देशांतर / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

Gadya Kosh से
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कार्ड उस के हाथ मैं है. अन्तत इसे तो छप कर आना ही था. बड़ा सुंदर और अपनी संस्कृति की सुगंध से ओत- प्रोत. कार्ड भारत से छपवाया गया था. वह फूली नही समा रही थी और सोच रही थी कि हमारा अपना भाव ही दूसरी संस्कृतियों और सभ्यता के प्रति नकारात्मक है यों इन लोगो का हृदय तो कितना विशाल है. क्या हुआ अगर वह आयरिश है. कोई और इतालियन, हंगेरियन या जर्मन भी होती तो क्या. हमे अपने मन का द्वार खुला रखना चाहिए. फिर समय तो बहता ही है..पानी की तरह ढुलकता हुआ. हम में इतनी शक्ति कहाँ कि घड़ी की सूइयों को पकड़ कर रोक ले या पीछे घुमा लें और सब कुछ अपनी संस्कृति में कील की तरह ठोक दे. कार्ड को सरिता ने उल्ट पलट कर देखा और ला कर रसोई की शेल्फ पर रख दिया क्यों कि उस के हाथ और ध्यान दोनों रसोई में थे. वह उसे आराम से और पूरे मन से पढना चाहती थी.

बच्चे पैदा होते हैं और मां बाप उन की शादी और यहाँ तक की उन के बच्चो तक के सपने बुनने शुरू कर देते हैं. उस पर हमारी प्रकृति और संस्कृति कुछ ज्यादा ही स्वप्न जीवी है. हम वास्तविकता में कम और सपनों में ज्यादा जीते हैं और लडकों के लिए तो मजाक में ही सही पर एक गोरी मेंम हमारे जहन में रहती है. यह हमारी दास मानसिकता ही है कही.

उसे याद है इंडिया में जब उन का नौकर राम चरण गोवा से एक जर्मन लडकी को ब्याह कर लाया, तो पड़ोसी ने कहा था, जो काम नीरज जी नही कर पाए, नौकर ने कर दिखाया. वह उन का मुहं देखती रह गई थी कि वह कह क्या रहे हैं? . सरिता हतप्रभ सी होकर इस कटोक्ति को मेहमान नवाजी का कडवा घूँट बना कर गटक गई थी. पर यहाँ तो यह कोई शाबाशी वाला काम नही था. समय और स्थिति की मांग थी. धूप और छाया का प्रभाव था. जैसा वातावरण मिलेगा वैसा ही तो पौधा पनपेगा. वह रुकने वाली गाडी निकल चुकी थी. अब तो केवल हरी झंडी देने का अधिकार बचा था. अपनी टांग अड़ा कर भविष्य की हड्डियाँ नहीं तुड्वानी थी. पर यह सब वह क्या सोच रही है और क्यों सोच रही है? .

सरिता कार्ड की इबारत को कई बार पढ़ गई थी. दो पाटों के बीच फंसी हुई बेबस और असहाय पक्षी की तरह -खामोश चीखती हुई सी. एकबारगी लगा जैसे किसी ने उस के पूजा के कलश को पैर से ठोकर मार दी हो. बाहर से सभी ताम-झामों से सुस्सजित भारतीय शादी का कार्ड अब अंदर से अपनी काली सूरत लिए उस का मुहं चिड़ाने लगा था.

उस मैं दो शादियों का व्योरा था. एक भारतीय ढंग से और दूसरी क्रित्चियन रीति से. आर.एस.वी. पी में लडकी की मां का नाम लिखा था. उस मां का नाम जिस मां का सर्निम बेटी के सर्निम से अलग था. क्यों कि बेटी पहली शादी से थी और अब मां दूसरी शादी वाले पति के साथ थी.

