दो एकांत / पंकज सुबीर

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(पता नहीं कि ऐसा होगा अथवा नहीं। होगा, तो कब होगा। लेकिन कई बार ऐसा स्वप्न आता है कि सचमुच ऐसा हो गया है। चूँकि उन सब में स्वयं को भी पाता हूँ, इसलिये कह नहीं सकता कि ये काफ़ी समय बाद होगा। इसीलिये जब इसे लिखने का मन में आया तो ऐसा लगा कि ये आज ही हो रहा है। सो लिखते समय वर्तमान को ही कालखण्ड मान लिया है। सारे पात्र आज के ही हैं। आज मतलब, आज। कहीं ये नहीं कहने की कोशिश की है कि ये 2050 में होगा, या उसके बाद के किसी समय में होगा। बस ऐसा लगा कि ये हो गया है और जब लगा कि ऐसा हो गया है तो बस कहानी का होना तय हो गया। ये अंत से पहले का अंत है। वह अंत जो, आखिरी अंत से भी ज़्यादा भयावह होगा।)

'जब मैं कह चुका हूँ कि मुझे ये सब पसंद नहीं है तो क्यों मुझे परेशान करते हो।' ये वाक्य कहने वाला एक पच्चीस-छब्बीस साल का युवक है और सुनने वाला एक पैंसठ-सत्तर साल का बूढ़ा। दोनों के बीच दादा और पोते का रिश्ता है। बीच के रिश्ते कुछ नहीं हैं। अर्थात युवक के माँ-बाप, भाई-बहन कोई नहीं हैं। घर में केवल ये दोनों ही रहते हैं। दरअसल में ये उस समय की बात है जब वह घट चुका है जिसको लेकर काफ़ी समय से सम्भावनाएँ व्यक्त की जा रहीं थीं।

युवक के कहने पर बूढ़ा अपने ही तरीके से निर्लिप्त भाव से शून्य में उसी प्रकार से ताकता रहा। उसकी पीली और मिचमिची आँखों के किनारे पर समय का कीचड़ फँसा हुआ है। ' तो फिर क्या करोगे उसके अलावा कोई और चारा भी है बूढ़ा बुदबुदाया। दोनों इस समय एक लगभग क़स्बे जैसे छोटे से शहर में रहते हैं।

' मत होने दो कोई चारा, क्या ज़ुरूरी है वह सब उसके बिना क्या ज़िंदगी नहीं चलेगी क्या आप लोगों के समय वह सब होता होगा इतना ज़ुरूरी, आज नहीं है और फिर बात तो मेरी है, अब मुझे वह सब कुछ चाहिए या नहीं, ये तय भी तो मैं ही करूँगा। आप इसको मुझ पर हो क्यों नहीं छोड़ देते युवक की आवाज़ में झुँझलाहट भरी हुई थी। वह जल्द से जल्द अपनी थाली में रखा खाना ख़त्म करने के मूड में दिखाई दे रहा था। दोनों दादा-पोते बरसों से इसी प्रकार अकेले रहते हैं। लड़के के पिता भी जब नहीं रहे तो उसके दादा, गाँव की ज़मीन को अधबटिया पर उठा कर शहर चले आये। तब से दोनों श्रापित-सा जीवन काट रहे हैं यहीं इसी मकान में।

'ठीक है अब जो तुम्हें सुहाये वह करो। तुम्हारी ज़िंदगी है तुम जानो।' बूढ़े ने मामले को इमोशनल टच देने का प्रयास करते हुए कहा। हालाँकि उसको भी पता है कि मामले को इमोशनल टच देने जैसा कुछ इसलिये नहीं है कि इमोशन अब हैं कहाँ क्योंकि इमोशन से जुड़ी हुई मुख्य शैः तो समाप्त हो चुकी है, या शायद समाप्त होने वाली है और ये जो समाप्त होना है ये रातों रात नहीं हुआ है बल्कि कई बरसों से धीरे-धीरे करके किया गया है। जब ये किया जा रहा था तब किसी ने भी नहीं सोचा था कि सारा ही समाप्त हो जायेगा। हर कोई तो ये सोच रहा था कि मैं तो केवल अपने हिस्से का ही समाप्त कर रहा हूँ, लेकिन ज़ुरूरत पड़ने पर दूसरों के पास तो ये उपलब्ध होगा ही। यही सबने सोचा और पता तब चला जब ये शैः पूरी तरह से ही ख़त्म होने पर आ गई।

'अगर आपको लगता है कि ज़िंदगी मेरी है तो उसे मेरी तरह से जीने क्यों नहीं देते क्यों मुझे बार-बार उस तरफ़ धकेल रहे हो। ये जानते हुए भी कि मेरे जैसे कई लोग अब उसके बिना जीने की आदत डाल रहे हैं। बल्कि आदत डाल चुके हैं। ऐसे में क्यों मुझे बार-बार उसकी याद दिलाते हो।' युवक अभी भी झुँझला कर ही उत्तर दे रहा था।

'क्या आदत डाल रहे हो तुम अपने में, अपने से ही लिपट कर जीने की ना मुझे सब पता है, बताने की कोशिश मत करो।' बूढ़े ने एक बार फिर से कोशिश की।

'तो ये अपने लिये हमने तय किया था ये तो आपने तय किया है हमारे लिये। आप ने और आपके बाप दादाओं ने ही दिया है विरासत में।' युवक अब ग़ुस्से में आकर बोल रहा था। कई सालों से यूँ ही ज़िंदगी बिता रहे हैं ये दोनों। यूँ ही का मतलब, इसी प्रकार एकाकी। युवक और बूढ़ा बस दो ही प्राणी। हैरत होती है ना कि ऐसा कैसे हो सकता है। बस दो ही लोग हैं और कहीं कोई नहीं है। एकाकी होेने के कारण बड़ी ही नियमबद्ध-सी ज़िंदगी जी रहे हैं दोनों। रोज़ सुब्ह बूढ़ा पाँच-पाँच टोस्ट अपने और युवक के लिये प्लेट में डाल कर रख देता है। युवक ने घर के ही सामने के हिस्से में अपना ख़ुद का कुछ छोटा मोटा काम करता है। टोस्ट खाके वह अपने काम पर चला जाता है और इधर बूढ़ा अकेला रह जाता है। नहा धोकर वह तीन लोगों के लायक खिचड़ी कुकर में चढ़ा देता है। तीन लोगों की इसलिये कि दोपहर में तो दोनों खाना खाते हैं लेकिन रात को बूढ़ा खाना नहीं खाता है। रात को तीसरे आदमी की बची हुई खिचड़ी युवक खा लेता है। केवल कुकर ही ऐसा बर्तन है जो रात को बूढ़ा धोता है। बाक़ी सारे बर्तन डिस्पोज़ेबल रखे हैं, चम्मच से लेकर प्लेट तक। पानी के लिये दोनों की अपनी-अपनी प्लास्टिक की बोटलें हैं। सुब्ह बूढ़ा दोनों में पानी भर देता है और फिर एक बार दोपहर के खाने के बाद। इन्हीं बोतलों से दोनों दिन भर पानी पीते रहते हैं, ग्लास की ज़रूरत ही नहीं होती। रात को बूढ़ा दिन भर के सारे डिस्पोज़ेबल उठा कर बाहर फैंक आता है। अब अगला दिन फिर वही टोस्ट और वही खिचड़ी। इन सबका एक नियम-सा बना हुआ। ऐसा नियम जिसे कभी टूटते हुए नहीं देखा गया। दोनों प्राणियों ने पिछले कई सालों से टोस्ट और खिचड़ी के अलावा कुछ और खाया हो, ऐसा कभी नहीं हुआ। रसोईघर में केवल तीन कनस्तर हैं दाल का, चावल का और टोस्ट का। इसके अलावा एक छोटा-सा डब्बा है नमक का। नमक का डब्बा बहुत धीरे-धीरे ख़ाली होता है। धीरे-धीरे इसलिये कि बूढ़ा कम नमक खाता है और इसी कारण खिचड़ी में भी नाम के लिये नमक डालता है, युवक को इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि खाई जा रही चीज़ का स्वाद कैसा है।

'ये तो बरसों से किये जा रहे कर्मों का नतीज़ा था, इसमें हमने क्या किया और हमारे बापों ने क्या किया इसकी बहस करने से कोई मतलब नहीं है। जो होना था हो चुका। अब तो ये सोचना है कि आगे क्या होगा। बार-बार एक ही बात का रोना रोने से कुछ नहीं होने वाला। हमारी पीढ़ी ने बंदूकें और तोपें लेकर ख़त्म नहीं किया है, जाने कितने बरसों से धीरे-धीरे होता रहा और आख़िर में ये हो गया।' बूढ़ा अब मानो घिघिया रहा है। ये उसकी आदत है। उसके मन में एक डर है युवक को लेकर। मगर युवक तो मानो सब चीज़ों से बिल्कुल ही निस्पृह हो चुका है। जीवन को लेकर उसके अंदर कहीं कुछ नहीं है। कुछ भी नहीं। एक नियमबद्धता-सी है, बस। जैसे ये कि युवक सप्ताह भर में दो जोड़ी कपड़े पहनता है, एक जोड़ी को सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को पहनता है तो दूसरे को मंगलवार, गुरूवार और शनिवार को। बूढ़ा दिन भर घर में रहता है सो पायजामे पर बनियान पहने रहता है। घर से बाहर कहीं जाता नहीं है और उससे मिलने कोई आता नहीं है सो बनियान पर कुरता पहनने की कभी ज़ुरूरत नहीं पड़ती। हाँ सर्दियों में एक शॉल ओढ़ लेता है ऊपर से। उसके पास दो कुरते भी हैं, जो उसने बरसों से नहीं पहने हैं। रविवार को बूढ़ा अपने और युवक के कपड़े धो डालता है। पैसों की कोई तंगी नहीं है दोनों के पास। गाँव से ठीक ठाक पैसा आ जाता है खेतों की बटाई का। इतना कि अगर दोनों कुछ न करें और बैठ कर भी खाएँ तो खा सकते हैं। युवक इसीलिये वास्तव में कुछ काम धाम करता नहीं है। वह जो घर के ही सामने के हिस्से में अपना व्यवसाय है, वह व्यवसाय भी नाम का ही है। वहाँ बैठ कर दिन को काटता है बस।

