दो नावों की सवारी / अलका सैनी

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अभिनव सोच रहा था, कि कब उसकी नाव प्रशांत महासागर में पलट जाएगी और वह हमेशा के लिए शांत हो जाएगा। हर समय वह तरह- तरह की आशंकाओं, वहम तथा अंधेरे के साये में खोया रहता था। बचपन से काफी सुकोमल एवं भावुक प्रवृति का था वह। कभी उसने सोचा तक नहीं था कि उसकी यह प्रवृति उसके जी का जंजाल बनेगी। पड़ोस में रहने वाले एक नामी लेखक ने उसका ब्लॉग बनाकर अपनी कहानियाँ पोस्ट करना सिखा दिया था। साहित्य की यह नई विधा सीखकर वह बहुत खुश था। उसे क्या पता था, ब्लॉग पर उसकी प्रकाशित होने वाली कहानियाँ उसे अपने जीवन में उस इंसान से मुलाक़ात करवा देगी, जो उसके जीवन की काया-पलट कर देगी। वह इंसान उसके जीवन का अभिन्न अंग बन जाएगा। फेसबुक पर काम करते हुए उसे थोड़ा समय ही बीता था कि अनीता ने उसकी फ्रेंड-रिक्वेस्ट स्वीकार कर चैट-बॉक्स पर बात करना शुरू कर दिया। तब तक उसके अन्य कोई दोस्त भी नहीं बने थे और यहाँ तक कि उसका प्रोफाइल फोटो तक नहीं लगा था। उससे पहले भी अनुभव कई दोस्तों से चैटिंग कर चुका था मगर अनीता की बातों में जितनी आत्मीयता थी, उतनी उसे किसी से भी नहीं मिली थी।

वह अपने आप को ऐसे बहुत परिपक्व समझता था मगर अनीता से बात करते समय लगा कि वह उससे बहुत पीछे है। किसी प्रकार के उपयुक्त शब्दों का मितव्ययता से प्रयोग करना कोई उससे सीखे। गागर में सागर भर देती थी वह। उसकी तार्किक बुद्धि की कोई मिसाल नहीं थी। बातों-बातों में पता नहीं, कब अनीता और अभिनव अपने दिल के किसी खाली कोने को भरने के लिए एक–दूसरे को समर्पित हो गए।

मज़ाक-मज़ाक में अनीता ने चैटिंग में एक बार उससे पूछा: “अभिनव, सही-सही बताना, तुम्हारे जीवन में अब तक कितनी औरतें आई हैं?”

इस सवाल का वह क्या उत्तर देता ! उसने लिखा, “मेरे जीवन में अभी तक तो कोई नहीं आया है। वैसे भी मैं शादीशुदा आदमी हूँ। दो बच्चे है और खुशहाल जिंदगी जी रहा हूँ।”

मगर अनीता ने कैसे भाँप लिया कि उसकी जिंदगी खुशहाल नहीं है। कहीं न कहीं उसे निसंगता महसूस हो रही है।

“अगर ऐसा है तो फिर मेरे से बात क्यों कर रहे हो?”

उसके बाद तो तरह- तरह के ऊटपटाँग सवालों का प्रश्न करते और उत्तर देते दोनों को बात करने का नशा-सा हो गया। निर्धारित समय पर अपने टेबल पर आकर फेसबुक खोलकर एक दूसरे का फेस देखना शुरू करते थे। जब एक दूसरे को वे वहाँ नहीं देखते तो दोनों ही बहुत बेचैन हो जाते थे।

“ क्या हुआ, इतना लेट हो गई? अभी तक फेसबुक नहीं खोला।”

“बस, ऐसे ही सर में हल्का दर्द हो रहा था। बच्चे और वे भी पास में थे। ”

अभिनव के पास कहने को कुछ नहीं होता था। कभी वह पूछती, ” नेट पर हिन्दी में कैसे काम करते हो? ज्यादा काम करने से तुम्हारी तबीयत खराब हो जाएगी। अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकती हूँ।”

“क्या?”

“ मैं तुम्हारे रफ-ड्राफ्ट के एडिट करने का काम कर सकती हूँ। और वैसे भी मैंने पत्रकारिता तथा हिन्दी में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की है।”

“अंधे को और क्या चाहिए सिर्फ दो आँखें। अगर तुम मेरा यह काम कर सकती हो तो मुझे फिर पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ेगा।”

“तुम्हारी पत्नी को तो कोई आपत्ति नहीं होगी?”

