दोहरी मानसिकता / दीपक मशाल

Gadya Kosh से
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बिलियर्ड्स की लाल गेंद की माफिक आफताब भी अस्ताचल में अपने होल में समाया जा रहा था।बड़ी देर से उस डूबते सुर्ख लाल गोले को देखे जा रहा था धनञ्जय- “क्या बिलकुल ठीक इसी तरह अपनी अवाम की सच्चाई, ईमानदारी और शराफत जैसी अच्छाइयां भ्रष्टाचार, झूठ और घोटालों के अस्ताचल में नहीं समाई जा रही हैं?”

शायद इतने अधिक गंभीर दिखने की कोशिश करते हुए धनञ्जय यही सब शब्द चित्र अपने जिहन में उकेर रहा था। मगर एक बड़े गज़ब का या कहें कि शोध का विषय था कि उसके माथे पर औरों की तरह भाव नज़र नहीं आते थे और ना ही गंभीर मुद्रा में भी दार्शनिकों का सा प्रतिरूप झलकता था उसमें, बस मासूम सा चेहरा चिरस्थायी रहता था फिर भी वह लगातार चिंतन के महासागर में गोते लगाते हुए रिक्शे पर बैठा अपने गंतव्य की ओर हिचकोले खाता हुआ बढ़ता जा रहा था।

रास्ते में पड़ने वाले उतार-चढ़ावों को देख ख्याल आता कि- “कब तक ये उतार-चढ़ाव की राजनीति के अवरोध देश की प्रगति में बाधक बनते रहेंगे और कब चिकनी सड़क पर दौड़ते वाहन की भांति अपना वतन प्रगति की ओर भागेगा? मगर क्या भाग पायेगा इन ज़हरीले नागों को आस्तीनों में भरकर? कितनी ही संस्थाएं हैं उसके नगर में जो समाजसेवा के नाम पर ठगी का धंधा चलाती हैं। बाबू से लेकर चपरासी तक की वर्दी रिश्वत के रंग में रंगी है। पौरुष, लिप्सारहित और साहसी का ढोंग रचने वाले पुलिस वाले भीतर ही भीतर इसे खोखला किये जा रहे हैं।

बाहर सीमा के रक्षकों से जो कुछ उम्मीदें थीं वो भी रक्षा सौदे की दलाली में फंसे ब्रिगेडियरों और कर्नलों ने तोड़ दीं। अरे सिर्फ वे ही क्यों देशभक्ति और ईमानदारी का राग अलापें, जबकि हर तरफ बेईमानी का विष फैला है और जब सफेदपोशों को अपनी सफेदी में दाग का डर नहीं तो खाकी रंग में कोई दाग दिखता कहाँ है।”

“ई लीजिये बाबू जी! आ गवा तोहार पंजाबी मारकिट।”

उस काले कलूटे कृषकाय रिक्शेवाले की हांफती और कंपकंपाती आवाज़ ने धनञ्जय के चिंतन में खलल डाला। रिक्शे से नीचे पैर रखते ही पहले जेब में अपना पर्स टटोला और फिर शर्ट की जेब से ३ रुपये के सिक्के निकाल कर रिक्शे वाले के हाथ में रख चुपचाप आगे चलने लगा।

“ई का साहिब इतना दूर का तीने रुपईया दोगे मालिक!”

ये बात धनञ्जय को नागवार गुजरी या उसे अपनी तौहीन लगी, तभी तो चिल्ला उठा उस गरीब पे-

“अबे तो क्या तीन किलोमीटर के लिए किसी का घर लेगा क्या? तुम लोग स्साले इसीलिए नहीं पनप सकते कि ईमानदारी का तो मतलब ही नहीं जानते, साले सब के सब हराम की रोटी तोड़ना चाहते हो।”

शायद उमस और फूलती सांस ने शहर में नए आये उस रिक्शेवाले में बोलने तक की सामर्थ्य नहीं छोड़ी या तो फिर वो धनञ्जय के तर्कों से संतुष्ट था इसीलिए रिक्शा एक किनारे कर सुस्ताने लगा।

७ रुपये बचाकर अपनी बुद्धि को मन ही मन सराहता हुआ धनञ्जय डिस्को सेंटर की तरफ बढ़ गया।। लेकिन ना जाने क्यों अब ज़माने भर के हजारों ज़हरीले साँपों का ज़हर उसके भी चेहरे की नशों में साफ़-साफ़ देखा जा सकता था।