देशप्रेम से जुड़ी फिल्मों के बदलते स्वरूप / जयप्रकाश चौकसे

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देशप्रेम से जुड़ी फिल्मों के बदलते स्वरूप
प्रकाशन तिथि : 17 अगस्त 2013


विगत दशक में देशभक्ति फिल्मों का स्वरूप बदल गया है और वे मात्र नारेबाजी की छद्म देशप्रेम की फिल्में नहीं हैं, वरन् माध्यम के आधुनिक मुहावरे में युवावर्ग की मनपसंद फिल्में हैं। आज का युवावर्ग राजनीति में नारेबाजी भले ही स्वीकार करे, परंतु अपने मनोरंजन में उसे किसी किस्म का उपदेश नहीं चाहिए। यह परिवर्तन आमिर खान की 'लगान' से प्रारंभ हुआ, 'रंग दे बसंती' में सशक्त हुआ और 'ए वेडनेसडे' में वयस्क हो गया। 'पानसिंह तोमर' समाज के खुले हुए जख्म पर रोशनी डालती है और 'भाग मिल्खा भाग' भी उसी की अगली कड़ी है। दरअसल, 'कहानी' भी देशप्रेम की फिल्म है।

आजादी के पहले हुकूमते बरतानिया के कठोर सेंसर की आंख में धूल झोंककर देशप्रेम की फिल्में बनाई गई थीं और फिल्म्स डिवीजन के पास उन वृत्तचित्रों का अंबार है, जिन्हें शाृंखला में देखने पर स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास आंखों के सामने आ जाता है।

आजादी के बाद फिल्मकार रमेश सैगल की दिलीप कुमार और कामिनी कौशल अभिनीत 'शहीद' भी नारेबाजी से मुक्त थी और 'जागृति' तक यह सिलसिला जारी रहा है तथा कुछ अंतराल के बाद पंडित सीताराम शर्मा और मनोज कुमार की भगत सिंह के जीवन से प्रेरित 'शहीद' भी सार्थक फिल्म थी। कुछ वर्ष पश्चात छद्म देशप्रेम की मसाला फिल्में खूब सफल रहीं, परंतु 1973 में प्रदर्शित एमएस सथ्यू की 'गर्म हवा' को हम आज बनने वाली देशप्रेम की फिल्मों की गंगोत्री मान सकते हैं तथा गोविंद निहलानी की 'तमस' ने बीच के शून्य को भर दिया था। अगले सप्ताह प्रदर्शित होने वाली 'मद्रास कैफे' में संभवत: राजीव गांधी की नृशंस हत्या को एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में बताया गया है। मणिरत्नम की 'रोजा' भी नारेबाजी से मुक्त देशप्रेम की फिल्म थी और उनकी शाहरुख खान, मनीषा कोइराला अभिनीत 'दिल से' में उत्तर-पूर्व के प्रांतों में उभरते विरोध के स्वर को नजरअंदाज कर दिया गया, क्योंकि देश के अधिकांश लोग वहां हो रही बर्बरता से अपरिचित हैं। इसी बात को खूब गहराई से 'शौर्या' में प्रस्तुत किया गया, परंतु लोकप्रिय विचारधारा से विपरीत जाने वाली इस फिल्म के कड़वे यथार्थ को पचाने के लिए शेर का कलेजा चाहिए।

देशप्रेम की फिल्मों से अलग होती है राजनीतिक फिल्में, जिनका हमारे यहां घोर अभाव है। इस क्षेत्र में प्रकाश झा सक्रिय हैं। 'नो वन किल्ड जेसिका' व्यवस्था पर गहरी चोट करने वाली सशक्त फिल्म थी। दरअसल, हमारे यहां अमेरिका की तरह राजनीतिक फिल्में नहीं बन सकतीं, क्योंकि दकियानूसी सेंसर और हुल्लड़बाजों की सेंसर के परे सेंसर की शक्ति इसकी इजाजत नहीं देती। गौरतलब है कि गुलामी के समय एक सेंसर था, आजाद भारत में सेंसर के भीतर सेंसर है। हमारे यहां कोई ऑलिवर स्टोन जैसा फिल्मकार नहीं हो सकता, जो कैनेडी की हत्या के लिए निक्सन की ओर स्पष्ट संकेत कर सके। दरअसल, हमारी राजनीति और अन्य देशों की राजनीति में भारी अंतर है। वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता गणतंत्र का मेरुदंड है, जबकि हमारे यहां गैरजिम्मेदार बकवास की तो स्वतंत्रता है, परंतु आधारभूत सवाल नहीं उठाए जा सकते। हमने अपने मिजाज के अनुरूप नए किस्म का गणतंत्र रचा है, जिसमें सामंतवाद शामिल है और व्यक्ति-पूजा को सिद्धांत समझा जाता है। हमने अपनी गणतंत्र व्यवस्था को इतना दूषित कर लिया है कि एक लोकप्रिय सर्वे के अनुसार 53 प्रतिशत युवा वर्ग गणतंत्र के बदले तानाशाही को स्वीकार करना चाहता है, क्योंकि उन्हें तानाशाही की बर्बरता की कल्पना ही नहीं है। तानाशाही के होम्योपैथिक शिथिल डोज वाले आपातकाल के बारे में भी मौजूदा युवावर्ग कुछ नहीं जानता। उन्होंने हिटलर का नाम सुना है, उसकी बर्बरता से वे अपरिचित हैं।