“बिलकुल नहीं, हम कोई गलत काम थोड़ा ही कर रहे है। ”

इस तरह दोनों ने अपनी - अपनी कहानियों एवं कविताओं के ब्लॉग बनाकर साहित्य लिखने का काम प्रारम्भ किया।

देखते-देखते दोनों के संबंध इतने प्रगाढ़ हो गए कि फेसबुक और जी-मेल के पासवर्ड दोनों के एक दूसरे के पास थे। जब जी चाहता उन्हें खोलकर एक–दूसरे के काम को पूरा कर देते। यहाँ तक कभी-कभी एक दूसरे के दोस्तों को टटोलने के लिए हल्की फुलकी चैटिंग भी कर लेते। अनीता के फेसबुक से जब अभिनव उसके किसी दोस्त से बात करता तो उसे खूब मजा आता। लड़की समझकर वे लोग क्या- क्या बात नहीं कर लेते ! पहली बार अनुभव को लगा कि आदमी का हृदय कितना रहस्यमयी है। कितने तिलस्म छुपे हुए होते है इसके अंदर। वे दोनों अपने जीवन में एक नएपन का अनुभव करते। जीवन जीने में कुछ आनंद भी आने लगा। बढ़ते-बढ़ते विश्वास व नज़दीकियाँ इतनी बढ़ी कि एक-दूसरे के सुख दुख उन्हें अपने लगने लगे। एक जरा-सा भी बीमार होता तो दूसरे को पहले से ही उसका आभास होने लगता था। प्रेम के जिगीषा-जाल में ऐसे फंसे कि अपने- अपने घरों के त्योहार-पर्व, पूजा-पाठ, जन्मदिन के आयोजन के फोटो एक –दूसरे को भेजकर त्वरित प्रतिक्रिया लेने में अपार खुशी होती थी।

अनीता ने एक बार अपने मन की इच्छा प्रकट की, ” भले ही, हम इस जन्म में मिलें या न मिलें, मगर एक दूसरे की सुख-दुख की बातें शेयर कर अच्छे से जीवन जीने का ढंग तो कम से कम हम लोगों ने सीख लिया।”

कितनी मासूमियत और सहजता झलकती थी अनीता के सवालों में। कहीं न कहीं वह भी भीतर ही भीतर अपने को अधूरा समझती थी। कुछ खालीपन तो जरूर था, नहीं तो ऐसी बातें क्यों लिखती? अभिनव जानते हुए भी अनजान बनने की कोशिश करता था। वह अच्छी तरह जानता था कि यह क्षणिक खुशी उन दोनों के भरेपूरे घर में आग लगा देगी और उन्हें तिल-तिलकर मरने के लिए छोड़ देगी। उसे इस बात का अच्छी तरह एहसास हो चुका था, इस बार भगवान ने उसके जीवन में उस भोले जीव को भेजा है, जिसे वह न तो कभी भुला पाएगा और न ही अंगीकार कर पाएगा। अनीता के जीवन की दुखभरी गाथा ने उसे भीतर तक हिला दिया था। उसके संघर्षों की कहानी सुनकर एक मंझे कहानीकार की तरह उसे कई कथांनक नजर आने लगे।

मौका पाकर एक दिन अभिनव ने कहा, “अगर तुम अपने जीवन के इन अनुभवों को कथानक समझकर अगर नई- नई कहानियों की रचना करती हो तो तुम्हारी ये कहानियाँ आधुनिक समाज के लिए प्रेरणा-स्रोत का काम करेगी॰”

अनीता ने कोई उत्तर नहीं दिया। मगर उस बात को ध्यान में रखते हुए अपने जीवन की सारी सच्चाइयों को बिना किसी लाग लगाव के बिना कोई बिम्ब बनाए अपने ब्लॉग में प्रस्तुत करना प्रारम्भ किया, जिसने पाठकों के एक विशिष्ट बुद्धिजीवी वर्ग को अपनी तरफ आकर्षित किया। उसकी कहानियों में प्रेम, वासना, जीवन की भूलें, दलित व नारी-विमर्श के अतिरिक्त मानव-मन के सुषुप्त पहलुओं को उजागर करने की अनोखी क्षमता थी। मगर पाठकों का एक अन्य वर्ग उसके बेबाकी से लिखने तथा फेसबुक के प्रोफ़ाइल पर बने आकर्षक फोटो को देखकर कभी- कभी ओछी एवं संकीर्ण प्रतिक्रिया देकर उसके मन को ठेस पहुँचाने का भी प्रयास करते। उसका दिल हतोत्साहित देख अभिनव उससे कहता था,