ये रात के खाने का समय है। रात का खाना, जो अकेला युवक ही खाता है। उस दौरान बूढ़ा वहीं पास बैठा कुकर को माँज कर साफ़ करता रहता है। इसी दौरान दोनों में बातें होती हैं। आज भी वही हो रहा है युवक अपने हिस्से की, सुब्ह की तीसरे आदमी की खिचड़ी को ख़त्म करने में जुटा है। बूढ़े की बातें उसे थका देती हैं। उन बातों का हर सिरा एक ही खूँटी से बंधा रहता है।

' गाँव कब जाओगे युवक ने बातों को दूसरी ओर मोड़ने के लिये कहा।

'अभी कुछ सोचा नहीं है। सोमवार को चला जाऊँ तुम्हारा खाना बना कर एक दिन की ही दिक़्क़्त होगी तुमको, मंगल की रात तक या बुध की सुब्ह आ जाऊँगा वापस। वैसे तो वहाँ न भी जाओ तो बाटीदार आ ही जाता है पैसे लेकर, मगर अपने सामने कराओ तो अच्छा लगता है। लगता है कि हाँ अपन अभी भी मालिक हैं। बाद में तो सब।' बूढ़े की आँखें पनिया गईं। नमकीन-सा लावा कोरों से फूट पड़ा। युवक को अपने अंदर भी कुछ पिघलता हुआ-सा लगा। बूढ़ा अक्सर रात की बात के समापन पर कुछ न कुछ ऐसा मोड़ ले आता है जहाँ दोनों पिघल जाते हैं। युवक जो अंदर से पूरी तरह से सूख चुका है, वह भी रात के इस पल में जाने कैसे द्रवित-सा होने लगता है। कहते हैं कि रात का अंतिम सिरा, जीवन के अंतिम सिरे के समान होता है। अंतिम सिरा जहाँ इस प्रकार होता ही है।

बूढ़ा सिर झुकाए कुकर के पैंदे को रगड़ रहा है। बीच-बीच में नाक को सुड़कने की ध्वनि कर रहा है। जिससे पता चल रहा है कि वह अब बाक़ायदा रो रहा है। युवक प्लास्टिक की डिस्पोज़ेबल चम्मच से थर्मोकोल की प्लेट में बची हुई खिचड़ी को धीरे धीेरे समेट रहा है। रात ठीक यहीं पर आकर रोज़ बोझिल हो जाती है। दिन भर तो युवक आने जाने वालों के बीच में रहता है, मिलता जुलता रहता है, इसलिये कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता लेकिन रात को। कुकर को पानी से धोकर बूढ़ा उसे अंदर रखने चला गया। अंदर से खटर पटर की आवाज़ आ रही है। युवक कई बार हैरत में पड़ता है कि जब रसोई में केवल तीन कनस्तर, एक डब्बा और एक कुकर ही है, तो फिर ये अंदर से इतनी देर तक खटर पटर की आवाज़ें कैसे आती हैं। क्या करता है ये बूढ़ा अंदर जाकर

'कल चूहे मार दवा रखनी पड़ेगी अंदर, दो तीन चूहे हैं अंदर।' बूढ़ा बुदबुदाते हुए रसोई से निकला। बूढ़ा इसी प्रकार बात करता है। बुदबुदाते हुए। इस प्रकार मानो किसी अप्रत्यक्ष को सम्बोधित कर रहा हो। ये जैसे मन ही मन कोई मंत्र उच्चारण कर रहा हो। युवक अंदाज़ा लगा लेता है कि ये बात उसी से कही गई है और उसे ही उत्तर देना है।

'चूहे... चूहे कैसे हो गये हैं' युवक ने कुछ हैरत के साथ पूछा।

युवक के सवाल पर बूढ़ा चलता-चलता अचानक ठिठक गया। उसके चेहरे पर कुछ बहुत ही अजीब से भाव आये। युवक ने उन भावों को देखा और बात को बदलते हुए बोला 'मेरा मतलब है चूहे क्यों होंगे भला क्या है जिसके लालच में चूहे आएँगे कोई वहम हुआ होगा, चूहे हो ही नहीं सकते।'

युवक की बात से बूढ़े का चेहरा और बदल गया। एक प्रकार का ख़ौफ़ उसके चेहरे पर तारी हो गया। उसका चेहरा पीला पड़ गया। 'चूहे ही हैं, मैंने देखे हैं, कोई वहम नहीं है।' बुदबुदाता हुआ वह वहाँ से चला गया। युवक चुपचाप चम्मच से प्लेट में इधर उधर बिखरे चावल और दाल के इक्का दुक्का दानों को समेट कर उनका अंतिम कौर बनाने लगा।

जब युवक अपना खाना ख़त्म करके बाहरे के कमरे में आया तो बूढ़ा अपने बिस्तर को ठीक ठाक कर रहा था। युवक कुछ देर तक बूढ़े की तरफ़ देखता रहा फिर बोला 'आज जल्दी सो रहे हो बूढ़े के हाथ कुछ देर के लिये रुके और फिर से चलने लगे। मानो वह इस बात का उत्तर देना ही नहीं चाह रहा हो। कमरे की छत से लटका हुआ पंखा पुराने बेयरिंग की अजीब-सी आवाज़ पैदा कर रहा था।' मैं उठा कर फैंक दूँ आज का कचरा युवक ने बूढ़े की तरफ़ से कोई उत्तर नहीं पाया तो कुछ देर रुक कर दूसरा सवाल किया। बूढ़े ने निर्णायक रूप से तकिये को रख कर उस पर दो बार हाथ ठोंका, भद्द-भद्द की आवाज़ आई। उसके बाद वह पलटा और बिना युवक की तरफ़ देखे अंदर चला गया। युवक ने पलट कर अंदर देखा, बूढ़ा दिन भर के डिस्पोज़ेबल इकट्ठे कर रहा था। ये बूढ़े का अंतिम काम होता है। सारे कचरे को बाहर कूड़ेदान में फैंकना। इस प्रकार से, मानो एक भरे पूरे दिन को रात के कूड़ेदान में फैंक दिया है। एक भरा पूरा दिन जिसमें से चंद डिस्पाज़ेबल्स के अलावा कुछ नहीं निकला, कुछ नहीं मिला और मिलना है भी नहीं। बूढ़ा कचरा बाहर फैंक कर लौट के अपने हाथ पैर धोने लगा। हाथ पैर धोने का मतलब समझता है युवक। हो गया सब कुछ, अब जाओ, सोओ और सोने दो। आज समय से कुछ पहले हाथ पैर धुल रहे हैं। ये भी होता है अक्सर। सप्ताह में एकाध बार समय से पहले हाथ पैर धो लेता है बूढ़ा।

'मैं...' युवक ने बूढ़े की तरफ़ पीठ किये-किये ही कहा, पीछे से बूढ़े की आवाज़ आई 'हूँ...'। इस मैं और हूँ का क्या मतलब है ये दोनों जानते हैं। बूढ़ा युवक के ठीक पीछे खड़ा था लेकिन साइड में रखी हुई टेबल पर पड़े हुए सामान को व्यवस्थित करने में जुटा था। दरवाज़े के पास जाकर वह एक बार ठिठका और बोला 'दरवाज़ा।' पीछे से एक बार फिर से वही आवाज़ आई 'हूँ।' कोई गुप्त कोडिंग है जिसे वह दोनों ही जानते हैं। पीछे के हूँ को सुन कर युवक ने दरवाज़ा खोला और बाहर निकल गया। उसके बाहर जाते ही बूढ़े ने टेबल के सामान का जस का तस छोड़ा और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गया। ये दरवाज़ा घर से बाहर जाने का दरवाज़ा है, इसके अलावा एक दरवाज़ा और भी है जो उस हिस्से को जाता है जहाँ युवक का व्यवसाय है और जहाँ वह रात को सोता भी है। उस हिस्से का भी एक दरवाज़ा है जो बाहर की तरफ़ खुलता है। इस प्रकार से घर के दो दरवाज़े हैं जो बाहर खुलते हैं, एक ये दरवाज़ा जो कि बूढ़े का दरवाज़ा है और दूसरा वह दरवाज़ा जो युवक का दरवाज़ा है। बीच में है तीसरा दरवाज़ा जो दोनों को जोड़े हुए है। युवक केवल एक बार बूढ़े दरवाज़े से बाहर जाता है, रात को। इस दरवाज़े से बाहर निकल कर फिर कुछ देर बाद अपने वाले दरवाज़े से अपने उस सामने वाले हिस्से में आ जाता है। उसी हिस्से में रात गुज़ारता है और सुब्ह, बीच के तीसरे दरवाज़े से घर में लौटता है। बूढ़ा केवल अपने ही हिस्से के दरवाज़े का उपयोग करता है, वह इस तीसरे दरवाज़े का भी उपयोग नहीं करता। कभी युवक के उस हिस्से में नहीं जाता जहाँ युवक का व्यवसाय है और जहाँ वह युवक रात गुज़ारता है।

