देवीसिंह / अज्ञेय

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“बाबूजी, कुछ मैगज़ीन ख़रीदेंगे?”

मिस्टर अस्थाना ने उसका सवाल नहीं सुना। सवाल तो दूर, किसी का जवाब सुनना भी उन्हें गवारा नहीं होता। अपनी ही बात उन्हें कितनी प्रिय है, यह मैं अक्सर सोचा करता हूँ। मुझसे बोले, “तुम्हारी दलीलें सब वैसी होती हैं। तुम, एक आदमी के प्रयास को देखकर ही मुग्ध हो जाते हो; तुम्हें यह दीखता ही नहीं कि एक आदमी कुछ नहीं, एक आदमी की ‘इस्ट्रगिल’ कोई माने नहीं रखती, असल चीज़, वर्गों का संघर्ष है!”

जवाब देने की व्यर्थता जाने हुए भी मैं कुछ कहता, पर लड़के ने फिर पुकारा, “बाबूजी, मैगज़ीन ख़रीदेंगे? नयी आयी हैं कई-एक...”

और मैं क्षण-भर उसे देखता ही रह गया। किसी तरह मैंने कहा, “अरे, देवीसिंह, तुम!” और एक बार फिर सिर से पैर तक उसे देख गया। उसने कुछ आहत अभिमान के भाव से कहा, “हाँ, बाबूजी, मैं दिन में स्कूल में पढ़ता हूँ, शाम को अखबार बेचता हूँ।”

मिस्टर अस्थाना से मैंने कहा, “इसकी कहानी आप जानते, तो आपकी बात का जवाब आपको खुद मिल जाता।”

“हूँ!”

“हाँ, वह ‘हूँ’ करके बात उड़ा दे सकते हैं। पर मेरी स्मृति में सहसा कई बातें काँटे-सी उभर आयीं। कोई दो साल पहले की बातें, जब मैंने देवीसिंह को पहले-पहले देखा था और फिर उसका नाम जाना था।”

फैंसी बाज़ार के लम्बे बरामदे में से होता हुआ मैं चला जा रहा था। जहाँ-तहाँ कंघी-शीशे, चादर-तौलिए और फीते-तस्मे बेचनेवाले बरामदे के खम्भों से लगे बैठे थे। उनके बीच में से गुज़रना वैसा ही था सागर के किनारे सूखती सीपियों के बीच में से होते हुए जाना। एक ओर सागर-सी दुकानें, जिनसे लुभावने आलोक की लहरियाँ तब-तब आकर बरामदे को सींच जाती थीं, और दूसरी ओर जन-संकुल...

तभी एक खम्भे के पीछे से एक टेढ़ी-मेढ़ी छाया ने लपक कर हाथ बढ़ाये और एक बेमेल स्वर में कहा, “बाबूजी, एक अधन्ना दोगे?”

स्वर तो बेमेल था ही, क्योंकि भिखारियों के स्वर में दीनता होती है, ऐसा सहज अपनापन नहीं, और माँगनेवाले भिखारी भी मुझे याद नहीं पड़ता, मुझे कभी मिले हों-या तो पैसा माँगते हैं, या इकन्नी।

भिखारियों को पैसा देने या न देने का अर्थशास्त्र मैं नहीं जानता। मिस्टर अस्थाना कभी-कभी समझाने लगते हैं कि यह दया-वया की भावना ग़लत चीज़ है और भिखारियों को बढ़ावा देने वर्ग-संघर्ष को कमज़ोर बनाना है। पर मैं अधिक ध्यान नहीं देता। मैंने मान लिया है कि मानव के प्रति आर्द्रता को भी सुखा डालना अगर अक्लमन्दी है तो वैसी अक्लमन्दी को दूर से सलाम कर लेना ही ठीक है। और सौभाग्य से उस समय मिस्टर अस्थाना साथ थे भी नहीं।

मैंने लड़के को सिर से पैर तक देखा या सच कहूँ तो सिर से धड़ तक; क्योंकि उसका धड़ ही बरामदे पर टिका था। हाथों में थामी हुई लकड़ी की घोड़ियों के सहारे, भुजाओं, पर बल देकर वह घिसटता हुआ चलता था। टाँगें थीं तो, पर सूखी हुई निर्जीव। देखते ही ज्ञात हो पाता था कि शैशव में विटामिन ‘सी’ की कमी और उसके साथ-साथ ‘पोलियो’ या शिशुकालीन लक से उस उसका अधःशरीर बेकार हो गया। लेकिन शरीर की सहज क्षुतिपूरकता के कारण उसका धड़ भी सुगठित था, और उसके कन्धे अकाल यौवन की पुष्ट मांसपेशियों को सूचित कर रहे थे। और उसके चेहरे पर एक दृढ़ता और आत्मविश्वास की झलक थी।

मैंने लड़के से पूछा, “अधन्ना क्यों? और इकन्नी हो तो?”

