देवयानी / भाग-3 / पुष्पा सक्सेना

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“हमारे घर की बहू बाहर कॉलेज पढ़ने नहीं जा सकती।” रूखे स्वर में कमलकांत ने फ़ैसला दे दिया।

“कल्याणी कॉलेज नहीं जाएगी, घर में ही पढ़ाई करेगी। मैं उसकी मदद करूँगी, आप बस परीक्षा देने की इजाज़त दे दीजिए।”

“मैं सोचकर जवाब दूंगा।”

दो दिन कल्याणी ने बेचैनी में काटे। न जाने श्वसुर का क्या फै़सला होगा। अचानक देवयानी ने कमलकांत को चौंका दिया।

“बाबा, अगर आप माँ का परीक्षा नहीं देने देंगे तो पापा आपसे नाराज़ हो जाएँगे। आप पापा की बात नहीं मानेंगे, बाबा ?”

देवयानी की बात ने जैसे उन्हें निर्णय तक पहुँचा दिया -

“ठीक है, तुम्हारी माँ परीक्षा दे सकती है, पर तुम्हें भी मेरी एक बात माननी होगी।

“कौन-सी बात, बाबा ?”

“हमेशा फ़र्स्ट आती रहोगी, वर्ना तुम्हारे बाबा नाराज़ हो जाएँगे।” अचानक देवयानी के लिए उनके मन में ममता उमड़ आई।

“थैंक्यू, बाबा। आप बहुत अच्छे हैं।” माँ को खुशख़बरी सुनाने, देवयानी चिड़िया-सी उड़ गई।

कल्याणी बी.ए. की परीक्षा देने के लिए जी-ज़ान से जुट गई। देवयानी ने नवीं कक्षा सर्वोच्च अंकों के साथ उत्तीर्ण की थी। अब मेट्रिक की पढ़ाई के लिए उसे तैयारी करनी थी। बाबा को दिखाना है, देवयानी हमेशा फ़र्स्ट आएगी।

वक्त गुज़रता गया। कल्याणी ने बी.ए. की और देवयानी ने मेट्रिक की परीक्षा दे दी। दोनों उत्सुकता से परीक्षा-परिणामों की प्रतीक्षा कर रही थीं। अन्ततः परिणाम आ ही गए। देवयानी को पूरे ज़िले में दूसरी पोज़ीशन मिली थी, सभी विषयों में डिस्टींकशन पाकर, उसने महिमा जी तक को विस्मित कर दिया। कल्याणी का परीक्षा-परिणम तो और भ चौंकाने वाला था। उसे बी.ए. में प्रथम श्रेणी मिली थी और समाज-शास्त्र में सर्वोच्च अंक थे।

महिमा जी ने कल्याणी को बधाई देकर कहा, “अब तुम्हें अपनी राह खोजनी है, कल्याणी। ग्रेज्युएशन के बाद कोई नौकरी मिल सकती है।” कल्याणी ने चुपचाप अख़बार में नौकरी के विज्ञापन देखने शुरू कर दिए। अमर के शब्दों में उसे अब शक्ति संपन्न नारी बनना था। अचानक एक दिन महिमा जी एक विज्ञापन के साथ आ पहुँची। विज्ञापन में एक स्थानीय कार्यालय में सहायक समाज-कल्याण अधिकारी पद के लिए महिला उम्मीदवारों से आवेदन माँग गए थे। प्रत्याशी के पास बी.ए. में समाज-कल्याण एक विषय होना आवश्यक था। महिमा जी की सलाह पर कल्याणी ने आवेदन दे दिया। कल्याणी को साक्षात्कार के लिए बुलाया गया तो वह असमंजस में पड़ गई। पढ़ाई करने तक की बात तो मान ली गई, पर क्या उसे नौकरी करने जाने की इजाज़त मिल सकेगी ?

