दो दोस्त - दुश्मनों की अंतरंगता / जयप्रकाश चौकसे

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दो दोस्त - दुश्मनों की अंतरंगता
प्रकाशन तिथि : 14 दिसम्बर 2012


हिंदुस्तानी सिनेमा में कहानियों का आधार प्राय: संयोगवश घटी कुछ बातें होती हैं, जिनका यथार्थ का आग्रह रखने वाले आलोचक मखौल उड़ाते हैं, परंतु जिंदगी में भी संयोग होते हैं। अब इत्तफाक देखिए कि पेशावर की किस्सागो गली में दो पड़ोसी मकानों में दो वर्ष के फासले से दिलीप कुमार और राज कपूर का जन्म हुआ और उनकी किस्सागोई जमाने ने बड़े चाव से सुनी, जब तक एक 'पॉजिटिवली नो एंड' कहते-कहते रुखसत हो गया और दूसरा अपनी लिखी याददाश्त की अलसभोर में फंसे हुए मनगढ़ंत किरदार को बड़े पुरजोर ढंग से निभा रहा है।

इन दो दोस्तों में समानताएं कम हैं और मिजाज के निहायत ही अलग-अलग होने के बावजूद उनके बीच मोहब्बत में कभी कमी नहीं हुई और वे एक-दूसरे के जबर्दस्त प्रतिद्वंद्वी होते हुए भी कभी पूरी तरह दुश्मनी नहीं निभा पाए। यहां तक कि जीवन में दो बार प्रेम तिकोन में फंसे और उन औरतों को खोकर जब मिले तो ठहाकों में उस गम को गलत किया। प्रेम तिकोन की मेहबूब खान की 'अंदाज' तो उन्होंने अभिनीत की, परंतु 'संगम' में राज कपूर के लाख इसरार के बाद भी दिलीप ने काम नहीं किया, क्योंकि उन्हें अभिनय के मामले में राज कपूर से कोई खौफ नहीं था, परंतु निर्देशक राज कपूर से उन्हें भय लगता था। माध्यम के गहरे जानकार दिलीप कुमार जानते थे कि यह निर्देशक का माध्यम है।

दिलीप कुमार अंतर्मुखी हैं और राज कपूर अतिरेक से उजागर होते थे। वे एक खुली किताब की तरह थे, जिनके हर पृष्ठ पर कभी न मुरझाने वाला गुलाब खिला होता था। दिलीप कुमार एक अलिखित कविता की तरह हैं - दर्द की ऐसी गांठ जो कभी खुल ही नहीं सकती। ग्यारह बहन-भाई के परिवार वाले दिलीप ने कई जनाजों को कंधा दिया और सुपुर्दे खाक करके भी वे अपने मजबूत कंधों पर किसी अदृश्य चीज का भार महसूस करते रहे हैं। राज कपूर ने तो श्मशान में भी अलख जगाई थी। यह कैसा इत्तफाक था कि ख्वाजा अहमद अब्बास शिवाजी पार्क के निकट एक श्मशान भूमि से लगे सस्ते होटल में लिख रहे थे, जहां राज कपूर ने उनसे 'आवारा' की पटकथा सुनी, जिसे मेहबूब खान पृथ्वीराज और दिलीप कुमार के साथ बनाने की जिद पकड़े थे और अब्बास साहब यथार्थ के पिता-पुत्र लेना चाहते थे, ताकि उनकी कथा के पिता-पुत्र रिश्ते को धार मिले।

राज कपूर ने 'आवारा' एक युद्ध के जुनून से बनाई, क्योंकि उन्हें अपने पिता को अपनी योग्यता सिद्ध करनी थी और 'आवारा' ने उनको इस मायने में बनाया कि उनका सिनेमाई सोच ही बदल गया। वे 'आग' और 'बरसात' से गुजर चुके थे और 'आवारा' ने उन्हें वह नुक्कड़ दिया, जहां जिंदगी का खेल हमेशा जारी रहता था। दिलीप अगर 'आवारा' करते तो पॉल मुनि (अंग्रेज एक्टर) की तरह करते, राज कपूर ने उसे सिनेमा के पहले कवि चैपलिन की तरह साधा। चार्ली चैपलिन के पुरखों की जड़ें भारत में थीं, पॉल मुनि टेम्स का किनारा थे और राज कपूर के मन में तो गंगा प्रवाहित थी।