बूढ़े ने दरवाज़े को लगाया और मुड़कर अपने पलंग पर आकर बैठ गया, उसका पलंग जो उस डबल बेड का आधा हिस्सा है जो कमरे में रखा है। एक बार उसने पलंग के पास रखे स्टूल पर देखा, वहाँ पानी की बोतल, कुछेक दवाइयाँ और उसकी घड़ी रखी है। घड़ी, जो उसने कितने ही दिनों से हाथ में पहनी ही नहीं है। ये घड़ी यहीं इसी तरह से रखी है। केवल एक बार रात को सोते समय वह इसमें समय देखता है और फिर इसे यहीं रख देता है। टेबल से घड़ी को उठाकर उसने समय देखा और फिर उसे वापस रख दिया। एक बार चारों तरफ़ देखा और उठकर कमरे की लाइट बंद कर दी। खप्प से अँधेरा कमरे में पसर गया। गहरे अंधेरे में पहले बूढ़े द्वारा छोड़ी गई गहरी साँस की आवाज़ आई, जिसके साथ उसने कुछ बोला भी था और फिर पलंग के हल्के से चरमराने की आवाज़ आई। बूढ़े के हिस्से का दिन ख़त्म हो चुका था।

दरअसल में ये दोनों जन समय के एक ख़ास हिस्से में हैं। ख़ास हिस्सा, जब कुछ बहुत अनहोनी-सी बात हो चुकी है। इस अनहोनी को लेकर काफ़ी समय से आशंका तो व्यक्त की जा रही थी कि ऐसा हो न जाये लेकिन फिर भी सब मुतमईन थे कि ऐसा नहीं होगा। ऐसा हो भी कैसे सकता है। जो कुछ शंका कुशंका है वह बिल्कुल ही फ़िज़ूल है। मगर उन सब के बाद भी वैसा हो गया। ये दोनों उसी हो जाने के संत्रास को भोग रहे हैं और ये दोनों अकेले नहीं हैं जो इस संत्रास को झेल रहे हैं। दरअसल में तो इनके जैसे कई-कई हैं। बल्कि ये कहा जाये कि इनके जैसे ही हैं अब हर तरफ़ हर जगह। आज की बहस भी उसी संत्रास से तात्कालिक या फौरी निज़ात पाने को लेकर हो रही थी। बूढ़े को तो अब उस सब की कोई ज़ुरूरत नहीं है, लेकिन उसे लगता है कि युवक को तो है। वह तो अभी उम्र के उस दौर में है जहाँ उसे इस सबकी बहुत ज़ुरूरत होती होगी, भले ही वह कह नहीं रहा है और बात को टाल रहा है। बूढ़ा बार-बार उसे वापस सही दिशा में मोड़ने की कोशिश करता है और इसी चक्कर में बहस हो जाती है। जैसा आज हुआ।

सुब्ह हो गयी है। युवक रोज़ की तरह तीसरे दरवाज़े से अंदर आया। युवक कुछ जल्दी उठ जाता है। फिर वहाँ से उठकर आकर यहाँ लेट जाता है, कभी-कभी सो भी जाता है फिर से। युवक के आने के बाद बूढ़ा उठता है और अपना दिन शुरू करता है। युवक ने कमरे में आकर बूढ़े को देखा। पास आकर देखा। ग़ौर से बूढ़े के पेट को देखने लगा, साँस चल भी रही है कि नहीं। कुछ समझ में नहीं आया तो नाक के पास हाथ लाकर देखा, चल रही है साँस। युवक, बूढ़े के पास वाले ख़ाली पलंग पर लेट गया। युवक के दिमाग़ में कल रात का घटनाक्रम घूम रहा है। इससे पहले कि बात कुछ और बिगड़े कुछ न कुछ तो करना ही होगा इसका, एक बार तो खुल कर बात करनी ही होगी।

' तो फिर पिताजी की शादी कैसे हुई थी ये दोपहर के खाने का समय है। जब दोनों आमने सामने होते हैं। बूढ़ा बीच में कुकर रख देता है और दोनों तरफ़ दोनों की डिस्पोज़ेबल प्लेट, पानी की बॉटल, चम्मच वगैरह। जिसको जितना लगता है वह उतना अपनी प्लेट में लेता जाता है। यही तरीक़ा है दोनों के खाना खाने का। इस दौरान बूढ़ा कम चिड़चिड़ा रहता है। युवक को जो भी बातें करनी होती हैं वह इसी समय करता है। बूढ़ा अपने हिस्से की बातें रात को करता है।

'नहीं हुई थी तुम्हारे पिताजी की भी शादी।' बूढ़े की आवाज़ जैसे किसी खाई से आई। बोलते समय उसने अपना मुँह भी ऊपर नहीं किया, उसी तरह नीचे देखता हुआ खिचड़ी को चम्मच में भरता रहा। बूढ़े के उत्तर पर युवक का मुँह की और चम्मच ले जाता हुआ हाथ रुक गया। उसने एक क्षण रुक कर चम्मच को नीचे डाल दिया। बूढ़े ने चम्मच के डिस्पोज़ेबल प्लेट में गिरने की आवाज़ सुनी और सिर नीचे किये हुए ही भवों नीचे से प्लेट की तरफ़ देखा। इतनी सावधानी से कि युवक से नज़रें नहीं मिलें। युवक चाह रहा था कि बूढ़ा सिर उठा कर उसकी तरफ़ देखे। बूढ़ा उसी प्रकार से खिचड़ी में लगा रहा, मानो कोई आम-सी रोज़मर्रा कि ही बात कही हो।

' मगर आपने तो कहा था... और फिर वह फोटो... और वह सारी बातें... युवक ने जब देखा कि बूढ़ा किसी भी प्रकार से उसकी तरफ़ नहीं देख रहा है तो उसने एक के बाद एक कई सारे सवाल दाग दिये। युवक के लिये अब सामने रखी हुई खिचड़ी अपना अस्तित्व खो चुकी थी। बूढ़े द्वारा कही गई एक बात ने उसे दिल और दिमाग़ दोनों को ही झनझना दिया था। बूढ़ा युवक के प्रति लापरवाही जताते हुए अपनी खिचड़ी को ख़त्म करने में लगा हुआ था।

' बोलते क्यों नहीं इतनी बड़ी बात कह के आप चुपचाप खा कैसे सकते हो पहले मेरी बात का जवाब दीजिये। कैसे नहीं हुई थी पिताजी की शादी वह जो फोटो बाहर लटका है वह आपने ही लगाया है, मैंने नहीं। आप कहते थे कि मेरी माँ अनाथ थीं, पिताजी को कहीं मिल गईं थीं सो पिताजी ने शादी कर ली और आज आप कह रहे हैं कि मेरी माँ ही नहीं थी, मेरे पिताजी की शादी ही नहीं हुई थी। क्या तमाशा है ये सब युवक बूढ़े की लापरवाही के चलते कुछ क्रोध में आ गया था। बूढ़ा अभी भी कोई उत्तर देने की मुद्रा में नहीं दिख रहा था। उसी प्रकार से खिचड़ी खा रहा था।

'मैं कुछ बोल रहा हूँ आपसे।' युवक का क्रोध बढ़ता ही जा रहा था।

'तुम भी चुपचाप खा लो। उसके बाद ही बात करेंगे सारी। मैं दिन भर में खाना खाता हूँ, मुझे चैन से खा लेने दो और तुम भी चैन से खा लो। ये सब बातें खाना खाने के बाद भी हो सकती हैं। जो कुछ भी पूछना हो सब पूछ लेना, लेकिन पहले अपनी प्लेट में रखा खाना ख़त्म करो, उसके बाद।' बूढ़े ने लगभग आदेश की तरह कहा और वापस खाने में लग गया। युवक कुछ देर तक उसकी ओर देखता रहा और फिर चुपचाप खाना खाने लगा। बहस तो अक्सर होती है दोनों में और हमेशा खाते समय ही होती है। बूढ़ा हर बार बहस को अपने तरीके से एक ही दिशा में मोड़ने का प्रयास करता है और युवक उस दिशा से भागने का। आज बूढ़ा पहली बार बहस को टाल रहा है। दोनों उसी प्रकार चुपचाप खाना खा रहे हैं। बूढ़ा नीचे मुँह किये कौर पर कौर खा रहा है।

'मैं बाहर बैठा हूँ।' खाना खाकर उठते हुए युवक कहा।

'हूँ।' ये बूढ़े का सबसे अच्छा अस्त्र है। जिसका कोई भी मतलब निकाला जा सकता है।

' कितनी देर में आ रहे हैं आप युवक ने हूँ से भन्नाते हुए कहा।

'कह दिया न कि आज बात दूँगा, जो भी पूछोगे, मगर अभी नहीं बताऊँगा, रात को बताऊँगा। अभी तुम जाओ काम काज देखो, आराम से रात को बातें करेंगे। बात इतनी छोटी नहीं है कि इतनी जल्दी हो जाए। अभी तुम जानते ही क्या हो।' बूढ़े ने पहली बार सिर उठा कर युवक की आँखों में आँखें डाल कर उत्तर दिया और लम्बा उत्तर दिया। बूढ़े की धुँआली आँखों में जाने क्या था कि युवक सिहर गया। बरसों बाद बूढ़े ने युवक से इस प्रकार आँखों में आँखें डाल कर बात की है। अधिकतर होता ये है कि या तो किसी बात पर युवक नज़रें चुरा कर बात करता है या फिर बूढ़ा आँखें बचा रहा होता है। बूढ़े के उत्तर के बाद युवक ने कोई सवाल नहीं किया और चुपचाप चला गया। बूढ़ा भी धीरे से उठा और सामान समेटने लगा।