माँ की दुविधा, देवयानी ने दूर कर दी-

“पापा के सपने सच करने के लिए तुमने जो कदम बढ़ाया है, माँ, उसे अब मत रोको। चुनौतियों का सामना करने के लिए साहस जुटाना ही होगा।”

ग्यारहवीं में पढ़ रही अपनी बेटी को कल्याणी जैसे पहचान नहीं पा रही थी। वो तेजस्विनी, क्या कल की नन्हीं बालिका देवयानी थी ?

अन्ततः कल्याणी ने साक्षात्कार देने जाने का निर्णय ले ही लिया। साक्षात्कार में कल्याणी की सादगी, सच्चाई और प्रतिभा ने इंटरव्यू बोर्ड के लोगों को बहुत प्रभावित किया। कल्याणी का चयन हो गया। कल्याणी को बधाई देकर महिमा जी ने कहा -

“इस पद पर कार्य करते हुए शोषित स्त्रियों का कल्याण कर सको, यही मेरी कामना है।”

“ठीक कहती हो, मौसी, पर सबसे पहले तो माँ को अपने को शोषण-मुक्त कराना होगा। देखना है, माँ की नौकरी की बात लेकर आने वाले भूचाल का, माँ कैसे सामना करती है।” सहास्य कही देवयानी की बात में सच्चाई थी।

कल्याणी की नौकरी की बात को लेकर घर में शोर मच गया। शशिकांत ने सारा दोष कमलकांत पर डाल दिया -

“ये सब पापा का किया-धरा है। बड़ा शौक़ था, बहू पढ़ेगी। दुनिया वाले तो हमें ही भला-बुरा कहेंगे, भाई नहीं रहा तो उसकी बीवी को दो वक्त की रोटी भी नहीं खिला सके।”

“हमारे खांदान की बहू, बाहर नौकरी करने जाए ये तो नाक कटाने वाली बात हुई। हम तो किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रह जाएँगे।” सास ने बेटे की बात का समर्थन किया।

“रहने दो, दादी। माँ को इस घर में बहू का दर्ज़ा ही कब दिया गया है ? सच तो ये है, माँ के साथ जैसा बर्ताव किया जाता रहा है, खांदान की नाक तो उसके लिए नीची होनी चाहिए थी।” देवयानी का गोरा चेहरा उत्तेजना से लाल पड़ गया।

“एहसानफ़रामोश लड़की, अगर हमने रोटी न दी होती तो भूखी मरती।” शशिकांत क्रोध से हाँफ़ उठे।

“रोटी दी तो कौन-सा एहसान किया, ताऊजी। मेरा भी इस घर पर उतना ही हक है, जितना रितु और रोहन का है।”

“अच्छा, मुझसे हक की बात करती है। अभी तेरी औक़ात बताता हूँ।” शशिकांत के देवयानी को थप्पड़ मारने को उठे हाथ को, देवयानी ने दृढ़ता से पकड़कर रोक लिया।

“नहीं, अब और अन्याय नहीं सहेंगे।”

कल्याणी डर गई। उसकी बेटी पूरे खांदान से टक्कर ले रही है हाथ जोड़कर माफ़ी माँग बैठी-

“इसे माफ़ कर दीजिए, भाई साहब। ये अभी नादान है। ग़लती हो गई।”

“नहीं, मां। मैने कोई ग़लती नहीं की और तुम किनके आगे हाथ जोड़ रही हो? याद है, पापा कहते थे, अन्याय करने वाला और अन्याय सहने वाला, दोनों अपराधी होते हैं।”

“वाह री छोकरी। माँ को चार पैसे की नौकरी क्या मिल गई, बड़ी-बड़ी बातें बना रही है। इतने दिनों तक क्यों चुपचाप अन्याय सहती रही ? रागिनी ताई ने हाथ नचाकर कहा।

“ठीक कहती हो, ताई। ज्वालामुखी का उदगार तभी होता है, जब उसके गर्भ में लावा उबलने लगता है। अब मेरे अंतर में भी आक्रोश उबल रहा है।”

