दो बहनों की कहानी / दीपक श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो दो बहनें थीं। बड़ी बहन और छोटी बहन। बड़ी बहन, छोटी से बड़ी थी और छोटी, बड़ी से छोटी। बड़ी बहुत बड़ी नहीं थी और छोटी बहुत छोटी नहीं थी। मोहल्ले की जिस गली में मैं रहता था, वह दोनों भी अपने मम्मी पापा के साथ वहीं रहती थीं।

उनके पापा किसी प्राइवेट इंजीनियरिंग कंपनी में सेल्स या सर्विस का काम करते थे। आमदनी कुछ खास नहीं थी। आम आदमी की तरह थे। थके हुए, कृशकाय। दाढ़ी अधिकांश खिचड़ी ही रहती थी। कपड़े शरीर पर झूलते रहते थे। कम ही बोलते थे और जल्दी-जल्दी बोलते थे। शायद, अपनी बात तुरंत समाप्त कर लेना चाहते थे। उनकी आँखों में एक नमी सी बनी रहती थी। उन्हें देखकर एक बूढ़े आदमी का भी एहसास होता था। हालाँकि, इतनी उमर उनकी नहीं थी। मुझे देखते ही नमस्ते करते थे। वैसे, गली में दिखते बहुत कम थे। बाद में उन्हें एक गंभीर बीमारी हो गई। खैर, यह बाद की बात है।

बड़ी और छोटी की मम्मी अपेक्षाकृत अच्छे कपड़ों में रहती थीं। उनका विवाह कम उम्र में ही हो गया था। उनके पति व उनके उम्र में काफी अंतर था। वह स्वस्थ थीं और सुंदर दिखती थीं। मेरे मकान मालिक गुप्ता की पत्नी अर्थात गुप्ताइन के अनुसार अपने बहनोई से फँसी थी, जो किसी सरकारी विभाग में जेई था और अपनी सेकेंड हैंड मारुति में कभी-कभी आता था। गुप्ताइन का स्पष्ट विचार था कि जवाहरलाल की बीबी छिनार है। हाँ, मैं यह बताना भूल गया कि छोटी-बड़ी के पापा का नाम जवाहरलाल था।

जवाहर के माता पिता ने शायद बड़े शौक से भारत के पहले प्रधानमंत्री के नाम पर अपने लाल का नाम रखा था। उनके शेष खानदान के बारे में विशेष जानकारी गली वालों को नहीं थी। जवाहरलाल के दो या तीन भाई थे और कुछ बहनें थीं लेकिन वह लोग कभी दिखाई नहीं दिए। पड़ोस के जिले में के गाँव में उनका पुस्तैनी मकान था। कुछ खेती-बारी भी थी। जवाहरलाल नें बीसों साल गाँव की तरफ रुख नहीं किया था और जब एक बार गए तो भाइयों ने और उनसे बढ़कर भतीजों ने एक टूक एलान कर दिया कि अब आपका यहाँ कुछ नहीं हैं।

छोटी-बड़ी और उनके मम्मी पापा को गाँव से कोई विशेष लगाव नहीं था। इसलिए गाँव से नाता तोड़ने में उन्हें कोई मानसिक प्रयास नहीं करना पड़ा। वो अपने को शहर में ही रहने लायक मानते थे। चाहे ऐसे शहर, जहाँ की नालियाँ बजबजाती हों और जिनकी सड़कों पर गंदगी की वजह से चलना दूभर हो। शहर के ऐसे भागों को ही वहाँ के बाशिंदे 'कालोनी' कहते है।

हमारी गली को भी कालोनी होने का गर्व प्राप्त था। यह शहर के बाहर दक्षिण दिशा में, मुख्य मार्ग से निकलती हुई एक सड़क से मिली थी। आजादी के बाद शहर में रिफ्यूजी जब आए, तब यहीं बसे थे। जिनमें अधिकांश सिंधी थे। आर्थिक स्थिति सुधरने के बाद उन्होंने अपने रिहायशी मकानों को पक्के मकानों बदल दिया। वह बने बेढब ही थे। आज की तारीख में वहाँ के मूल मालिक शहर की अच्छी कालोनियों में रहते है। यहाँ के मकान या तो उन्होंने बेच दिए या किराए पर उठा दिया।