” इन लोगों की प्रतिक्रियाओं पर ध्यान दिए बगैर तुम अगर इसी तरह मेहनत करती रही तो एक न एक दिन जरूर तुम्हें अपनी मंजिल मिल जाएगी और दुनिया तुम्हें एक अच्छी लेखिका के रूप में जानने लगेगी।“

अनीता फिर अनुत्तरित मानो चुप रहना उसकी आदतों में शुमार हो गया हो। उसे याद हो आया कि उसने जीवन भर लोगों की निस्वार्थ भाव से सेवा की है, चाहे वह उसका राजनैतिक अथवा सामाजिक कार्यकर्ता का केरियर क्यों न रहा हो। मगर बदले में समाज ने उसे क्या दिया, उल्टा उसे नोचने-खसूटने पर उतारू हो गए। जिन्हें वह अपना सच्चा हमदर्द समझती थी, वे सारे तो उसके सुंदर शरीर के भूखे थे। अपनी शालीनता को बचाते हुए वह अपने मुकाम को पाना चाहती थी। मगर आधुनिक युग में क्या यह संभव था? द्वापर के द्रौपदी के चीर-हरण की कहानी उसे याद हो आई। उसने जल्दी ही राजनीति से संन्यास लेकर अपने छोटे परिवार के साथ मिलकर एक साधारण जीवन जीने की इच्छा व्यक्त की। एक बार अनीता ने अपने दुख को ई-मेल द्वारा बताया था,

” अभिनव, जब से मैं म्युंसिपालिटी के चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव हारी, तब से न केवल आर्थिक संकट से गुजर रही हूँ वरन कई पारिवारिक समस्यों को भी झेल रही हूँ यहाँ तक कि मुझे मेरे पति का भी भरपूर सहयोग प्राप्त नहीं हो रहा है।”

अभिनव समझ गया था कि वह कुछ और कहना चाहती थी मगर दिल में घुमड़ते दर्द की वजह से हो न हो उसकी आँखों में पानी भर आया हो और अपनी उस संवेदना को अभिव्यक्त करने के लिए उसके पास कोई शब्द नहीं है।

ढाढस बंधाते हुए अभिनव ने लिखा, ” अगर इतनी जल्दी तुम हिम्मत हार जाओगी तो काँटों से भरा अपना जीवन कैसे पार कर सकोगी? मैं तो तुम्हें हिम्मतवाला समझता था मगर तुम तो कमजोर व डरपोक निकली।”

अनीता क्या चुप रहती और तुरंत ही उसने लिखा, ” डरपोक मैं नहीं हूँ, डरपोक तो तुम हो। जो अभी तक अपने दोस्त को मिलने नहीं आ सके। तुम्हें डर लगता है। अगर तुम कहो तो मैं तुम्हें मिलने के लिए कहीं भी आ सकती हूँ। इतनी हिम्मत है मेरे में। एक बार आजमा कर तो देख लो। मैं अपनी समस्याओं का मुक़ाबला खुद कर सकती हूँ। उसमें मुझे तुम्हारे किसी भी सहयोग की कोई जरूरत नहीं है।”

वह अभिनव के परिवार के बारे में अच्छी तरह जानती थी। अपनी झूठी सामाजिक मान-मर्यादा, प्रतिष्ठा और लोक-दिखावे के आगे उसका प्रेम सही मायने में तुच्छ लगने लगा था। वह हमेशा अपने बीवी और बच्चों में उलझा रहता था। कहीं उन्हें अगर उसके गुप्त संसार के बारे में पता चल गया तो उसका जमा जमाया बसेरा हमेशा के लिए बर्बाद हो जाएगा। कहीं यह भी हो सकता है कि उसकी पत्नी क्रोध में आकर उसके ऊपर गरम पानी या तेजाब या केरोसिन डालकर उसे जला सकती है। कभी- कभी उसे इस बात की भी आशंका सताने लगती है कि वह उसके बच्चों को जहर खिलाकर खुद आत्म-हत्या न कर ले। अनीता उसके इन विचारों से भलीभांति अवगत थी क्योंकि वह पहले ही इस बारे में बता चुका था। मगर उसका अवसादग्रस्त चेहरा देख उसे अच्छा नही लगता था, वह उसे हँसाने के लिए कहती थी