देवयानी के दृढ़ शब्दों ने सबको चौंका दिया। अमर की माँ को लगा, जैसे देवयानी में उनका अमर ही बोल रहा था। जब कभी दोनों भाइयों में लड़ाई होती तो अपनी बात की सच्चाईं बताते अमर का चेहरा भी तो बिल्कुल ऐसा ही लाल हो जाता था। उस वक्त उनके मन में देवयानी के लिए ममता का ज्वार-सा उमड़ आया। ये उनके अमर की वही बेटी थी, जिसे उन्होंने न कभी प्यार से चिपटाया न बात की। कल्याणी के प्रति आक्रोश की वजह से उसकी बेटी भी दुश्मन ही लगती रही। नहीं-नहीं, देवयानी से उनका कोईं रिश्ता नहीं, वो कल्याणी की बेटी है। अपनी ममता को झटक, वो वहाँ से चली गईं।

शशिकांत ने अपना फ़ैसला सुना दिया- “अगर कल्याणी को नौकरी करनी है तो खुशी से करे, पर उस स्थिति में कल्याणी और देवयानी को उस घर में रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती।”

सौभाग्यवश कल्याणी को कार्यालय की ओर से दो कमरों वाला घर दिया गया था। देवयानी के उत्साह ने घर छोड़ने के डर को, दूर कर दिया। कल्याणी का घर शहर के कोलाहल से दूर था। चारों ओर शाल और महुआ के पेड़ों की हरियाली थी। नया घर पाकर देवयानी को जैसे नईं ज़िंदगी मिल गईं। छोटे से बंद कमरे की जगह खुला घर और हरा-भरा परिवेश उसे गाँव के घर की याद दिला जाता।

घर के पीछे वाला महुआ, रात भर रोता और सुबह होते ही पास के गाँव की लड़कियाँ महुआ बटोरने आ जातीं। महुए की मीठी खुशबू वातावरण को मिठास से भर देती। उन्हीं लड़कियों में से एक लड़की पारो थी। अचानक एक सुबह कल्याणी के सामने आ खड़ी हुई।

“घर में काम कराने का है, दीदी ?”

“कैसा काम करेगी, नाम क्या है, तेरा ?‘ कल्याणी ने हँस कर पूछा।

“पारो, जो काम दोगी, करेंगे।”

“पगार क्या लेगी, पारो ?”

“पगार का क्या है, दीदी ? जो भी पैसा होगा, बापू छीनकर दारू पी जाएगा।” पारो हँस दी।

“क्यों, मेहनत तुम करो और पैसा बापू छीन ले। अपनी मेहनत की कमाई पर तुम्हारा हक़ है, पारो।” देवयानी उत्तेजित हो उठी।

“छोटी बीबी, ये तो गाँव के घर-घर की कहानी है। औरत कमाई करती है और उसका मरद दारू पीकर मस्ती करता है।” पारो उदास हो आई।

“तुम्हारा मरद भी ऐसा ही करेगा, पारो ?” देवयानी ने ताज़्जुब से पूछा।

“नहीं-नहीं, चंदन ऐसा नहीं है। वो स्कूल में पढ़ता था। अब ठेकेदार के साथ काम करता है।” पारो के चेहरे पर लजीली मुस्कान आ गई।

“चंदन तेरा आदमी है, पारो ?” कल्याणी ने पूछा।

“अभी हमारी शादी नहीं हुई है, पर चंदन कहता है, वो बस हमसे ही शादी कारेगा।” पारो हँस रही थी।

“ठीक है, तू घर के कामकाज में हमारी मदद करेगी, पर अपनी पगार अपने पास ही रखेगी।” देवयानी ने चेतावनी दी।