किराएदारों में निम्न वर्ग के लोग ही मुख्यतः हैं। कुछ प्राइवेट कंपनियों में काम करते हैं, कुछ चाट या मूँगफली का ठेला लगाते हैं या फिर छोटी-माटी दलाली का काम करते हैं। यहाँ अधिकांश किराएदार एक ही कमरे में सपरिवार रहते हैं और एक ही संडास कई किराएदार के बीच प्रयोग होता है।

मेरा इस मुहल्ले और मकान में आना एक संयोग ही था। मेरे मकान मालिक गुप्ताजी के एक रिश्तेदार जो खुद भी गुप्ताजी थे। उनकी दुकान मेरी पाठशाला के पास ही थी। मैं एक सरकारी प्राइमरी पाठशाला में अध्यापक हूँ। शहर से मेरा स्कूल करीब पंद्रह किलोमीटर दूर एक कस्बेनुमा जगह था। मुझे अपने परिवार, जिसमें पत्नी व पाँच साल की बच्ची थी, को अपने पास लाना पड़ा तो मुझे शहर में एक अदद मकान की जरूरत पड़ी। मैने अपने स्कूल व आसपास चर्चा की, तब गाँव वाले गुप्ता जी ने शहर वाले गुप्ता जी का पता बताया। जो उनके साले के साढ़ू या उसी किस्म के थे।

यह मकान मुझे दो वजह से पसंद आया। एक, यह मकान मेरे स्कूल व शहर के रास्ते में था। मुख्य सड़क पर आते ही मुझे जीप मिल जाती थी, जो गंतव्य तक पहुँचाती थी। दूसरे, इसका किराया केवल छः सौ रुपए था। जिस हिस्से में हम रहते थे, उसमें संडास भी अलग था और दो छोटे-छोटे कमरे थे, मेरी छोटी आमदनी की ही तरह।

गुप्ताजी ने बड़े एहसानात के साथ यह मकान इस राशि में मुझे किराए पर दिया था। क्योंकि, शहर के बाहर, नई बस रही कालोनियों में दो कमरे का मकान हजार रुपए से कम में नहीं था। हालाँकि, उन मकानों का परिवेश बेहतर था।

मेरी गुप्ताजी से पहली मुलाकात में उन्होंने मेरे रोजगार के बारे में पूछा। मेरे अपने अध्यापक होने के बारे में बताने पर उनकी पहली प्रतिक्रिया थी कि 'अच्छा बुद्धिजीवी हैं।'

बुद्धिजीवी शब्द उन्हें बहुत प्रिय था। वह अपने को बुद्धिजीवी में ही गिनते थे। उन्हें सामाजिक व राजनैतिक बहस करना अच्छा लगता था। पाकिस्तान व मुसलमान उनके दो प्रिय विषय थे। उन्हें, जितना गाली दे सकते थे, देते थे। वह गुलगुलाकर बोलते थे। क्योंकि, उनके मुँह में हमेशा पान रहता था, और जब पान नहीं रहता था, तो पान मसाले के पाउच मुँह में झोकते जाते थे।

गुप्ताजी के किराए के रिक्शे चलते थे। मुख्य सड़क पर उनकी दुकान थी। जहाँ से रिक्शे वाले रिक्शे ले जाते थे। अल्लसुबह, उनकी दुकान खुल जाती थी और देर रात बंद होती थी। दुकान पर एक मैनेजर किस्म का आदमी रहता था, जो सारा काम देखता था। गुप्ताजी सूद पर पैसा भी चलाते थे। आसपास के काफी लोग उनके ग्राहक थे। गुप्ताजी की कमाई अच्छी थी क्योंकि वह पैसों का रोना कभी नहीं रोते थे।

