दो मित्रों की कहानी / जगदीशचन्द्र जैन

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किसी गाँव में दो मित्र रहते थे। एक बार उन्हें एक बड़ा खजाना मिला। कपटी मित्र ने कहा कि आज मुहूर्त ठीक नहीं, इसलिए हम इसे कल आकर ले जाएँगे। सच्चे मित्र ने जवाब दिया, अच्छी बात है। इधर कपटी मित्र ने रात को वहाँ से खजाना निकाल लिया और उसकी जगह कोयले भर दिये।

अगले दिन सुबह दोनों खजाना लेने चले। खोदकर देखा तो कोयले निकले। कपटी मित्र ने कहा, “हमारे दुर्भाग्य से खजाने के कोयले हो गये!” दूसरा मित्र उसकी चालाकी समझ गया। उसने कहा, “क्या किया जाए, हमारा भाग्य ही ऐसा है।”

कुछ समय बाद सच्चे मित्र ने अपने कपटी मित्र की एक मूर्ति बनवायी और दो बन्दर पाले। वह प्रतिदिन मूर्ति के ऊपर बन्दरों के खाने की चीजें रख देता, और उसके ऊपर चढ़कर बन्दर सब चीजें खा जाते।

एक दिन उसने अपने मित्र के दोनों लड़कों को भोजन के लिए निमन्त्रित किया। लड़के भोजन के लिए आये तो उसने उन्हें कहीं छिपा दिया और पूछने पर कह दिया कि वे बन्दर बन गये हैं।

लड़कों का पिता उनका पता लगाने के लिए वहाँ आया तो उसने उसे उस मूर्ति की जगह बैठाकर उसके ऊपर बन्दर छोड़ दिये। बन्दर उसके साथ खेलने लगे। उसने कहा, “लो ये ही तुम्हारे लड़के हैं।”

कपटी मित्र कहने लगा, “कहीं लड़के भी बन्दर बन सकते हैं?”

उसके मित्र ने जवाब दिया, “तो फिर खजाने का कोयला कैसे बन सकता है?”