सरिता के अंदर -बाहर एक अंधड़ अपने पूरे अंधेरों के साथ उबलने लगा. उसे लगा वह किन्ही चक्रघिनियों में कुये पर चलने लने वाले रहट में फंस गई है और चक्कर पे चक्कर काट रही है. उसे कब रुकना है और कहाँ रुकना है, उसे कुछ मालूम नहीं है. उसे लगा वह किसी से फोन पर बात करे. नीरज को फोन करे या बिटिया को. पर वह उन से अपेक्षित उत्तरों के वार्तालाप में धंसती जा रही थी. नीरज कह देंगे तुम खाहमखाह अपने आप को अंधेरों मैं घसीटती रहती हो. साधारण- स्थिति को भी असाधारण बना कर अपने आप को सजा देती रहती हो. क्या हो गया अगर लडकी ने अपनी कम अक्ल से यह नमूना दिखा दिया. या दोनों ने मिल कर भी किया हो तो भी क्या. यहाँ शायद ऐसा ही होता हो. दोनों मिल कर सब कुछ कर रहे हैं तो यह भी सही. बेटी कह देगी - अब क्यों बिसूर रही हो माँ. जब उन दोनों ने साथ -साथ रहना शुरू किया था तब रोकती तो शायद आज यह नौबत न आती. होने दो अब सब कुछ हंसी -ख़ुशी के साथ. उनेह क्यों महसूस करवाती हो कि तुम्हे बुरा लगा है बलिक यह महसूस करवायो कि तुम्हे कोई परवाह नही.

उसे समझ नही आ रहा था कि वह कैसे इस सब को यूहि जाने दे. जब यह कार्ड इंडिया जायेगा, वे लोग कैसी -कैसी बाते करेंगे !

बड़ी बनती थी - अपनी संस्कृति अपनी थाती को सम्भाल कर रखना चाहिए.

अब पता चला !

इस कार्ड से तो लगता है बच्चों ने मां -बाप का तो बिल्कुल पत्ता ही काट दिया है.

वे न जाने कब से साथ -साथ रह रहे होंगे.

हमारी तो समझ में नही आता इतने साल इकठे रह कर शादी के लिए बाकी रह क्या जाता है.

यह तो बस दुनिया की आँखों में धूल झोकना जैसा हुआ.

फिर कोई कहेगा - बिचारी सरिता के बारे में सोचो.उस पर क्या बीत रही होगी और नीरज !

अरे छोडो नीरज की, वह तो पहले से ही फक्कड है. उसे कोई फर्क नही पड़ता. उल्टा वह तो उन मेमों और उन की सहेलियों को जकड़ -जकड़ कर मौज मरता होगा. उस को अपनी खिलन्द्र्दियों से मतलब है. कल्चर -वल्चर जाये भाड़ में. मुसीबत तो बिचारी सरिता की है वह पता नही कितनी टूटी होगी.

ओह ! क्या क्या सोच रही है उसे लगा वह पागल हो जाएगी. अभी तो न जाने क्या -क्या होना है शादी तक - उन की और अपनी रस्मों का चूरमा बनते -बनाते तो वह हलकान हो जायेगी. उस पर तुर्रा यह कि सब कुछ हंसते -मुस्कराते रह कर करो. नही तो बेटे से हाथ धो बैठो.

फिर उस ने अपने आप को झटका दिया - उसे ऐसा नही सोचना चाहिए. आखिर अपने बच्चो की ख़ुशी है. बच्चों की खुशियों के लिए जमीन -आसमान एक कर देना तो मां -बाप की नियति रही है - पर बच्चे...!

एक दिन क्यों इन सम्बन्धों मैं भी लेन -देन शामिल हो जाता है. कभी -कभी हम दो दिशायों के बीच किनारे ढूढने लगते हैं.पर दिशाए और सीमाए अपने तरह से अपना वितान बढाये जाती हैं और हम हैं कि ध्रुवतारे की तरह एक -टक देखते बस स्थिर रह जाते हैं.

जितना वह सोचती है उतना ही वह डूबती जाती है. क्यों इतना सोच रही है ! इतनी छोटी सी बात को इतना बड़ा बना देना ठीक नही है. स्वयम उस ने कई बार अपनी पुरानी सस्कृति की कई दकियानूसी बातो की खिल्ली उड़ाई है. क्या यह उसी मे से एक नही है? पर जब बात अपने पर आती है तो जाने क्यों इतनी बड़ी लगती है. बेटा कुल चलाता है, वंश आगे बढ़ता है, इस बात को ले कर उस ने सदैव बड़े- बूढों से माथा टकराया है. इतनी बड़ी दुनिया में -अगर बाप के नाम -गोत्र को उठाने वाला किसी का बेटा पैदा न हुआ तो क्या...बेटी अपने घर चली गई और नाम -गोत्र सब छोड़ गई तो...ये सब बाते इतनी बड़ी दुनिया मे कितनी बेमानी हैं. पर आज क्यों सब ऐसे लगता है जैसे किसी बड़े अजगर ने मुंह खोल कर उसे ही अपना निवाला बना लिया हो.