उनकी कई महत्वाकाक्षाएँ थीं। वह गली के तिराहे पर रहमान नाई के बगल वाली किनारे की जमीन पर मंदिर बनवाना चाहते थे। वहाँ अभी कीचड़ और गंदगी भरी पड़ी थी। वह जमीन भी मुश्किल से बीस वर्ग फीट थी। मैं वहाँ एक मंदिर की कल्पना, कभी भी नहीं कर सकता था। लेकिन, गुप्ता जी के दिमाग में, मंदिर का पूरा ब्लू प्रिंट तैयार था। हालाँकि, इसकी चर्चा उन्होंने मेरे अलावा किसी से भी नहीं की थी।

पूरे मोहल्ले में केवल, वह मुझसे बुद्धिजीवी होने के नाते बात करते थे। मेरे एतराज करने पर कि प्राइमरी का अध्यापक श्रमजीवी होता हैं, न कि, बुद्धिजीवी, तो वह मुँह खोलकर ठठा कर हँसते थे।

शुरूआती मुलाकातों में मैं उन्हें गावदी और बेवकूफ समझता था। बाद में मुझे अपने विचार बदलने पड़े। वह, एक चतुर सुजान व्यक्ति थे और हर विषय पर अपनी समझदारी से सोचते थे। राजनैतिक रूप से वो दीक्षित होना चाहते थे तथा एक राष्ट्रवादी पार्टी के सदस्य भी थे। उनकी राजनैतिक महत्वाकाक्षाएँ थीं। समय आने पर सभासद होते हुए विधायक का इलेक्शन भी लड़ने की उनकी योजना थी।

गुप्ता की पत्नी अर्थात गुप्ताइन मेरी पत्नी की मित्र बन गईं। गुप्ताइन को देखकर मुझे दया आती थी। किसी नारी से प्रकृति इस तरह सौंदर्यबोध छीन सकती है, उन्हें देखकर ही यह यकीन आ सकता था। वह हमेशा गाउन पहने रहती थी। वह क्या, उस कालोनी में अधिकांश महिलाए गाउन ही पहनती थी। मुझे कभी-कभी लगता था कि इस देश की महिलाओं के राष्ट्रीय पोशाक गाउन है। गुप्ताइन के गाउन की बात ही कुछ अलग थी। खरीदते समय उसका रंग कुछ भी रहा हो, बाद में, उसका एक स्थायी रंग हो जाता था। नाभि प्रदेश के नीचे और पृष्ठ प्रदेश में वह काले रंग जैसा रहता था। यह, उनके बार-बार हाथ पोंछने से और कहीं बैठ जाने की वजह से था। महिलाओं के दो गोपनीय स्थलों पर, ऐसी फूहड़ कलाकृति मैने कहीं नहीं देखी थी।

गाउन और उनका ऐसा साथ था कि एक बार सिन्हा जी के लड़के के प्रीतिभोज में उनके लाल रंग की साड़ी पहन लेने पर, मैं उन्हें पहचान ही नहीं पाया।

गुप्ताइन बात करने में सरल लगती थी। मकान मालिक होने का बोध उन्हें जबरदस्त था। वह केवल मकान मालिक स्तर के लोगों से ही बात करती थीं। हाँ, हम उसमें अपवाद थे। उनके लिहाज से, किराएदार दोयम दर्जे के लोग होते थे। जिनसे ज्यादा रब्त-जब्त करना उनके हिसाब से ठीक नहीं था। धर्म-कर्म में बहुत विश्वास रखती थीं। नहाती रोज थीं। बिना नहाए पानी नहीं पीती थी।

उनका गोपनीय सूचनाओं का नेटवर्क जबरदस्त था। क्योंकि, पति के सूद के काम में सहयोगी थीं, जिस वजह से मुहल्ले की औरतें उनसे वक्त जरूरत पैसा माँगकर ले जाती थीं और साथ में सूचनाएँ भी दी जाती थीं। उन्हीं से, मेरी पत्नी को ओेर फिर मुझे पता लगा कि जवाहरलाल को गले का कैंसर है, जो कि अपने आखिरी स्टेज पर है औैर अब जवाहरलाल ज्यादा दिन के मेहमान नहीं हैं। हमारे यहाँ पहले छोटी ने ही आना शुरु किया। वह आती थी और मेरी लड़की के साथ खेलती थी। फिर उसकी मम्मी कभी-कभार आने लगीं। हम उनके सजातीय थे, यह बात काफी गर्व से कहती थीं। ऊँची जाति होने का गर्व उन्हें बहुत था, जिसका जिक्र वह बार-बार करती थी। अपने साथ, हम लोगों को भी अपनी जातीय दंभ में घसीटती थी।