उसने मानो मुझ पर एहसान करते हुए कहा, “तो आपकी इकन्नी ही ले लेंगे।”

मैंने जेब में हाथ डाला। वहाँ इकन्नी भी नहीं थी, दुअन्नी थी। उसी के लहजे के अनुकूल, मैंने भी मानो अपनी सफ़ाई देते हुए, “अरे, मेरे पास तो सिर्फ दुअन्नी है!”

उसने मेरी ओर कुछ सन्दिग्ध भाव से देखा-कहीं मैं उसे बना तो नहीं रहा हूँ। फिर तनिक मुस्करा कर बोला, “चलिए, दुअन्नी ही दे दीजिये - काम आ जाएगी।”

दुअन्नी देकर मैं उससे उसका नाम, पता और इतिहास पूछने लगता तो कोई अजब बात न होती। मैंने अक्सर लोगों को ऐसा करते देखा है। शायद किसी की करुण कहानी सुनकर अपने इकन्नी-दुअन्नी के बलिदान के इयत्ता बढ़ जाती है। पर मैं चाहता भी तो उसने मौका नहीं दिया। दुअन्नी लेते ही उसका हाथ नीचे पड़ी घोड़ी पर टिका, देह का भार उस पर साधकर वह मुड़ा और इस फुर्ती से खम्भे की ओट हो गया कि मैं भौंचक-सा रह गया। साथ ही ओट से उसके कंठ का स्वर मैंने सुना, “अबे, हो गया बे! अबे, ले आ बे - यहीं ले आ!”

मेरा कौतूहल उचित था या नहीं, सो मैं क्या जानूँ, पर मैं खम्भे की ओट रह कर आगे की बातों पर कान लगाये रहा।

उसी के समवयस और एक लड़के की आवाज़ आयी, “क्या हो गया बे, देवीसिंह?”

“बस देखता रै - अभी पता लग जाएगा...”

और एक तीसरा स्वर, निकट आता हुआ, “अबे साले, तू बता दे।”

“देख बे, गाली-वाली मत दे, नहीं तो अभी ठीक कर दूँगा - हाँ!”

और फिर दूर किसी की ओर उन्मुख होकर देवीसिंह ने आवाज़ दी, “ले आ बे, जल्दी ले आ, इनको भी दिखा दीजो!”

क्षण-भर बातचीत स्थगित रही। फिर एक चौथा, कुछ रूखा पछाहीं स्वर बोला, “अबी देक्खो।”

देवीसिंह ने बड़े उत्कंठ स्वर से कहा - “अच्छा वाला दिखाना - पूरा! बीच में कुछ छोड़-छाड़ मत जाना, हाँ!” और उसने एक चीत्कार किया, जैसा सामने मधुर भोजन आने पर कभी लोग करते हैं।

रूखा स्वर कुछ और रुखाई से बोला, “चार तो पैस्से दोग्गे।”

देवीसिंह ने डपट कर कहा, “अबे चार क्यों बे - अब तू आठ ले लेना, पर देखेंगे हम पूरा।” फिर कुछ रुककर, देख बे, तू भी कंगाल है, और हम भी कंगाल हैं। तू जो तुझ पे आता है दिखा दे, और जो हमसे बनेगा दे देंगे, समझा? और इससे ज्यादा बाश्शा भी क्या दे देंवे? ...क्यों बे, ठीक कही कि नहीं?”

मैंने तनिक झाँककर देखा। रूखे स्वर के मालिक ने कन्धों पर से बहँगी उतार कर दो पिटारियाँ ज़मीन पर टिका दी थीं। उसकी रूखी लटें उसके थके और धूल भरे चेहरे से चिपक रही थीं। एकाग्र होकर वह पिटारियाँ खोलकर एक मैली गूदड़ी की ओट में तरह-तरह की चीज़ें इधर-उधर जमा रहा था...