पर नही, यह बिल्कुल अलग बात है. बेटे की शादी के कार्ड पर माँ -बाप का नाम तक न हो. एक बार तो उसे लगा कि उसे बेटे और बहु को दाद देनी चाहिए - कितनी संजीदगी से,. करीने से और एक बड़े ही चातुर्य से मक्खी की तरह माँ - बाप को बाहर निकाल दिया है.

यह हम दोनों का विवाह है - कार्ड बंनने से पहले, बेटे से बहस हुई थी इस बात पर.

पर बेटा -उस में दो परिवारों का मिलन और माँ -बाप का असिस्त्त्व तो रहना चाहिए न !

दुनिया को क्या ढिंढोरा पीट कर बताना चाहिए कि मैं आप को बेटा हूँ -वैसे नही पता किसी को !

लेकिन हमारे संस्कार...

कितनी बार कहा है -यह संस्कार -फ्संस्कार पीछे छोड़ आये हैं आप और हम. हम यहाँ के है और यही के कायदे -क़ानून, संस्कार -सभ्यता हमे निभानी चाहिये. नई दुनिया, नया जीवन - आप ने तो जी लिया अब हमे जीने दीजिये.

मै क्या तुम्हारा जीना रोक रही हूँ, वह अंदर से भर आई थी.

और एक लम्बी हूँ..के साथ फोन का चोगा रख दिया गया था.

ऐसी कितनी ही सुरंगों में से उसे रोज गुजरना पड़ता है. बाप से बात नही करेंगे क्यों कि अभी भी कहीं उन की ऊँची दहाड़ उन्हें डराती है. बाप तक संदेशा भी माँ की ही पीठ पर चढ़ कर पहुंचता है. जितना भी हम इन्हें छोटी बाते कह कर नकार दे -कहीं इन्ही छोटी बातों के कंधों पर बैठ कर रोज की जिन्दगी ठिलती है. ये ही बातें जिदगी की वे चौखटें हैं जिन पर जिन्दगी टिकी रहती है. आज कई घरों की छतें -भुरभुराती हुई इन कमजोर चौखटों पर खड़ी लंगड़ी-लंगड़ी खेल रही है.

उस ने कार्ड को उठा कर अलगनी पर रख दिया. रखते -रखते उस ने फिर सरसरी नजर से देखा, विशवास नही हुआ यह उस के अपने बेटे की शादी का कार्ड है जिसे लेकर इतना बिसूरना चल रहा है. उस की समझ मै नही आ रहा था कि वह कैसे यह कार्ड नीरज को दिखाए..जैसे उसे किसी सगे सम्बन्धी की शादी का प्रसंग उठा कर शादी मै जाने की इजाजत मांगनी हो. इस कार्ड को दिखाने पर नीरज की ऑर से लौटते संलाप उसे स्पष्ट सुनाई दे रहे है - भुगतो ! अपने लाड -प्यार का नतीजा - मैं न कहता था, इसे रोको इन विदेशी -बिल्लियों को मिलने से.! आज तुम्हारी शह का नतीजा सामने है.

क्या तुम नही रोक सकते थे?

वह फरियादें तो तुम से करें और निजात मैं दिलाऊ.

तुम कभी बीच मै पड़े होते तो शायद आज यह न होता जो हो रहा है.

अब मैं क्या कर सकता हूँ. सब कुछ तो हो गया है. अब या तो भुगतो या हट जायो उन के रास्ते से सरिता.

तो क्या छोड़ दूं उन को !.

उस से क्या अंतर पड़ेगा - तुम छोडो या न छोडो -वह तो उसी परिपाटी पर चल ही रहे हैं. यह तो नगाड़ा बजा है, युद्ध का बिगुल हमारी ऑर से बज भी गया तो क्या १

तुम केसे बाप हो !

जैसा भी हूँ, कम से कम उन की चिरोरियां करने वाला बाप नही बन सकता.

घर मै ख़ुशी आने वाली है इसे इस तरह क्या हम नही सोच सकते?

तो बटोरो न चारों हाथों यह खुशियाँ. रगडो नाक -जमीन पर. इसी लिए तो सब कुछ छोड़ कर आये हैं. बच्चों की जिन्दगी बनाने चले थे, लगता है अपनी भी गवां बैठे.

सरिता देख रही थी नीरज की नाराजगी एक गम्भीर उदासी मै बदलती जा रही है. वह वहाँ से उठ कर गुसलखाने मै मुहं धोने चली गई जैसे अभी किसी युद्ध के मोर्चे की तैयारी बाकी है.