उन्हें इस बात की बड़ी कोफ्त थी कि उन्हें इस गली और इस मुहल्ले में रहना पड़ता है। उनकी बातचीत की किसी चर्चा में मैने जवाहरलाल का नाम, कभी नहीं सुना। मेरी पत्नी से वो टीवी सिरीयल्स की चर्चा करती थीं। आश्चर्य का विषय थी कि इतनी विपन्नता के बावजूद उनके यहाँ केबल कनेक्शन था। मेरी पत्नी टीवी सीरियल कभी नहीं देख पाती थीं लेकिन उनकी बात पर हाँ-हूँ कर देती थी।

अपनी बेटियों की वो काफी तारीफ करती थी। उनकी बातों से मुझे पता चला कि उनके घर का सारा प्रबंधन, उनकी बड़ी बेटी ही देखती है। सरकारी नारों की तरह कभी-कभी, वो कहती थीं कि लड़कियाँ लड़कों से अच्छी होतीं हैं। बाद में उनका परिवार विवादों के केंद्र में आ गया तो उन्होंने आना कम कर दिया। खैर, यह बाद की बात हैं।

छोटी के साथ-साथ कभी बड़ी भी आ जाती थी। दोनो बहने बहुत सुंदर तो नहीं कहीं जा सकती थी। अपनी माँ की तरह उनका रंग गोरा था। शायद, कैल्शियम की कमी की वजह से, उन दोनों का शारीरिक विकास सर्वागीड़ नहीं हो पाया था। अल्प पोषण की वजह से उनके शरीर में मात्रात्मक कमी थी। लेकिन, वो सजी-सँवरी रहती थीं। उनके कपड़े अच्छे रहते थे।

बड़ी जब भी मेरे घर आती थी। मुझे कभी नमस्ते नहीं करती थी। उसके देखने में एक ठंडापन था। कभी-कभी, मुझे ऐसा महसूस होता था कि वह मुझे एक पुरुष के नजरिए से देखती है। उसकी आँखों में खालीपन रहता था। जहाँ कुछ पढ़ा नहीं जा सकता था। तिरस्कार का भाव भी रहता था। वह मेरी पत्नी से घुलमिल कर बात करती थी। उससे क्रोशिया के नमूने बनवाती थी। मेरी पत्नी की शादी के पहले वाली डायरी से व्यंजन विधियाँ तथा गाने नोट करती थी। आश्चर्य का विषय था कि उसने कभी मुझसे न कोई बातचीत की, न ही कभी मुझे किसी संबोधन से संबोधित किया था।

एक बार जब वह झुक कर, कुछ काम कर रही थी। जिससे उसका वक्षस्थल अनावृत हो गया था। मैं सामने बैठा था और झाँक कर उसके स्तनों को देख रहा था। उसने एकाएक सर उठाकर, मुझे देखा। उस समय उसके चेहरे पर एक उपहास का भाव था।

उस दिन शाम को गुप्ताजी से बातचीत के दौरान मैने युवाओं के गिरते चरित्र पर, एक लंबा भाषण दिया। जिसमें शामिल होते हुए, गुप्ता जी नें, इन्हीं छोटी और बड़ी बहनों का उदाहरण दिया, जहाँ कुछ आवारा किस्म के युवक रोजाना शाम को या दिन में आते रहते थे। इस पर मुहल्ले में भी भुनभुनाहट जारी थी, लेकिन, छोटी-बड़ी और उनकी माँ पर इसकी कोई शिकन नहीं थी।

