देहदान / डॉ. रंजना जायसवाल

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बचपन में जब खुद को ढूँढना होता तो आस्था बारिश में भीग लेती। पानी की बूंदे सिर्फ तन को ही नहीं मन को भी अंदर तक धूल देती और वह अपने अंदर एक नई आस्था को पाती। आस्था...आस्था यही नाम तो रखा था बाबा ने उसका...क्योंकि उन्हें विश्वास था कि कुछ भी हो जाये आस्था कभी कमजोर नहीं पड़ सकती, कभी टूट नहीं सकती पर न जाने क्यों आस्था इन बीते दिनों में टूट रही थी और अंदर ही अंदर बिखर रही थी। शादी के बाद उसने भीगना भी छोड़ दिया था, पानी की बूंदें उसे हर बार उसे अपनी ओर खींचने की कोशिश करती पर मान-मर्यादा की बेड़ी उसे हमेशा रोक लेती।

"बहू-बेटियों को ये सब शोभा नहीं देता, पानी से कपड़े तन से कैसे चिपक जाते हैं...अच्छा लगता है क्या ये सब। कोई देखेगा तो क्या सोचेगा।"

कल रात की आंधी ने घर में झंझावात ला दिया थाऔर वह झाड़ू लेकर घर को समेटने में लगी हुई थी। कल रात से ही आस्था का मन शिवम की बात सुनकर बहुत खिन्न था।

"जानती हो आस्था! आज गुड्डू का फोन आया था, चाचा जी का अब-तब लगा हुआ है। भगवान जाने कब बुलावा आया जाए। गुड्डू ने एक बड़ी विचित्र बात बताई। चाचा जी की इच्छा है उनके मरने के बाद उनकी आँखें किसी जरूरतमंद को दान कर दी जाये और उनकी मृत देह को मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थियों को शोध के लिए दे दी जाये..."

उस अंधेरे कमरे में भी न जाने क्यों आस्था को ऐसा लगा मानो शिवम का चेहरे गर्व से भर गया हो। आस्था कितनी देर तक सो नहीं पाई थी, जीवन में बीबी की मृत्यु, जवान बेटी को विधवा, बच्चों का बंटवारा ...सब कुछ तो देख लिया था उन्होंने, अब कौन-सी दुनिया देखनी बाकी थी। दो महीने पहले ही तो मिलकर आई थी उनसे...आस्था को कमरें में अकेला पाकर कितना फूट-फूट कर रोये थे वो..."आस्था मुझे इन बच्चों से एक फूटी कौड़ी भी नहीं चाहिए पर कम से कम ये जमीन-जायदाद के लिए तो न लड़े। मैं तो इनसे अपनी मिट्टी में आग भी नहीं लगवाऊंगा। क्या चाचा जी ने इसीलिए...?"

पूरी रात उसकी आँखों में ही बीत गई। झंझावात से झड़े अशोक के पत्ते न जाने किस शोक में डूबे हुए आस्था के घर के दरवाजे पर न जाने कौन-सी आशा के साथ इस तूफान से अपने आप को बचा लेने पनाह लेने की तलाश में दरवाजे के मुहाने पर आकर इकट्ठा हो गए थे। वह हरे-पीले से पत्ते उसे बड़ी आशा से देख रहे थे, वो सोच रही थी कि उन्हें अंदर कैसे बुलाऊँ और उन्हें कैसे बताऊँ कि बाहर का तूफ़ान अंदर के तूफान से कही कमतर ही है। हर साल बेटे की चाहत में उन मासूम बच्चियों की निर्ममता से हत्या करवा देने वाले शिवम तब भी उतने ही गौरवान्वित महसूस करेंगे जैसे चाचा जी के देहदान करने से हो रहे थे। क्योंकि दान तो वह भी कर ही रही थी अपनी ममता का, अपनी आत्मा का, अपनी संतान का ...देहदान।