आज तक सब चलता रहा. अंदर ही अंदर यह खलाव बढ़ रहे थे किन्तु अब धीरे -धीरे बीच के सेतु भी कमजोर पड़ गये थे और ये बिखराव एक भयानक रेगिस्तान से फ़ैलते चले गये. उस ने अपने ऑर से हर अवसर पर बचाव करने की कोशिशे की, जितना खप सकती थी अपने आप को खपाया. कोशिश करती रही कि सब कुछ जुडा रहे, प्रयत्न किया कि उन की खुशियों का हिस्सा बनी रहे. मन ही मन जलती -भुनती भी उनेह आशीर्वाद ही देती रही. इस बेलाग -बेशर्म -संस्कृति पर लानत फेर कर जैसे अपने बेटे को जाल मै फंसाया गया शिकार समझती रही.

हाँ वे इतने नादान हैं न -की कोई भी उन्हें फंसा सकता है.

फंसना न चाहो तो कोई नही फंसा सकता.

नीरज ठीक कहता है, वास्तव मै इन सब के पीछे अपनी ही दुर्बलताएं, नाकामियां और हीनताएं छिपी होती हैं. जिन का शिकार हम सब समय न कुसमय होते हैं. हम भी हुए हैं. इस में इन का भी क्या दोष है? वे यौवन की उस दहलीज पर है जहाँ घर, संस्कार या अपने देश का कोई भी नियम उनेह कारागार सा लगता है. क्यों कि यहाँ की सभ्यता, संस्कृति, यहां की जमीन उनेह आजाद पंच्छी की तरह उड़ने की आजादी देती है -इसी लिए वे घर से भागते हैं.

मैं समझती हूँ एक तो पीढ़ी का अंतर ऊपर से देशांतर.

यही नही उन की अपनी उम्र -जनित मूढमति और मर गया या कुंद हो गया विवेक भी तो है. आज उन में से सभी पुराने संस्कारों के चिन्ह मिट गये है और उस जगह यह नया कूढा-करकट जमा हो गया है.

अब क्या करना होगा कुछ तो सोचना होगा.

करना क्या है १ जो करना था वह कर चुका है.

ये कार्ड उस ने तुम्हे ही नही सारे सर्किल और इंडिया में भी यही कार्ड भेजे हैं.

तुम से लिस्ट ली थी न उस ने सब की...

हाँ..

तभी रोक लेती और कहती कि अपनी तरफ के कार्ड हम स्वयम बनवायेगे.

यह मैं कैसे कह सकती थी.. या कहिये कि कह नही सकी.

तो अब क्या कर सकती हो ! अब देखो और इन्तजार करो -उन जूतों का जो फोन की घंटियों के साथ बजने वाले हैं.

क्या कार्ड बनवाया है साहिब-जादे ने.

"जान और जैनी"
२१ जून १९९८, सुबह दस बजे
अपने विवाह पर
आप की उपस्थिति के आकांक्षी हैं
चर्च इग्नेशिअस
बिकौन स्ट्रीट
-शिकागो
आर.एस.वी. पी, १५ मई 1९९८
मिसेस ऐना क्रिस्टोफर
c /o चर्च इग्नेशिउस
बिकौन स्ट्रीट
शिकागो
आर. एस. वी.पी, १५ मई १९९८
मिसेस ऐना क्रिस्टोफर
c/ओ चुर्च इग्नेशिउस

मुझे बतलाओ यह कहीं से भी हमारे बेटे के विवाह का कार्ड लगता है ! उस ने अपना नाम तो पहले ही बदल लिया था यह कह कर कि "इन लोगो को हमारा नाम बुलाना नही आता और नाम को इतना बिगाड़ देते हैं कि आदमी अपने आप को ही न पहचाने. दूसरी दलील दी कि नौकरी मिलने मैं आसानी होती है. हमे ही बनाता रहा. वास्तव मैं वह तो सब अंदर अंदर अपने आप को और हमे इस सब के लिए तैयार कर रहा था हमारी नाक के नीचे, हम ही समझ नही पाए. अब कहते है जनाब, जीवन में ऊपर उठने के लिए विदेशी बिल्ली से शादी जरूरी है. हम मूढमति ही उस की चालाकियां समझ नही पाए. बस गाहे-बगाहे आने वाले उस के फ़ोनों पर ही तुम निहाल होती रही."

पर गलतियाँ तो हम ने भी की हैं न नीरज !

क्या सिर फोड़ दिया हम ने उन का. उन के लिए अपना घर, देश, माँ बाप, सगे- सम्बन्धी छोड़ के आये.