राज कपूर और दिलीप एक और तिकोन के सदस्य थे। दोनों के पंडित जवाहरलाल नेहरू से गहरे संबंध थे। दिलीप कुमार को नेहरू की धर्मनिरपेक्षता और आधुनिकता पर यकीन था और राज कपूर उनकी भारतीयता, उनकी डिस्कवरी ऑफ इंडिया के भक्त थे। राज कपूर उस नेहरू के निकट थे, जिन्होंने गंगा को कविता माना था और अपनी अस्थियों को भारत के खेतों में बिखराने की हिदायत देकर गए थे। एक बार राज कपूर त्रिवेंद्रम में शूटिंग कर रहे थे। दिलीप ने फोन पर कहा - कल बंबई पहुंच जाओ। क्या काम है, यह नहीं बताया तो राज कपूर ने कहा- 'तू क्या मछलेवाल (पेशावर का खतरनाक गुंडा, उस जमाने में जब दोनों पेशावर में थे) दा पुत्तर है, जो तुम हुक्म दो और मैं आ जाऊं।' अगले दिन राजभवन में नेहरू और विजयलक्ष्मी पंडित की मौजूदगी में समारोह था। राज कपूर दौड़ते-दौड़ते पहुंचे और हांफ रहे थे, पंडितजी ने पूछा - क्या बात है? राज कपूर ने कहा कि ये (दिलीप) अपने को मछलेवाल का बेटा समझता है और जहां-तहां मुझे बुला लेता है। पंडितजी ने पूछा कि ये मछलेवाल कौन? जब उन्हें पूरी बात बताई गई तो वे उन दोनों के दोस्ताने और उसके इस तरह बयां होने के अंदाज पर मुस्करा दिए। नेहरू क्या, राज कपूर ने तो क्राइस्ट को भी हंसा दिया था। स्कूल के एक नाटक में अपनी साइज से बड़ा गाउन पहने राज कपूर स्टेज पर गिर पड़े तो क्राइस्ट की भूमिका करने वाला लड़का हंस पड़ा था। बचपन की इसी घटना में 'जोकर' का बीज पड़ा था।

उनकी मित्रता की एक बानगी और देखिए। दोनों छुट्टियां मनाने लंदन गए। एक बंगला किराए पर लिया। बावर्ची नहीं मिला तो दिलीप किचन में कीमा बना रहे थे औरराज कपूर मुर्गा बना रहे थे। एक मेहमान ने कहा कि कीमा अच्छा पका है तो राज कपूर ने कहा- कीमा खानदानी बावर्ची ने पकाया है और मुर्गा एक्टर ने। उनके बीच हमेशा नोक-झोंक चलती थी। बचपन के दोस्त जो ठहरे। वे एक-दूसरे के मन में बसा बचपन का कुटैव थे।

दिलीप कुमार मेहबूब खान की 'अंदाज' कर रहे थे और आदत के अनुरूप अपने किरदार में डूबे थे। उन दिनों राज चार फिल्में कर रहे थे, अत: थके-मांदे सैट पर आते और शॉट देकर सैट के किसी तन्हा कोने में सो जाते। शॉट तैयार होता तो उन्हें जगाया जाता। दिलीप हैरान थे कि बिना किसी तैयारी के कोई व्यक्ति अभिनय में इतना स्वाभाविक कैसे हो सकता है।

दिलीप कुमार एक गायक की तरह कांच से घिरे साउंडप्रूफ कमरे में गीत गाते रहे। राज कपूर ध्वनि मुद्रण के यंत्र थे, जिसमें एक ही समय में दर्जनभर ट्रैक्स होते हैं और सिंफनी को साधा जाता है। जो दोस्ती, दुश्मनी और मोहब्बत तक में प्रतिद्वंद्विता का रिश्ता राज-दिलीप ने निभाया, वो आज के शिखर सितारे कहां निभा पाते हैं।