सामान समेट कर बूढ़ा बाहर के कमरे में आ गया। दोपहर को खाना खाने के बाद हल्की झपकी लेना उसकी आदत में है। आदत में भी है और फिर ये भी कि और कुछ होता भी नहीं है करने को दिन के समय में। पलंग के चादर को ठीक करके बूढ़ा लेट गया। सामने दीवार पर टँगी हुई तस्वीरों को देखने लगा। तस्वीर, जिसमें बूढ़े का बेटा है, युवक की माँ के साथ। दूसरी तस्वीर जिसमें तीनों हैं बूढ़ा, उसका बेटा और पोता, लेकिन पोता बहुत छोटा है, बिल्कुल बच्चा और एक तस्वीर जिसमें केवल बूढ़ा है और युवक है, इसमें युवक किशोर है और अपने दादा के कंधे पर हाथ रख कर खड़ा है। एक तस्वीर अकेले युवक की है। बिल्कुल अकेले युवक की। ये ज़्यादा पुरानी नहीं है। युवक आँखों में सपने लिये खड़ा है, किसी स्टूडियो में खिंचवाई गई है ये फोटो। बहुत पहले शादी लायक लड़के और लड़कियों की इसी प्रकार की फोटो खिंचवाई जाती थीं। बूढ़े की निगाह युवक की एकाकी फोटो पर आकर ठहर गई। फोटो का सूनापन और अकेलापन तस्वीर के किनारों से रिस रहा है। बूढ़ा उस फोटो को देखता रहा। तब तक जब तक उसकी भी आँखों के किनारों से कुछ रिसने नहीं लगा। जब रिसाव बढ़ गया तो बूढ़े ने करवट कर ली। करवट करके वह अपनी स्मृतियों को टटोलने लगा। क्या-क्या हुआ, क्या-क्या हो चुका है। युवक के सवालों के हर उत्तर को तलाशने लगा। हर वह घटना जो कि बतानी है युवक को। जिसके बारे में पूछ सकता है युवक। ये तलाश शुरू होती है उसके अपने जन्म से। उसका अपना जन्म मतलब बूढ़े के जन्म से और फिर उसके बाद युवक के पिता का जन्म, फिर युवक का जन्म। बस वही तो है कहानी, उसके बाद तो कुछ भी नहीं है, कुछ भी नहीं। धीरे-धीरे बूढ़े को दोपहर की झपकी लग गई।

' आपने कहा था कि मेरे पिताजी की शादी नहीं हुई थी, फिर ये कौन है युवक ने तस्वीर की तरफ़ इशारा करते हुए पूछा। रात का खाना चुकने के बाद तीनों कमरे में बैठे हैं। तीनों एक दूसरा युवक भी है। दूसरा युवक भी युवक की ही उम्र का है। दोस्त है उसका, युवक शायद वह सारी बातें अपनी तरफ़ से पूछने के लिये उसे लाया है जिन्हें वह सीधे नहीं पूछ सकता बूढ़े से। बूढ़ा पलंग के दीवार से चिपके हिस्से पर तकिया लगा कर उससे पीठ टिकाये बैठा है। युवक और दूसरा युवक पलंग के दूसरे सिरे पर बैठे हैं आलथी पालथी मार कर। दूसरे युवक का चेहरा आधे उजाले और आधे अंधेरे में है। युवक के सवाल पर बूढ़ा उस आधे उजाले और आधे अंधेरे को देखने लगा। ग़ौर से देखने लगा मानो कुछ तलाश कर रहा हो। इस देखने के क्रम में एक बार दोनों की नज़रें भी मिल गईं और दूसरा युवक एकदम नज़र हटा कर दीवार पर टँगी उस तस्वीर को देखने लगा जिसके बारे में युवक ने कहा था।

'ये तुम्हारी माँ हैं।' बूढ़े की निगाह अभी भी दूसरे युवक पर ही टिकी है। उसने अपना उत्तर भी आहिस्ता से दिया बिना नज़रें हटाए। बूढ़े के उत्तर पर दूसरे युवक ने तस्वीर से नज़र हटा कर बूढ़े की ओर देखा।

'ये अजीब बात है, कभी कहते हैं कि तुम्हारे पिता कि शादी ही नहीं हुई थी और कभी कहते हैं कि ये तुम्हारी माँ हैं।' युवक ने झुँझलाहट के स्वर में कहा।

'क्यों क्या दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं तुम्हारी माँ के साथ तुम्हारे पिता कि शादी हुई ही हो ये ज़रूरी है क्या' बूढ़े ने इस बार युवक की ओर देखते हुए कहा।

'हो सकता है लेकिन फिर ये तस्वीर और आप जो आज तक कहते थे कि मेरी माँ।' युवक ने जान बूझकर बात को आधे में ही छोड़ दिया।

'नहीं रही, यही कहा था मैंने वह झूठ था। सच यही है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। बल्कि मुझे तो ये भी नहीं पता कि वह है कहाँ और मुझे ही क्या किसी को भी नहीं पता कि ये जो तस्वीर में तुम्हारे पिता के साथ बैठी है और जो तुम्हारी माँ है ये कहाँ है।' बूढ़े ने तस्वीर की ओर इशारा करते हुए कहा। इस बार तीनों एक साथ उस तस्वीर की महिला कि तरफ़ देखने लगे।

'तो क्या ये आदमी इसका पिता नहीं है।' दूसरा युवक पहली बार बोला।

'है ना, ये दोनों इसके माँ-बाप ही हैं। लेकिन।' बूढ़ा बोलते-बोलते चुपा गया। मानो कुछ ऐसा हो जिसको बोलने से पहले कुछ हिम्मत जुटा रहा हो। दूसरा युवक, युवक की तरफ़ देखने लगा।

'ये रातों रात नहीं हुआ था। बहुत समय से धीरे-धीरे हो रहा था। बहुत सालों से। धीरे धीरे, आहिस्ता आहिस्ता। कोई नहीं जानता था कि ये जो धीरे-धीरे हो रहा है, ये कभी एकदम यहाँ तक भी पहुँचा देगा। सैंकड़ों बरस लग गये इसको होने में, लेकिन ये होकर रहा।' बूढ़े की बात ख़त्म होने के बाद दोनों युवक कुछ नहीं बोले। कुछ देर तक कमरे में ख़ामोशी छाई रही।

'मेरे पिताजी की जब शादी हुई तो उसके लिये क्या-क्या करना पड़ा था मेरे दादाजी को। उस समय ये सब दिखने लगा था कि अब कुछ समय बाद ये सब होने वाला है। हमारे गाँव और आस पास के पचासों गाँवों में कोई लड़की थी ही नहीं किसी के घर में। सबके घरों में केवल लड़के थे। बस लड़के। मुरझाए हुए, सवालों की तरह घर में घूमते फिरते नज़र आते लड़के। लड़के जो कब आदमियों में बदल जाते थे, पता ही नहीं चलता था। यूँ ही बदल जाते थे, बस। कहीं कुछ भी नहीं था उनके लिये, धीरे धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता सब लड़कियाँ ख़त्म हो गईं थीं। ख़त्म हो गईं थीं या कर दी गईं थीं। वह आबादी जो आधी आबादी कहलाती थी उसे ख़त्म कर दिया गया था। चली गईं थीं सारी लड़कियाँ जाने कहाँ, जाने कौन देस।' बूढ़े की आवाज़ कंपकंपा गई और उसमें उदासी भर गई। दोनों युवकों ने एक दूसरे की तरफ़ देखा। बूढ़ा चुपाचाप अपनी बोतल को खोल कर उसमें से पानी पीने लगा।

'पिताजी बताते थे कि पूरा गाँव उजाड़-सा लगता था। दादाजी को पता लगा कि कहीं किसी गाँव में एक लड़की है। जात पात का तो कुछ पूछना ही नहीं था। लड़की होना ही सबसे बड़ी जात थी। बात इतनी आसान भी नहीं थी, जितनी दादाजी समझ रहे थे। एक लड़की थी और कितने सारे। तब आधी ज़मीन बिकी थी, ये पहली बार था कि परिवार में ज़मीन बिकने की नौबत आई थी। नहीं तो अब तक तो ज़मीन बढ़ती ही आ रही थी। आधी ज़मीन को बेच कर जो पैसा मिला वह और भी पता नहीं कितना सोना चाँदी दिया था लड़की के बाप को। मेरी माँ के पिता को, मेरे नाना को। दादी बताती हैं कि जतन से संभाल कर रखे गये जाने कितने ज़ेवर उस समय खेत के साथ खेत हो गये थे। पिता कि शादी ज़रूरी काम था। नहीं होती तो।' बूढ़ा एक बार फिर से चुपा गया। दोनों युवक बूढ़े की बात ख़त्म होते ही एक बार फिर से एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे।