पर तुम्हे याद है नीरज, हम जब पहले पहले आये तो यहाँ की जिन्दगी का हिस्सा बनने के चक्कर में हर वीकेंड में इन्हें घर अकेले छोड़ कर चले जाते थे क्यों कि पार्टियों मैं बच्चों को ले जाना मना होता था. हम उस भेड़-संस्कृति का हिस्सा बनना चाहते थे. और तुम भी यहाँ के रीति - रिवाजों की दुहाई देते थे.

मुझ पर दोष लगा रही हो.

दोष तुम्हारा या मेरा नही उस समय की मांग का है जो हम ने पूरी की. हालाकि तुम जानते हो कि मेरा मन अंदर ही अंदर रोता था और मैं कई बार तुम्हे पार्टी से जल्दी खींच कर घर ले आती थी.

यहाँ आये तो इस जिन्दगी का हिस्सा तो बनना ही था.

हमारे घर आने तक बच्चे टी. वी देख कर सो जाते थे.

धीरे धीरे बच्चों ने अपने उस अकेलेपन में -अपने आप को तलाश लिया था. आज वही तलाश अपना मूर्त - रूप धारण कर रही है जो सचमुच खलता है. पर तब हम पार्टिओं मै शतरंज, ताश, खाना पीना, चुहल -बाजियों मै व्यस्त होते थे, कही उनेह भी इस का कुछ अंदाज तो रहा ही होगा नीरज.

बाद मै जब हम ने धीरे धीरे पार्टियों में जाना कम किया तब शायद समय निकल चुका था. उन्होंने अपने खालीपन को भरने के लाघव ढूढ़ लिए थे. टी. वी.पर न जाने क्या -क्या देखना, देर तक जागना और कमरा बंद कर के न जाने किस -किस के साथ बतियाना. इस सब से धीरे -धीरे उन की एक अलग दुनिया बनती गई.

पर तुम माँ थी -तुम रोक सकती थी यह सब !

हाँ ! यह आक्षेप बड़ा सरल है अपने आप को बरी कर लेने का.

आज वह अपने आप में न जाने किन किन ख्लावों में खल रही थी. वही बच्चे हैं जिन के लिए आसमान में उठे हाथ, दुआएं और स्लामतियाँ मांगते थकते नही हे आज उन्ही की ख़ुशी पर आंसू निकल रहे है.वह अपने आप से ही रोज पूछती है क्या दो संस्कृतियों के अन्तराल में यह जरूरी है कि मां-बाप को आंख की किरकिरी समझ कर मसकते रहो जब तक वह आंख से निकल न जाए. जबरन उस ने अपने आंसू कोटरों मै वापिस खींच किये - कैसी माँ हूँ.. और हाथ फिर से ऊपर ईश्वर की तरफ उठा दिये. रक्षा करना.

हम कार्ड की पंक्तियों के बीच न हुए तो क्या हुआ. दुनिया में करोड़ो लोग हैं, सभी के माँ -बाप क्या माथे की बिंदिया बन कर माथे पर सजे रहते हैं ! हमे मान लेना चाहिए कि हम स्वयम ही उन्हें नया भबिष्य देने यहाँ आये थे.

पर क्या यही कारण था यहाँ आने का? उन को नया भविष्य देने के लिए... कहीं इस की सच्चाई भी आज उसे अंदर कुरेद रही थी.

क्या हमारी अपनी इच्छाएं या आकाक्षाये नही थी इस महादेश का हिस्सा बनने की ! जरा सी कोई अदना सी बाहर की चीज ला देता (लिपस्टिक, टूथब्रश, सैंट या कुछ और) तो सालों हम उसे सात परदों में छिपाए सम्भाले रहते और अमरीका के गुण गाते रहते.. यह कही हमारी अपनी भी सतरंगी तितलियाँ थी, जिनेह पकड़ने हम अँधा -धुंध दौड़े थे. यो कहो कि बच्चे -हमारी उन आकाशी- आकान्क्षायों की चपेट मैं आ गये. कई बार तो बडका कह देता था -माँ वहाँ हमारे पास क्या नही था जो हम यहाँ पाने आये हैं.

नीरज के पास अपनी आहट की उपस्थिति को दुबारा जताने के लिए उस ने कार्ड को जोर से चूम लिया. ख़ुशी की छनछनाहट को उस सन्नाटे में घोलने के लिए. नीरज ने आँखों से कुहनी हटा कर देखा और मुस्का दिया....