दो की लड़ाई / रंजना वर्मा

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बहुत दिन पहले की बात है। नर्मदा नदी के किनारे मल्लाहों की एक बस्ती थी। उस बस्ती में एक मछुआ और एक मछुई रहते थे। मछुआ बहुत सीधा और परिश्रमी था। मछुई कामचोर और झगड़ालू थी।

मछुआ रोज सवेरे उठकर जाल लेकर नदी की ओर चला जाता। सारे दिन वह मछलियाँ पकड़ता रहता। शाम होने पर वह उन्हें ले जाकर बाज़ार में बेच देता और जो पैसे मिलते उनसे आटा, नमक और साग सब्जी लेकर घर आ जाता। मछुई सारे दिन घर में पड़ी रहती। जब मछुआ शाम को सामान खरीद कर घर लौटता तब वह उससे सारा सामान ले लेती और सामानों में मीन मेख निकालने लगती।

कभी कहती-आटा कम है तो कभी साग-सब्जी कम होने की शिकायत करती। कभी इस बात को लेकर लड़ने लगती कि मछलियाँ बहुत कम दामों में बेच दी और कुछ नहीं तो वह अपनी गरीबी का रोना रोने लगती।

मछुआ चुपचाप सब कुछ सुन लेता। बकझक कर मछुई खाना बनाने लगती। कुल आटे की वह छह रोटियाँ बनाती और साग के साथ तीन रोटियाँ मछुए को परोस देती। बाकी तीन रोटियाँ वह खुद खा लेती।

एक दिन की बात है। मछुए ने हाट जाकर जब मछलियाँ बेची तो एक बड़ी मछली बच गई. उसने सोचा-चलो आज मछली का ही सालन खाया जाये। नमक, मसाला, आटा खरीद कर वह घर पहुंचा तो मछुई ने उसे खूब खरी खोटी सुनाई.

आधी मछली और तीन रोटियाँ उसने मछुए के सामने रखी तो वह बोला-

"सुन री, आज मैं चार रोटियाँ खाऊँगा।"

"क्यों? चार क्यों खाओगे? तुम चार रोटियाँ खाओगे और मैं दो? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।"

"तू तो कुछ भी नहीं करती। बस सारे दिन पड़ी रहती है। शाम को रोटियाँ भर पका लेती है। में सारे दिन मेहनत करता हूँ तब कहीं जाकर चार पैसा मिलता है। आज तो मैं चार रोटियाँ ही खाऊंगा। आज तू दो रोटी खा ले।" मछुआ बोला।

"नहीं। मैं तो तीन ही रोटियाँ खाऊँगी।" मछुए भी जिद पर अड़ गयी और बस दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े रहे। बातें करते-करते दोनों लड़ने लगे। छीना झपटी और फिर मारपीट तक नौबत आ गई.

अंत में मछुए ने कहा-

"लड़ती क्यों हो? मैं सच और न्याय की बात कर रहा हूँ। नहीं मानती चल कर मुखिया जी से पूछ लो।"

मछुई मान गयी। रोटियाँ वहन छोड़ कर दोनों मुखिया के पास पहुंचे। मुखिया ने दोनों की बातें ध्यान से सुनी फिर मछुए को समझाते हुए बोले-

"देखो भाई! मछुई तुम्हारी पत्नी है। लड़ाई करना ठीक नहीं है। दोनों बराबर-बराबर बांट कर खा लो।"

मछुआ कहने लगा-

"मुखिया जी! सारे दिन मेहनत तो मैं करता हूँ। क्या एक दिन भी मैं चार रोटियाँ नहीं खाऊँ? आज मैं चार रोटियाँ ही खाऊंगा।"

तब मुखिया ने मछुई से कहा-

"तुम बहुत समझदार स्त्री हो। आपस में इस तरह लड़कर तमाशा करना अच्छी बात नहीं है। मछुआ थका मांदा है। मेहनत भी वह तुम से अधिक करता है। आज तुम दो रोटियाँ खा लो। उसे ही चार रोटियाँ खा लेने दो। एक ही दिन की तो बात है।"

"नहीं मैं दो क्यों खाऊँ? मैं तो तीन ही रोटियाँ खाऊंगी। बराबर बराबर।" मछुई ने गुस्से से उत्तर दिया।

दोनों को अपनी जिद पर अड़ा देखकर मुखिया ने कुछ सोचते हुए कहा-

" अच्छा, ठीक है। तुम रोटियाँ ले आओ. मैं फैसला किये देता हूँ।

रोटियाँ लेने के लिये मछुए मछुई अपनी झोपड़ी की ओर लौटे। अभी वे झोपड़ी के द्वार तक ही पहुंचे थे कि तभी एक बंदर झपटकर सारी रोटियाँ उठा ले गया। दोनों एक दूसरे का मुंह देखते रह गए. झगड़े के कारण उन्हें एक रोटी भी खाने को नहीं मिली। अंत में उन्हें आधी-आधी मछली खा कर ही संतोष करना पड़ा।

सच है-दो की लड़ाई में हमेशा तीसरे का ही फायदा होता है।