दूसरे दिन से पारो काम पर आने लगी। घर में झाड़ू-बुहारू, बर्तन-बासन साफ़ करके भी उसके पास काफ़ी वक्त गाँव की कहानियाँ सुनाने के लिए बच जाता। पारो की बातों से गाँव की स्त्रियों की दुखद स्थिति स्पष्ट हो जाती। कल्याणी को लगता, काश् वह उनके लिए कुछ कर पाती।

बारहवीं कक्षा में देवयानी के साथ एक नई लड़की सुष्मिता ने प्रवेश लिया। सुष्मिता की सादगी और गांभीर्य ने देवयानी को आकृष्ट किया। जल्दी ही दोनों अच्छी सहेलियाँ बन गईं। दोनों के जीवन में भी बहुत समानता थी। दोनों के पिताओं का जीवन गाँव में बीता था। सुष्मिता के पिता गाँव म डॉक्टर थे। दोनों के पिता अपनी बेटियों को डॉक्टर बनाना चाहते थे। अब घर आकर देवयानी अक्सर सुष्मिता की ही बातें करती। सुष्मिता जब पाँच वर्ष की थी, उसकी माँ की मृत्यु हो गई। कल्याणी के साथ उसे माँ की कभी पूरी होती लगती।

वक्त पंख लगाकर उड़ जाता है, कहावत सच लगती है। देवयानी ने बारहवीं की परीक्षा देकर मेडिकल एंट्रैंस-परीक्षा दे दी। न जाने क्यों सुष्मिता ने डाक्टर बनने का ख़्याल, अचानक छोड़ दिया। देवयानी के लाख पूछने पर उसका एक ही जवाब था-

“मैं टीचर बनना चाहती हूँ, देवयानी। टीचर बनकर गाँव की लड़कियों को सही दिशा दूँगी।”

“डाॅक्टर बनकर भी तो तू वही काम कर सकती है, सुबी ?”

“नहीं, देवयानी, मेरे अपने कारण हैं। मैं अपना निर्णय नहीं बदल सकती।” हढ़ता से ओंठ भींच सुष्मिता ने कुछ और कहने का मौक़ा ही नहीं दिया।

बारहवीं की परीक्षा में भी देवयानी को सभी विषयों में डिस्टींक्शन के साथ सरकार की योग्यता छात्रवृत्ति भी मिल गई। मेडिकल एंट्रैंस परीक्षा का परिणाम और भी ज़्यादा उत्साहजनक था। माँ की सुविधा को ध्यान में रखकर देवयानी ने उसी शहर के मेडिकल कॉलेज में प्रवेश ले लिया।

हल्के गुलाबी रंग के सलवार सूट में कॉलेज पहुँची देवयानी की सादगी में अनोखा सौंदर्य था। चेहरे पर चमकता आत्मविश्वास और बुद्धि का तेज़ उसे अपूर्वा बना जाता था। सीनियर बैच रैगिंग कर रहा था। देवयानी को भी रोक लिया गया-

“अपना नाम बताइए, मोहतरमा ?”

“देवयानी।”

“वाह भई, क्या दक़ियानूसी नाम छाँट कर रखा है। आपका नाम तो कामायनी होना चाहिए था। साक्षात् काम की प्रतिमा हैं।” सीनियर छात्र रोहित ने रिमार्क कसा।

“जिन्हें भारतीय संस्कृति से प्यार है, उन्हें देवयानी नाम का अर्थ ठीक समझ में आ सकता है। ये नाम मेरे पापा ने दिया है और किसी भी कीमत पर इस नाम का उपहास, मुझे पसंद नहीं।” गंभीरता से देवयानी ने कहा।

“अरे रे रे, ग़लती हो गई। आपके पापा हमें कड़ी सज़ा वो नहीं देंगे।” व्यंग्य से मोहनीश ने दयनीय मुँह बनाया।

“पापा किसी को सज़ा कैसे दे सकते हैं, तो बहुत पहले ही इस दुनिया से जा चुके हैं। वैसे भी मेरे पिता सज़ा में नहीं, क्षमा में विश्वास रखते थे। “ देवयानी का चेहरा उदास हो आया।