उन्हीं दिनों, जवाहरलाल की तबियत खराब होने का पता लगा। उसने काम पर जाना भी छोड़ दिया। वह धूप में बैठा रहता था, या फिर सोता रहता था। पत्नी ने मुझे बताया कि जवाहरलाल को डाक्टरों ने गले का कैसर बताया है और वह अब कुछ खा भी नहीं पाता। मेरी पत्नी भावुक थी और कुछ आर्थिक सहायता करना चाहती थी। जिसे मैंने स्पष्ट रूप से मना कर दिया। गुप्ता जी ने भी पैसे देने से इनकार कर दिया। जवाहरलाल की तबियत सुधरने वाली नहीं थी और उसके बाद पैसे की निकासी की कोई ठोस प्रबंध नहीं था।

उन दिनों, उनके यहाँ बाहरी आमद काफी बढ़ गई थी। पहले तो मोटर साइकिलें ही आती थी। अब कारें भी उनके घर के आगे खड़ी होने लगी। मुहल्ले वालों से उस परिवार के संबंध बिलकुल समाप्त से हो गए थे। गुप्ताजी ने बताया कि उनके यहाँ आने वाले, अपराध जगत से भी संबंध रखते हैं। उनके यहाँ अपनी पत्नी के आने-जाने पर मैने पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन, वह कभी-कभी हालचाल के लिए उनके यहाँ जाती थी। पत्नी ने मुझे बताया था कि जवाहरलाल के इलाज के लिए डाक्टर ने दो लाख का खर्च बताया है।

मैने अपनी पत्नी को संसार भर के दुखों का हवाला दिया और संतो की वाणी में समझाया कि अपने दुख दूर करना ही हर इंसान का परम कर्तव्य है। कहाँ तक हम ईश्वर के बनाए इस चक्र को तोड़ सकते हैं। मेरी पत्नी जवाहरलाल के परिवार के लिए दुखी रहती थी। मेरे चोरी-चुपके जो भी कर सकती थी, करती थीं।

समय अपनी गति से चलता रहा। जवाहरलाल के स्वास्थ्य में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ। दवाइयों के भरोसे वह चल रहे थे। बोलते तो पहले भी नहीं थे। अब उनकी पूरी बोलती बंद हो गई थी।

बड़ी और छोटी बदस्तूर मोटर साइकिलों और गाड़ियो पर आती-जाती रहती थीं। मुहल्ले वालों ने उनसे हर तरह का नाता तोड़ लिया था। मेरी पत्नी तमाम प्रतिबंधों के बावजूद उस परिवार से अपने संपर्क बनाए थी।

उसी ने मुझे एक रात बताया कि छोटी तीन दिन से गायब है, उसके परिवार वाले उसे ढूँढ़ रहे हैं। मैने अपना मत दिया कि 'किसी यार के साथ भाग गई होगी।'

छोटी भागी नहीं थी। क्योंकि अगले दिन उसकी लाश नदी के किनारे माँझा क्षेत्र में मिली। राष्ट्रीय समाचार पत्र के स्थानीय पृष्ठ पर उसकी खबर अगले दिन निकली। संवाददाता ने बड़ी मेहनत से खबर, मसालेदार और चटखारेदार बनाई थी। उसमें उसने हमारी कालोनी का नाम भी दिया था और हेडिंग लगाई थीं, 'संदिग्ध हालात में युवती की लाश मिली।' हालाँकि, छोटी की कल्पना मैं कभी भी युवती के रूप में नहीं कर पाया था।

लाश लेने के लिए बड़ी और उसकी मम्मी गईं। हम उनके घर गए। पता नहीं किसी ने जवाहरलाल को बताया या नहीं वह मुँह से गूँ-गूँ की आवाज निकाल रहे थे।

उस दिन रविवार था। मेरी पत्नी और गुप्ताइन ने मुझे और गुप्ता जी को जोर देकर थाने भेजा। हम लोग थाने गए और वहाँ से जिला अस्पताल, जहाँ पोस्टमार्टम के बाद छोटी की लाश मिलनी थी।