“तुम क्या सोच रहे हो, मैं अपना भरापूरा परिवार छोडकर तुम्हारे गले पड़ जाऊँगी। अगर मुझे किसी के गले लटकना ही होता तो मेरे लिए दुनिया की कोई कमी नहीं है। मगर जो हमदर्दी, सहानुभूति और जीवन जीने के सही दृष्टिकोण का अहसास तुमसे मुझे मिला है, बस वही मेरे लिए बेशकीमती है। तुम हमेशा सपरिवार खुश रहो, मैं तो यही चाहती हूँ।”

शुरू –शुरू में बहुत कुछ बातें अभिनव अपनी पत्नी से शेयर करता था, उस समय उसकी पत्नी की प्रतिक्रिया न तो सकारात्मक होती थी और न ही नकारात्मक। चुटकी लेते हुए एक बात अवश्य कहती थी, ”मैं नहीं समझ पाती हूँ कि तुम्हारी औरतें ही क्यों दोस्त होती हैं? क्या आदमियों की दुनिया में कोई कमी है?”

इस बात का वह क्या जवाब देता, केवल इतना ही कहता, ” क्या तुम नहीं जानती हो, तुम खुद भी तो एक औरत हो और यह भी सही है कि औरत मर्दों के मुकाबले ज्यादा साहित्यिक और अनुशासित होती है।“ इस प्रकार हंसी-मज़ाक में कहते हुए वह बात को इधर –उधर घुमा देता था।

उसे वह कैसे अपनी गुप्त दुनिया के बारे में बता पाता। अगर बताने का साहस भी करता तो क्या होता? उल्टा अनर्थ होने की जायदा संभावना थी। वह नहीं जानती थी कि कोई संवेदनशील आदमी कैसे अनीता की प्रत्यक्ष वेदना को अपने भीतर अनुभूत कर नजर अंदाज कर देता। एक बार उसे बहुत बड़ा झटका तब लगा जब उसने अपनी एक किताब में अनीता को साहित्यिक जगत में लाने के लिए प्रोत्साहनवर्धक समर्पण उसके और अपने एक मित्र के नाम लिखा। उस किताब को पढ़कर अभिनव की पत्नी की टिप्पणी थी, “ बेशरम, दो बच्चों के बाप होकर इस तरह का घिनौना काम करते हो!” वह नहीं समझ पाया कि ऐसा उसने क्या घिनौना काम कर दिया। क्या किसी औरत को दोस्त बनाने के पीछे निजी स्वार्थ के इलावा और कोई मायने नहीं हो सकते?। वह तो उसकी भावनाओं कों समझने की कभी कोई कोशिश नहीं करती थी। उसे तो अनीता में उसकी सौत नजर आने लगी। ईर्ष्या-वश जल भूनकर कुढ़ने लगी थी। उसे देखना तो दूर की बात उसका नाम सुनना भी उसे पसंद नही था।

जबकि अनीता के दिल में ऐसी कोई बात नहीं थी। वह सहृदया थी। अपने माँ-बाप, बच्चों, परिवार, परिजनों और दोस्तों को लेकर काफी संवेदनशील थी। यहाँ तक अभिनव तो उसके लिए पराया था, मगर उसके अच्छे स्वास्थ्य और तरक्की के लिए भी भगवान से पूजा-अर्चना और व्रत रखती थी। इतनी ज्यादा प्रेम की प्रगाढ़ अभिव्यक्ति पाकर मन ही मन अनुभव कभी - कभी उसे मनोरोगी भी समझने लगता था। जब उसके स्वयं के घर वाले इतना नहीं करते है तो वह कौन होती है? यह पागलपन नहीं तो और क्या है कि किसी अनजान अज्ञेय आदमी के प्रति इतना लगाव, इतनी आत्मीयता?