“सॉरी। आपका दिल दुखाने का हमारा कतई इरादा नहीं था, देवयानी।” रोहित ने सच्चे दिल से क्षमा माँगी।

“आपकी गंभीरता देखकर लगता है, आप हम जैसों-सी मस्त मौला नहीं, पढ़ाकू टाइप लड़की दिखती हैं। क्यों ठीक समझा न ? बाई दि वे टवेल्थ में कितने परसेंट मार्क्स मिले थे ?” मोहनीश ने माहौल हल्का करना चाहा।

“ नानटी सिक्स परसेंट (96%) अंक मिले थे।” शांति से देवयानी ने जवाब दिया।

“ओह माई गॉड। यानी कि आपने ही टॉप किया होगा ?” रोहित विस्मित था।

“जी नहीं, मेरी तीसरी पोजीशन थी।”

“यार। आजकल नम्बर मुफ़्त में लुटाए जाते हैं, ख़ासकर लड़कियों पर एक्जा़मिनर्स ज़्यादा मेहरबान होते हैं, तेरा क्या ख़्याल है, रोहित ?”

“माफ़ कीजिए। कॉपी पर नाम नहीं रोल नम्बर लिखे जाते हैं।” देवयानी मुस्करा रही थी।

“चलिए, आप हँसी तो। वैसे देवयानी जी पाश्चात्य संगीत के बारे में आपके क्या विचार हैं ? अगर एक पॉप साँग गा दें तो आपकी रैगिंग ख़त्म।” रोहित ने वादा किया।

सधे मीठे गले से देवयानी ने एक पाश्चात्य गीत गाकर सबको मुग्ध कर लिया। गीत समाप्त होने के बाद कुछ पलों को सन्नाटा रहा फिर समवेत तालियों ने देवयानी का अभिनंदन-सा किया।

“थ्री चियर्स फ़ॉर मिज़ देवयानी”

“हिप-हिप हुर्रे।”

“आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई। उम्मीद है, हम अच्छे मित्र बन सकेंगे।” रोहित के बढ़े हाथ के उत्तर में देवयानी ने हाथ जोड़ दिए।

घर लौटी देवयानी ने माँ को अपनी रैगिंग की कहानी सुनाई। कल्याणी देवयानी के उत्साहित प्रसन्न मुख को देखकर खुश हो गई।

“आज तेरे चेहरे पर तेरी सफलता की कहानी पढ़ पा रही हूँ, देवयानी। तेरे पापा का सपना ज़रूर सच होगा। तू एक नामी डॉक्टर बनेगी।”

“नामी नहीं, एक अच्छी डॉक्टर बनना चाहूँगी। पापा का गाँव मेरा कर्म-क्षेत्र होगा, माँ।”

“तेरे पापा की इच्छा थी, मै गाँव की औरतों को सही दिशा दूँ। एक योजना मेरे दिमाग़ में आई है।”

“वाह, माँ अब तो जल्दी से अपनी योजना बता डालो।” देवयानी खुश थी।

“देख, हमारे ऑफ़िस में ग्रामीण स्त्रियों के विकास के लिए फंड आया है। मैं सोच रही हूँ, पारो के गाँव की औरतों के विकास के लिए ऐसी योजना तैयार करूँ जिसके द्वारा उन्हें आत्मनिर्भर बनाया जा सके।”

“ये तो बड़ी अच्छी बात होगी, माँ। मुझे पूरा विश्वास है, तुम्हारी योजना सफल होगी।”

कल्याणी ने महिमा जी के साथ भी अपनी योजना की चर्चा की। महिमा जी ने कल्याणी को योजना में समर्थन देने का विश्वास दिलाया। योजना बनाने के पहले औरतों की स्थिति और उनकी ज़रूरतें जानना ज़रूरी था। कल्याणी और महिमा जी ने गाँव जाकर सर्वे करने का निश्चय किया।

