देश के हित में / सुशील यादव

Gadya Kosh से
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‘कल्लू कबाड़ी‘ को मै तब से जानता था जब वो रद्दी तौल कर घर-घर से पुराने अखबार ले जाया करता था। उसकी डंडी चढा कर तौलने से वाकिफ होने पर, श्रीमती जी से उसकी झिक-झिक होते रहती थी। दूसरो को उसका ये ट्रिक शायद पकड़ में न आई हो, वो बातो में लोगो को उलझाए रखता था।

कल्लू कबाड़ी की दूकान, नजूल की जमीन पर खुले में थी, बस एक कोने पर छोटा सा आफिस था। कबाड़ी कुछ भी लेने को तैयार रहता । उसका धंधा जब चल निकला, वो सरकारी दफ्तर के ‘आक्सन’—‘टेंडर’ की तरफ गिद्ध नजर रखने लगा । कलर्क –बाबू से लेकर अफसर तक उसको जानते। वहां उसका नया धंधा भी खुल गया, ट्रान्सफर, पोस्टिंग, प्रमोशन और दीगर आफिस के लेंन –देंन में वो कमीशन-बाजी करने लगा। उसके मार्फत क्या नहीं हो सकता था, ये लोग बता नहीं पाते। कल्लू का हुलिया बदल गया। पान की गिलौरी से भरा मुह। खुले तो एकदम लाल। बोले तो गुलकंद और सुगन्धित तम्बाखू की खुशबू छूटे।

कल्लू को हमेशा काम का भूखा पाया। ‘काम’ यानी हर नए काम सीखने की ललक उसमे रहती। वो कुल जमा आठ पास, मगर अपने मतलब की अंग्रजी बोल –समझ लेता। अच्छे – अच्छों को वो झांसो में डाल देता। वो अपने मतलब की पूरी जानकारी लिए बगैर टरता ही नहीं था। उसका ‘सूचना –तंत्र ‘ एक सूत्री ध्येय पर ख़त्म होता, केवल उसके फायदे की बात ।

वो मुझसे दुआ –सलाम से कुछ ज्यादा बतिया लेता। मुझे कालेज स्टुडेंट के लिए ‘प्रोजेक्ट’ बनाने का रा –मटेरियल वही से मिल जाया करता , या कभी वहीं के, कबाड़ को देखकर कोई नया आइडिया सूझता, इस लिहाज से कल्लू, मेरे काम का आदमी था। वो उम्मीद से भारी-कम कीमत पर मुझे सामान थमा देता। कभी –कभी कुछ फ्री भी, तब दे देता, जब उसे उसकी बातो का जवाब मन-माफिक मिल जाए।

एक दिन बातो –बातो में पूछ बैठा, यादव् जी, आपकी नजर में कौन सी पार्टी अच्छी है? ये अन्ना –वालो का कैसा फ्यूचर है? वो मुझसे लम्बे बहस की उम्मीद किए बैठा था। मैंने टालने की गरज वाले लहजे में कह दिया, पार्टी सभी अच्छी होती हैं। अन्ना का नजरिया भी जोरदार है। पब्लिक जोर देगी।

कल्लू अपने प्रश्न पर संजीदा था। उसके चेहरे पर अटल (बिहारी) सा कुछ दिखा। मैंने पूछा, कल्लू भाई ये सब क्यों पूछ रहे हो? उसने बताया, वो कुछ देनो से सभी परिचितों से यही सवाल कर रहा है। कहाँ जाना चाहिए?

मैंने कहा मतलब?

उसने कहा, वो पालिटिक्स में जाने की सोच रहा है। कुछ लोकल पार्टी का बुलावा आ रहा है, मगर उसे वहाँ जाने में फायदा नजर नहीं आता। मेरे दिमाग में कल्लू के इलेक्शन जीत कर, ‘फलने –फूलने’ वाले दृश्य एक बारगी तैर गए। ‘डंडी –मार’ कल्लू का नेता-नुमा घनघोर स्वागत? मुझसे रहा नही गया। मैंने उसे हतोत्साहित करने की नीयत से कहने लगा, देखो कल्लू, पार्टी में जाने का मतलब है, जनता की सेवा करना, उनके दुःख-दर्द, सड़क –नाली, राशन –पानी का इन्तेजाम देखना। रात -बिरात जब बुलाये, हाजिरी देना? कोर्ट –कचहरी, अस्पताल में उनका साथ देना, कर सकोगे ये सब कुछ.....?