' मगर सब लड़कियाँ चली कहाँ गईं यूँ अचानक प्रश्न एक बार फिर से दूसरे ही युवक ने पूछा। वह प्रश्न पूछने के बहाने बूढ़े के साथ सहज होने का प्रयास कर रहा है। उसे पता था कि उसको लेकर बूढ़े के मन में एक कड़वाहट है। आज बूढ़े ने उस कड़वाहट का कोई निशान दिखने नहीं दिया है।

'कहीं नहीं गईं, हमने ख़त्म कर दीें, हमने। हमने, हम जो दूसरे हर रूप में स्त्री को पसंद करते थे, लेकिन बेटी के रूप में उसे देखते ही हमें जाने क्या हो जाता था। पहले कई सालों तक तो ये होता रहा कि पैदा होने के बाद उसे ख़त्म किया जाता था। उस समय पैदा होने से पहले ही ख़त्म करना पड़ता था। क्योंकि तब पैदा होने के पहले पता नहीं चलता था कि पैदा होने वाली संतान नर है या मादा। मगर ख़त्म तब भी कर दिया जाता था। कभी पैदा होते ही खाट के पाये से दबा कर, तो कभी किसी औरत के स्तनों पर नीला तूतिया लगा कर उसका दूध पिला कर। बाहर ख़बर आती थी कि मरी हुई लड़की हुई है। समझने वाले समझ जाते थे कि लड़की पैदा होकर मरी है। कोई कुछ नहीं बोलता था, सबको यही करना होता था। एक मादा, एक और मादा को पैदा करती थी और फिर कई सारी मादाएँ मिल कर उसको ख़त्म कर देती थीं। बाहर खाट पर बैठे पुरुष इंतज़ार करते थे, दोनों में से किसी एक ख़बर के आने का। या तो ये ख़बर की बेटा हुआ है बधाई हो, या ये कि लड़की हुई है मरी हुई।' बूढ़े की आवाज़ काँप रही थी। रात गहरा चुकी थी और ऐसे में बूढ़े की आवाज़ एक विचित्र प्रकार का हाँटिंग इफेक्ट पैदा कर रही थी।

'ख़बर सुनते ही वे पुरुष उठ कर खड़े हो जाते थे, नर पैदा होने पर बोतल खोलने की तैयारियाँ करने के लिये और मादा पैदा होने पर उसे दफ़नाने की तैयारियाँ करने के लिये। कमरे में पड़ी वह मादा तब तक माँ नहीं बनती थी जब तक कि वह नर नहीं जनती थी।' बूढ़ा खाँसने लगा। दूसरे युवक ने बोतल खोल कर उसकी तरफ़ बढ़ा दी। युवक इस बीच उठा और उठ कर उसने कमरे का दरवाज़ा लगा दिया। दूसरे युवक के आने के बाद से ही जो खुला हुआ था।

'ये सब बहुत पहले की बातें हैं। बाद में काफ़ी बदलाव आ गया था, अब लड़की को मारने के लिये उसके पैदा होने का इंतज़ार नहीं करना पड़ता था। वह तो तुमको पता ही है। पेट में ही पता लगने लगा था कि जो बन रहा है वह नर है कि मादा। यदि मादा होता था तो माँ के पेट में ही पहले उसे एक संडासी से... और फिर उस लोथड़े को निकाल कर बाहर फैंक दिया जाता था। पेट में इसलिये मार दिया जाता था कि कहीं बाहर ज़िंदा आ गया तो बात तो पहले जैसी ही हो जाएगी न। उसमें फिर विज्ञान और इतनी प्रगति होने का क्या फायदा। हाँ एक बात जो समान थी वह ये थी कि पहले भी उस मादा को पैदा होते ही कुछ मादाएँ ख़त्म करती थीं और बाद में भी जब पेट में ख़त्म करने का काम शुरू हुआ तो वह भी मादाएँ ही करती थीं। नर केवल इशारा करता था, पहले भी और बाद में भी। कई बार नहीं भी करता था, ये निर्णय मादाएँ ही कर लेती थीं।' बूढ़ा थकने लगा है बोलते बोलते। कमरे में एक विचित्र प्रकार का मातम भाँय-भाँय कर रहा है। कुछ देर तक तीनों चुपचाप रहे। फिर युवक उठ कर बीच वाले दरवाज़े से अपने वाले हिस्से में चला गया।

' आप क्यों परेशान करते हैं उसे दूसरे युवक की हिम्मत बढ़ गई थी।

'परेशान कहाँ करता हूँ, मैं तो बस ये कहता हूँ कि एक बार, बस एक बार। अभी मौक़ा है, बाद में शायद वह भी न हो। मैं भी कितने दिन का हूँ अब एक बार तुम उसे समझाओ न।' बूढ़ा दूसरे युवक के प्रति संवेदनशील हो गया था।

'उससे क्या होगा' दूसरे युवक ने सवाल किया। बूढ़ा कुछ उत्तर देता उससे पहले ही युवक ने बीच के दरवाज़े से अंदर प्रवेश किया। उसके हाथ में कुछ सामान था। कुछ बिस्किट, कुछ नमकीन और ऐसा ही सामान। युवक ने जब सामान तीनों के बीच में रखा तो बूढ़ा हैरान हो गया।

' ये सब इतनी रात को

'उधर रखा रहता है, कभी कोई आने जाने वाले के लिये, या कभी ख़ुद को ही ज़रूरत पड़ जाये तो।' युवक ने उत्तर दिया। 'ये मीठा वाला बिस्किट ले लीजिये ये नुक़सान नहीं करेगा।' युवक के कहने पर बूढ़े ने एक बिस्किट उठा लिया।

'बरसों बाद।' बूढ़े ने बिस्किट को निहारते हुए कहा उसका स्वर डूबा हुआ था। दूसरे युवक ने भी एक नमकीन बिस्किट उठा लिया और उसे दाँतों से कुतरने लगा।

' फिर आपकी शादी दूसरे युवक ने ही सवाल किया।

'नहीं हुई, तब तक हालत और बदतर हो गई थी। अब लड़कियाँ कहीं नहीं थीं। सारे रंग बुझ गये थे। अब हर तरफ़ एक ही रंग था स्याह रंग। मेरी शादी किसी लड़की से नहीं हुई, बल्कि एक औरत से हुई थी। औरत जो मुझसे काफ़ी बड़ी थी। शादी भी क्या हुई थी, बस वह आकर रहने लगी थी घर में। बदले में उसके पति को उस बची हुई ज़मीन में से काफ़ी कुछ देना पड़ा था। उसका पति भी उसको ऐसे ही लाया था। तो वह औरत मेरे पास आ गई और उससे ही पैदा हुआ था इसका बाप।' बूढ़ा पहली बार सधी आवाज़ में बोल रहा था, बल्कि अंतिम वाक्य बोलते समय तो ऐसा लगा कि वह हल्का-सा मुस्कुराया भी था। चूँकि वह बहुत दिन से मुस्कुराया नहीं था, इसलिये अभ्यास खो चुका था मुस्कुराने का। मगर लगा ऐसा ही कि वह मुस्कुराया था। बूढ़े ने एक नमकीन बिस्किट उठा लिया।

'आपको।' युवक ने कुछ कहना चाहा मगर बूढ़े ने हाथ के इशारे से उसे रोक दिया। दूसरे युवक ने भी पहले को आँखों के इशारे से मना कर दिया। बूढ़ा अब नमकीन बिस्किट को कुतर रहा था।

' औरत... दूसरे युवक ने प्रश्न को इस प्रकार छोड़ा मानो बूढ़े को पता हो कि सवाल क्या है।

'मह-मह करती थी औरत, सोनामाटी की तरह होती थी औरत। जब लहलहाती तो सारा कुछ भींज जाता था। उसका कोई बदल नहीं हो सकता। हो ही नहीं सकता। इधर से संभालो तो उधर से बिखरे। जैसे मोती की माला हो, एक सिरा पकड़ो तो दूसरे से मोती छूट जाएँ। सारी रात मोती।' बूढ़े ने बात को बीच में ही छोड़ दिया। उसकी पीली आँखें चमक रहीं थीं। युवक ने पहली बार बूढ़े की आँखों को चमकते देखा था। बुझी हुई आँखों को।

' फिर अब सारे प्रश्न दूसरा युवक ही कर रहा था।

'फिर सारी औरतें चली गईं। जो बरसों से होता आ रहा था उसका परिणाम सामने आ गया। पहले लड़कियाँ गईं, फिर औरतें। जाना था ही। तय था। सो हो गया। चली गई सारी सोनामाटी, जाने कहाँ किस देस उड़ गई सारी। सारी की सारी और रह गई ये रेत, दिन रात किसकिसाती हुई रेत। उड़ गई जैसे कोई गंध हो। हाँ गंध ही तो थी, औरत एक गंध ही तो थी, लहलहा के गमकती फिरती थी। उसके होने से सब कुछ होता था। उसके नहीं होने से सब कुछ रुक जाता था। वह थी तो घर था, वह थी तो नर था। उस बावली गंध को थाम कर ही तो नर, नर बनता था। उसे थामना कोई आसान था क्या। महमहा कर उँगलियों से फिसल जाती थी वो। बिजुरी की तरह चमकती थी औरत और लपलपा के कहती थी, आ मुझे गह। गह लिया तो रह जाऊँगी नहीं तो।' बूढ़े की आवाज़ मानो नशे में डूब रही थी। दोनों युवक भी बूढ़े की बात सुनकर कहीं डूब रहे थे, डूब रहे थे किसी अज्ञात में। उस अज्ञात में जिसे कभी देखा भी नहीं था। बूढ़े की आवाज़ की उँगलियाँ थाम कर उतर रहे थे उस अज्ञात में जिसके बारे में बूढ़ा जाने क्या-क्या कह रहा था। कभी ये तो कभी वो। दूसरे युवक को गला सूखता महसूस हुआ तो उसने बोतल खोलकर गटगटाना शुरू कर दिया। आधी से ज़्यादा बोतल ख़ाली करके उसने बोतल वापस रखी। बूढ़ा ग़ौर से देख रहा था दूसरे युवक का पानी पीना। हलक की गुठली में उतरते हुए पानी की उत्कंठा को पकड़ने की कोशिश कर रहा था बूढ़ा।