पारो ने गाँव की औरतों को इकट्ठा कर रखा था। कल्याणी ने औरतों से बात करनी शुरू की, उनसे कहा, उन सबके पास कोई न कोई हुनर है। अपने इसी हुनर के ज़रिए वे पैसे कमा सकती हैं। अपने बच्चों को अच्छा खिला-पिला सकती हैं, उन्हें पढ़ा सकती हैं। शरबती ने उठकर कहा-

“ये बातें सुनने में अच्छी लगती हैं, पर गाँव की अनपढ़ औरतों के हुनर की कौन कदर करेगा, दीदी?”

“ऐसी बात नहीं है, शरबती। आजकल गाँव की बनी चीज़ो की तो बाहर के देशों तक में माँग है।” महिमा जी ने समझाया।

“हमे घर के काम निबटाने होते हैं। चूल्हा जलाने को सूखी लकड़ी पत्ते बटोरने होते हैं। कामकाज सीखने का बखत कहाँ से मिलेगा।” शीलो ने समस्या बताई।

“देखो शीलो, जहाँ चाह-वहाँ राह। अगर ठीक से सोचकर काम किया जाए तो हर काम के लिए वक्त निकाला जा सकता है।” कल्याणी ने कहा।

“आप की बात और है, दीदी। हम दिहात की औरतों की बात अलग है।” कजरी ने गहरी साँस ली।

“नहीं, कजरी। हममें और तुममें बस एक फ़र्क है। हमने शिक्षा पाई है। हम सही-ग़लत समझ सकते हैं। अगर तुम भी पढ़ाई करो तो तुम भी अपना भला-बुरा समझ सकती हो।” कल्याणी ने कहा !

"अरे अब क्या हमारी पढने की उमर है? यह तो वही बात हुई बूढी घोड़ी लाल लागाम्।" जमीला चाची ने कहा।

“अरे वाह ज़मीला चाची, तुम तो कहावत बोल रही हो। वैसे सच बात ये है, पढ़ने की कोई उमर नहीं होती। हमारी अम्मा ने तुम्हारी उमर में पढ़ाई पूरी करके नौकरी की और हम तीन बहनों को पढ़ाया।” महिमा जी ने अपनी कहानी दोहराई।

“सच। क्या हम पढ़ सकते हैं ?” ज़मीला के चेहरे पर विस्मय था।

“ज़रूर पढ़ सकती हो, चाची, पर गले में लाल लगाम डालनी होगी।” पारो ने ज़मीला को चिढ़ाया।

“ठहर तो लड़की। आज चंदन से कहेंगे तेरे गले में लाल चूनर डाल, जल्दी से ले जा। बहुत पर निकल आए हैं, छोकरी के।”

“अरे चाची, ये बात जल्दी कह दो, हमारा तो भला ही होगा।” पारो खुलकर हंस दी।

“देख रही हैं, दीदी। पारो कैसी बेशरम हो गई है। अपनी शादी की बात खुद कर रही है।” शीलो भी हँस रही थी।

“अरे से सब चंदन की सोहबत का असर है। वो पढ़ा-लिखा, नए ज़माने का लड़का जो ठहरा। वो तो पारो को भी पढ़ाता है।” शरबती ने जानकारी दी।

औरतों में हास-परिहास चल रहा था कि सामने से कमीज़-पैंट पहने एक युवक आ पहुँचा। उसे देखते ही पारो का चेहरा खिल उठा। ज़मीला ने उसे आड़े हाथों ले लिया-

“क्यों रे, चंदन। काम-काज छोड़कर, होने वाली बहुरिया के पीछे दौड़ा आया है। सुन ले, पारो की लगाम कस कर बाँधे रखना वर्ना ये घोड़ी न जाने कौन राह जाए।”