उस दिन मैंने इतना ही देखा था। यों यह भी काफ़ी असाधारण और स्मरणीय था। क्रमशः उसके बारे में और भी कुछ ज्ञात हुआ। लेकिन ज्ञान उसे कहना चाहिए जिससे नयी दृष्टि मिले, नहीं तो जानकारियों का कोई अन्त थोड़े ही है। देवीसिंह के माता-पिता नहीं थे, कम-से-कम उसके सम्पर्क में नहीं थे, किसी चाचा ने उसे पाला था और फिर शहर के मरुस्थल में डाल दिया था कि ‘जा सके तो कोई हरियाली ठाँव ढूँढ़ ले!’ किन्तु देवीसिंह को जीवन में रुचि थी - अपार रुचि थी - वह हारा हुआ भिखारी नहीं बन सका था...

मुझे बरामदे में वह अक्सर दीख जाता। लेकिन हर बार पैसे नहीं माँगता, मुस्करा कर रह जाता। धीरे-धीरे समझ में आया कि वह किसी एक व्यक्ति से सप्ताह में एक बार से अधिक नहीं माँगता, और समय, मुस्करा कर मानो कह देता है कि हाँ मैं जानता हूँ आप मेहरबान हैं, जब मुझे ज़रूरत होगी आपसे माँग लूँगा।

कुछ महीनों बाद वह एकाएक लापता हो गया। उस बरामदे से गुज़रते हुए जब-तब उसकी अनुपस्थिति खटक जाती। पर जल्दी ही मैं उसका भी आदी हो गया... फिर कोई डेढ़ वर्ष बाद ही उस दिन मिस्टर अस्थाना के साथ जाते - अचानक उसे मैगजीन बेंचते हुए देखा जब अचम्भा कुछ सम्भाला तो मैंने उसे फिर सिर से पैर तक देखा। अबकी बार धड़ तक नहीं ही, क्योंकि अब वह खड़ा था। उसकी दोनों टाँगें लोहे और लकड़ी के एक चौखट में कसकर सीधी कर दी गयी थीं - अभी उनमें ज़ोर इतना नहीं था कि वह केवल उन्हीं के सहारे खड़ा हो सके, पर वह चल तो सकता था, और अब उसके चेहरे पर आत्मविश्वास और भी स्पष्ट था... पूछने पर मालूम हुआ कि उसने पैसे जुटाकर अपने इलाज का प्रबन्ध किया था, पोलियो रोग के एक विदेशी विशेषज्ञ के पास छः महीने बिताये थे, और जब अपने भविष्य के बारे में आश्वस्त था... अब जो हो, वह भीख नहीं माँगेगा और मैगज़ीनों की बिक्री के सहारे पढ़ भी लेगा...

एक दिन मैंने पूछा, “देवीसिंह, मदारी का तमाशा अब नहीं देखते?”

उसने हँसकर उत्तर दिया, “बाबूजी, सब तो तमाशा ही तमाशा है।”

इस अकाल-परिपक्वता से कुछ सहमकर मैंने पूछा, “क्या मतलब?”

वह बोला, “पहले मैं ज़मीन पर रेंगता था, कुछ भी देखने के लिए मुझे गर्दन उठानी पड़ती थी। तब हमेशा ऐसे तमाशे की तलाश रहती थी जो बिना गर्दन थकाए देख सकूँ, अब तो खड़ा-खड़ा सब देखता हूँ। सभी तमाशा है!” फिर कुछ रुककर, ज़रा शरारात-भरी हँसी से, “देखिए, न, कैसे-कैसे बाबू साहब आते हैं और क्या-क्या मैगज़ीन ख़रीदते हैं।”

उस दिन मैंने सोचा था, इस समय कहीं मिस्टर अस्थाना साथ होते! पर अच्छा ही हुआ, नहीं थे। नहीं तो सारी बात सुनकर उन्हें केवल वर्गयुद्ध का और प्रमाण ही दीखता, क्योंकि नहीं तो विटामिन ‘सी’ की कमी ही क्यों हो, और पोलियो ही क्यों हो?

ऐसे भी लोग हैं जो मानते हैं कि अभाव में भी अपने को उपयोगी बनाना, पंगु होकर भी समाज में अपने अस्तित्व को सार्थक बनाना, केवल पलायन है। उनके लिए वर्गों का संघर्ष ही सब-कुछ है, व्यक्ति का आत्मदान कुछ नहीं। वे यह नहीं देखते कि आत्मदान से पलायन, सबसे बड़ा पलायन है - वह जीवन के रस से पलायन है - किसी मरुभूमि की ओर, कौन जाने!

(दिल्ली, 1951)