'इसका बाप जब बड़ा हुआ, जवान हुआ, तब तक सब ख़त्म हो चुका था। कुछ नहीं था। शादी जैसा तो कुछ सोचा भी नहीं जा सकता था। सोचते भी कैसे और किससे।' बूढ़ा अब धीरे-धीरे फिर से उदास हो रहा था। उसकी आवाज़ धीरे-धीरे फिर से डूब रही थी।

' फिर ये कैसे युवक की तरफ़ इशारा करते हुए पूछा दूसरे युवक ने। बूढ़े ने हवा में हाथ उठा कर इशारा किया कि रुको बता रहा हूँ, बता रहा हूँ, सब कुछ। एक बार उसी जगह पर पहलू बदल कर बैठ गया। मानो अब किसी दूसरे अध्याय को शुरू करने जा रहा हो। दूसरा अध्याय जो और अलग है अभी तक के अध्यायों से।

'इसको पैदा करने के लिये इसकी माँ को किराये पर लिया था मैंने।' बूढ़े ने आँखों को शून्य में स्थापित करते हुए कहा।

' किराये पर दूसरे युवक ने पूछा।

'हाँ किराये पर, उस समय तक आते-आते शादी जैसी बातों का तो सोचा भी नहीं जा सकता था। कोई इस बात को सपने में भी नहीं ला सकता था कि कोई औरत केवल और केवल उसीकी होगी। पूरी की पूरी और पूरी ज़िंदगी के लिये। बस उसकी। वह समय तो बीत चुका था। अब तो बस जो कुछ था उसी से।' बूढ़ा फिर से चुप हो गया। इस अध्याय को खोलते हुए शायद उसे पीड़ा हो रही है। उसका चेहरा कुछ उलझी हुई लकीरों से भरा हुआ है। ऊपर ही देखते हुए उसने हाथों से टटोल कर सामने से एक बिस्किट उठा लिया। खाने के बजाय उस बिस्किट के ऊपर अपनी उँगलियाँ फिराने लगा। बिस्किट पर लगा नमक उसकी उँगलियों पर किरकिराने लगा।

'फिर भी परिवार को तो आगे बढ़ाना ही होता है। न सही शादी, मगर औलाद तो आ जाये। अपने सामने कम से कम ये तो देख जाएँगे कि अपनी लकीर ख़त्म नहीं हुई है। कुछ और आगे खिंच गई है। बस यही सोच कर मैंने भी वही किया जो बहुतेरे कर रहे थे।' बात को छोड़ कर बूढ़े ने बिस्किट कुतर लिया और उसे चबाने लगा।

'इसका बाप भी बहुत ज़िद्दी था, इसीकी तरह। मगर मेरी ही ज़िद पर वह मान गया। जब मान गया तो ढूँड हुई कि कहाँ और कैसे हो।' बूढ़ा अटक-अटक के कहानी को चला रहा है। दोनों युवक चाह रहे हैं कि कहानी का वह बिंदु जल्दी आ जाये जिसके लिये पूरी कहानी सुनी गई है। मगर बूढ़ा है कि अपनी ही चाल से चल रहा है। रात भी बूढ़े की आवाज़ की ही तरह धीरे-धीरे सरक रही है।

'बहुत दूर से आई थी इसकी माँ। बहुत दूर से। उसके आने में खेत का और एक हिस्सा बिक गया था। बहुत कुछ तो पहले ही जा चुका था। अब नाम का ही रह गया था। जो पहले था उसके मुकाबले तो उसे नाम के ही खेत कहेंगे। अब हम दो प्राणियों के लिये वह नाम का खेत ही बहुत हो रहा है। मगर उस समय तो।' बूढ़ा साँस लेने के लिये ज़रा रुक गया। दुसरे युवक ने युवक की तरफ़ देखा। दोनों में आँखों ही आँखों में कुछ हुआ। दूसरे युवक ने भवें उचका कर होंठ ज़रा तिरछे कर दिये।

' इसकी माँ दूसरे युवक ने प्रश्न किया।

'लड़की तो वह भी नहीं थी, औरत ही थी। लेकिन थी लड़कियों की ही तरह टुह-टुह। अपने बाप के साथ आई थी। बाप ने आधे पैसे आते ही धरवा लिये थे। पैसे लेकर चला गया था। इसकी माँ को वहीं छोड़कर। इसकी माँ। धूप का टुकड़ा थी इसकी माँ। ये अपनी माँ पर ही गया है। ये दूध रंगत माँ से ही मिली है इसको और नैन नक्श भी, वरना इसका बाप तो। इसे गुलाबी होंठ और उजले दाँत देखता हूँ तो इसकी माँ याद आ जाती है। वही रूप वही रंग।' बूढ़े ने तस्वीर की तरफ़ इशारा करते हुए बात को समाप्त किया। बूढ़े के इशारे पर दोनों युवक भी तस्वीर की तरफ़ देखने लगे। तस्वीर की तरफ़ देखते-देखते युवक उठा और उस तस्वीर को पास से जाकर देखने लगा। उस तस्वीर की महिला को। बूढ़े ने धीरे से अपना हाथ दूसरे युवक के हाथ पर रख दिया। दूसरे युवक ने बूढ़े को देखा। बूढ़ा मुस्कुरा रहा था। उसकी आँखों में जुगनू जगर रहे थे। युवक कुछ देर तक वहीं खड़ा पास से उस तस्वीर को देखता रहा। फिर वापस आकर अपनी जगह पर बैठ गया।

'मोतिया पाट की साड़ी थी इसकी माँ। किनारों-किनारों से झरती थी जब चलती थी तो। इसके बाप ने पहली बार... और पागल-सा हो गया था इसका बाप। ये होती है औरत। तिस पर इसकी माँ थी भी पूरी औरत। सर से पाँव तक औरत ही औरत। इसका बाप जहाँ छूता वहीं से रिस जाती। जैसा ये ज़िद करता है वैसा ही इसका बाप भी करता था। क्या होगा क्यों होगा कैसे होगा। देखी जो नहीं थी औरत। मगर जब देखी तो।' बूढ़ा फिर रुक गया।

'बहुत फरक होता है सोनामाटी और बलुआ माटी में, बहुत फरक।' बूढ़ा मानो ख़ुद से ही बोला। बुदबुद करके बोला था बूढ़ा। दोनों युवक बूढ़े द्वारा फिर से दुहराई गई इस एक ही बात का नये सिरे से मतलब तलाश रहे थे।

'और फिर ये पैदा हो गया। औरत के आने के दस महीने बाद। औरत साल भर के लिये आई थी। अगर ये नहीं आता तो भी साल भर ही रुकती। बीच में छः महीने बाद उसका बाप आकर फिर से पैसा ले गया था। बाक़ी आधे का आधा। बीज इसके बाप का था इसलिये ये उसका बेटा है और कोख उस औरत की थी इसलिये वह इसकी माँ थी, बस। बस। मगर उसको तो जाना था। अब कहीं और किसी और को पैदा करने। यही तो उसका काम था। उसका या शायद उसके बाप का। बिना रुके चलते जाना।' बूढ़ा समझ रहा था कि ये सब बातें युवक को कैसी लग रही होंगी लेकिन वह फिर भी बात को तीखा किये जा रहा था।

'मगर इससे उसे उस कुछ हो गया था। उस औरत को। इसकी माँ को। ये मरा था भी तो इतना सुंदर। आज जैसा लगता है उससे सौ गुना सुंदर था ये। मोह हो गया था इसकी माँ को। इसकी माँ का बाप जब उसे लेने आया था तो रात को मेरे पास बैठकर बोला था कि पहली बार मोह कर रही है ये औरत। इससे पहले कभी कहीं नहीं किया। हर बार चुपचाप छोड़ कर चल देती है। लेकिन इस बार तो। जाने के नाम से ही कैसा-कैसा मुँह बना कर देख रही है। कहती है बस अब मुझे यहीं बस जाने दो, बहुत हो गया।' बूढ़ा फिर से चुप हो गया।

' फिर दूसरे युवक ने पूछा।

'फिर क्या, जाना तो उसको था। हम नहीं चाहते तो भी जाना था। उसका बाप कौन छोड़ने वाला था।' बूढ़े ने फीके से स्वर में कहा।

' आप ने रोका नहीं दूसरे युवक ने पूछा।

'रोका था मगर रोकने से होना क्या था। अधिकार तो था नहीं। एक साल के लिये लाये थे, सो हो चुका था। जिस काम के लिये लाये थे सो भी हो चुका था। अब किस मुँह से रोकते। उसके बाप से कहा भी था कि और कुछ ले लो और छोड़ दो इसको यहीं। मगर वह कैसे छोड़ देता। इसकी माँ से मैंने पूछा था तू रुकना नहीं चाहती क्या। तो ललछी आँखों से काट जाने वाली नज़रों से मुझे देख कर फूट पड़ी थी वो। सच कहा था उसके बाप ने, मोह हो गया था उसे। इससे, इसकी आँखों से मोह हो गया था उसे।' बूढ़े ने युवक की तरफ़ इशारा करके बात को ख़त्म किया।