“अरे चाची, तुम्हारे रहते भला पारो ग़लत राह जा सकती है। पारो ने बताया था, औरतों से बात करने दो दीदी आ रही हैं, सो उनसे मिलने चला आया।” मुस्कराते चंदन ने कहा।

“हाँ, चंदन। हम गाँव की औरतों की तरक्की के लिए पढ़ाई के साथ कुछ काम शुरू कराना चाहते हैं। इन कामों के लिए उन्हें ट्रेनिंग दी जाएगी।

“वाह ! ये तो बड़ी अच्छी बात है। सबसे पहले तो पारो को अपनी शिष्या बना लीजिए। इसे पढ़ा-लिखाकर कुछ अक्ल दे दीजिए।” पारो की ओर कनखियों से देख, चंदन मुस्करा दिया।

“अच्छा जी, क्या हम बेअकल हैं? जाओ, हम तुमसे बात नहीं करेंगे।” पारो ने मान दिखाया।

“नहीं, पारो, तुम तो बुद्धिमान लड़की हो। तुम्हारी मदद से ही तो गाँव में काम शुरू कर पाएंगे।” कल्याणी ने पारो को प्यार से देखकर कहा।

“दीदी, आप हम लोगों को कौन-से काम कराएँगी ?” अब तक चुप बैठी युवती बन्तो ने पूछा।

“देखो तुममें से बहुत-सी औरतें घर में सूत कातती हैं, चटाई, मूढ़े बनाती हैं, सिलाई-कढ़ाई करती हैं। अगर इन कामों को और ज़्यादा सुंदर ढ़ंग से किया जाए तो शहरों के बाज़ारों में बेचने से काफ़ी पैसा मिल सकता है।” कल्याणी ने बताया।

“इतना ही नहीं, अचार-चटनी, पापड़, बड़ी-मुंगौरी जैसी चीज़ो की भी शहर में खूब माँग रहती है। घर जैसी चीज़ें सभी पसंद करते हैं।” महिमा जी ने प्यार से समझाया।

“तुम जो सूत बुनती हो उससे हथकरधे पर कपड़ा बुनना सीख सकती हो।” चंदन ने भी जानकारी दी।

“दीदी, आप हमें जो सपने दिखा रही हैं, वो सच कैसे होंगे ? हमारे मरदों को तो बस दारू चाहिए। हम कमाएँगे वो उड़ाएँगे।” शीलो ने दुख से कहा।

“हाँ, दीदी। अगर हम पढ़ना चाहें तो भी नाराज़ होते हैं। मरदों को लगता है, अगर हम पढ़ गए तो उनकी बात नहीं सुनेंगे।” नादिरा ने कहा।

“ठीक है, हम गाँव के मरदों से बात करेंगे। एक बात कहना चाहूँगी, सही बात सुनना ठीक बात है, पर डर के कारण ग़लत बात के लिए दबना ठीक बात नहीं है।” कल्याणी ने दृढ़ता से कहा।

“देखो, औरतों में बहुत ताकत होती है। अपनी ताकत पहचानना ज़रूरी है। जानती हो आंध्र प्रदेश में गाँव की औरतों ने एक जुट होकर अपने मरदों की शराब-बंदी करा दी।” महिमा जी ने जोश से कहा।

“क्या, औरतों ने मरदों की शराब-बंदी करा दी, कैसे दीदी ?” कजरी के चेहरे पर ढ़ेर सारा आश्चर्य था।

“हाँ, कजरी। औरतों ने मिलकर शराब-बंदी के लिए जुलूस निकाले, नारे लगाए, शराब की बुराइयों पर गीत गाए। वहाँ की सरकार को भी उनकी मदद करनी पड़ी।” महिमा जी ने बताया।

“हाँ, औरतों ने शराब की भट्टियों पर धरने दिए। शराब पीकर आए मरदों के लिए घर के दरवाज़े नहीं खोले। आख़िर मरदों को हार माननी पड़ी।” कल्याणी ने तस्वीर-सी खींच दी।