जब कभी अभिनव इस बात की उसे उलाहना देता तो वह सरल लहजे में कहती थी, ”तुम आदमी लोग किसी औरत की भावनाओं को कैसे समझ सकते हो? मीरा के लिए तो कृष्ण भी तो अज्ञेय थे, क्या शास्त्रों में उसके प्रेम का उल्लेख नहीं आता?। मगर तुम्हारे मन में यही भावना होगी कि मेरी इस आत्मीयता के पीछे जरूर कोई राज है। भले वह शारीरिक भोग क्यों न हो या मानसिक संतुष्टि या फिर कोई वित्तीय लाभ। मैं तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ, मेरे मन में इस प्रकार का कोई स्वार्थ नहीं रम रहा है। जब मैं मर जाऊँगी तब तुम्हें मेरे सच्चे प्यार का भान होगा।”

इस तरह की भावुक बातें कर वह सुबकने लगती कि अभिनव की आँखों में भी आँसू आ जाते थे। एक बार जब उसने अपनी एक कविता “मैं तो राधा बन गयी मगर तुम नहीं बन पाये श्याम” उसके फेसबुक के होमपेज पर पेस्ट की तो अभिनव ज़ोर-ज़ोर से रो पड़ा। अपने यथार्थ को स्वीकार करते हुए वह यह बात मानने पर आमादा हो गया कि प्रेम की अनुभूतियों के भी अनेक रंग होते हैं। कुछ समय के लिए मन ही मन वह उसे समझने का प्रयास करता। मगर जैसे ही उसका ध्यान अपने पारिवारिक जीवन, बंधन और सामाजिक मान-मर्यादा की तरफ जाता तो उसके पैर स्वतः पीछे चलने लगते। रह-रहकर खतरनाक-खतरनाक आशंकाए उसके इर्द-गिर्द मंडराने लगती।

कभी सपने में अपने आप को पंखे से रस्सी द्वारा लटका हुआ पाता। कभी उसे लगता कि पुलिस पकड़कर जेल में बंदी बनाकर उसे प्रताड़ित कर रही है। कभी लगता कि वह किसी बड़े अस्तपताल में भर्ती है, सीने में ज़ोरों से दर्द हो रहा है, कभी भी उसका हार्ट-फेल हो सकता है और वह इस दुनिया से हमेशा- हमेशा के लिए विदा हो सकता है।

इस प्रकार की मानसिक अवस्था में उसे न खाना-पीना अच्छा लगता और ना ही कोई अच्छे कपड़े पहनना। बाल-दाढ़ी रंगना तो दूर की बात कटाने की भी इच्छा नहीं होती थी। कभी अपने को नागार्जुन समझकर एक दार्शनिक की तरह अपनी सीमित वैचारिक दुनिया में अपने सुख-दुख, व्यथा, इच्छा-अनिच्छा, अनुभूतियों और संवेदनाओं को पोसते हुए तरह-तरह की कहानियों और कविताओं की कुछ पंक्तियों की रचना कर फेसबुक पर डालकर लोगों की प्रतिक्रियाओं का इंतजार करता। सोचता कौन उसके दिल की थाह को जल्दी जान पाएगा। कभी- कभी वह अपने ख्यालातों से भी इतना डरा हुआ रहता कि अपने नाम से रचनाएँ प्रकाशित न करवाकर दूसरों के नाम से फर्जी ई-मेल या फेसबुक के माध्यम से करता था। गजानन माधव मुक्तिबोध की तरह अंधेरे और आशंका के द्वीप का अपने आप को निर्वासित राजा समझता।

अनेक दहशत भरी कल्पनाओं में खोया हुआ अपने जीवन के हर दिन को अंतिम दिन समझ कर गुमसुम और उदास रहता था। उसे ऐसा लगता था वह एक ऐसा मल्लाह है जो दो नावों पर एक साथ सवारी कर रहा है। कभी उसकी पत्नी मरने की धमकी देती तो कभी अनीता उसके बिना जीवन त्यागने की। ‘एक फूल–दो माली’ वाली उक्ति तो उसने सुनी थी मगर इस समय मानो वह ‘दो फूल–एक माली’, वाली उक्ति का वह आविष्कार कर रहा हो। वह नहीं समझ पाया कि वह प्रेम के किस मायाजाल अथवा त्रिकोण में बुरी तरह फंस गया है कि उसका जिंदा निकल पाना शायद नामुमकिन है। उसे लगने लगा था कि वह मौत के काफी करीब है। किसी ने उसके दिमाग में चाबी भरकर एक टाइम-बंब फिट कर दिया, उसकी घड़ी टिक-टिक कर चल रही है। जब कोई जैसे ही उसके रिमोट का ट्रिगर दबा देगा, उसका मस्तिष्क चिथड़े-चिथड़े होकर ज्वालामुखी के परित्यक्त लावे की तरह इधर उधर बिखर जाएगा और उसकी अशांत आत्मा हमेशा-हमेशा के लिए शांत हो जाएगी।