' फिर बहुत देर बाद युवक ने कोई सवाल किया।

'फिर क्या चली गई वो। अपने बाप के साथ। एक बार तुझे कलेजे से लगा कर हूक भरी और फिर पीठ करके चली गई। चली गई। चली गई हमेशा के लिये। ऐसी कि फिर कभी नहीं लौटी। न कभी कोई पता चला न कोई ख़बर आई। पता भी नहीं कि ज़िंदा भी है कि। जाने कौन देस गई। एक जगह तो वैसे भी नहीं रुकती थी। रुकने देता भी कब था उसका बाप। ठौर कोई था नहीं। सो क्या ख़बर-बतर लेते और देते। इसका बाप तो पागल हो गया था उसके जाने के बाद। घर से ही नहीं निकला था बहुत दिनों तक। वह ऐसी कठ कलेजी निकली कि जाते समय तो पिघली मगर जाने के बाद फिर मुड़ के भी नहीं देखा। देखती भी कैसे, इसके जैसे तो जाने कितने।' बात को ग़लत तरफ़ जाते देख कर बूढ़े ने बीच में ही छोड़ दिया। युवक एक बार फिर से उस तस्वीर की तरफ़ देखने लगा। रात बहुत गहरा गई थी। बूढ़ा जैसे ही चुप होता था तो बाहर का सन्नाटा अंदर कमरे में भी पसर जाता था। पसर जाता था रात की आवाज़ों को अपने अंदर समेटे।

'इसको तो मैंने ही पाला। ये मेरे ही हिस्से आया था। आया है। न माँ के, न बाप के, मेरे हिस्से में। फिर इसके बाप के बाद मैं इसे लेकर यहाँ चला आया। वहाँ वैसे भी मन नहीं लगता था। खेती बाड़ी सब बटायेदार के भरोसे छोड़ी और आ गया इधर। ये क़स्बा भी गाँव जैसा ही था, शहर तो नाम का ही था। सो यहाँ मन लग गया। खेत कम तो हो गये थे लेकिन दो प्राणियों के गुज़ारे के लिये बहुत थे। ये मकान बहुत पहले का लिया हुआ था। किराये से उठा रखा था। आ गये तो रम गये और कट भी गये। अब तो लगता है कि।' बूढ़ा एक बार फिर से ख़ामोश हो गया। ख़ामोशी के साथ दीवार से सिर भी टिका लिया उसने। आँखें बंद कर लीें। दोनों युवक भी उस चुप में बहने लगे। उनके प्रश्न भी लगता था कि ख़त्म हो गये थे। या शायद पूछने की उत्सुकता ख़त्म हो गयी थी। युवक ने युवक ने दोनों हाथों की उँगलियों को एक दूसरे में गूँथा और उन पर माथे को टिका दिया।

'और तब से हम दोनों यहीं हैं, यहीं।' बूढ़ा उसी मुद्रा में बैठे हुए बोला।

' अभी जो आप इससे कह रहे हैं, वह सब, वह किस तरह से दूसरे युवक ने पूछा।

'ज़िंदगी काटने के लिये कुछ तो हो। कुछ तो हो ऐसा कि मेरे बाद भी इसका जीने में मन लगा रहे। जीने के लिये कोई कारण हो, कोई उद्देश्य हो। वरना तो। बस इसीलिये कहता हूँ कि एक बार, बस एक बार। बाक़ी तो तुम्हारे इन सब को लेकर मेरे मन में कुछ नहीं है। मगर इससे कुछ भी तो नहीं उपजता। परिवार को बढ़ाया जाता है तो उसके पीछे केवल वंश बढ़ाने का ही कारण नहीं होता। उसके पीछे अपने जीते रहने की वजहें बढ़ाना भी एक कारण होता है। अपने ज़िंदा रहने की वजहें बढ़ाना। वरना तो मतलब ही क्या है ज़िंदा रहने का। जैसे ज़िंदा हो, वैसे ही मर भी जाओ। किसी को क्या फ़र्क़ पड़ता है। मगर जब किसी को फ़र्क़ पड़ता हो तो ज़िंदा रहना पड़ता है। जैसे मैं हूँ, इसके कारण। अब और क्या है जिसके लिये ज़िंदा हूँ।' बूढ़े ने बात को थोड़ा-सा इमोशनल घुमाव देना शुरू कर दिया है। यहाँ आकर उसे वह बात कहनी है जो वह कहना चाह रहा है। वही बात जिसको लेकर युवक और बूढ़े में पिछले कई दिनों से बहस हो रही है।

युवक ने बूढ़े की बात को उसी प्रकार से सुना, उसी प्रकार माथे को हाथों पर टिकाये हुए। दूसरा युवक ज़रूर अब बूढ़े की आँखों में आँखें डाल कर पूरी बात सुन रहा है।

'आता हूँ, ज़रा बाथरूम तक हो आऊँ।' कहता हुआ बूढ़ा पलंग से उतरने लगा। दूसरे युवक ने उठ कर बूढ़े को थामने का प्रयास किया लेकिन बूढ़े ने हाथ के इशारे से उसे रोक दिया। धीरे-धीरे चलता हुआ बूढ़ा अंदर चला गया।

'मुझे तो लगता है कि एक बार में कोई बुराई नहीं है। उनका कहना सही है।' बूढ़े के जाने के बाद दूसरा युवक बोला। युवक ने कोई जवाब नहीं दिया। बस सिर उठा कर दूसरे युवक की तरफ़ देखने लगा।

'मेरे ख़याल से तुझे मान जाना चाहिये।' दूसरे युवक ने फिर कहा। युवक ने उस बात पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। बस उसी प्रकार बैठा रहा। दोनों के बीच में ख़ामोशी छा गई। कुछ देर बाद बूढ़े के आने की आहट आई। बूढ़ा धीरे-धीरे चलता हुआ वापस आकर अपनी जगह पर बैठ गया।

' आप जो कह रहे थे वह होगा कैसे दूसरे युवक ने पूछा।

'वैसे ही जैसे इसके बाप ने किया था। वैसे ही जैसे ये हुआ था। तरीक़ा तो वही है अब उसके अलावा और है ही क्या। अब ये ज़रूर है कि दाम और बढ़ गये हैं। लेकिन ज़रूरत भी कभी दाम देखती है। ज़रूरत है तो दाम है।' बूढ़ा समझ गया कि युवक सहमत है उसके साथ।

' यहीं दूसरे युवक ने पूछा।

'और कहाँ यहीं तो। एक बार ये भी तो देखे कि मह-मह करती सोना माटी कैसी होती है। कैसी सुवास होती है उसमें। ये भी तो छूकर देखे उसे।' बूढ़ा कुछ उत्साह से बोल रहा था।

' कौन दूसरे युवक ने फिर से पूछा।

'है कोई। गाँव का बटियादार बता रहा था कि दूर कहीं कोई औरत है उसकी रिश्तेदारी में। अभी पिछले महीने उसका फ़ोन आया था तो बता रहा था, मुझे तो लगता है कि उसने बस इसीलिये फ़ोन किया था, फ़सल की बात तो बहाना थी। कहता था कि पैसा ज़्यादा लगेगा। गाँव की आधी खेती का बोल रहा था। मुझे भी लगा कि वैसे भी अब कौन जाता है वहाँ, जो है वह हम दो के लिये वैसे ही बहुत है। सो आधी चली भी जाये तो क्या। कम से कम। पर ये मानता ही नहीं। आज कोई सूरत बन भी रही है। कल वह भी न हो। इधर आस पास के सौ पचास गाँवों में तो अब एक भी औरत नहीं है। ये तो भला हो उस बटायेदार का, नहीं तो मैं तो उम्मीद ही छोड़ बैठा था।' बूढ़ा अब उत्साह से भर गया था। उसकी आवाज़ में कुछ अलग ही भीगापन था।

' कब दूसरा युवक मानो युवक की तरफ़ से ही पूछ रहा था।

'जब ये बोल दे। मगर जितनी जल्द हो जाये उतना अच्छा है। बटियादार बता रहा था कि देर करने में देर हो जाएगी। फिर हो सकता है साल डेढ़ साल इन्तज़ार करना पड़ जाये। उतना समय तो बहुत हो जायेगा। जल्दी हो जाये तो ठीक है। जब ये बोल दे। अभी हाँ कर दे तो कल ही गाँव जाकर बटियादार से सब मामला तय कर आऊँ। मैं तो एक पैर पर खड़ा हूँ मानो। बस इसकी ही रस्ता देख रहा था। बात की बात है। हो जायेगा तो हो ही जायेगा। मेरे भी मन की हो जायेगी। नहीं तो प्राण अटके ही रहेंगे। बस यही सोच-सोच कर कि इसका कुछ कर जाता।' बूढे को पता है कि लोहा गरम हो गया है, अब जितनी जल्दी-जल्दी चोट की जाए उतना अच्छा है।

'तो कर लीजिये आप व्यवस्था। जैसा आपको ठीक लगे वैसा कर लीजिये। जब करना चाहें तब।' दूसरे युवक ने पहले युवक की ही तरफ़ से निर्णय भी सुना दिया। युवक इस पर भी कुछ नहीं बोला।

