दो गणतंत्र के अलग-अलग चेहरे / जयप्रकाश चौकसे

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दो गणतंत्र के अलग-अलग चेहरे

प्रकाशन तिथि : 08 सितम्बर 2012

हॉलीवुड की फिल्मों ने अमेरिका के जीवन की जो छवि गढ़ी है, वह उतनी ही सतही है, जितनी भारतीय फिल्मों ने भारत की गढ़ी है। ईरान और जापान की फिल्मों में उनके देश धड़कते हैं। एक जमाने में रूस की फिल्मों ने भी अपने आम आदमी को प्रस्तुत किया है। हिंदी साहित्य में स्वतंत्रता के बाद एक दौर में 'भोगा हुआ यथार्थ' एक नारा बन गया था, परंतु उस दौर के अनेक लोकप्रिय लेखक काफ्का और सात्र्र तथा मैक्सिम गोर्की के 'भोगे हुए यथार्थ' का मात्र भारतीयकरण कर रहे थे। मुंशी प्रेमचंद ने यथार्थ के साथ कुछ आदर्श प्रस्तुत किया और कहीं-कहीं वे उपदेशात्मक हो गए, परंतु फणीश्वरनाथ रेणु ने ग्रामीण यथार्थ बिना किसी उपदेश के प्रस्तुत किया था।

बहरहाल, देश अनेक तरीकों से अपनी प्रवृत्तियों को उजागर करता है। भारत में चुनाव के समय, चुनाव प्रक्रिया में भारत उजागर होता है, परंतु नेताओं के भाषण में छल ही होता है। अमेरिका सच्चे तौर पर राष्ट्रपति के चुनाव के समय उजागर होता है। बराक ओबामा की पत्नी मिशेल का भाषण अमेरिका के मध्यमवर्गीय परिवार को यथार्थ ढंग से प्रस्तुत करता है। दरअसल वह अपने पति से बेहतर बोलती हैं और अमेरिका की प्रथम नारी से अधिक मध्यम वर्ग की गृहस्थिन के रूप में उभरती हैं।

बराक ओबामा इस बार महात्मा गांधी के 'स्वदेशी' के अमेरिकन स्वरूप के आधार पर चुनाव लड़ रहे हैं। अपने वैभव के दिनों में अमेरिका का उपभोक्ता विदेशी चीजें खरीदता रहा है और अभी वाल-मार्ट के माध्यम से अमेरिका का बाजार चीनी माल से भरा पड़ा है। अब बराक ओबामा चाहते हैं कि अवाम 'मेड इन अमेरिका' खरीदे, ताकि उनके देश में कुटीर उद्योग को बढ़ावा मिले। इस समय अमेरिका अपनी ही प्रचलित जीवन शैली के खिलाफ जूझ रहा है। जापान और जर्मनी में बनी कारों के बदले अमेरिकी कार खरीदने का आह्वान किया जा रहा है। गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन में देश के आत्मसम्मान की भावना जुड़ी थी। आज भारत के सारे प्रमुख दल विदेशी निवेश की हिमायत करते हुए विदेशी आर्थिक उपनिवेशवाद को आमंत्रित कर रहे हैं। किसी भी दल के प्रमुख में इतना नैतिक साहस नहीं है कि वह यह कह सके कि देशी साधनों से देश का विकास करें और पेट पर पट्टी बांधकर जीना सीखें, क्योंकि आत्मसम्मान के साथ विकास की राह में भूख है, वेदना है, परंतु यह नवनिर्माण की प्रसव वेदना होगी।

बराक ओबामा के सामने सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी है। विकसित विज्ञान नौकरियां खा जाता है। वह गर्भिणी नागिन की तरह है, जो सैकड़ों अंडे देकर पेट खाली होने पर अपने ही अंडे खा जाती है। यही टेक्नोलॉजी का स्थायी चरित्र है। उनकी दूसरी समस्या आर्थिक मंदी के एटॉमिक विकिरण को झेलना है। अमेरिका में दूसरे देशों से आकर बसने वाले लोगों ने इसके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और इस प्रक्रिया में मूल अमेरिकी लोगों के लिए अवसर कम हो गए हैं। हालांकि वहां पर भारत के ठाकरे की तरह के नेता नहीं हैं, जो लोकल वोट बैंक की खातिर क्षेत्रवाद की जड़ों को सींच रहे हैं और इसी वोट बैंक के मिथ के कारण सत्तासीन लोग अपने भस्मासुर पाल रहे हैं।

बहरहाल, अमेरिका का चुनाव समान प्रतिद्वंद्वियों के बीच हो रहा है, जबकि हमारा चुनाव भ्रष्ट और अति भ्रष्ट के बीच है और असली मुद्दा तो यहां हमेशा जाति ही रहेगी। हमारा वोटर नेता के चरित्र नहीं, उसकी जात पर ठप्पा लगाता है। पिछली बार बराक ओबामा ने अफ्रीकी-अमेरिकी वोट के आधार पर चुनाव नहीं जीता था, वरन गोरों ने भी उन्हें विजयी बनाया था। वहां दोनों दल चेक द्वारा चुनावी चंदा लेते हैं। हमारे यहां चंदा प्राय: संदिग्ध ठिकानों से ही आता है। चुनाव को लेकर हॉलीवुड में कुछ निहायत ही ईमानदार फिल्मों की रचना हुई है, जबकि हमारे यहां इस तरह के मुद्दों पर सतही फिल्में ही बनती हैं। हमने उसका भी फॉर्मूलाकरण कर लिया है।

हमारे नेताओं की पत्नियां मिशेल की तरह नहीं हैं। वे तो सेठािनयों की तरह भ्रष्टाचार से एकत्रित धन से गहने बनवाती हैं तथा पति की समृद्धि को टायरों की तरह शरीर पर धारण कर लेती हैं और प्राय: डाइटिंग का ढोंग करती रहती हैं।