोग के लालच और आत्मसुरक्षा के कारण।

कुल मिलाकर इस संग्रह की कहानियों में शरण कुमार लिंबाले के व्यक्तिगत जीवन में भोगे यथार्थ की कथासृष्टि हुई है।

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