जिला अस्पताल में बड़ी ने, मुझे भेदती नजरों से देखा।

वहाँ बड़ी का एक दोस्त भी था। जो काफी सक्रिय था। उसी ने पैसे दे-दिला कर समस्त औपचारिकताएँ पूरी की। रात में ग्यारह बजे हमें छोटी का शरीर मिला। किसी ने कफन खोलकर चेहरा देखने की कोशिश नहीं की। बड़ी की मम्मी को रिक्शे से वापस घर भेज दिया गया। वह धीरे-धीरे रो रही थीं।

हम लोगों ने श्मशान घाट के लिए एक टैंपो लिया और छोटी को उसकी छत पर रख कर बाँध दिया। टैम्पों में हम चार लोग मैं, गुप्ता जी बड़ी और उसका दोस्त बैठे। बड़ी मेरी बगल में बैठी थी। वो पूर्णतया शांत थी। इस पूरी प्रक्रिया में मैने उसके चेहरे पर घबराहट या दुख के चिह्न नहीं देखे, आँसू तो कतई नहीं। उसकी आँखें उसी तरह तिरस्कार से भरी थीं। उसने एक पर्स ले रखा था, जैसा परिवार के मालिक शादियों में अपने हाथ में रखते हैं। बड़ी और उसके दोस्त ने श्मशान घाट पर डोम को पैसा देकर उसी से आग भी दिलवा दीया। बड़ी की आँखों में मैने आँसू देखने की एक फिर असफल कोशिश की, जब छोटी की चिता की पहली लपट ने तेजी पकड़ी। मैं और गुप्ताजी मूक दर्शक की तरह वहाँ खड़े रहे।

हम लोग रात दो बजे घर पहुँचे। मेरी पत्नी, बड़ी की मम्मी के पास ही थी। पूरा मोहल्ला रात की खामोशी में घिरा था। किसी कुत्ते के विचरने के भी निशान नहीं थे। जवाहरलाल दवा के प्रभाव में सो रहे थे। उनके घर और कोई नहीं आया था।

उसी के बीस दिन के बाद जवाहर लाल ने भी अंतिम साँसे ली। उनकी शव यात्रा में दस-पंद्रह लोग थे। कुछ रिश्तेदार भी आए थे। उनके एक भतीजे ने उन्हें इस जन्म से मुक्त किया। छुट्टी का बहाना कर मै उनकी आखिरी यात्रा में शामिल नहीं हुआ। उनके दरवाजे गया लेकिन बड़ी से रूबरू नहीं हुआ।

उन घटनाओं के बाद बड़ी के घर लोगों की आमदरफ्त समाप्त हो गई। कभी-कभी पुलिस का एक दरोगा छोटी की मौत की तफतीश में आता था। बाद में वह फाइल भी दाखिल दफतर हो गई।

एक दिन मेरी पत्नी ने बताया कि बड़ी और उसकी माँ इस शहर को छोड़ कर लखनऊ जा रही हैं। बड़ी वहाँ कोई काम करेगी। मै व्यंग्यात्मक भाव में बताना चाहता था कि बड़ी वहाँ क्या-क्या कर सकती है। लेकिन, खामोश रहा।

उनका सामान जिस दिन सुबह ट्रक पर लदा, तो बड़ी का वही दोस्त आया था, जो छोटी की क्रिया कर्म के समय था। मेरी पत्नी ने उन सबके रास्ते के लिए पूड़ी-सब्जी बना कर दिया। ट्रक में बैठते समय बड़ी की माँ की आँखों में आँसू थे। उन्होंने मुझे दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते किया। मैने भी उन्हें नमस्ते किया। उनके बाद, बड़ी भी ट्रक में बैठी। उसने मेरी पत्नी को नमस्ते किया और मेरी तरफ देखा भी नहीं। उसकी आँखों में मेरे लिए अभी भी तिरस्कार था।

मैं उस दिन जब अपने विद्यालय जा रहा था, बगल में एक युवा ग्रामीण महिला बैठी थी। यात्रा के लिहाज से यह एक अच्छा दिन था। जीप के हिचकोलो में आज सुबह बड़ी का जाना, बगल की महिला का स्पर्श, छोटी की चिता की लपटें गडमगड हो रही थीं। उसी में कभी-कभी मुझे अपनी बेटी की तस्वीर भी कौध रही थी।