“हाय दैया, क्या हम भी ऐसा कर सकते हैं ?” शीलो ने पूछा।

“क्यों नहीं, पर तुम सबको एक जुट होना पड़ेगा।”

“अरे ये क्या एकजुट होंगी, दीदी। ज़रा-ज़रा-सी बात पर तो लड़ती हैं।” चंदन ने सच्चाई बयान कर दी।

“ऐ चंदन, अगर हम लड़ते-झगड़ते हैं तो क्या ? वक्त-ज़रूरत में एक-दूसरे के लिए दिन-रात भी तो एक करते हैं। बड़ा आया बातें बनाने वाला।” ज़मीला चाची ने गुस्सा दिखाया।

“ये हुई न बात। अब दीदी जैसा कहें, उसके लिए एकजुट होकर दिखाओ, चाची।” चँदन हंस रहा था।

“हाँ-हाँ, हम दिखा देंगे। औरतें हैं तो क्या हम सब मिलकर गाँव के मरदों को सही राह दिखा देंगे।” शीलो ने जोश से कहा।

“अरे शीलो मौसी, कहीं मुझे ही तो सही राह नहीं दिखा दोगी।” चंदन ने परिहास किया।

“घबरा मत। तुझे सही राह दिखाने के लिए हमारी पारो ही काफ़ी है।” बन्तो हँसी।

“बाप रे , किसका नाम ले लिया। अब तो यहाँ से भाग जाने में ही भलाई है। प्रणाम दीदी, भगवान आपकी मदद करें।

चंदन के जाते ही औरतें हँस पड़ीं। पारो का चेहरा लाज से लाल हो उठा। कल्याणी और महिमा जी आज की बातचीत से संतुष्ट वापस आईं। फ्रेशर्स की रैगिंग के बाद कॉलेज के सीनियर्र्स फ्रेशर्स को पार्टी देते थे। एक लाल गुलाब के साथ रोहित ने देवयानी को अलग़ से इन्वाइट किया।

“कल शाम आप मेरी मेहमान रहेंगी। ये रहा आपका निमंत्रण।” कार्ड और गुलाब रोहित ने थमाया।

“निमंत्रण के साथ गुलाब का फूल देने की क्या आपके कॉलेज की परंपरा है ?” मुस्कराती देवयानी ने जानना चाहा।

“नहीं, ये गुलाब हमारी मित्रता का प्रतीक है। आपको गुलाब पसंद हैं?”

“गुलाब तो फूलों का राजा ही है। हाँ, वैसे मुझे ये बहुत प्रिय है। थैंक्स।” गुलाब पर प्यार भरी नज़र डालती देवयानी ने कहा।

“इसका मतलब मैं भी आपका प्रिय हुआ ?” रोहित के चेहरे पर शरारत आ गई।

“जी नहीं। आप गुलाब के काँटे हो सकते हैं क्योकि गुलाब के साथ काँटे होते ही हैं।” देवयानी ने भी परिहास का सीधा जवाब दे डाला।

“चलिए काँटा ही सही, कोई तो रिश्ता हमारे बीच बन ही गया। कल शाम आपका इंतज़ार करूँगा। आएँगी न ?”

“अगर माँ से इजाज़त मिली तो ज़रूर आऊँगी। देर रात तक बाहर रहना माँ को पसंद नहीं है।” गंभीरता से देवयानी ने कहा।

“मैं उनकी बात समझ सकता हूँ। यकीन कीजिए, आपको रात में अकेले वापस जाने की गुस्ताख़ी मैं भी नहीं कर सकता। प्रोग्राम में सभी लड़कियों को वापस पहुँचाने का इंतज़ाम रहेगा। आपको सही-सलामत घर पहुँचाने की जिम्मेदारी मेरी रही।”

“थैंक्स। मैं आने की कोशिश करूँगी।”