वो अपने निर्णय पर अडिग दिखा।

कुछ भी हो इस बार इलेक्शन लड़ना है, वाली मुद्रा में कल्लू, टेबल पर रखे गिलास का पानी गटक गया ।

मै फिर अपने अभियान में जुट गया, देखो कल्लू, इलेक्शन लड़ना इतना आसान नहीं है। बहुत खर्चा होता है। प्रचार के लिए आदमी –गाडी का इन्तिजाम वगैरा ....... कहाँ से कर पाओगे? तुम्हे भाषण देना भी कहाँ आता है .....?

उसने कहा, वो सब छोडो..... – हमने बहुत से नेता देखे हैं। आप ही आप सब हो जाता है बस .....|

उसे उस दिन उसके अभियान से वापस लौटाते नहीं बना, सो मै लौट आया।

कल्लू अपने अभियान में लगा रहा, अपनी पतंग उचे में उड़ते देखना चाहता था| । लोगों से बेबाक मिलता रहा। पक्ष-विपक्ष, छोटी-बड़ी, नई-पुरानी तमाम पार्टयों को खंगाल आया। बात शायद बनी नहीं ......।

मेरे पास एक दिन असहाय सा आया। कहने लगा, देखा, स्सालो ने पार्टी टिकट अपने भाई –भतीजो, जीजा –सालियों, बीबी-बब्चो के लिए फिक्स कर लिया है?कोई हाथ धरने ही नहीं देता। चुनाव भी नजदीक आ रहा है। तुम लेखक –प्रोफेसर हो, कोई मुद्दा बताओ, कुछ लिख के दो? मै कल्लू को कभी सीरयसली नही लेता। उससे दो –चार बाते कह सुन के, ‘टाइम-पास ‘ मनोरंजन हो गया, समझ लेता हूँ। मैंने यू ही कह दिया, मुद्दे ......?

मुद्दे तो तुम्हारे पास चारो तरफ फैले हैं? तुम उठाओ । देखो, जांचो, परखो, लोगों को बताओ।

कल्लू ने कबाड़ी –वाली निगाह से चारो तरफ मुआइना किया –पूछा कहाँ है ...’मुद्दे ‘? यहाँ तो कुछ दिखता नही, सब नया का नया है, इसमें कबाड़ कुछ भी नहीं?

मैंने कहा, मुद्दे, जल में है, नल में है। पानी ज्यादा गिर जाए तो बाढ़ का मुद्दा, कम गिरे तो सूखा। नल में पानी की धार कम आवे तो मुद्दा, न आवे तो बड़ा मुद्दा। तुम यू भी कह सकते हो, पूरा शहर ‘कबाड़’ की तरह हो गया है। लोग अपना सामान यू ही फेक देते हैं । अगर शहर को स्वच्छ दिखाना है तो माल कबाड़ी को दें ....। कुछ समझे? जैसी सूरत बना कर कल्लू की तरफ देखा, उसने नजरे नीची कर ली। मैंने कहा, कल्लू तुम अखबार खरीदते भर हो, पढ़ते नहीं । देखो, विपक्ष क्या –क्या मुद्दे पर मुद्दे लिए आता है। शहर कोतवाल की तरह, हर रेप, उठाईगिरी, किडनेपिंग की, उसे तत्काल जानकारी मिल जाती है। हर दलाली पर नजरें चौकन्नी रहती है। बात हो या ना हो हंगामा जरूरी है। तुम्हे हंगामे का मतलब भी जानना होगा। हर हंगामा पार्टी रेटिंग –सेंसेक्स में सुधार लाता है। टी वी चेनल्स की, टी आर पी, बढा देता है। वो ‘स्विस-बैंक’ गेट पर अपने गार्ड तैनात किए रहता है। क्लोज सर्किट कैमरे की आँख, अपने दिमाग में फिट किए रहता है। जनता ब्रेकिंग न्यूज मागती है। वो देता है। जो अच्छा न्यूज ब्रेक करे, उसकी नेता-गिरी चल निकलती है।

तुम कर सकोगे?

सब फिजूल है, चार पैसे गंवाने का शौक है तो और बात। अपना धंधा सम्हालो। अच्छा चला रहे हो। कोई पीछे पड़ गया तो समझो, छापे पर छापे, फिर मत कहना, चेताया नहीं।

अगर अभी भी अपनी बात पर कायम हो, तो कम से कम इलेक्शन लड़ने से पहले अपने कबाड़ पे एक नजर डाल लेना। कही एक्सपायरी डेट के बम -बारूद, असलहे न निकल जाए।

कल्लू मायूस सा लौट गया।

मुझे लगा कि एक ‘डंडी-मार’ कबाड़ी के हाथ में शहर की व्यवस्था को जाने से बचा कर मैंने देश का फिलहाल, कुछ तो भला किया।