'सच...! अभी बात करता हूँ उससे। अभी बात करता हूँ उससे। अब देर किस बात की जब होना ही है तो जितनी जल्दी हो जाए। अभी बात करता हूँ उससे।' कहता हुआ बूढ़ा उठने लगा।

'अभी... रात के ढाई बज रहे हैं, सो रहा होगा वो। आप भी सो जाओ, बहुत रात हो गई है। सुबह बात कर लेना उससे। एक रात में कुछ नहीं बिगड़ने वाला। जो बात रात को होनी है वह ही सुबह हो जाएगी। आप भी थक गये हो सो जाओ।' दूसरे युवक ने समझाइश के अंदाज़ में कहा। सुनकर बूढ़ा वापस पलंग पर बैठ गया।

'चलो हम उधर चलते हैं, इनको सोने देते हैं। ज़्यादा जागेंगे तो तबीयत ख़राब हो जाएगी। चल, उठ।' दूसरे युवक ने खड़े होकर युवक की पीठ थपथपाते हुए कहा। युवक भी उठ कर खड़ा हो गया।

'नहीं, तुम दोनों यहीं सो जाओ, मैं उधर सो जाता हूँ। कैसे सोओगे उस छोटे से पलंग पर दोनों जने चलो आज यहीं सो जाओ।' बूढ़े ने पलंग से उठते हुए कहा।

'नहीं नहीं।' युवक ने हाथ के इशारे से मना किया।

'क्या नहीं नहीं, चलो सो जाओ चुपचाप। मैं जा रहा हूँ उधर।' कहता हुआ बूढ़ा बीच के दरवाजे की तरफ़ बढ़ गया। बूढ़े के जाने के बाद दोनों कुछ देर चुपचाप खड़े रहे। फिर दूसरे युवक ने कहा 'चल सोते हैं बहुत रात हो गई है।'

'हूँ ।' युवक ने मानो नींद में ही कहा और बढ़कर लाइट का स्विच ऑफ कर दिया। कमरे में घप्प से अँधेरा फैल गया।

बूढ़ा बीच के दरवाज़े से होकर उस हिस्से में आ गया जो युवक का हिस्सा है, जिसमें बूढ़ा बरसों बाद आया है। बूढ़ा एक-एक चीज़ को देख रहा है मानो युवक की ज़िंदगी को महसूस करने की कोशिश कर रहा है। उस एकांत को जो युवक ने इस हिस्से में ज़िया है। वही एकांत जो बूढ़े ने मकान के अपने वाले हिस्से में ज़िया है। एक ही मकान के दो हिस्सों में जिये गये दो एकांत। मगर युवक का एकांत ज़्यादा एकाकी है। बूढ़ा समय के एकांत को जी रहा है और युवक श्राप के एकांत को। कमरे के एक कोने में एक छोटा-सा पलंग है। बूढ़े ने पलंग को देख कर ठंडी साँस छोड़ी और उस तरफ़ बढ़ गया। बिस्तर को छुआ तो उसे लगा कि युवक की देह अभी भी वहाँ है। चादर के साथ बिछी हुई। एक-एक सलवट एक सवाल की तरह उस देह से लिपटी हुई है। बूढ़े ने झुक कर बिस्तर को सूंघा, बिल्कुल युवक की ही तरह गंध है इस चादर में तो। बूढ़ा एक कोने में बैठ कर चादर को सहलाने लगा। अब बूढ़ा बाक़ायदा रो रहा था। रो रहा था बिना कोई आवाज़ किये। कब से रोना चाहता था वो। रोना चाहता था युवक के पास, इसी प्रकार बैठ कर उसे सहलाते हुए। कब से चाहता था कि उस बीच के दरवाज़े को पार करके इधर आ जाए। बूढ़ा बहुत देर तर उसी तरह नावाज़ रोता रहा। फिर चादर को सहेजने लगा। एक-एक सलवट को आहिस्ता से मिटा रहा है। जैसे सलवट न होकर घाव हों ये। घाव, जो करवट-करवट बने हों। चादर को ठीक करके धीरे से लेट गया उस बिस्तर पर बूढ़ा। हाथों का सिरहाना बना कर। आँसू नींद में बदलने लगे।

सुबह बूढ़े की नींद कुछ जल्दी ही खुल गई। रात को देर से सोने के बाद भी। एक तो बरसों बाद जगह बदल कर सोया था सो नींद नहीं आई। दूसरा सुबह बटियादार से बात करने की हुलफुलाहट भी थी। धीरे से दरवाज़ा खोलकर इस तरफ़ आया तो देखा दोनों सो रहे हैं अभी तक। युवक को तो जल्दी उठने की आदत है। रात को देर से सोने के कारण नींद नहीं खुली है शायद। बूढ़ा चुपचाप अंदर चला गया। अंदर जाकर कुछ देर तक खटर पटर करता रहा। थोड़ी देर बाद लौटा तो उसके हाथ में एक प्लेट थी जिसमें टोस्ट रखे हुए थे। जब वह लौटा तो दूसरा युवक जागा हुआ पलंग पर बैठा था।

'अरे, मैंने जगा दिया तुमको।' बूढ़ा कुछ अपनत्व के स्वर में बोला।

'नहीं नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, उठना तो था ही।' दोनों की आवाज़ें सुन कर युवक की नींद भी खुल गई।

'चलो मुँह धोकर नाश्ता कर लो। तब तक मैं बटियादार से बात कर लेता हूँ, होगा तो आज ही चला जाऊँगा, देर करने से भी क्या मतलब।' हाथ की प्लेट को पलंग के पास रखे स्टूल पर जगह बना कर रख दिया बूढ़े ने।

'मैं भी चलूँ आपके साथ दूसरे युवक ने पूछा।' इस बहाने कुछ घूमना भी हो जायेगा और उस बटियादार से कुछ ठहराव भी कर लूँगा। आपको तो सीधा समझ के ठग लेगा वो। अच्छी तरह से सारी बातें कर लेंगे उससे कि कब और क्या-क्या होना है और कब-कब क्या क्या देना है। बाद में कोई लफड़ा नहीं हो। '

'चलो उसमें क्या है, मुझे भी साथ हो जायेगा, अब इस उमर में तो भागदौड़ से परेशानी होती है, तुम रहोगे तो मुझे बात करने में भी आसानी हो जायेगी। चलो मुँह हाथ धोकर नाश्ता कर लो। जब तक तुम नहाओगे तब तक खाना तैयार हो जायेगा। खाकर निकल पड़ेंगे।' बूढ़े ने अपनी सहमति प्रदान करते हुए कहा। बूढ़े के कहते ही दोनों युवक अंदर चले गये।

' क्या...

' कब...

' कैसे...

'पर अभी उस दिन तो अपनी बात हुई थी, तुमने कहा था।'

' पर ये हुआ कैसे

' अचानक ही

'तुमने मुझे बताया भी नहीं।'

'पर बताना तो था न, मैं तो।'

' और कोई

'हाँ वह तो पता है।'

'फिर भी।'

दोनों युवक अंदर आँगन में नल पर मुँह हाथ धो रहे थे, जहाँ बूढ़े की ये आवाज़ पहुँच रही थी। दोनों जल्दी-जल्दी मुँह पोंछते हुए कमरे में आये। उन्होंने देखा कि बूढ़ा पलंग पर सिर झुकाए बैठा है। हताश और टूटा हुआ।

' क्या हुआ युवक ने घबरा कर पूछा। बूढ़े ने कोई जवाब नहीं दिया।

' बताइये न क्या हुआ दूसरे युवक ने बूढ़े का कंधा हिलाते हुए पूछा। बूढ़े ने फिर भी कोई उत्तर नहीं दिया। उसी प्रकार सिर को झुकाए बैठा रहा। दोनों युवक बात को समझ नहीं पाने के कारण परेशानी में डूबे हुए थे कि आख़िर हो क्या गया है।

'बताइये तो सही क्या हुआ है युवक ने आवाज़ को कोमल करते हुए पूछा। युवक के प्रश्न पर बूढ़े ने सिर उठाया, उसका चेहरा ज़र्द पड़ा हुआ था, निचला होंठ काँप रहा था और नाक के नथुने भी थर्रा रहे थे। युवक ने जब ये सब देखा तो और घबरा गया। बूढ़े के कंधे पर हाथ रखते हुए पलंग पर पास बैठ गया और पीठ पर हाथ फेरने लगा।' बताइये क्या हुआ है इस तरह करने से क्या होगा। ' युवक ने फिर पूछा। दूसरा युवक भी बूढ़े के उस ओर बैठ गया और बूढ़े के हाथों को हाथ में लेकर सहलाने लगा।

'क्या हुआ है, क्या बात हुई क्या कह रहा था वह दूसरे युवक ने भी कोमल स्वर में पूछा। बूढ़े ने दूसरे युवक का हाथ अपने हाथ में ले लिया और टूटती-सी आवाज़ में बोला' वो। '

'हाँ क्या वो?' दूसरे युवक ने पूछा।

बूढ़े ने दूसरे युवक के हाथ पर कुछ दबाव बढ़ा दिया और उसी टूटे स्वर में बोला 'वो। वह औरत।'

'हाँ क्या वह औरत?' दूसरे युवक ने फिर कुछ उत्सुकता और रोष के साथ पूछा।

'वो औरत... तेरी... माँ ही है...!' बूढ़े की आवाज़ जैसे किसी कुँए से आ रही थी।